Monday, July 30, 2012

Rajinikanth-success

The true success of a person’s life is directly proportionate to his commitment to achieve what he has promised, exceed expectations and scale excellence. -P.C. Balasubramaniam (author of RAJINI’S PUNCHTANTRA:Business and Life Management the Rajinikanth Way”)

kindness

One must find the best way to behave towards others. If one learn how to behave correctly, one can manage to conquer those people one want to, whatever the position. Through kindness, one could also gain a great deal from difficult and unpleasant people.

Sunday, July 29, 2012

गालिब-ओशो, Ghalib-Osho

दीवान-ए-गालिब—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)


असदल्‍ला खां ग़ालिब:
कल हमने दिल्‍ली के ही एक सूफी फकीर सरमद की बात की थी आज भी दिल्‍ली की गलियों में जमा मस्जिद से थोड़ा अंदर की तरफ़ कुच करेंगें बल्‍लिमारन। जहां, महान सूफी शायद मिर्जा गालिब के मुशायरे में चंद देर रूकेंगे। बल्लिमारन के मोहल्‍ले की वो पेचीदा दरीरों की सी गलियाँ…सामने टाल के नुक्‍कड पर बटेरों के क़सीदे…गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह, वाह….चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कूद टाट के परदे…एक बकरी के मिमियाने की आवाज….ओर धुँधलाती हुई शाम के बेनूर अंधेर ऐसे दीवारों से मुंह जोड़कर चलते है यहां, चूड़ी वाला के कटरे की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाजे टटोलते। आज जो गली इतनी बेनुर लग रही है। जब मैं पहली बार उस घर में पहुंचा तो कुछ क्षण तो उसे अटक निहारता ही रह गया।
असल में वहां अब जूते का कारखाना था। शरीफ़ मिया ने मुझे उस घर में भेजा जहां इस सदी का महान शायद मिर्जा गालिब की हवेली थी। समय ने क्‍या से क्‍या कर दिया। खेर सरकार ने बाद में उस हवेली का दर्द सूना और आज उसे मिर्जा जी की याद में संग्रहालय बना दिया। वो बेनूर अंधेरी सी गली, आज भी बेनुर लग रही है। जिसके रोंए-रेशे में कभी काफ़ी महकती थी। अब उदास और बूढ़ी हो कर झड़ गई है। अब उन पैबंद को कौन गांठ बांधेगा। एक सिसकती सी अहा खड़ी रह गई है। एक छुपे हुए दर्द की लकीर जो छूने से पहले ही कांप जाती है। कासिम से एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है, एक पुराने सुखन का सफ़ा खुलता है, असदुल्लाह खां ग़ालिब का पता देखता और कुछ कहता सा दिखता है।
पुरानी दिल्‍ली की गलियों में कैमरा का पीछा करती हुई वह आवाज दो सौ साल बाद फिर कुछ कहती है। ये आवाज गुलजार जी की थी। जो टी वी सीरियल ग़ालिब बना रहे थे। जब ओशो ने सुना कि गालिब के जीवन को दूरदर्शन पर धाराप्रवाह दिखाया जा रहा है। और ग़ालिब को पुनरुज्जीवित करने का काम गुलज़ार साहब कर रहे है। ओशो ने इस फिल्‍म के वीडियो कैसेट मंगवा कर देखने की इच्‍छा जाहिर की। सन था 1989 दो दफा ओशो का संदेशा गुलजार के पास पहुंचा। गुलजार ने सोचा, अभी नहीं जब फिल्‍म पूरी हो जायेगी तो सारे कैसेट एक पहुंचा दिये जायेगे। तीसरी बार जो खबर आई वह यह नहीं थी कि ओशो गालिब के वीडियो देखना चाहते है। वह यह थी कि देखने वाला विदा हो चुका है। गुलजार साहब के कलेजे में आज तक कसक है—काश, मैं समय रहते ओशो को वीडियो कैसेट भेज देता।
कैसे होंगे वे मिर्जा गालिब जिनके ओशो इतने दिवाने थे। आज दो सौ साल बाद भी गालिब के शेर गली कूचों में गूंज रहे है। 27 दिसंबर 1797 को आगरा में पैदा हुए असदुल्लाह खां गालिब का कर्ज और दर्द से टूटा हुआ जिस्‍म 72 साल तक जिंदगी को ढोता रहा। इन दोनों ने उनका पीछा आखिरी दम तक नहीं छोड़ा। लेकिन उनकी हर आह अशअर बनकर उनकी क़लम से झरती रही, दुनिया को रिझाती रही।
ग़ालिब से पहले उर्दू शायरी गुल-बुलबुल और हुस्‍न-औ-इश्‍क की चिकनी-चुपड़ी बातें हुआ करती थी। उन्‍हें वे ‘’गजल की तंग गली’’ कहा करते थे। ग़ालिब के पुख्‍ता शेर उस गली से नहीं निकल सकते थे। उसकी शायरी में जिंदगी की हकीकत मस्‍ती और गहराई से उजागर होती थी। इसलिए वे जिस मुशायरे में जाते, उसे लूट लेते। भीतर काव्‍य की असाधारण प्रतिभा लेकिन पैदा हुए ग़ालिब बदकिस्‍मती अपने हाथ की लकीरों में लिखा कर लाये थे। उनके पास जो भी आया—चाहे बच्‍चे, चाहे भाई, चाहे दोस्‍त या बीबी—उनको दफ़नाने का काम ही ग़ालिब करते रहे। अपनी नायाब शायरी से लाखों लोगों को चैन और सुकून देनेवाले ग़ालिब को न सुकून कभी नसीब हुआ, न चैन। इसीलिए कभी वह तिल मिलाकर कहते है:
मेरी किस्‍मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब, कई दिये होते
कर्ज में वे गले तक डूबे हुए थे लेकिन शराब और जुए का शौक फर्मा ते रहे। अपने हालात को शेरों में ढालकर मानों वे उनके मुक्‍त हो जोत थे…
कर्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फ़ाकामस्‍ती एक दिन
कर्ज की शराब पीते थे, लेकिन समझते थे कि एक न एक दिन हमारी गरीबी अच्‍छे दिन दिखायेगी।

दिल्‍ली में घना शायराना माहौल था। उसमें ग़ालिब की शायरी पर निखार आता गया। उनकी शोहरत बुलंदियाँ छूती गई। लेकिन आफ़तें पहाड़ की तरह उन पर टूटती गई। दुनियादारी उन्‍हें कभी न आई। उन पर चढ़े 40-50 हजार रूपए का कर्ज मानो कम था इस करके एक दीवानी मुकदमे में उनके खिलाफ 5 हजार रूपये की डिग्री हो गई। अगर वह घर से बाहर निकलते तो गिरफ्तार किये जाते। सो अपने ही घर में कैद, दिन काटते हुए उन्‍होंने लिखा–
मुश्‍किल मुझ पर पड़ी इतनी कि आसा हो गई,
उन्‍होंने सारी आप बीती अपनी पुस्‍तक ‘’दस्‍तंबो’’ में दर्ज की है। जब उनका शरीर भी बीमारियों का घर होने लगा तो उन्‍होंने लिखा–
मेरे मुहिब (प्रिय मित्र),

मेरे महबूब,
तुमको मेरी खबर भी है?
पहले नातवां (परेशान) था
अब नीम जान (अधमरा) हूं,
आगे बहरा था,
अब अंधा हुआ जाता हूं।
जहां चार सतरें लिखीं,
उंगलियां टेढ़ी हो गई।
हरफ (अक्षर) सजनें से रह गए।
इकहत्‍तर बरस जिया, बहुत जिया।
अब जिंदगी बरसों की नहीं,
महीनों और दिनों की है।

ग़ालिब ने यह भविष्‍यवाणी लिखी, उसके बाद वे ज्‍यादा दिनों तक जी नहीं सके। 18 फरवरी 1869 के दिन, दोपहर ढले मिर्जा ग़ालिब इस जमीन से उठ गए; और छोड़ गए अपना वह कलाम, जो सदियों तक गाया, गुनगुना या जाएगा।
किताब की झलक:
ग़ालिब की शायरी
थी खबर गर्म कि ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गये थे, पै तमाशा न हुआ।
बाग़ मैं मुझको न ले जा, वरना मेरे हाल पर
हर गुले-तर एक चश्‍मे-खूंफिशां हो जायेगा।
( हर फूल खून के आंसू बरसाती हुई आँख हो जायेगा)
कितने शीरीं है तेरे लब, कि रकीब
गलियाँ ख़ाके बेमजा न हुआ।

(कितने रसपूर्ण है तेरे होंठ, कि गालियां खाकर भी रक़ीब को मजा ही आया। तू गालियां दे रही थी, और वह होंठों को देखता ही रहा।)
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्‍या होता
हुआ जब ग़म से यूं बेहिस (स्‍तब्‍ध) तो ग़म

क्‍या सर के कटने का?
न होता गर जुदा तन से तो जानूं (घुटने) पर धरा होता
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर इस बात पर कहना, कि यों होता तो क्‍या होता?

कुछ शेरों में ग़ालिब सूफी फ़क़ीरों जैसी बात कहते है:
इशरने कतरा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
(दरियाँ में विलीन हो जाना बूंद का ऐश्‍वर्य है, दर्द जब हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है)
मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस तरह
मैं गया वक्‍त नहीं हूं कि आ न सकूँ
गैर फिरता है लिये यों तेरे खत को कि अगर
काई पूछे ये क्‍या है, तो छि पाए न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले है तो क्‍या
हाथ आयें तो उन्‍हें हाथ लगाये न बने
मौत की राह न देखू कि बिन आए न रहे
तुमको चाहूं कि न आओ, बुलाये न बने
हमको उनसे है वफा की उम्‍मीद
जो नहीं जानते वफा क्‍या है
उभरा हुआ नकाब में है उनके एक तार
मरता हूं मैं कि ये न किसी की निगाह हो
जब मै कदा छूटा तो अब क्‍या जगह की कैद
मस्‍जिद हो, मदरसा हो, काई खान काह हो
ग़ालिब भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर( नुकसान) नहीं
दुनिया हो या रब और मेरा बादशाहों

ओशो का नज़रिया:
मिर्जा ग़ालिब उर्दू के महानतम शायर है। वे न केवल उर्दू के महानतम शायद है, संभवत: विश्‍व की किसी भी भाषा के शायर से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। उनका संग्रह ‘’दीवान’’ कहलाता है। दीवान का सीधा सा अर्थ है शेरों का संग्रह। उन्‍हें पढ़ना अत्‍यंत कठिन है, लेकिन अगर तुम थोड़ा प्रयास कर सको तो बहुत कुछ पाओगे। मानो प्रत्‍येक पंक्‍ति में पूरी किताब छुपी हो। और यही है उर्दू का सौंदर्य इतने छोटे से स्‍थान में कोई भाषा इतनी विशालता नहीं दर्शा सकती। मात्र दो वाक्‍य पूरी पुस्‍तक को समा सकते है। यह जादूगरी है। मिर्जा ग़ालिब भाषा का जादूगर है।
(http://oshosatsang.org/2011/12/20/%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%8F-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AC-%E0%A4%93%E0%A4%B6%E0%A5%8B-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF/)

Saturday, July 28, 2012

Poem: Bhavani prasad Mishra

दोनों मूरख , दोनों अक्खड़!
-भवानी प्रसाद मिश्र

अक्कड मक्कड ,
धूल में धक्कड,
दोनों मूरख,
दोनों अक्खड,
हाट से लौटे,
ठाट से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे .

बात बात में बात ठन गयी,
बांह उठीं और मूछें तन गयीं.
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढी खींची.
अब वह जीता,अब यह जीता;
दोनों का बढ चला फ़जीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे -
सबके खिले हुए थे चेहरे !

मगर एक कोई था फक्कड,
मन का राजा कर्रा – कक्कड;
बढा भीड को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड कर.

अक्कड मक्कड ,
धूल में धक्कड,
दोनों मूरख,
दोनों अक्खड,
गर्जन गूंजी,रुकना पडा,
सही बात पर झुकना पडा !

उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लडने में मत खोऒ
चलो भाई चारे को बोऒ!

खाली सब मैदान पडा है,
आफ़त का शैतान खडा है,
ताकत ऐसे ही मत खोऒ,
चलो भाई चारे को बोऒ.

Great Possessions

To win, one must use neither aggression nor arrogance. Indeed, one can obtain great things by being calm. The apparently weak attitude is the strength and nobody can oppose you. Great success will arrive.

Friday, July 27, 2012

Life

Life isn’t about hitting the finish line; it’s about all the things leading up to it.............

Aim

One should search for self-discipline to realize the aims. One must organize and manage all the inner strength to be able to confidently move towards the goals. To keep to schedule, one have to persist and always be constant.

Wednesday, July 25, 2012

Humility

Do not forget that in life, nothing remains unchanged and everything evolves through transformation. You must learn how to evaluate every situation with the correct amount of modesty. If you are living a moment of success, re-dimension your enthusiasm; If on the other hand you are waiting for a development be patient; everything turns and re-news itself.

Sunday, July 22, 2012

Jijivisha-Story: Ageya

-बातरा सन्थाल है। बच्ची थी, तभी उसके माँ-बाप इधर चले आये थे और इसाई हो गये थे। पादरी ने ईसाइयत के पानी से लडक़ी की खोपड़ी सींचते हुए जब उसका नाम बीएट्रिस रख दिया था, तब माता-पिता भी बड़े चाव से उसे 'बातरा! बातरा!' कहकर पुकारने लगे थे। लेकिन वे मर गये। बातरा ने चाहा, मिशन में जाकर नौकरी कर ले; लेकिन मिशन के भीतर पंजाब से आये हुए ईसाई खानसामों का जो अलग मिशन था, उसकी नौकरी उसे मंजूर न हुई और वह भाग आयी।
-एक आदमी के भीतर जो शैतान होता है, वह तब एक दूसरे आदमी के भीतर के शैतान का पक्ष लेता है, जब तक कि उसका स्वार्थ न बिगड़े।

-लोगों के भीतर छिपा हुआ शैतान जब समझता है कि दूसरों के भीतर भी शैतान बसा है, तब उसकी उस कल्पित मूर्ति को सिर झुकाये बिना नहीं रहता, फिर बाहर से चाहे जो कहे!

-उसने हारना सीखा ही नहीं था, लालसा को कम उग्र करना भी नहीं सीखा था।

-कुछ बेबसी थी और कुछ बेशर्मी, और उसने अनुभव से जान लिया था कि विशुद्ध गिडगिड़ाहट से यह ढंग अधिक फलदायक होता है, क्योंकि गिड़गिड़ाने से करुणा तो जाग उठती है, पर अहंकार झुँझलाता है, लेकिन इस बेशर्मी से अहंकार भी चुप होकर पैसा-दो पैसे कुर्बान कर ही देता है।

-बातरा जानती थी कि वह कुत्तों से अच्छी है। उसने मेमों के चिकने-चुपड़े मखमल में लिपटे और प्लेट में 'सामन' मच्छी खानेवाले कुत्ते देखे थे और इस समय अपने बिखरे और उलझे हुए जूँ-भरे केश, बवाइयों वाले नंगे पैर, और कलकत्ते की धूप, बारिश और मैल से बिलकुल काला पड़ गया अपना पहले ही साँवला शरीर, यह बस भी वह देख रही थी; फिर भी वह जानती थी कि वह कुत्तों से अच्छी है। वह चाहती थी, अच्छी तरह साफ-सुथरे इनसान की तरह जीवन बिताये, चाहती थी कि उसका अपना घर हो, जिसके बाहर गमले में दो फूल लगाये और भीतर पालने में दो छोटे-छोटे बच्चों को झुलाये, और चाहती थी कि कोई और उस पालने के पास खड़ा हुआ करे, जिसके साथ वह उन बच्चों कोदेखने का सुख और अपने हाथ का सेका हुआ टुक्कड़ बाँटकर भोगा करे-कोई और जो उसका अपना हो-वैसे नहीं जैसे मालिक कुत्ते का अपना होता है, वैसे जैसे फूल खुशबू का अपना होता है। अब तक यह सब हुआ नहीं था; लेकिन बातरा जानती थी कि वह होगा, क्योंकि बातरा अभी जवान है, और उस कीच-कादों में पल रही है, जिससे जीवन मिलता है, जीवन-शक्ति मिलती है।
(जिजीविषा-कहानी: अज्ञेय)

Wall of Rai Pithora, Saket, New Delhi


Purana Kila, Delhi




Work-Life

काम ज्यादा है और जिंदगी थोड़ी.................।

Saturday, July 21, 2012

Swami-Girish Karnard

पिया आवन कह गए अजहुँ न आए, अजहुँ न आए स्वामी हो
ऐ जो पिया आवन कह गए अजुहँ न आए। अजहुँ न आए स्वामी हो।
स्वामी हो, स्वामी हो। आवन कह गए, आए न बारह मास।
जो पिया आवन कह गए अजहुँ न आए। अजहुँ न आए।
आवन कह गए। आवन कह गए।
अमीर खुसरो की इन पंक्तियों से शरतचन्द्र चटर्जी के उपन्यास पर बनी बासु दा की फिल्म स्वामी की अनायास ही याद हो आई। इस फिल्म की पटकथा मन्नू भण्डारी ने लिखी थी। अपने समय की एक खूबसूरत और मन में गहरे उतर जाने वाली फिल्म स्वामी के गीत अमित खन्ना ने लिखे थे और संगीत राजेश रोशन ने दिया था। येसुदास की आवाज में, का करूँ सजनी, आये न बालम विरह और बेचैनी को सार्थक करती है।
1977 में बनी इस फिल्म में हिन्दी दर्शकों ने पहली बार कन्नड़ अभिनेता-रंगकर्मी गिरीश रघुनाथ कर्नाड को नायक के रूप में देखा। एक नायिका को पारिवारिक अनुशासन में विवाह होने के उपरान्त प्रेमी की दुनिया में अपने छूटे अपने मन से उत्पन्न विचलन को व्यक्त करती इस फिल्म की नायिका शाबाना आजमी थी।

Difference of Intellectual-Ageya

अज्ञेय
मैं जो कभी-कभी ‘बुद्धिजीवी’ और ‘बौद्धिक’ में भेद करता हूँ वह इसीलिए! जिस संस्कारिता की बात आपने ही, उसमें भी बुद्धि से आजीविका कमाने वाले आदमी की वह प्रतिष्ठा नहीं थी जो कवि की या अध्यापक की-पुरानी परिपाटी का अध्यापक विद्या-दान की बात करता था, वेतन या फीस नहीं लेता था। मैं इस बात को यों कहना चाहता हूँ कि बौद्धिक या प्रबुद्धचेता व्यक्ति की प्रतिष्ठा का-उसमें और निरे बुद्धिजीवी में अन्तर का-एक आधार यह भी रहा कि ‘बुद्धिजीवी’ वह जो बुद्धि के सहारे समाज को दुहे (चाहे मर्यादाओं को निबाहते हुए ही दुहे), और ‘बौद्धिक’ वह जो समाज को कुछ दे, समाज के लिए कुछ छोड़े। बौद्धिकता की कसौटियों में इस निस्पृहता को भी जोडऩा, जोड़े रखना, मेरी समझ में गलत तो नहीं था। यदि आज का पढ़ा-लिखा समाज यही मानता है कि ‘बिना स्वार्थ के कोई कुछ नहीं करता, और अगर किसी का स्वार्थ दीख नहीं रहा तो उससे और अधिक चौकन्ने रहो’, तो यह समाज का दुर्भाग्य ही है, यथार्थवादिता नहीं है। यथार्थ यह है कि आज भी मानव को आदर्श ललकारते हैं, भाव-विगलित भी करते हैं और प्रेरणा भी देते हैं-समूह को भी और इकाइयों को भी। ऐसे लोग बहुत थोड़े दीखते हैं, और कम भी होते जा रहे हैं, इसे लक्ष्य कीजिए और दुखी होइए, जरूर होइए-पर वह जो छोटी-सी ज्योति है उसे भी अनदेखा क्यों कीजिए? बल्कि जब तक वह है तभी एक तो बौद्धिक के लिए भी करने को कुछ है, तभी तो बौद्धिक भी आपको दीखेगा-नहीं तो टोटल अन्धकार में वह भी कहाँ है?

Agyeya-Caste

अज्ञेय
यह वास्तव में संसार के सात अचरजों में आठवाँ है। नहीं तो यह कैसे होता कि जिस देश ने ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ का आदर्श संसार के सामने रखा, उसी ने जात-पाँत की व्यवस्था भी दी-और ऐसे विकट रूप में कि वह इस्लाम और ईसाइयत पर भी हावी हो जाए? नये ईसाइयों को छूआछूत बरतते देखकर हमने एक बार आश्चर्य प्रकट किया था तो उन्होंने कहा था, ‘‘ईसाई हो गये तो क्या हुआ, धर्म थोड़े ही छोड़ दिया है?’’

Friday, July 20, 2012

kabir-world

रहना नहिं देस बिराना है
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत ‘कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥

Thursday, July 19, 2012

Life

आशा और आशंका के बीच अधरझूल जीवन............

Monday, July 9, 2012

Rudali:Hindi

रूदाली
हिंदी वाले तो बस लाश का मर्सिया पढ़ने में माहिर है ।

Saturday, July 7, 2012

For Father_पिता के लिए



कभी व्यक्त भी अव्यक्त रहा
तो दोनों संग भी असंग रहे
और जुदा रहकर भी जुड़े रहे

कभी बनी नहीं बात
कभी हो नहीं सकी मुलाकात
कभी बात करके भी कुछ अबूझा रह गया

कभी मिलकर भी दूरी रह गई
कभी दोनों ठीक होकर भी गलत थे
सिरे दोनों सुलझे थे
पर बीच में गांठ बनी रही

हर बार कितना अबोला रह जाता
दोनों की हथेलियों में सिमटा समय
रेत की तरह बह जाता

विरोधाभासों में विरोध ही सम था
सम ही मानो विषम था
लेकिन दोनों के संबंधों में बंधन था

उनका अनुभव, कुतुबनुमा घड़ी थी
जिसने जीवन की दशा ही नहीं
दिशा भी तय की

उनके बरगद सरीखे व्यक्तित्व ने
सभी दुश्चिंताओं और खतरों से सुरक्षित रखा
धूप सहकर छांव दी

कभी कष्टों के कांटों को
दुख के दर्द को
अभावों को, पराभवों को

कभी स्थायी भाव नहीं बनने दिया

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...