Thursday, February 27, 2014

Old is gold: Life (जीवन यात्रा)


कभी कभी कुछ पुराना सहेजा-समेटा भी काम आ जाता
है, जीवन यात्रा में.....जैसे आज हो गया, शिवरात्रि पर
कुछ नया भी जोड़ लिया

Shiva (शिव-विद्यानिवास मिश्र)


भारतीय चिन्तन के सर्वश्रेष्ठ फल हैं शिव और भारतीय कला की सबसे ऊंची उड़ान है शिव का प्रलयकालीन ताण्डव, इसी ताण्डव की रात्रि की वर्षगाँठ है । महाशिवरात्रि आज इसी का पुण्य पर्व है, विष्णु सोने के बनते हैं, तांबे के बनते हैं, कम से कम शिला के तो बनते ही हैं पर मिट्टी से भी बन सकने वाले शिव ही केवल है ।
 -विद्यानिवास मिश्र

Wednesday, February 26, 2014

Black Burqa (ये काला रंग कब मुझे छोड़ेगा)





आज जब अपनी बेटी को आज़ाद मार्किट से सामान दिला कर लौट रहा था तो वहाँ कुछ बुर्का पहने मुस्लिम महिलाओं को देख कर मेरी बेटी ने पूछा कि पापा ये सब काले रंग का ड्रेस क्यों पहने हुए है तो उसका उत्तर मेरे पास नहीं था । अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए मैंने कह दिया कि जैसे राजस्थान में औरतें घूंघट करती है, ऐसे ही ये सब भी बुर्का पहनती है ।
पर मेरी बेटी के अगले सवाल ने मुझे ढेर कर दिया जब उसने कहा कि उनकी ड्रेस तो अलग-अलग रंग की होती है पर इन सबका रंग काला क्यों है?
रंग के इस सवाल ने मुझे लाजवाब ही नहीं कर दिया बल्कि मेरे रंग उड़ा दिए और मैंने सोचा अब चुप रहने में ही भलाई है, आपके पास इसका कोई समझने-समझाने का जवाब हो तो जरूर बताएगा ।

Tuesday, February 25, 2014

Writer-Prize (लेख़क-पुरस्कार)


लेखक स्वयं का स्वप्न संसार रचता है। वह लिखता है, अपनी प्रेरणा से । फिर चाहे लिखे दूसरों के लिए। ऐसे में लेखक को पुरस्कृत करने वाला नेता है या अधिकारी वह बात गौण है, प्रधान है समाज का रचना और रचनाकार की उत्सवधर्मिता का सम्मान।

Self gratitude (आत्म-निवेदन)



खैर, अब में नौजवान तो नहीं रहा.…पत्रकार भी नहीं, हां थोड़े बहुत पन्ने जरुर काले कर लेता हूँ।
वह (लिखना) तो बस, जीने का बहाना है..... जैसे साँस लेते है जीने के लिए वैसे ही किताबें सांस लेना सम्भव बनाती है। मानो पीपल का पेड़ हो, जो दिल्ली के प्रदूषण में ऑक्सीजन देता है, तरोताज़ा बने रहने और फिर से एक नए मोर्चे पर जूझने के लिए डटे रहने का हौसला देता है।

फोटो: अक्षय नागदे
 
 

Sunday, February 23, 2014

पुस्तक मेला-कुछ विचार



कल प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में जाने का सुयोग मिला। हिंदी के एक बड़े प्रकाशक के स्टाल पर बैठकी में एक किताब के विमोचन का गवाह बना, जिसमें दिल्ली के हिंदी समाज के पत्रकार, प्रोफेसर, महिला अधिकारो के पैरोकार सभी मौजूद थे। 
 ऐसे में किताब के लेख़क, जिसकी अंग्रेजी की किताब का हिंदी में संस्करण आया था, का कहना था कि हिटलर भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुन कर सत्ता में आया था, इसलिए मैं भी नरेंद्र मोदी का विरोधी हूँ। वही दूसरी तरफ अपनी किताब के आवरण पृष्ठ पर उसका कहना था, रंग तो मुझे भगवा ही पसंद है, जिस पर एक प्रगतिशील का कहना था कि इसका रंग तो हरा नहीं तो हरे का समावेश होना चाहिए था, बैलेंस के लिए। अंतर्विरोध भी कितने छिछले है मानो जानकर भी ऊबकाई आती है
 वैसे पिछली सरकारों में ये भी जैकारे की कतार में थे, यानि सत्ता-सुख की मलाई उठाने में कोई पीछे नहीं था और अब जब सत्ता की रतौंधी के शिकार टीवी चैनलो के 'जनता' पत्रकार भी 'भविष्य के नेता' के 'चीयर बॉयज' बन रहे है तो फिर क्या माना जाये?
कल आईआईऍमसी के ही एक साथी, जो एक बड़े पद पर है. का कहना था कि जैसे सत्ता की लड़ाई अब शैडो वॉर हो गयी है जैसे अगर खुद न लड़ सको तो 'सुपारी पार्टी' को आगे कर दो, महिलाओं का भला करना हो तो ऐसी महिलायों को कलम से लेकर सत्ता पर काबिज कर दो, जिनके खुद के घर न बसे हो, घर बस भी गए हो तो बिखर गए हो तो फिर वे समूचे समाज को भी बिखरा देंगीं।
सो राजनीति से लेकर घर की देहरी तक 'बिखराव' की हवा है, संसद के झंडे से लेकर घर-गुवाड़ी के तुलसी के आँगन को बचाने का प्रयास ही समय की जरुरत है।

Wednesday, February 19, 2014

man in crowd (भीड़ में घिरा)




हर तरफ भीड़ में घिरा, आदमी
फिर भी कितना अकेला है, आदमी
मानो जलती आग में राख, आदमी
फिर भी एक दूसरे का है शिकार, आदमी

Tuesday, February 18, 2014

Hindi-Hariod हिंदी भाषा-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


मुसलमान जब भारतवर्ष में आये, और उन्होंने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रा से उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नामकरण करना पड़ा। क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वह वास्तव में फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिए उन्होंने देशभाषा का नाम 'हिन्दी' रखा। यह नाम रखने का हेतु यह भी हुआ कि वे भारतवर्ष को 'हिन्द' कहते थे, इसलिए इस देश की भाषा को उन्होंने 'हिन्दी कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द ही से हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है।

यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं परन्तु बहुमान्य सिध्दान्त यही है कि 'हिन्द' शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है क्यों यह सिध्दान्त बहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहाँ उठाता हूँ-''हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस-नस में आनन्द की धारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता।

हिन्दू शब्द से ही हिन्दी का सम्बन्ध नहीं है-वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है-हिन्द शब्द देशपरक है, और भारतवर्ष का पर्यायवाची शब्द है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्ध माना जावे तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं। आज दिन हिन्दू शब्द ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्र है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धन में बाँधता है।

आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दूनाम, यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य-सलिला-सुरसरी जल-विधौत, सप्तपुरी-पावन-रजकणपूत और पुनीत वेद मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित है, क्या अब भी उसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यह सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतन्त्र का ''हीनश्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिय''और शिव रहस्य का ''हिन्दू धार्म प्रलोप्तारोभविष्यन्ति कलौयुगे'' आधुनिक श्लोक खंड हैं।
किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम नहीं स्वीकार कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दवरदाई ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले, अपने निम्नलिखित पद्य में हिन्दुवान, शब्द का प्रयोग न करता। वह लिखता है-
''हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुँआन अब''
वास्तव बात यह है कि फारस-निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं अब से लगभग पाँच सहस्त्र वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दावस्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उसकी 163वीं आयत यह है-
''चूं व्यास 'हिन्दी, बलख़ आमद'
गुस्तास्पजरतुश्तरा बख्वाँद''
यह हिन्द नाम सिन्धु के सम्बन्ध से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा 'स' 'ह' हो जाता है, जैसे सप्त से हफ्त, असुर से अहुर, सोम से होम बना वैसे ही सिंध से हिंध अथवा हिन्द बन गया और इसी हिन्द से ही हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्ति है, जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्डियन की।
जब मुसलमान जाति विजेता बनकर भारत में आई, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द सर्वसाधारण में गृहीत हो गया। इस सीधी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफ़िर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित और असंगत है।''
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-
''यूरोपियन लेखकों ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग बड़ी लापरवाही के साथ किया है। यह फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है,भारत का अथवा भारत से सम्बन्ध रखने वाला। परन्तु लोग इसका सम्बन्ध हिन्दू शब्द से बतलाते हैं, जो ठीक नहीं। पुराने समय में भी मध्य भारत की भाषा, भारत में सबसे महत्तव की होती थी। यह स्थानीय भाषा नहीं है, वरन् एक प्रकार से 'हिन्दुस्तानी' है-जो कि उत्तरी और पश्चिमी भारत के बोल-चाल की भाषा है''।
मुसलमान लोग हमारी देश भाषा को बहुत पहले से हिन्दी कहते आये हैं, इसका प्रमाण खुसरो की रचनाओं में मौजूद है। खुसरो ईस्वी तेरहवें शतक में हुए हैं-उन्होंने हिन्दी भाषा में भी रचना की है। हिन्दुओं को फारसी सिखलाने के लिए उन्होंने खालिकवारी नाम की एक पुस्तक लिखी है, उसमें वे कहते हैं-
मुश्क काफ़ूरस्त कस्तूरी कपूर।
'हिन्दवी, आनन्द शादी औसरूर।
सोजनो रिश्ता व हिंदी सूई ताग।'
इसका अर्थ हुआ मुश्क को कस्तूरी, काफ़ूर को कपूर, शादी और सरूर को आनन्द, एवं सोजन और रिश्ता को हिन्दी में सूई तागा कहते हैं।
अपनी हिन्दी रचना में एक जगह वे यह कहते हैं-
फारसी बोली आईना। तुर्की ढूँढी पाईना।
'हिन्दी, बोली आरसी आए। खुसरो कहे कोई न बताये।'
इसका अर्थ हुआ फारसी में जिसे आईना कहते हैं, हिन्दी में उसको आरसी। मलिक मुहम्मद जायसी भी हिन्दी को हिन्दवी ही कहते हैं-
तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।
जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि।
इन पद्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अब से छ:-सात सौ बरस पहले से हमारे मध्यवर्ती देश की भाषा हिन्दी कहलाती है। परन्तु यह अवश्य है कि हिन्दुओं में यह नाम बहुत पीछे गृहीत हुआ है, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ। पहले हिन्दवी अथवा हिन्दुई को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। हिन्दुई शब्द गँवारी बोलचाल अथवा साधारण कोटि की भाषा के लिए प्रयुक्त होता था। इसीलिए उच्च हिन्दी अथवा उसकी साहित्यिक रचनाओं का नाम भाषा था। परन्तु जब यह भाषा बहुत व्यापक हुई, और उसमें अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थ निर्मित हुए, सुदूर प्रान्तों से सुन्दर-सुन्दर समाचार-पत्र निकले, तब विचार बदला और उस समय से हिन्दी भाषा कहकर ही उसका परिचय दिया जाने लगा। आज दिन तो हिन्दी अपने नाम के अर्थानुसार वास्तव में हिन्द की भाषा बन रही है।
(अन्य प्राकृतिक भाषाएँ और हिन्दी-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध')
http://www.hindisamay.com/hariodh%20Samagra/hariod-smagra-kund6.htm 

Sunday, February 16, 2014

Meetings with Remarkable Women0Karan Singh('मीटिंग्स विद रिमार्केबल वीमन'-कर्ण सिंह)

मैंने केबिनेट मंत्री के रूप में नहीं, बल्कि निजी रूप से यह पत्र लिखा था। मैंने सलाह दी थी कि इंदिरा गांधी को इस्तीफे की पेशकश करनी चाहिए। मैंने यह भी सलाह दी थी कि उन्हें राष्ट्रपति को इस्तीफा भेज देना चाहिए जो कि इस आधार पर इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि उनकी अपील पर अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया जाना है।'
-वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता कर्ण सिंह ने अपनी किताब 'मीटिंग्स विद रिमार्केबल वीमन' में इंदिरा गांधी पर अपने अध्याय में आपातकाल के बारे में

Parliament-Lokpal Bill, लोक सभा लोकपाल



लोकपाल बिल का इतिहास उतार-चढ़ाव वाला रहा है। इसे लोक सभा में आठ बार पेश किया गया और अनेक स्तरों पर इस पर विचार किया गया। कई बार इसे पारित किया गया और अनेक समितियों को भेजा गया। अन्तत:, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दौरान, प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने बिल की जांच की और इसे गृह मंत्रालय को पारित करने पर विचार के लिए अपनी अनुशंसा के साथ भेज दिया।
भारत की जनता 1970 के दशक से लोकपाल बिल को वास्तविकता में बदलना चाहती रही है। जब श्री अन्ना हजारे ने एक मजबूत लोकपाल के लिए अपना आंदोलन शुरू किया तो उन्हें समाज के व्यापक वर्ग से सहयोग मिला। कोई भी जिम्मेदार और सक्रिय सरकार लोकपाल बिल के समर्थन में भारी जन आंदोलन की अनदेखी नहीं कर सकती। इसलिए सरकार ने पांच वरिष्ठ मंत्रियों को, श्री अन्ना हजारे द्वारा चुने गए पांच प्रतिनिधियों के साथ बैठकर इसे संसद में प्रस्तुत करने के लिए मसौदे को अंतिम रूप देने के लिए तैनात किया।।
लोकपाल बिल के लिए आंदोलन ने दिखाया है कि नागरिक समाज भी विधि निर्माण में पहल कर सकता है। भारतीय राजनीति में पहली बार, विधि निर्माण संघीय अथवा राज्य की विधायिका के विशेषाधिकार से बाहर निकला है। नागरिक समाज ने दिखा दिया है कि विधि निर्माण प्रक्रिया में उनकी महत्त्वपूर्ण एवं कारगर भूमिका है तथा इससे संसदीय राजनीति में एक नया आयाम जुड़ा है।
 भारत की जनता 1970 के दशक से लोकपाल बिल को वास्तविकता में बदलना चाहती रही है। जब श्री अन्ना हजारे ने एक मजबूत लोकपाल के लिए अपना आंदोलन शुरू किया तो उन्हें समाज के व्यापक वर्ग से सहयोग मिला। कोई भी जिम्मेदार और सक्रिय सरकार लोकपाल बिल के समर्थन में भारी जन आंदोलन की अनदेखी नहीं कर सकती। इसलिए सरकार ने पांच वरिष्ठ मंत्रियों को, श्री अन्ना हजारे द्वारा चुने गए पांच प्रतिनिधियों के साथ बैठकर इसे संसद में प्रस्तुत करने के लिए मसौदे को अंतिम रूप देने के लिए तैनात किया।।
लोकपाल बिल के लिए आंदोलन ने दिखाया है कि नागरिक समाज भी विधि निर्माण में पहल कर सकता है। भारतीय राजनीति में पहली बार, विधि निर्माण संघीय अथवा राज्य की विधायिका के विशेषाधिकार से बाहर निकला है। नागरिक समाज ने दिखा दिया है कि विधि निर्माण प्रक्रिया में उनकी महत्त्वपूर्ण एवं कारगर भूमिका है तथा इससे संसदीय राजनीति में एक नया आयाम जुड़ा है।

Netaji and Andman NIcobar island-freedom struggle नेताजी सुभाष चन्द्र बोस-अंडमान और निकोबार द्वीप समूह



अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का, हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजों की अधीनता से द्वीपों को मुक्त करवाने के लिए इन हिस्सों में जापान की सफलता से प्राप्त अवसर का लाभ उठाया। जापानी नौसेना से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को ग्रहण करने के लिए नेताजी 29 दिसंबर, 1943 को अंडमान पहुंचे। वह रोस द्वीप में ब्रिटिश चीफ कमीश्नर द्वारा छोड़े हुए आवास में रुके।
उन्होंने 30 दिसंबर, 1943 को जिमखाना मैदान में राष्ट्रीय तिरंगा फहराया। उन्होंने सेलुलर जेल की भी यात्रा की। वह 1 जनवरी, 1944 को रंगून के रास्ते विमान से वापस बैंकॉक रवाना हो गए।
नेताजी ने कर्नल ए.जी. लोगनादन को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का चीफ कमिश्नर नियुक्त किया। कर्नल लोगनादन, आजाद हिंद फौज के चार अन्य अधिकारियों के साथ 11 फरवरी, 1944 को पोर्ट ब्लेयर पहुंचे और अंडमान में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की।
माना जाता है कि दूसरी सदी के रोमन भूगोलवेत्ता पटोलेमी ने ‘सौभाग्य के द्वीपों’ के रूप में उल्लेख करते हुए, इन्हें विश्व के मानचित्र में स्थान दिया है।
दो सौ वर्ष पूर्व, लैफ्टिनेंट आर्चिबाल्ड ब्लेयर द्वारा सर्वेक्षण किए गए द्वीप पोर्ट कार्नवालिस की प्रथम बस्ती के रूप में ब्रिटेन के अधीन चले गए।

Saturday, February 15, 2014

helen mirren-success (कामयाबी-हेलेन मिरेन)



‘‘आप को नहीं पता होता कि जिंदगी आपको कहॉं ले जाएगी। यह कोई उत्तम सफलता भी हो सकती है या बुरी हार। मैंने दोनों का अनुभव किया है। सालों की मेहनत और संघर्ष के बाद ही कामयाबी हासिल होती है।’’

-हेलेन मिरेन, ऑस्कर विजेता अभिनेत्री

Friday, February 14, 2014

Mirza Ghalib's Delhi (ग़ालिब की दिल्ली, सांध्य टाइम्स,13/02/2014)


Mirza Ghalib and Delhi (गालिब-दिल्ली)


तारीख सिर्फ हुकमरानों और उनकी हार-जीत का जमाजोड़ नहीं होती, वह तो उन छोटे-बड़े वाकयों से भी बनती है जो अपने दौर से जुड़ी होती हैं और वक्त गुजर जाने के बाद खुद एक मिसाल बन जाती है।
उर्दू और फारसी के आला दर्जे के शायर का बसेरा रही आम सी नजर आने वाली गली कासिम जान की हवेली में आज एक स्मारक संग्रहालय है, जहां उर्दू के अजीम शायर ने अपना एक लंबा वक्त बतौर किराएदार बिताया और जिंदगी की आखिरी सांस ली। कई मर्तबा, ये बजाहिर मामूली चीजें बहुत गैरमामूली होती हैं।
गालिब का पूरा नाम असदुल्लाह था और उनका तखल्लुस पहले ‘असद‘ था बाद में ‘गालिब‘ रखा।
वह बात अलग है कि आज की तारीख में गालिब महानगर की भीड़भाड़ और आधुनिकता की चकाचौंध  में गुम से हो गए हैं। इस स्मारक को बनवाने में आला फिल्मकार गुलजार की महत्वपूर्ण भूमिका रही। बकौल गुलजार, उनका घर एक कोयला गोदाम में तब्दील हो गया था बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने इस स्मारक को सहेजने के लिए कदम उठाए।
गालिब ने अपनी जिंदगी के करीब पचास-पचपन साल दिल्ली में गुजारें। उनका ज्यादातर दौर इसी गली में गुजरा। यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाखाना और हकीम शरीफखाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है।
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
एक कुरआने सुखन का सफ्हा खुलता है
असद उल्लाह खाँ गालिब का पता मिलता है
एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले। इसी गली में, गालिब के चाचा का ब्याह कासिमजान (जिनके नाम पर यह गली है) के भाई आरिफजान की बेटी से हुआ था और बाद में गालिब खुद दूल्हा बने आरिफजान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाजा निकला तो इसी गली से गुजरा ।
यह गालिब के जीने की नहीं मरने की हवेली है।
गली कासिम जान में गालिब के अलावा कई और नवाबों की हवेलियाँ भी थी। दिल्ली पर किताब लिखने वाले विलियम डेलरिम्पल ने मुताबिक यह नवाबों का रसूख था कि १८५७ की क्रांति के बाद बल्लीमारान अंग्रेजों के कोप से बच गया था और यहाँ कत्लेआम नहीं हुआ था। कथित गदर पर गालिब कहते है कि अंग्रेज की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।
अगर सीधी जुबान में कहूँ तो क्या गालिब दिल्ली के अवाम की सोच का हिस्सा हैं? ‘अगर हाँ तब कैसे और न तो कैसे नहीं। कैसे आज की दिल्ली में गालिब का होना ऐतिहासिक तथ्य तो है तो उनकी मौत भी क्योंकि आखिर गालिब का मकबरा भी यही है।
दिल्ली के रहने वालो असद को सताओ मत।
बेचारा चंद रोज का यां मेहमान है।
आज की पीढ़ी को गालिब के बारे में शायद ही इस हकीकत का पता हो कि शायरी के बेताज बादशाह दिल्ली में ही दफन है। शायद कम लोग ही इस हकीकत से वाकिफ होंगे कि राजधनी में गालिब की मजार फिल्मकार सोहराब मोदी के कारण सलामत है । उन्होंने ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के पास गालिब की कब्र पर संगमरमर पत्थर चिनवा कर महफूज कर दिया वरना खुदा ही जाने क्या होता।
पूछते हैं वो के गालिब कौन है?
कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या?
मोहम्मद अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ ने गालिब के इंतकाल के बाद ‘यादगारे-गालिब’ किताब लिखी, यह पहली किताब है जो गालिब के फसाने और हकीकत को सामने लाती है। गौरतलब है कि आजाद मुल्क में गालिब की शताब्दी समारोह के समय ही गालिब की हवेली से कोयले की टाल हटाई गई थी। 
गालिब जिसे कहते हैं कि उर्दू का ही शायर था
उर्दू पे सितम ढा के गालिब पे करम क्यों है
गालिब की निजामुद्दीन में वीरान-ए-हाल की मजार और हवेली की रौनक साल में सिर्फ एक बार ही लौटती है, एक रस्म अदायगी के तौर पर। गालिब की शायरी दिल्ली और देश की धरोहर है और उनके स्मृति-चिन्ह थाती। लेकिन अवाम हैं कि अपनी अजीम शायर को भुलाए हुए हैं। गालिब ने उर्दू जुबान को जो उम्दा हो सकता था वह दिया, लेकिन बेवफाई के सिवाय अवाम ने क्या दिया। इसके बावजूद गालिब को यह यकीन था कि -
हमने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।
उर्दू-साहित्य को मीर और गालिब से क्या हासिल हुआ, इस बारे में अपनी पुस्तक गालिब में रामनाथ सुमन कहते हैं कि मीर ने उर्दू को घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेम की तल्लीनता और अनुभूति दी तो गालिब ने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, खमोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये। 


Thursday, February 13, 2014

Present Socio-Cultural Scenario



मानो सारे प्रतिमानों को ढ़हाने की होड़ सी लग गयी है, चहुंओर........

अब तो ऐसा लगने लगा है कि मानो सब कुछ अकस्मात नहीं बल्कि किसी सुनियोजित योजना के तहत हो रहा है, वह बात अलग है कि असली कारण अभी भी अबूझ है........

आज के स्थापित तंत्र को निकम्मा, असरहीन और निर्वीय घोषित करके भीड़ तंत्र को स्वीकृति दिलाना ही मानो एकमेव लक्ष्य हो..........

सबको चोर बताकर, चोर-चोर का खेल कही देश को भारी न पड़े, अब इसकी चिंता सबको करनी होगी...........
सच, जितना समझो उतना कम.…

Wednesday, February 12, 2014

Statehood to Delhi


The Union Government has no proposal under consideration at present to amend the Constitution to grant complete Statehood to Delhi with Police under the control of Delhi Government.
A decision on whether the proposal for granting Statehood to Delhi be dropped, or to take up the matter suitably once again as may be considered expedient is yet to be taken.
 S. Balakrishnan Committee had not recommended Delhi as a full-fledged constituent State of the Union of India.
According to the Cabinet note dated December 9, 1991, signed by then Union Home Secretary Madhav Godbole, the decision to keep Delhi’s status as a Union Territory (UT) but with a legislature of its own was taken on the recommendations of the S Balakrishnan Committee.
The committee, formed in December 1987, was asked to “go into various issues connected with the administration of the UT of Delhi”.
In its two-part report, the Balakrishnan panel suggested three options for Delhi — full statehood, partial statehood but with an Assembly and, lastly, UT status but with special Constitutional status.
On May 29, 1990, the Union Cabinet decided to amend the Constitution to grant “statehood” to Delhi and a Bill was introduced in the Lok Sabha on May 31, 1990. However, the Bill lapsed on the dissolution of the House.
The issue was then discussed by the Cabinet Committee on Police Affairs on December 3, 1991, which recommended continuation of UT status with a legislative Assembly and council of ministers “subject to the overall control by the Union and certain safeguards….”
Source: 
http://164.100.47.5/qsearch/QResult.aspx
http://indianexpress.com/article/cities/delhi/only-parliament-can-bring-delhi-police-under-state-govt/ 


Bharat Mata (भारत माता)


The image of the dispossessed motherland found form in Kiran Chandra Bandyopadhyay's 1873 play, Bharat Mata, that influentially entered into early nationalist memory.
Photo: The saffron clad goddess Bharat Mata, a painting by Abanindranath Tagore

Monday, February 10, 2014

Monuments of Delhi (मौलवी जफर हसन)




भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के लिए 1920 में मौलवी जफर हसन ने तीन खंडों में एक पुस्तक तैयार की थी जिसमें दिल्ली की ऐतिहासिक महत्व की इमारतों को सूचीबद्ध किया गया था.
इसके पहले 1865 में सर सैयद अहमद खां की 1847 में प्रकाशित पुस्तक ‘आसार-उस-सनादीद' (अतीत के अवशेष) का संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण छपा था. इस पुस्तक में दी गई सूची की तुलना में 1920 के आते-आते लगभग एक-चौथाई इमारतें गायब हो चुकी थीं और कुल 1317 इमारतें बची थीं.
अब पुरातात्विक सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली में लगभग 1200 ऐतिहासिक इमारतें हैं लेकिन इनमें वे इमारतें भी शामिल हैं जो ब्रिटिश काल में बनी थीं. यानी अब मौलवी जफर हसन की सूची की भी अधिक-से-अधिक आठ सौ इमारतें बची हैं.
इनमें से भी केवल 180 इमारतों के रख-रखाव की जिम्मेदारी भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की है, और 90 की देखभाल का जिम्मा दिल्ली सरकार के पुरातात्विक विभाग का है. शेष की साज-संभाल दिल्ली नगर निगम, छावनी बोर्ड और ऐसे ही अन्य सरकारी विभागों की है.
अंग्रेज शासकों ने भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की स्थापना की, अनेक पुरातात्विक उत्खननों के जरिए हमारे इतिहास के लुप्त पृष्ठों को सामने लाने का काम किया और सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया. अलेक्जेंडर कनिंघम (जिन्हें बाद में सर का खिताब भी मिला) तो पेशे से सेना में इंजीनियर थे. उन्होंने 1861 में पुरातात्विक सर्वेक्षण की स्थापना की थी.

Sunday, February 9, 2014

Tata: Gandhi-Nehru-Patel (जे.आर.डी. टाटा, गांधी-नेहरू-पटेल पर)


”सामान्यतया मैं अक्सर गांधीजी से मिलकर आने के बाद प्रफुल्लित और उत्प्रेरित लेकिन सदैव थोड़ा संशयी महसूस करता हूं, और जवाहरलाल से बातें करने के बाद भावात्मक जोश से ओतप्रोत मगर अक्सर भ्रमित और न समझने वाला;
जबकि वल्लभभाई से मुलाकात प्रसन्नता से भरपूर होती है और वापसी में हमारे देश के भविष्य के बारे में पुन:विश्वास भरा होता है।
मैं अक्सर सोचता हूं कि यदि नियति ने जवाहरलाल के बजाय दोनों में उन्हें युवा (वल्लभभाई) बनाया होता तो भारत ने एक दूसरा पथ चुना होता और आज की तुलना में अच्छी आर्थिक स्थिति में होता।”
-जे.आर.डी. टाटा, गांधी-नेहरू-पटेल त्रिमूर्ति पर

Kashmir:Nehru-Patel


As usual (Jawaharlal) Nehru talked about the United Nations, Russia, Africa, God almighty, everybody, until Sardar Patel lost his temper. He said, 'Jawaharlal, do you want Kashmir, or do you want to give it away'. He (Nehru) said,' Of course, I want Kashmir (emphasis in original). Then he (Patel) said 'Please give your orders'. And before he could say anything Sardar Patel turned to me and said, 'You have got your orders'.
[Sam Manekshaw in an interview with Prem Shankar Jha.]
Source: Kashmir 1947, Rival Versions of History, by Prem Shankar Jha, Oxford University Press, 1996

Saturday, February 8, 2014

Business of Love (प्यार-शर्त)



प्यार में कोई शर्त नहीं होती, शर्तों पर तो धंधा होता है.……शायद इसीलिए बिज़नेस की भाषा में उसे मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग कहा जाता है, शर्तों को समझने की समझ. 

फ़ोटो: अक्षय नागदे

Diamond tester (हीरे का पारखी )


पारखी के बिना हीरे का कोई मोल नहीं.........

Women Heart (औरत का दिल )



औरत सब कुछ भूल सकती है, उसका दिल समंदर होता है. आखिर जो मुहब्बत करते है, उन्हें भूलना आना चाहिए, नहीं तो जिंदगी आगे कैसे बढ़ेगी बिना बेड़ी के.………

'मै भी काफ़िर,तू भी काफ़िर'-सलमान हैदर


मैं भी काफिर, तू भी काफिर
मैं भी काफिर, तू भी काफिर
फूलों की खुशबू भी काफिर
शब्दों का जादू भी काफिर
यह भी काफिर, वह भी काफिर
फैज भी और मंटो भी काफिर
नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफिर
हंसी गुनाह, जोक भी काफिर
तबला काफिर, ढोल भी काफिर
प्यार भरे दो बोल भी काफिर
सुर भी काफिर, ताल भी काफिर
भांगरा, नाच, धमाल भी काफिर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफिर
काफी और खयाल भी काफिर
वारिस शाह की हीर भी काफिर
चाहत की जंजीर भी काफिर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफिर
भेंट नियाज की खीर भी काफिर
बेटे का बस्ता भी काफिर
बेटी की गुड़िया भी काफिर
हंसना-रोना कुफ्रÞ का सौदा
गम काफिर, खुशियां भी काफिर
जींस भी और गिटार भी काफिर
टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफिर
कला और कलाकार भी काफिर
जो मेरी धमकी न छापे
वह सारे अखबार भी काफिर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफिर
डार्विन भाई का बंदर काफिर
फ्रायड पढ़ाने वाले काफिर
मार्क्स के सबसे मतवाले काफिर
मेले-ठेले कुफ्रÞ का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफिर
कुछ मस्जिद में अंदर काफिर
मुस्लिम देश में अक्सर काफिर
काफिर काफिर मैं भी काफिर
काफिर काफिर तू भी काफिर

Mat Kahu-Dhushyant Kumar (मत कहो-दुष्यंत कुमार)

 
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है

पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है

दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में संभावना है
(मत कहो-दुष्यंत कुमार)

Friday, February 7, 2014

delhi-shalab sriram singh (दिल्ली-शलभ श्रीराम सिंह)


हाथी की नंगी पीठ पर
घुमाया गया दारा शिकोह को गली-गली
और दिल्ली चुप रही।

लोहू की नदी में खड़ा
मुस्कुराता रहा नादिरशाह
और दिल्ली चुप रही।

लाल किले के सामने
बंदा बैरागी के मुंह में डाला गया
ताजा लहू से लबरेज अपने ही बेटे का कलेजा
और दिल्ली चुप रही।
गिरफ्तार कर लिया गया
बहादुरशाह जफर को
और दिल्ली चुप रही।

दफा हो गए मीर और गालिब
और दिल्ली चुप रही।

दिल्लियां
चुप रहने के लिए होती हैं हमेशा
उनके एकांत में
कहीं कोई नहीं होता
कुछ भी नहीं होता कभी भी शायद।

-शलभ श्रीराम सिंह

Thursday, February 6, 2014

Delhi and Railway (दिल्ली और रेल) (सांध्य टाइम्स, 06022014)



रोलैंड मैकडोनाल्ड ने समूचे भारत के लिए तत्काल एक रेल नेटवर्क विकसित करने की आवष्यकता को महसूस करते हुए सन् 1841 में सबसे पहले कलकत्ता-दिल्ली रेलवे लाइन के निर्माण का प्रस्ताव रखा था लेकिन उसे इसके बदले ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी से फटकार मिली। सन् 1848 में, भारत के गवर्नर जनरल बने लॉर्ड डलहौजी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेलवे लाइन की सिफारिश की क्योंकि काबुल और नेपाल से आसन्न सैन्य खतरा था। उसका मानना था कि यह प्रस्तावित रेलवे लाइन सरकार की सत्ता के केंद्र, उस समय कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी, से दूरदराज के क्षेत्रों तक संचार का एक सतत संपर्क प्रदान करेंगी।
19 वीं सदी में, ब्रिटिश भारत के बढ़ते रेल नेटवर्क और दिल्ली में ब्रिटिश राज की बढ़ती रूचि के कारण (सन् 1803 के बाद दिल्ली पर निर्णायक रूप से अंग्रेज का आधिपत्य हो गया था) का दिल्ली का रेलवे  स्टेशन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया था। वैसे पुरानी दिल्ली स्टेशन के लिए स्थान के चयन में सन् 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के कारण क्रांतिकारी भावनाओं का अधिक था क्योंकि रेलवे लाइनों और स्टेशन को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाने का अर्थ शहर के एक बड़े हिस्से की सफाई था ।
रेलवे लाइनों और स्टेशन ने भी पुरानी दिल्ली को दो भागों में विभाजित कर दिया और अंग्रेजों ने शहर के उत्तरी भाग में अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। आंशिक रूप से इसका एक कारण यह है कि मूल सिविल लाइंस और छावनी, शाहजहांनाबाद के उत्तर में है। सन् 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद शाहजहांनाबाद के बड़े हिस्सों, जिसमें शाहजहां की बेटी जहांआरा के बनवाया बाग भी शामिल था, को नष्ट करके रेलवे लाइन बना दी। इन बागों के उत्तर में बनी रिहायशी इलाकों को पूरी तरह हटाकर रेलवे स्टेशन को बनाया गया। कश्मीरी गेट और चांदनी चौक के बीच में एक किले की शक्ल में पुरानी दिल्ली का रेलवे स्टेशन बनाया गया और ये दो इलाके एक ऊंचे पैदल यात्री पुल से जुड़े हुए हैं जो कि कोडिया पुल कहलाता है।
सन् 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेज सरकार ने सुझाव दिया कि रेलवे को दिल्ली की बजाय मेरठ से होकर गुजरना चाहिए। इससे ब्रिटेन और दिल्ली में निराशा हुई। जबकि मूल निर्णय दिल्ली के सैन्य और राजनीतिक महत्व के साथ पंजाब के लिए मुख्य रेल लाइन को देखते हुए लिया गया था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के निदेशकों ने इसका विरोध किया लेकिन गवर्नर जनरल ने अपनी बात को रेखांकित करते हुए कहा कि यह एक व्यावसायिक उपयोग वाली रेलवे लाइन से पूरी तरह अलग शाही और राजनीतिक रूप से महत्व वाली रेलवे लाइन है। सन् 1857 में दिल्ली एक सीमांत शहर था जबकि अब पांच प्रमुख रेलवे लाइनों का जंक्शन होने के कारण इसका महत्व था। इतना ही नहीं, दिल्ली अनेक उद्योगों का केंद्र होने के साथ एक व्यावसायिक पुनर्निर्यात का स्थान भी बन चुकी थी।
सन् 1863 में, दिल्ली में शहर को रेलवे लाइन से वंचित न करने के अनुरोध को लेकर एक बैठक बुलाई गई। भारत सचिव को दिल्ली के नागरिकों की ओर से प्रस्तुत एक याचिका में कहा गया कि रेलवे लाइन के रास्ते में परिवर्तन से शहर का व्यापार तो प्रभावित होगा ही साथ ही, यह रेल कंपनियों में अंश (शेयर) खरीदने वालों के साथ भी अन्याय होगा। दिल्ली के नागरिकों और पंजाब रेलवे कंपनी (ईस्ट इंडिया रेलवे के साथ मेरठ, जो अधिक दूर था, की बजाय दिल्ली में एक जंक्शन चाहती थी) के दबाव के कारण चार्ल्स वुड ने वाइसराय के फैसले को बदल दिया। सन् 1867 में नए साल की आधी रात को दिल्ली में रेल की सीटी सुनाई दी और पहली बार रेल दिल्ली में आई। यह लोहे की सड़क (रोड ऑफ आयरन), जो कि गालिब के लिए एक जिज्ञासा का कारण थी, शहर का जीवन बदलने वाली थी।
अभी भी इमारत की मूल संरचना अच्छी हालत में है और नई सुविधाओं को बढ़ाने के लिए बड़े हिस्से को जोड़ा गया या संशोधित किया गया। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की वर्तमान इमारत सन् 1900 में बनी थी और इसे सन् 1903 में जनता के लिए खोला गया था। केवल दो प्लेटफार्मों और एक हजार रेलयात्रियों के साथ शुरू दिल्ली के सफर का यह आलम है कि अब प्रतिदिन दिल्ली से औसतन लगभग 3.57 लाख रेल यात्री, देश की विभिन्न दिशाओं की ओर यात्रा करते हैं।
समूचे देश से दिल्ली में लोगों के दरबार में शामिल होने को देखते हुए अंग्रेजों ने यातायात के सुचारू आवागमन के लिए अतिरिक्त रेल सुविधाएं बढ़ाने और नई रेल लाइनें बिछाने का फैसला किया। सरकार ने इसके लिए दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया। मार्च से अप्रैल, 1911 के बीच सभी संभावित यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं। इन बैठकों में दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाडि़यों के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आजादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनें, बंबई से दिल्ली बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने के महत्वपूर्ण फैसले किए गए। कलकत्ता से दिल्ली सैनिक और नागरिक रसद का साजो सामान पहुंचाने के लिए प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई जो कि दोपहर साढ़े तीन बजे हावड़ा से चलकर अगले दिन दिल्ली के किंगस्वे स्टेशन पर सुबह दस बजे पहुचती थी। इस तरह, मालगाड़ी करीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी । नंवबर, 1911 में ‘मोटर स्पेशल‘ नामक पांच विशेष रेलगाडि़यां हावड़ा रेलवे स्टेशन और दिल्ली रेलवे स्टेशन के बीच में चलाई गई। इसी तरह, देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष सैनिक रेलगाडि़यां चलाई गई । ये रेलगाडि़यां मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी रेल के टर्मिनल पर खाली हुई । इस अवसर पर पूर्वी भारत रेलवे ने अपने स्टेशनों पर आने वाली 15 सैनिक रेलगाडि़यां चलाई और 19 सैनिक रेलगाडि़यों में सैनिकों को दिल्ली दरबार की समाप्ति के बाद वापिस भेजा ।
इसी तरह, दिल्ली में ट्राम प्रणाली की शुरूआत 6 मार्च 1908 को हुई और सन् 1921 तक 15 किलोमीटर का जाल शहर में बिछ चुका था और 24 ट्राम चल रही थी। दिल्ली में ट्राम सन् 1963 में चलनी बंद हुई। प्रसिद् सरोद वादक अमजद अली खान के शब्दों में, “सन् 1957 में जब मैं पहली बार अपने पिता और गुरु हाफिज अली खान के साथ दिल्ली रहने के लिए आया था तो आज की तुलना में जनसंख्या कमतर थी । उन दिनों पुरानी दिल्ली में ट्राम चला करती थी और प्रमुख पड़ावों में चांदनी चौक, घन्टा घर और जामा मस्जिद हुआ करते थे।” सन् 1903 में शहर के दिल्ली दरबार के लिए हो रही साफ सफाई के दौरान बिजली आई और उसके साथ ही दिल्ली में बिजली से चलने वाली ट्राम का आगमन हुआ। सन् 1907 तक ट्राम ने अजमेरी गेट, पहाड़ गंज, सदर और सब्जी मंडी को चांदनी चौक और जामा मस्जिद से जोड़ दिया। शहर में ट्राम का फैलाव करीब 14 मील (24 किलोमीटर) तक हो गया और इससे तीस हजारी और सब्जी मंडी क्षेत्र वाया चांदनी चौक, जामा मस्जिद, चावड़ी, लाल कुआं, कटरा बादियान और फतेहपुरी से जुड़ गया। 

Wednesday, February 5, 2014

katrina kaif, advertisement campaign of product (कैटरीना कैफ-केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद के विज्ञापनों में उत्पाद संबंधी झूठे दावे करने पर)


मैं नियम के बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन अगर ऎसी बात है तो यह बहुत बढ़िया है। इससे गुणवत्ता नियंत्रण को बढ़ावा मिलेगा। यह ब्रांड और उपभोक्ता को कोई दावा करने से पूर्व थोड़ा और जवाबदेह एवं सतर्क बनाएगा। यह महत्वपूर्ण है कि आप लोगों को भ्रमित न करें। इसलिए अगर आप विज्ञापन में दावा कर रहे हैं तो उम्मीद करनी चाहिए कि आपका उत्पाद उसे निभाए भी। 
-कैटरीना कैफ, हिंदी फ़िल्म अभिनेत्री, केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद (सीसीपीसी) विज्ञापनों में उत्पाद संबंधी झूठे दावे करने पर निर्माता कंपनियों और फिल्म हस्तियों पर निशाना साधने की योजना पर [इन नियमों के तहत एक पीडित उपभोक्ता, उत्पाद निर्माता कंपनी और विज्ञापन का प्रचार करने वाली हस्ती से क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है।]

Nasiruddin shah:National School of Drama (नसीरुद्दीन शाह-एनएसडी)


"हजारों करोड़ों रुपयों से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालयों (एनएसडी) जैसे बड़े संस्थान बनाने की अपेक्षा बेहतर क्षेत्रीय रंगमंचों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। बड़े नाट्य विद्यालय अपने संस्थानों की चार दीवारी में अपने छात्रों को उनके शिल्प से अवगत कराने में असफल रहे हैं। एनएसडी के छात्रों का यह दुखद तथ्य है, असल में रंगमंच करने वालों को प्रतिशत बहुत कम है, क्योंकि वे उस तरह की रियायती परिस्थतियों में रहते हैं। एक बार जब वे बाहर निकलते हैं और परिस्थिति की वास्तविकता देखते हैं तो वे कोई रंगमंच नहीं कर पाते।"

-नसीरुद्दीन शाह, जाने-माने फिल्म एवं रंगमंच कलाकार

Saturday, February 1, 2014

Book-E-book (बुक:इ-बुक)


Words never dies and in form of a book, which is immortal, it is mobility at the easiest as internet has its own limitation.
Although now a days e-books are emerging as option but still e-book viability has to cover a long way.

Constitutional Journey of Delhi (दिल्ली के विधायी इतिहास)


सन् 1911 में, अंग्रेजी राज की राजधानी के कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित होने के कारण सभी गतिविधियों का केंद्र दिल्ली बन गई।
देश की आजादी के बाद सन् 1956 में यह एक केंद्र शासित प्रदेश बनी।
देश के उत्तरी भाग में स्थित दिल्ली पूर्व दिशा, जहां उसकी सीमा उत्तर प्रदेश से मिलती है, के अलावा सभी ओर से हरियाणा से घिरी हुई है।
दिल्ली के विधायी इतिहास में 69 वां संविधान संशोधन एक मील का पत्थर है क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 के क्रियान्वयन होने के साथ उसे एक विधानसभा मिली।
(फोटो: दिल्ली विधानसभा, सुधीर शर्मा)

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...