अब तो जटा खोल, गंगा को बहने दो
हो चुका बहुत, अब शिव का तांडव होने दो
कितना संभालोगे, इन मर चुके पुतलों को
खुली आंखों से, सोने वालो को सोने दो
पार से आए, बन बैठे पहरूओं का ज्यादा भरोसा ठीक नहीं
डालर के लारे, कहां गिरेंगे पता नहीं
दिल्ली से वाशिंगटन क्या लाहौर भी दूर नहीं
रण है, रणभेरी है, रणछोड़दास है
ऐसे मन के कालों से धरती भारी, आकाश उदास है
चारों ओर पसरा शल्य भाव, जता रहा अभाव है
ऐसी क्या मजबूरी है, मरना जनता का जरूरी है
मेरी जुबानी हो या तेरे जुबानी, अब बहस बेमानी है
देश के शरीर पर उग आई है फुन्सियां, उनका ईलाज अब जरूरी है
चीरा लगाएं या गरम चिमटा चिपकाएं, कुछ होना अब अपने लिए जरूरी है
याद करो उन मासूमों की कुर्बानी, न आसमान फटा न धरती हिली
न किसी ने दी, तिरंगे में लिपटाकर तोपों की सलामी
क्या फर्क रह जाता मांग के लाल सिंदूर और चिता का लाल चंदन में
उजड़ से उजाड़ तक दोनों की एक ही नियति है
राजा विदेह के लिए देह का क्या है मोल, जब बड़े हो रहे हो खेल
सभा में विमर्श जारी है संयम का छूटना भारी है,अब जनता के अष्टाबक्र की बारी है
No comments:
Post a Comment