Thursday, March 31, 2016

कवि मन-अज्ञेय_Heart of Poet


Herring Fisher’s Goodbye (1928), Christopher Wood


‘‘आप चीखते हैं, चिल्लाते हैं
अपनी बात फिर दुहराते हैं

मैं इशारा करके मुस्करा देता हूँ
अपना अपना तरीका है

न-न आप नाहक बौखलाते हैं
मैं तो अपनी कह भी चुका-

तो अब विदा लेता हूँ।

(कवि मन, पृ-105)

Friday, March 25, 2016

दिल्ली के पुराने दौर की होली_Holi in old days of Delhi

कोई भी त्यौहार आखिर एक जीवन पद्वति और लोक जीवन से निकलते हैं। होली हमारी निजी, पारिवारिक और सामाजिक जीवन से अवसाद के निकलने का निकासी बिंदु है। आज बेशक दिल्ली का पढ़ा-लिखा समाज होली को एक त्यौहार की जगह एक झंझट और गंवारूपन की तरह देखता है। वेलेंटाइन डे में हमारे युवा युवतियों को जो आधुनिकता और यूरोपियता दिखती है वह होली में वे नहीं पाते। आज दिल्ली में होली का उत्साह कहीं नजर आता भी है तो झोंपडपट्टियों में ही जबकि इधर मध्यमवर्गीय मोहल्लों में होली का रंग वर्ष प्रतिवर्ष और अधिक फीका हो रहा है। 

दिल्ली के पुराने दौर में ऐसा नहीं था। उस समय में परंपरा से होली भाईचारे और प्रेम का उत्सव था। सुप्रसिद्व मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन हुए पद्मावत के रचियता मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार उस समय गांवों में जरूर इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे।
अमीर खुसरो ने होली को अपने सूफी अंदाज में कुछ ऐसे देखा है

दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में,
कपड़े रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन को डुबोया री।





मुगल दरबार में वर्षा के मौसम के आरंभ के साथ ही होली की तरह का पर्व मनाया जाता था, जिसे जहांगीर ने ”आब-ए-पश्म“ और अब्दुल हमीद लाहोरी ने ”ईद-ए-गुलाबी“ कहा है, इसमें दरबारीगण एक दूसरे पर गुलाबजल छिड़कते थे। शाहजहाँनाबाद बसने वाले मुगल सम्राट शाहजहाँ के दौर में होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल गया था और होली उल्लास से मनाई जाती थी। बाँकीपुर पुस्तकालय में संगृहीत एक चित्र इस तथ्य की पुष्टि करता है।तब होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार कहा जाता था। मुगलकाल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे।
कट्टरपंथी मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने एक आदेश से दरबार में होली, दीपावली, बसन्त आदि त्यौहार मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जबकि इसी मुग़ल बादशाह के समकालीन मशहूर शायर फायज देहलवी ने दिल्ली की होली को इन शब्दों में कहा है,
ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती हैं नारियाँ बिजली की सार
मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शाइस्ता खां को होली खेलते हुए दिखाया गया है।


शायर मीर ने होली के नाम पर नज्मों की पूरी एक किताब ही लिखी है “साकी नाम होली” इसकी इन पंक्तियों में होली की मस्ती को देखा जा सकता है।
आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई

महेश्वर दयाल अपनी पुस्तक “दिल्ली जो कि एक शहर है” में लिखते हैं कि दिल्ली के शाही किले होली का त्यौहार भी ईद की तरह बड़ी धूम धाम से मनाया जाता था। लाल किले के पीछे जमना के किनारे मेले लगते थे। शाहबाड़े से लेकर राजघाट तक बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती। दफ, झांझ और नफीरी बज रही है। जगह-जगह वेशयाएं नृत्य कर रही हैं। स्वांग भरने वालों की मंडलियां किले के नीचे आतीं और तरह-तरह की नकलें और तमाशे दिखातीं। स्वांग भरने वाले बादशाह और शहजादों-शहजादियों और अमीरजादियां झरोखों में बैठकर तमाशा देखतीं। बादशाह इनाम देते। रात को किले में होली का जश्न मनाया जाता था। रात-रात भर गाना-बजाना होता था। बड़ी-बड़ी नामी वेश्याएं दूर-दूर से बुलाई जाती थीं।

शहर में अमीरों और रईसों की हवेलियों की ड्योढि़यों और छज्जों के नीचे लोगों की टोलियां इक्ट्ठी हो जातीं। ये “कुफ्र कचहरियां” कहलाती थीं। जो जिसके मुंह में आता बकता। अमीरों पर फब्तियां कसी जातीं। किसी के कहे का कोई बुरा न मानता। बीच-बीच में बोलते रहते-“आज हमारे होली है, होली है भाई होली है।” इसी तरह दिल्लगी होती रहती और सारा दिन हंसी-खुशी में गुजर जाता। 

दुलहंडी के दिन बेगम जहांआरा के बाग (गांधी ग्राउंड) में धूमधाम से मेला लगता। क्या बड़े, क्या बच्चे सभी बढि़या, उजले कपड़े पहनकर जाते। चाटवालों, सौदेवालों और खिलौनेवालों की चांदी हो जाती।

होली के दिन तो यों भी गुल गपाड़े और रंगरेलियों में गुजर जाते लेकिन रात को जगह-जगह महफिल लगती। सेठ-साहूकार, अमीर गरीब सब चंदा जमा करते और दावतों, महफिलों और मशीनों के लिए बड़ी-बड़ी हवेलियों के आंगनों को या धर्मशालाओं के सहनों को खूब सजाया जाता। गलियों-मुहल्लों और चौकों में रंग खेलने से एक दिन पहले होली भी जलाई जाती थी। उसके लिए भी चंदा होता था मगर लड़के-वाले टोलियों में घूम-फिरकर और घर-घर जाकर पैसे, लकड़ी और उपले भी इकट्ठे करते थे।
‘सिराज-उल-अखबार’ के तीसवें खंड में भी होली के उत्सव का बड़ा अच्छा वर्णन है। उसके अनुसार, बादशाह खुद भी हिंदू-मुस्लिम अमीरों के साथ झरोखों में बैठते और शहर में जितने भी स्वांग भरे जाते सब झरोखे के नीचे से होकर गुजरते और इनाम पाते। बादशाही नाच-गान मंडलियों के लोग भी होली खेलते। बादशाह के हुजूर में पूरी होली खेली जाती थी और तख्त के कहारों को इस मौके पर एक-एक अशर्फी इनाम के तौर पर मिलती थी।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि दिल्ली में होली प्राचीन काल में हिंदू और मुसलमान मिलकर मनाते थे। मुगल बादशाह और मुस्लिम अमीर और नवाब भी होली के आयोजनों में पूरा हिस्सा लेते थे। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर तो अपनी प्रजा के साथ बड़े शौक और जोश से होली खेलते थे। “जफर” की कही हुई “होरियां” बहुत चाव से गाई जातीं। उनका यह होली का गीत उनकी भावनाओं को व्यक्त करता थाः

क्यों मों पे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुंवरजी दूँगी गारी
भाज सकूँ मैं कैसे मोसों भाजा नहीं जात
ठारे अब देखूँ मैं कौन जू दिन रात
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।

जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। 18 वीं सदी में दो चित्रकारों निधा मल और चित्रामन ने जफर के पौत्र मोहम्मद शाह रंगीला के होली खेलते हुए चित्र बनाए थे। आज ये चित्र एक ऐतिहासिक धरोहर हैं। 18वीं शताब्दी के बाद भारतीय मुस्लिमों पर भी होली का रंग चढ़ने लगा। तात्कालिक लेखक मिर्जा मोहम्मद हसन खत्री (मुस्लिम बनने से पहले दीवान सिंह खत्री) अपनी एक अरबी पुस्तक “हफ्त तमाशा” में लिखा है कि भारत में अफगानी और कुछ कट्टर मुस्लिमों को छोड़कर सभी भारतीय मुस्लिम होली खेलने लगे थे। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता बदलती गई, वैसे-वैसे उन्होंने होली खेलना भी बंद कर दिया।


Sunday, March 13, 2016

जब दिल्ली में पहली बार गूंजी थी, रेल इंजिन की सीटी_when first railway engine whistle blown in delhi



अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर (1837-1857) दिल्ली में रेल शुरू किए जाने की संभावना से ही बेहद परेशान थे। उन्हें परिवहन के इस नए अविष्कार से शहर की शांति के भंग होने की आशंका थी। यही कारण था कि जफर ने दिल्ली के दक्षिण-पूर्व हिस्से से वाया रिज पर बनी छावनी से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर रेल लाइन बिछाने के प्रस्ताव पर रेल लाइन को शहर के उत्तर की दिशा में ले जाने का अनुरोध किया था।
 बहादुर शाह जफर


गौरतलब है कि सन् 1803 में दिल्ली पर पूरी तरह से काबिज होने के बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में मुनाफा कमाने और क्षेत्र विस्तार के लिहाज से रेल के जाल को बढ़ाने में लग गयी थी। दिल्ली को रेल के नक्शे पर लाने की योजना इसी का नतीजा थी। मजेदार बात यह है कि जब सन् 1841 में रोलैंड मैकडोनाल्ड ने समूचे भारत के लिए एक रेल नेटवर्क विकसित करने के लिए सबसे पहले कलकत्ता-दिल्ली रेलवे लाइन के निर्माण का प्रस्ताव रखा था तो उसे ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी से फटकार मिली थी।
लॉर्ड डलहौजी

सन् 1848 में, भारत के गवर्नर जनरल बने लॉर्ड डलहौजी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेलवे लाइन की सिफारिश की क्योंकि काबुल और नेपाल से आसन्न सैन्य खतरा था। उसका मानना था कि यह प्रस्तावित रेलवे लाइन सरकार की सत्ता के केंद्र, उस समय कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी, से दूरदराज के क्षेत्रों तक संचार का एक सतत संपर्क प्रदान करेंगी। यही कारण है कि जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई में हिंदुस्तानियों को हारने के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तब अंग्रेजों ने शहर में रेलवे लाइन के बिछाने की योजना को अमली जमा पहनाने की ठानी।

जहां एक तरफ, दिल्ली में हिंदुस्तानियों पर निगरानी रखने के इरादे से अंग्रेजी सेना को शाहजहांनाबाद के भीतर स्थानांतरित किया गया वही दूसरी तरफ, शहर में आज़ादी की भावना को काबू करने के हिसाब से रेलवे स्टेशन के लिए जगह चुनी गई। शाहजहांनाबाद में आजादी की पहली लड़ाई के कारण क्रांतिकारी भावनाओं का ज़ोर अधिक था इसी वजह से रेलवे लाइनों और स्टेशन को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाने का अर्थ शहर के एक बड़े हिस्से से आबादी को उजाड़ना था।


सलीमगढ़ से गुजरती रेल
अंग्रेजों ने 1857 के आज़ादी की लड़ाई से सबक लेते हुए फिर कभी ऐसे हिसंक आंदोलन की खतरे की संभावना को काबू करने के लिहाज से दिल्ली में रेलवे लाइन को शहर के बाहर ले जाने की बजाय उसके अंदर लाने का फैसला किया। सलीमगढ़ और लाल किले पर अँग्रेजी सेना के कब्जे के बाद इन दोनों किलों से गुजरती और दिल्ली को दो हिस्सों में बांटती रेलवे लाइन सैनिक दृष्टि से कहीं अधिक उपयोगी थी। गौरतलब है कि पहले रेल लाइन को यमुना नदी के पूर्वी किनारे यानि गाजियाबाद तक ही लाने की योजना थी। इस तरह से, रेलवे लाइन और स्टेशन ने पुरानी दिल्ली को भी दो हिस्सों में बाँट दिया। उधर अंग्रेजों ने शहर के उत्तरी भाग, जहां पर सिविल लाइन बनाई गई, पर अपना ध्यान देना शुरू किया। यही ऐतिहासिक कारण है कि सिविल लाइंस और रिज क्षेत्र शाहजहांनाबाद के उत्तर में है।

सन् 1857 की स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों का विचार था कि रेलवे लाइन को दिल्ली की बजाय मेरठ से गुजरना चाहिए। वह बात अलग है कि इस सुझाव से इंग्लैंड और दिल्ली में असंतोष था। सन् 1857 का एक सीमांत शहर दिल्ली अब पाँच प्रमुख रेल लाइनों का जंक्शन बनने के कारण महत्वपूर्ण बन चुका था। जहां कई उद्योग और व्यावसायिक उद्यम शुरू हो गए थे। यही कारण है कि सन् 1863 में गठित एक समिति में नारायण दास नागरवाला सहित दूसरे सदस्यों ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार से दिल्ली को रेलवे लाइन से मरहूम न करने की दरखास्त की थी। इसके दो साल बाद बनी दिल्ली सोसायटी ने भी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट से एक याचिका में अनुरोध करते हुए कहा कि रेलवे लाइन को हटाने से शहर का व्यापार प्रभावित होगा ही साथ ही यह रेलवे कंपनी के शेयर में धन लगाने वालों के साथ भी बेईमानी होगी।

इस फैसले में दिल्ली के सामरिक-राजनीतिक महत्व के साथ पंजाब के रेल मार्ग का भी ध्यान में रखा गया था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के निदेशकों के विरोध पर तत्कालीन गवर्नर जनरल का कहना था कि यह रेलवे लाइन सिर्फ मुनाफा कमाने वाली एक रेल लाइन न होकर अँग्रेजी साम्राज्य और उसके राजनीतिक हितों के लिए जरूरी थी। दिल्ली के नागरिकों और पंजाब रेलवे कंपनी (ईस्ट इंडिया रेलवे अधिक दूरी वाले मेरठ की बजाय दिल्ली में एक रेल जंक्शन चाहती थी) के दबाव के कारण चार्ल्स वुड ने वाइसराय के फैसले को बदल दिया।
मिर्ज़ा गालिब 

सन् 1867 में नए साल की पूर्व संध्या पर आधी रात को दिल्ली में रेल की सीटी सुनाई दी और दिल्ली में पहली बार रेल ने प्रवेश किया। उर्दू के मशहूर शायर मिर्ज़ा गालिब की जिज्ञासा की कारण इस लोहे की सड़क (रोड ऑफ आयरन) से शहर की जिंदगी बदलने वाली थी। दिल्ली में रेल लाइन का निर्माण कुछ हद तक अकाल-राहत कार्यक्रम के तहत हुआ था। रेल ऐसे समय में दिल्ली पहुंची जब अकाल के बाद कारोबार मंदा था और कुछ व्यापारी शहर छोड़कर दूसरे कस्बों में जा चुके थे। यही कारण था कि स्थानीय व्यापारी इस बात को लेकर दुविधा में थे कि आखिर रेल से उन्हें कोई फायदा भी होगा? पर रेल के कारण पैदा हुए अवसरों ने जल्द ही उनकी चिंता को दूर कर दिया। दिल्ली पहले से ही पंजाब, राजस्थान और उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के लिए एक स्थापित वितरण केंद्र था सो रेल के बाद थोक का व्यापार बढ़ना स्वाभाविक था।
यमुना नदी  का पुल 

दिल्ली में रेलवे लाइन की पूर्व-पश्चिम दिशा की मार्ग रेखा ने शाहजहांनाबाद के घनी आबादी की केंद्रीयता वाले स्वरूप को बिगाड़ दिया। सन् 1857 से पहले दिल्ली शहर में यमुना नदी पार करके या फिर गाजियाबाद की तरफ से नावों के पुल से गुजरकर ही घुसा जा सकता था। लेकिन सन् 1870 के बाद शहर में बाहर से आने वाले रेल यात्री को उतरते ही क्वीन रोड, नव गोथिक शैली में निर्मित रेलवे स्टेशन और म्यूनिसिपल टाउन हाल दिखता था।

अंग्रेजों के राज में भारत में रेलवे के मार्ग निर्धारण में तत्कालीन भारत सरकार के निर्णायक भूमिका थी। जबकि उस दौर में अधिकतर रेल लाइनों को बनाने का काम निजी कंपनियों ने किया। अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने पहले से मौजूद वाणिज्यिक मार्गों के आधार पर ही दिल्ली को मुंबई, कलकत्ता और मद्रास के बंदरगाहों से जोड़ने वाली सड़कों की तर्ज पर रेलवे लाइन के शुरुआती रास्तों का खाका बनाया। लार्ड डलहौजी ने अपने प्रसिद्ध मिनट (भाषण) में कहा, “भारत में रेलवे की लाइनों के चयन के पहले राजनीतिक और व्यावसायिक लाभ का आकलन करते हुए उसके लाभ को देखा जाना चाहिए।” इसके बाद डलहौजी ने कलकत्ता से वाया दिल्ली उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश तक, बंबई से संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के शहरों और मद्रास से मुंबई को जोड़ने वाले प्रस्तावित रेल मार्गों का नक्शा तैयार किया। डलहौजी के दोहरे उद्देश्य को ध्यान में रखे जाने की बात के बावजूद सन् 1870 तक सैन्य दृष्टि से अधिक व्यावसायिक दृष्टिकोण हावी रहा।

भारत में शुरूआती दौर में (वर्ष 1870 से) ब्रिटेन में गठित दस निजी कंपनियों ने रेलवे लाइनों के निर्माण और संचालन का कार्य किया। सन् 1869 दो कंपनियों के विलय होने के बाद आठ रेलवे कंपनियों-ईस्ट इंडियन, ग्रेट इंडियन पेनिनसुला, ईस्टर्न बंगाल, बॉम्बे, बड़ौदा और सेंट्रल इंडियन, सिंध, पंजाब एंड दिल्ली, मद्रास, साउथ इंडियन और अवध और रोहिलखंड-रह गई। इन रेलवे कंपनियों को सरकार की तरफ से किसी भी तरह से पैसे की कोई गारंटी नहीं दी गई थी। 



अंग्रेज़ सरकार ने रेल अधिग्रहणों के बाद ईस्टर्न बंगाल, सिंध, पंजाब और दिल्ली और अवध और रोहिलखंड रेलवे को चलाने के लिए चुना। पर सरकार के हर रेलवे के मामले में प्रबंध संचालन के सूत्र अपने हाथ में लेने के कारण अलग-अलग थे। उदाहरण के लिए जब सिंध, पंजाब और दिल्ली के अधिग्रहण के बाद सरकार ने उसका दो रेलवे कपंनियों के साथ विलय कर दिया। सिंध, पंजाब और दिल्ली रेलवे का दो रेलवे कपंनियों इंडस वैली एंड पंजाब नार्दन लाइनों के साथ मिलाकर उत्तर पश्चिम रेलवे बनाया गया, जिसका संचालन का जिम्मा भारत सरकार पर था। सरकार ने इस रेलवे लाइन के सामरिक महत्व वाले स्थान में होने के कारण इसका प्रबंधन सीधे अपने हाथ में ले लिया था। 



आज के जमाने के उलट अंग्रेजों के दौर में लोक निर्माण विभाग सरकारी स्वामित्व वाली रेल लाइनों की देखरेख करता था। केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग को इस कार्य से होने वाला लाभ सरकारी खजाने में जमा होता था तो हर साल भारत सरकार के बजट के माध्यम से पूंजी दी जाती थी।

वर्ष 1860 में जब ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी वाया दिल्ली रेलवे लाइन बिछाने में लगी थी तो शहर की नगरपालिका और स्थानीय जनता से कोई राय नहीं ली गई। सन् 1890 के दशक में जब दिल्ली में अतिरिक्त रेलवे लाइनों का निर्माण किया गया तो यहां कारखानों की संख्या कई गुणा बढ़ी। सन् 1895 में दिल्ली के उत्तर भारत के मुख्य रेल जंक्शन बनने की उम्मीद में पंजाब रेलवे विभाग ने शहर के अधिकारियों से उनकी मंजूरी के बिना किसी भी रेलवे कंपनी को दिल्ली स्टेशन की पाँच मील की परिधि में जमीन न देने की बात कही। वर्ष 1900 में जब सदर बाजार और पहाड़गंज में कई दुकानें, घर और कारखाने बने तो शहर में रेल इतिहास का दूसरा चरण शुरू हुआ। इसी दौरान आगरा-दिल्ली रेलवे को सदर बाजार के दक्षिण में जमीन का एक टुकड़ा देने के साथ एक बड़ी भूमि का हस्तांतरण हुआ। इस पर नगरपालिका ने सर्कुलर रोड के न टूटने के लिए जमीन के टुकड़े और दीवार के बीच एक अवरोधक बनाने पर जोर दिया।
दिल्ली में यमुना नदी पर बना लोहे का पुल

बिजली, ट्राम की लाइनों और रेलवे लाइनों ने दिल्ली शहर में कई एकड़ खेतों को एक आबादी वाले क्षेत्र में बदल दिया जो कि क्षेत्रफल में वर्ष 1903 में बृहत्तर लंदन के आकार के बराबर था। इस पर लॉर्ड हार्डिंग ने ”चमत्कारी परिवर्तन“ के विषय में लिखा कि रेल लिने के कारण जहां कभी मक्का के खेत थे, वहाँ अब दस प्लेटफार्मों वाला एक बड़ा रेलवे स्टेशन, दो पोलो मैदान और निचली जमीन पर बनी इमारतें हैं। वर्ष 1905 में जब दिल्ली की नगरपालिका काबुल गेट और अजमेरी गेट के बीच की दीवार, जो कि शहर के विस्तार के लिए भूमि के लिए एक बाधा थी, को गिराना चाहती थी तब अधिकारियों ने रेलवे लाइन को ही एक नया अवरोधक बताया।
इस सदी की शुरुआत में दिल्ली भारत में सबसे बड़ा रेलवे जंक्शन थी। राजपूताना रेलवे कंपनी ने शहर के पश्चिम में मौजूद दीवार में से रास्ता बनाया तो दरियागंज में अंग्रेज सेना की उपस्थिति का नतीजा यमुना नदी के किनारे वाली तरफ दीवार के एक बड़े हिस्से के ध्वंस के रूप में सामने आया। इस तोड़फोड़ पर अंग्रेज सरकार ने चुप्पी ही साधे रखी। 


दिल्ली में ट्राम सेवा

पुरानी दिल्ली में टाउन हॉल का शास्त्रीय स्वरूप, ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी की किलेनुमा वास्तुशैली में बना रेलवे स्टेशन और ठेठ विक्टोरियाई ढंग से बनी पंजाब रेलवे की इतालवी शैली की इमारतें एक दूसरे की पूरक थी। उत्तर पश्चिम रेलवे के कराची तक रेल पटरी बिछाने की वजह से शुरू में दिल्ली के व्यापारियों और उद्योगपतियों को काफी फायदा हुआ। लेकिन वर्ष 1905 में जब रेलवे के जरिये कराची तक कपास के कच्चे माल के रूप में पहुंचने के कारण स्थानीय स्तर पर भी कपास उद्योग विकसित होने से उत्तर भारत में कपास उद्योग में दिल्ली का दबदबा घटा। तब भी, सदी के प्रारंभिक वर्षों से दिल्ली उत्तर भारत का एक मुख्य रेलवे जंक्शन बन गई जहां कारोबार में काफी इजाफा हुआ।

सदर बाजार नई रेलवे लाइन पर काम करने वाले मजदूरों के रहने का ठिकाना था। इस सदी के प्रारंभिक वर्षों में ग्रेट इंडियन पेनीनसुला रेलवे ने पहाड़गंज में अपने कर्मचारियों के लिए मकान बनाए। नई राजधानी के कारण हुए क्षेत्रीय विकास के कारण पहाड़गंज एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया, जिसका महत्व नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बनाए जाने के फैसले से और अधिक बढ़ गया। 



पुरानी दिल्ली में बिजली से चलने वाली ट्राम
एक तरह से रेलवे और कारखानों ने दिल्ली शहर की बुनावट को बदल दिया। वर्ष 1910 तक दिल्ली जिले का हरेक गांव बारह मील की दूरी के भीतर रेलवे स्टेशन की जद में था। इतना ही नहीं रेलवे ने शहर और उसके करीबी इलाकों में बैलगाड़ी को छोड़कर यातायात के दूसरे सभी परिवहन साधन बेमानी हो गए।

यह अनायास नहीं है कि अंग्रेजों ने अपनी नई साम्राज्यवादी राजधानी नई दिल्ली की स्थापना के लिए पुरानी दिल्ली के उत्तरी भाग, जहां 12 दिसंबर, 1911 को किंग जॉर्ज पंचम ने एक भव्य दरबार में सभी भारतीय राजाओं और शासकों को आमंत्रित कर ब्रिटिश राजधानी को कलकत्ता से यहां पर स्थानांतरित करने की घोषणा की थी, की तुलना में एक अलग स्थान को वरीयता दी। इस तरह, शाहजहांनाबाद के दक्षिण में एक स्थान का चयन केवल आकस्मिक नहीं था। राजधानी के उत्तरी हिस्से को इस आधार पर अस्वीकृत किया गया कि वह स्थान बहुत तंग होने के साथ-साथ पिछले शासकों की स्मृति के साथ गहरे से जुड़ा था और यहां अनेक विद्रोही तत्व भी उपस्थित थे। जबकि इसके विपरीत स्मारकों और शाही भव्यता के अन्य चिह्नों से घिरा हुआ नया चयनित स्थान एक साम्राज्यवादी शक्ति के लिए पूरी तरह उपयुक्त था, क्योंकि यह प्रजा में निष्ठा पैदा करने और उनमें असंतोष को न्यूनतम करने के अनुरूप था।


तीस हजारी में दिल्ली दरबार रेल 

पहले विश्व युद्ध (1914-1917) के कारण शहर के विकास की योजनाओं की गति धीमी हुई। दिल्ली में आगरा-दिल्ली के प्रमुख रेल मार्ग के परिचालन को नए सिरे से तैयार करने के लिहाज से शहर के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सों के विस्तारित क्षेत्रों का विकास होने में समय लगा। ईस्ट इंडिया रेलवे के वाया दिल्ली रेलवे लाइन बिछाने के कारण व्यापार में तेजी आई। शहर के वित्त और खुदरा कारोबार पर नियंत्रण रखने वाले अमीर खत्री, बनिया, जैन और दिल्ली के शेखों सहित हस्तकला उद्योगों के कर्ताधर्ताओं की दिलचस्पी साफ तौर पर पंजाब-कोलकाता रेलवे के कारण उपजी नई संभावनाओं में थी।


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...