Saturday, June 30, 2018

wazirpur bawari_वजीरपुर की बावड़ी

दैनिक जागरण_30062018




दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि आज राजधानी की बची हुई बावड़ियों में से तेरहवीं शताब्दी से पुरानी कोई बावड़ी नहीं है। देश के दूसरे शुष्क इलाकों में दिल्ली के समान जल वास्तुकला के इस तरह शानदार और विविधतापूर्ण उदाहरण देखने को नहीं मिलते। 

राजधानी में सरकारी बाबूओं की सबसे बड़ी रिहाइशी काॅलोनी रामकृष्ण पुरम के सेक्टर पांच के बीच पुरातत्व महत्व की बेहद महत्वपूर्ण इमारतों के बीच बनी एक बावड़ी देखी जा सकती है। ऐतिहासिक सरकारी दस्तावेज इसे वजीरपुर की बावड़ी कहते हैं। 

"द वेनिशिंग स्टैपवेल्स आॅफ इंडिया" पुस्तक में विक्टोरिया लॉटमैन के अनुसार, वजीरपुर स्मारक परिसर के मध्य में एक बावड़ी होना, उसे खास बनाता है। दिल्ली की दूसरी बावड़ियों की तुलना में, इस दो मंजिला बावड़ी की भव्यता से अधिक उसकी उपस्थिति हैरतअंगेज है। जबकि वजीरपुर का भूदृश्य उसके आकर्षक बनाता है। अनेक बावड़ियों की तरह, वजीरपुर बावड़ी के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। माना जाता है कि इन मकबरों के निर्माण के समय, 1451-1526 के बीच, में ही यह बनी। इस अवधि में दिल्ली सल्तनत पर लोदी वंश का शासन था। ये स्मारक समूह तत्कालीन दौर की शहरी बसावट से कुछ दूरी पर बनाए गए थे। शहरीकरण और नई दिल्ली के विस्तार के परिणामस्वरूप इनकी मूल बसावट की अवस्थिति में परिवर्तन हुआ। 

इंटैक की दिल्ली शाखा की ओर से प्रकाशित दो खंड वाली पुस्तक "दिल्लीःद बिल्ट हैरिटेज ए लिस्टिंग" में दिए गए विवरण के अनुसार, बावड़ी की उपस्थिति से संकेत मिलता है कि लोदी काल में इस क्षेत्र में सघन आबादी थी। वही, "नीली दिल्ली, प्यासी दिल्ली" पुस्तक में आदित्य अवस्थी एक विचारणीय प्रश्न करते हैं कि अब यह पता नहीं चलता कि इस इलाके का नाम किस वजीर के नाम पर वजीरपुर पड़ा था। उत्तरी दिल्ली में वजीरपुर नाम का एक इलाका आज भी है। क्या इन दोनों वजीरपुरों में कभी कोई संबंध रहा? इसका पता नहीं चला।

आज की दक्षिणी दिल्ली के मुनीरका गांव के तहत आने वाली इस जमीन पर बनी होने के कारण इसे मुनीरका की बावड़ी भी कहा जाता है। यह बावड़ी अफगान शासकों के कार्यकाल के दौरान बनाई गई मानी जाती है। इसे चूने व पत्थरों से बनाया गया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अनुसार यह स्थान मुनीरका का भाग था, जो कि उस समय आर के पुरम से दूरी पर था। 

30 मीटर लंबी और 11.6 मीटर चौड़ी नाप वाली इस बावड़ी के दक्षिण छोर पर एक कुआं है। 14 फीट की गोलाई वाले कुएं पर गोलाकार छतरियां बनी हुई हैं, जिसमें बावड़ी तक नीचे उतरने के लिए घुमावदार सीढ़ियां बनी हुई हैं। वैसे देखा जाए तो शेष संरचना लाल किला की बावड़ी, अग्रसेन बावड़ी और राजो की बावड़ी की तुलना में साधारण है। इन छतरियों के शीर्ष से गोलाकार बावड़ी का तल तक साफ नजर आता है।

लोदी वंश के शासकों ने दिल्ली पर करीब 75 साल तक राज्य किया। उनकी बनवाई इमारतों की पहचान मुख्य रूप से गुंबदों से की जा सकती है। उस समय दिल्ली में बनाई गई दर्जनों इमारतें आज भी नई दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली के विभिन्न इलाकों में दिखाई देती हैं।


Saturday, June 23, 2018

Yamnuna river connection of delhi_शहर के भाग्य के साथ जुड़ी नदी की कहानी



दिल्ली पर ऐतिहासिक साहित्य मुख्य रूप से राजनीतिक, सामाजिक, पुरातात्विक या स्थापत्य इतिहास पर केंद्रित है। जहां तक आसपास के पर्यावरण की बात है, उसको लेकर साहित्यिक संदर्भ नाममात्र के ही रहे हैं। ऐसे संदर्भ भी शायद नदी, पहाड़ियों, वनस्पतियों, जीवों और भूविज्ञान के सामान्य विवरण तक ही सीमित थे। हाल के दशकों में दिल्ली के भूदृश्य के प्राकृतिक स्थिति में शहरी प्रक्रियाओं के विभिन्न स्वरूपों के कारण नाटकीय परिवर्तन हुआ है। इस विकास की कहानी एक हद तक अनजानी ही है।

प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार पर्सिवल स्पीयर ने कहा है कि दिल्ली के इतिहास और उसकी वास्तुकला को तो ढंग से संकलित किया गया है परंतु उसके प्राकृतिक भूदृश्य और बसावट की जानकारी का विवरण कमतर है। सो, यहां अभिलेखीय सामग्री और इस परिवर्तन के साक्षी रहे व्यक्तियों की आंखो-देखी के माध्यम से दिल्ली के प्राकृतिक परिदृश्य को उकेरने का प्रयास किया गया है।


दिल्ली के इतिहास को आकार देने में यमुना एक निर्धारक कारक रही है। ऐसा माना जाता है कि यह रिज के पश्चिम से बहते हुए सरस्वती, ऋग्वेद के प्राचीन श्लोकों में सभी नदियों के सबसे प्रमुख नदी के रूप में प्रशंसनीय, में मिलती थी। उल्लेखनीय है कि सरस्वती नदी राजस्थान के रेत के धोरों में अदृश्य हो गई। आज की दिल्ली के भौतिक भूदृश्य की रूपरेखाएं-वनस्पति समूह और जंतु समूह सहित-जिस रूप में दिखाई पड़ती हैं, वे कई अर्थों में हजारों वर्ष पूर्व के इनके रूप से भिन्न हैं।

यमुना नदी दिल्ली के भूदृश्य का एक मुख्य आकर्षण है। आज संकुचित स्वरूप और प्रदूषित जल वाली इस नदी की स्थिति दयनीय है। मानसून के दौरान जब इसका पानी खतरे के निशान से ऊपर उठता है तभी यमुना की ओर सबका ध्यान जाता है। लेकिन यमुना नदी का इतिहास पुराना और घटनापूर्ण रहा है और दिल्ली शहर के बसने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

एक समय यमुना की धारा पश्चिम की ओर होकर बहती थी और यह घग्गर-हकरा नदी में मिलती थी। समय के साथ इसकी धारा पूरब की ओर होती गई और अंततः यह गंगा नदी में मिल गई। नजफगढ़, सूरजकुंड और बड़कल की झीलें यमुना की पुरानी धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।

खादर यमुना नदी की नई बालू मिट्टी का निक्षेप है। इसके पश्चिम में बांगर है जो बहुत समय पूर्व नदी के पुराने प्रवाह-मार्गों के निक्षेपों से बने बालू मिट्टी के टीले हैं। डाबर दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली की बाढ़ प्रभावित नीची भूमि है। यह पहाड़ियों के पश्चिम में जल जमाव का क्षेत्र है जहां से धाराएं पश्चिम को जाती है।

वैसे तो यमुना दिल्ली से होकर बहने वाली एक बारहमासी नदी है, तथापि यहां की छोटी बरसाती नदियां भी महत्वपूर्ण हैं। ये बरसाती नदियां अब प्रायः गंदे और बदबूदार पानी वाले नालों के रूप में शेष रह गई हैं, इनका ऐतिहासिक या पर्यावरणीय महत्व गौण हो गया है। अधिकांश नदी-नाले, जिनमें भूरिया नाला सबसे प्रमुख है, दक्षिणी दिल्ली के बल्लभगढ़ पहाड़ी इलाके से पूर्व की ओर बहता है। प्राचीन काल की बस्तियां प्रायः ऐसे ही जल स्त्रोतों के अपवाह क्षेत्र में सघन रूप से बसीं।

दिल्ली क्षेत्र के पुरायुगीन पर्यावरण के अनुसार, यमुना नदी का विस्थापन दिल्ली की उत्तरी और पश्चिमी दिशाओं में 100 किलोमीटर और दक्षिण में 40 किलोमीटर हुआ। चार हजार वर्ष पूर्व यह नदी बदरपुर पहाड़ियों से होकर बहती थी। कालांतर में यह पूर्व के मैदानी क्षेत्र की तरफ बहते-बहते अपने वर्तमान प्रवाह-मार्ग में बहने लगी।


Thursday, June 21, 2018

civil lines_temporary capital of Britis India_देश की अस्थायी राजधानी सिविल लाइन्स

सांध्य टाइम्स, 21.06.2018




1911 के तीसरे दिल्ली दरबार में अंग्रेज राजा जॉर्ज पंचम ने अंग्रेजी राज की राजधानी के कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरण की घोषणा की। इस निर्णय के साथ ही, नई राजधानी को बनाने की प्रक्रिया ने गति पकड़ी। अगले 20 वर्षों में युद्व स्तर पर भवन निर्माण के कार्य हुए। जिसका परिणाम एक बंजर भूमि के आंखों को सुकून देने वाले एक सुन्दर भूदृश्य में बदलने के रूप में सामने आया।


किंग जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली दरबार में 15 दिसंबर 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखें । बाद में, इन पत्थरों को नार्थ और साउथ ब्लाक के पास स्थानांतरित कर दिया गया और 31 जुलाई 1915 को एक अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया । दिल्ली के नए शहर के स्थापना दिवस समारोह में लार्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्दगिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है पर किसी से भी भविष्य में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक खुशहाली की संभावना नहीं दिखती है ।


उल्लेखनीय है कि देश की आजादी की पहली लड़ाई में भारतीयों की हार के बाद वर्ष 1857 में को पंजाब सूबे का हिस्सा बना दिया गया था। जबकि 1884 तक दिल्ली का हिस्सा न तो भारत की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र था और न ही ब्रिटिश पंजाब का प्रशासनिक मुख्यालय। यह केवल एक तहसील थी जो कि क्षेत्रफल के हिसाब से पंजाब सूबे के तीस जिलों में से सबसे सबसे छोटी थी। 1911 में अंग्रेज भारत की राजधानी के लिए नई दिल्ली में स्थान निश्चित करने के साथ ही इसमें परिवर्तन आया। यह दिल्ली तहसील के साथ एक नया सूबा बन गया, जिसमें बल्लभगढ़ तहसील का एक हिस्सा भी शामिल किया गया।


केवल मात्र ऐलान के साथ ही दिल्ली राजधानी नहीं बन गई। अगले बीस साल तक नई दिल्ली शक्ल लेती रही और सारा काम सिविल लाइन्स स्थित अस्थायी राजधानी के माध्यम से होता रहा। इस तरह यह अस्थायी राजधानी नई दिल्ली के बनने की प्रक्रिया में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह बनी।


राजधानी की स्थानांतरण की घोषणा होने के बाद, अंग्रेज सरकार के सामने दिल्ली में पहले से मौजूद जमीन और अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी के लिए भूमि अधिग्रहण की संभावनाओं को तलाशने की चुनौती थी। 1915-16 में, दिल्ली क्षेत्र में 387 गांव थे। इन गांवों में, 73 प्रतिशत भूमि निजी संपत्ति, 21 प्रतिशत कॉमन होल्डिंग (संयुक्त जोत) और शेष 6 प्रतिशत भूमि सरकार के पास थी। 1857-1911 की अवधि में यह ग्रामीण इलाका दिल्ली के मूल शहर की केंद्रीय परिधि बन गया।


राजधानी के उत्तरी हिस्से यानी सिविल लाइन्स को इस आधार पर अस्वीकृत किया गया कि वह स्थान बहुत तंग होने के साथ-साथ पिछले शासकों की स्मृति के साथ गहरे से जुड़ा था और यहां अनेक विद्रोही तत्व भी उपस्थित थे। जबकि इसके विपरीत स्मारकों और शाही भव्यता के अन्य चिह्नों से घिरा हुआ नया चयनित स्थान एक साम्राज्यवादी शक्ति के लिए पूरी तरह उपयुक्त था, क्योंकि यह प्रजा में निष्ठा पैदा करने और उनमें असंतोष को न्यूनतम करने के अनुरूप था।


तब नई दिल्ली को अपनी खूबसूरत-विशाल इमारतों के दुनिया के नक्शे पर उभरने में दो दशकों की दूरी थी। जॉर्ज पंचम की घोषणा और राजधानी के रूप में नई दिल्ली के बसने में बीस बरस का समय लगा।


अंग्रेजों की राजधानी नई दिल्ली को बनाने के काम को उत्तरी दिल्ली यानी सिविल लाइंस से पूरा किया गया। इस इलाके को अस्थायी राजधानी के रूप में स्थापित किया गया। दिल्ली के राजधानी बनने के बाद, अस्थायी राजधानी (उत्तरी दिल्ली) में 500 एकड़ क्षेत्र जोड़कर उसकी देखभाल का जिम्मा नोटिफाइड एरिया कमेटी और प्रस्तावित नई दिल्ली को बनाने का जिम्मा इंपीरियल दिल्ली कमेटी को दिया गया।


इंपीरियल सिटी, जिसे अब नई दिल्ली कहा जाता है, का जब तक निर्माण नहीं हो गया और कब्जा करने के लिए तैयार नहीं हो गई तब तक के लिए पुरानी दिल्ली के उत्तर की ओर एक अस्थायी राजधानी बनाई गई। इस अस्थायी राजधानी के भवनों का निर्माण रिज पहाड़ी के दोनों ओर किया गया।


लार्ड हार्डिंग मार्च 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहुंचा था। सन् 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लॉज, वायसराय का निवास बना। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना। आज पुराना वाइसरीगल लॉज में दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का कार्यालय है।


दिल्ली के राजधानी बनने के राजनीतिक फैसले का यहां के नागरिकों को दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) की स्थापना के रूप में फायदा मिला। 1922 में तत्कालीन सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में पारित अधिनियम के तहत एक आवासीय शिक्षण विश्वविद्यालय के रूप में डीयू स्थापित हुआ। नागपुर के एक प्रतिष्ठित बार-एट-लॉ डॉ हरि सिंह गौर डीयू के पहले कुलपति नियुक्त हुए।


जब डीयू अस्तित्व में आया, तब दिल्ली में केवल तीन कॉलेज-सेंट स्टीफन, हिंदू और रामजस कॉलेज-थे। मजेदार बात यह है कि भारत सरकार के शिक्षा विभाग ने विश्वविद्यालय के बने रहने का पुरजोर समर्थन किया जबकि गृह और वित्त विभाग दोनों इसके विरोध में थे। 19 मार्च, 1923 को इस विषय को लेकर सेंट्रल असेम्बली में बहस के बाद सर्वसम्मति से डीयू के बने रहने को मंजूरी दे दी गई। डीयू के खर्च के लिए पैसे की व्यवस्था केन्द्रीय राजस्व से करने का निर्णय हुआ।


अंग्रेज सरकार के आसन के दिल्ली स्थानांतरित होने के शीघ्र बाद, इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल का सत्र मेटकाफ हाउस (आज के चंदगीराम अखाड़ा के समीप) में हुआ, जहां से इसका स्थान बाद में पुराना सचिवालय स्थानांतरित कर दिया गया। 1912 में मुख्य भवन पुराना सचिवालय, जहां आज की विधानसभा है, पुराने चंद्रावल गांव के स्थल पर बना है। यही पर 1914-1926 तक केंद्रीय विधानमंडल ने बैठकें की और काम किया।


1912 में तिमारपुर, चंद्रावल, वजीराबाद गांवों की जमीनों का अस्थायी सरकारी कार्यालयों के निर्माण के लिए अधिग्रहण किया गया। इसी तरह, मैटकाफ हाउस का अधिग्रहण कौंसिल चैम्बर, सचिवालय को कार्यालयों, प्रेस और काउंसिल के सदस्यों के घरों के उपयोग के लिए किया गया। 1920-1926 की अवधि में मैटकाफ हाउस केन्द्रीय विधान मंडल की कांउसिल ऑफ़ स्टेट का गवाह रहा।


इतना ही नहीं, महात्मा गाँधी ने इस केंद्रीय विधानसभा के पुराने सदन को 1918 तथा 1931 में अपनी उपस्थिति से गौरान्वित किया। बाद में, इस भवन का उपयोग संघ लोक सेवा आयोग और स्वतन्त्रता के उपरांत भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल ने भी किया। अब यह स्थान रक्षा मंत्रालय के अधीन है, जहां पर उसके कई सहायक कार्यालय हैं।


इस अस्थायी राजधानी के प्रमुख भवन आज भी कोरोनेशन (जार्ज पंचम का दरबार) पार्क, पुराना सचिवालय (विधानसभा), मैटकॉफ हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय का उपकुलपति कार्यालय, ओल्ड पुलिस लाइन, सिविल लाइन के बंगलों की रूप में
अपनी उपस्थिति को दर्ज करवाते हुए देखे जा सकते हैं.

Saturday, June 16, 2018

ali mardan nahar_कभी बहती थी अली मर्दन नहर



सत्रहवीं सदी में शाहजहांनाबाद में अली मर्दन नहर, सदात खान नहर और महल यानी लाल किला में नहर-ए-बहिश्त जोड़ी गई। 1643 में अली मर्दन खान ने सिंचाई के लिए बनी एक पुरानी नहर से पानी की आपूर्ति दिल्ली तक करने के लिए रोहतक नहर को शुरू किया था। बादशाह शाहजहां के समय में पहली बार दिल्ली अरावली पहाड़ियों से उतरकर यमुना किनारे बसी। इसी गरज से बादशाह ने शाहजहांनाबाद में लाल किला, अपनी फौज और जनता की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए इंतजाम किया। ऐसे में, अली मर्दन खां और उसके फारसी कारीगरों के जिम्मे यमुना के पानी को शहर और किले के भीतर पहुँचाने का काम आया। जबकि इससे पहले फीरोजशाह तुगलक ने खिज्राबाद से सफीदो (करनाल से हिसार) तक नहर बनवाई थी। अकबर के समय में दिल्ली के सूबेदार ने इसकी मरम्मत करवाई थी लेकिन नहर में जल्दी ही मिट्टी भर गई और इससे पानी का प्रवाह रूक गया।

तब अली मर्दन खां ने न सिर्फ यमुना को महल के अंदर तक पहुँचाया, बल्कि इसे सिरमौर पहाड़ियों से निकलने वाली नहर से जोड़ दिया। यह नहर अभी दिल्ली की सीमा पर स्थित नजफगढ़ के पास है। नई नहर, जिसे अली मर्दन नहर कहा जाता था, साहिबी नदी का पानी लाकर पुरानी नहर में गिराती है।
दिल्ली शहर में घुसने से पहले अली मर्दन नहर 20 किलोमीटर इलाके के बगीचों और अमराइयों को सींचते आती थी। इस नहर पर चद्दरवाला पुल, पुल बंगश और भोलू शाह पुल जैसे अनेक छोटे-छोटे पुल बने हुए थे। नहर भोलू शाह पुल के पास शहर में प्रवेश करती थी और तीन हिस्सों में बंट जाती थी।

एक शाखा ओखला तक जाती थी और मौजूदा कुतुब रोड और निजामुद्दीन इलाके को पानी देते हुए आगे बढ़ती थी। इसे "सितारे वाली नहर" कहा जाता था। दूसरी शाखा चांदनी चौक तक जाती थी और मौजूदा नावल्टी सिनेमा घर तक पहुंचकर दो हिस्सों में बंट जाती थी। लाल किले के पास पहुंचकर यह दाहिने मुड़कर फैज बाजार होते हुए दिल्ली गेट के आगे जाकर यमुना नदी में गिरती थी। एक उपशाखा पुरानी दिल्ली स्टेशन रोड वाली सीध में चलकर लाल किले में अंदर प्रवेश करती थी। नहर का पानी किले के अंदर बने कई हौजों को भरता था और किले को ठंडा रखता था।


इस नहर को चांदनी चौक में "नहरे-फैज" और महल के अंदर "नहरे-बहिश्त" कहा जाता था। फैजा का मतलब है भरपूर और बहिश्त का मतलब है स्वर्ग। मुख्य नहर की तीसरी शाखा हजारी बाग और कुदसिया बाग की सिंचाई करते हुए मौजूदा महाराणा प्रताप अंतर-राज्य बस टर्मिनल के आगे यमुना में गिरती थी।


चांदनी चौक होकर पानी ले जाने वाली नहर कब बंद हुई, इस बात का दस्तावेजी विवरण नहीं मिलता। 1740 से 1820 के बीच यह कई बार सूखी थी, पर शासकों ने बार-बार इसे ठीक कराके चालू कराया। अंग्रेजों ने जब दिल्ली पर कब्जा किया तब भी इस नहर की मरम्मत की गई थी और 1820 में भी इसका पानी शहर में जाता था। 1817 में अंग्रेजों ने शहर में नहर के पुर्ननिर्माण का कार्य शुरू किया, जिससे 1820 में फिर से शहर में पानी की आपूर्ति होने लगी। नहर के प्रवेश मार्गों की मरम्मत न करके केवल रिसाव को ठीक किया गया था। इस कारण से केवल नहर के पास स्थित कुओं को अतिरिक्त पानी मिला। 1890 में चारदीवारी वाले शहर के अंदर इसका पानी आना बंद हुआ। आज भी इस नहर के अवशेष वर्तमान लारेंस रोड और अशोक विहार इलाके में दिखते हैं।


Sunday, June 10, 2018

old well outside old delhi railway station_पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर शंकर प्याऊ




शंकर प्याऊ (स्थापना वर्ष: १९२०)

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर तिराहे वाली लाल बत्ती से पहले सड़क के ठीक बीच में एक कुआँ था, जिस अब बंद करके ढक दिया गया है.

अब यहाँ एक प्याऊं है, जहाँ आने-जाने वाले मुसाफिरों, ठेले रिक्शे वालों को पानी पिलाने के लिए नलके लगा दिए गए हैं.





Saturday, June 9, 2018

Et tu Brute_Death of Caesar by Vincenzo Camuccini_ब्रूटस_जूलियस सीजर_विलियम शेक्सपियर




इट टू, ब्रूट?


लातिनी भाषा के इस वाक्य का अर्थ है, "तुम भी ब्रूटस?"
यह विलियम शेक्सपियर के नाटक 'जूलियस सीजर' में संवाद है.

ये आश्चर्यमिश्रित शब्द सीज़र अपने पर हुए प्राणहंता हमले के समय बुदबुदाता है, जब वह हत्यारों में अपने मित्र ब्रूटस को भी सम्मिलित देखता है.

(चित्र का शीर्षक: डेथ ऑफ़ सीजर, विनसेंजो कामुचसिनी)

Monday, June 4, 2018

history of wells_कुओं की मुंडेर पर बिखरा इतिहास

सांध्य टाइम्स, 04 जून, 2018 




दिल्ली और कुओं का बरसों-बरस पुराना, इतिहास-सम्मत नाता है। इस बात का जीवंत प्रमाण पुराना किला में देखने को मिलता है। यह एक कम जानी बात है कि दिल्ली के पुराना किला के उत्खनन (2014) में आज से 23 सौ साल पहले से लेकर 3 हजार साल पहले तक प्रचलन में रहे रिंगवेल (वलय कूप) कुआं मिला है। मिट्टी के छल्लों का 70 सेंटीमीटर व्यास वाला यह कुआं मौर्य काल की विशेषता को रेखांकित करता है। एएसआइ के पूर्व महानिदेशक प्रो.बी.बी. लाल ने अपनी पुस्तक “हस्तिनापुर” में रिंगवेल का उल्लेख करते हुए बताया है कि गड्ढे की खुदाई कर पक्की मिट्टी के रिंग बनाकर सेट किए जाते थे। ऐसे कुएं मौर्य काल तक प्रचलित थे।ईंटों से बने हुए कुएं सर्वप्रथम सिन्धु घाटी की सभ्यता (2500-1900 ईसा पूर्व) में केवल मोहनजोदड़ो ऐसे शहरों में ही नहीं बल्कि कराची के समीप अलाहदिनो ऐसे स्थानों पर भी देखे गए] जहां पर इन कुओं से निकाले हुए पानी से निचली जमीन के खेतों की सिंचाई होती थी। इसके बाद ऋगवेद में (ईसा से 1000 सदी पूर्व) एक-दूसरे प्रकार की गरारी और पहिए के द्वारा पानी को ऊंचाई पर उठाने का प्रमाण मिलता है।

दिल्ली में ही तेरहवीं सदी का एक अभिलेख जो कि पालम गांव के एक सीढ़ीदार कुंए से मिला है, जिसमें उल्लेख है कि ढिल्ली के एक व्यक्ति ने सीढ़ीदार कुंए का निर्माण कराया था। यह अभिलेख मुलतान जिले में उच्छ से आए उद्वार (नामक व्यापारी) द्वारा (देहली से ठीक बाहर) पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है। बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333)  में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहानों ने शासन किया।

यह अभिलेख कहता है कि सबसे पहले तोमरों का हरियांका की भूमि पर स्वामित्व था, उसके बाद चौहानों का तथा बाद में शकों का हुआ। शिलालेख की सूची से पता चलता है कि शक शब्द का प्रयोग दिल्ली के पूर्व सुल्तानों मुहम्मद गोर से बलबन तक के लिए होता है। बलबन सहित गुलाम वंश के सभी शासकों को यहां पर शक शासक की संज्ञा दी गई है। यहां शहर का नाम ढिल्लीपुरा दिया गया है जिसका वैकल्पिक नाम योगिनीपुरा भी कहा गया है। योगिनीपुर पालम बावली के अभिलेख में ढिल्ली के वैकल्पिक नाम के रूप में आता है जिसमें पालम्ब गांव का भी उल्लेख है, स्पष्ट है कि यह आधुनिक पालम का नाम है। ढिल्ली और योगिनीपुर, ये दोनों नाम जैन पट्टावलियों में बार-बार आते हैं।
 
“दिल्ली सल्तनत के संस्कृत शिलालेख” पुस्तक में पुष्पा प्रसाद लिखती हैं कि छह अभिलेख, दिल्ली के सुल्तानों के समय में दिल्ली के अंचल में धनी व्यापारियों के द्वारा बनवाए कुओं (जिसमें एक बावली भी है) से संबंधित हैं। एक कुआं शाही परिवार की शहजादी आयशा] जो कि सिकंदर लोदी की बहन थी, की ओर से बनवाया गया था।

उस दौर में मुख्य रूप से चार तरह के कुओं का प्रयोग होता था। पहला, चिनाई वाला कुंआ ईंट, पत्थर और गारे से बना होता था, जिसे बरसों-बरस के उपयोग के हिसाब से बनाया जाता था। ऐसे कुएं लंबे समय तक पानी देने के काम आते थे। दूसरे, मजबूती के हिसाब से बनने वाले शुष्क चिनाई वाले कुंए थे जो कि मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में होते थे, जहां आस-पास चट्टान के होने के कारण कुएं को बनाने में पत्थरों का उपयोग सस्ता पड़ता था। तीसरे, लकड़ी के कुएं थे। ऐसे कुओं की चारों ओर बैलगाड़ी के पहिए के समान लकड़ी के नौ इंच से दो फीट लंबे घुमावदार टुकड़े लगे होते थे जो कि अधिक गहरे न होने पर भी बरसों पानी देते थे। खादर इलाके के गांवों में इनकी संख्या अधिक थीं। चौथे, सिंचाई और टिकाऊपन के हिसाब से उपयोगी झार का कुंआ था जो कि जमीन में खुदा एक खड्डा भर होता था।

तब सिंचाई-पेयजल के लिए दो तरह के कुएं होते थे। पहला रस्सी-और-मशक यानी चड़स वाला और दूसरा रहट वाला कुआं। आज सिंचाई के जिस साधन को चड़स के नाम से पहचाना जाता है, वह मूल रूप से चमड़े का होता था। बैलों के बल के सहारे कुएं से जल को पात्र (चड़स) में भरकर ऊपर उठाया जाता और खाली कर पानी को इच्छित स्थान पर पहुंचाया जाता था। भ्रमणी (भूण) व ताकलिया (बेलनाकार चरखी) से लैस कुएं पर ही इसे संचालित किया जाता था। जबकि रहट खेतों की सिंचाई के लिए कुएँ से पानी निकालने का एक प्रकार का गोलाकार पहिए रूपी यंत्र होता था और जिस पर मिट्टी के हाँड़ियों की माला पड़ी रहती है। इसी पहिए के घूमने से कुंए में नीचे से हाँड़ियों में भरकर पानी ऊपर आता था। इस प्रकार के गियर युक्त रहट के बारे में सर्वप्रथम श्रेष्ठ वर्णन बाबर (1526-30) के वक्तव्य में मिलता है। बाबर ने इसके बारे में लिखा है कि इस प्रकार के रहट पंजाब और हरियाणा के सीमावर्ती इलाकों लाहौर, दीपालपुर और सरहिन्द में सामान्य रूप से प्रयुक्त होते थे।

“मध्यकालीन दौर में प्रोद्योगिकी” में इरफान हबीब के अनुसार, भारत में सबसे पहले रहट का पंचतंत्र के संस्करण में (सदी 300 वर्ष) में उल्लेख मिलता है। वहां एक व्यक्ति को अरहट्टा चलाते हुए बताया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है एक पहिया जिसकी तीलियों में मिट्टी के बर्तन (घट) बंधे हों। इसका प्राकृत अरहट्टा था] यह शब्द बुद्धघोष (पांचवी सदी) में मिलता है। इस प्रकार की माला का सर्वप्रथम सन्दर्भ ईसवीं 532 में यशोधरम के मंदसोर के शिलालेख में मिलता है। यहां तक कि बारहवीं सदी के अन्त में राजस्थान के एक मन्दिर के शिलालेख में एक अरघट्टा की स्वीकृति का उल्लेख है। रहट या अरहट को घटीयंत्र भी कहा जाता है। घटीमालयंत्र भी इसी का नाम है और ये नाम पंचतंत्र से लेकर छठी सदी के अभिलेख में भी हैं।

इतना ही नहीं उर्दू के अजीम शायर मिर्जा गालिब ने भी अपने खतों में दिल्ली के पानी के हालात बयान किए हैं। 1860-61 में लिखे एक खत में ग़ालिब कहते हैं कि अगर कुएं गायब हो गए और ताजा पानी मोती की तरह दुर्लभ हो जाएगा तो यह शहर कर्बला की तरह एक वीराने में बदल जाएगा। 1860 तक, शहर में 1,000 कुएं होने बात दर्ज थी, जिनमें लगभग 600 निजी स्वामित्व और 400 सार्वजनिक उपयोग में थे।

गौरतलब है कि अंग्रेजी राज में 1857 के बाद 1912 तक दिल्ली पंजाब सूबे का केवल एक जिला थी और दो अन्य तहसीलें, सोनीपत और वल्लभगढ़, जो अब हरियाणा राज्य की हिस्सा है, थी। सन् 1869 में दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटी ने डबलिन में पानी की आपूर्ति का काम किए हुए क्रास्टवेट नामक एक अंग्रेज़ सिविल इंजीनियर के शहर में एक पेयजल आपूर्ति योजना के  प्रस्ताव को स्वीकार किया। तब क्रास्टवेट ने अली मर्दन नहर के बेकार होने के कारण पानी के लिए शहर में नए कुओं को खोदने की आवश्यकता पर जोर दिया। उसका मानना था कि नदी के किनारे पर डूब के क्षेत्र में कुंए बनाकर पानी की नियमित आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सकता है जहां साफ और शुद्ध पानी की अंतर्धारा साल के बारहमास उपलब्ध होती है।

चकबंदी के वर्षों (1872-75) में, पंजाब जिले में कुल 8841 कुएं थे, जिनमें दिल्ली में 2,256, सोनीपत में 4797 और वल्लभगढ़ में 1,788 कुंए थे। दिल्ली में वॉटर वर्क्स सन 1889 में बनना शुरू हुआ और 1895 में बनकर तैयार हुआ। उसके बाद शहर में नल लगने शुरू हुए। शुरू-शुरू में नल का पानी अशुद्ध माना जाता था। पीने के काम में कुओं का पानी आता था। पुराने संस्कारों के लोग नल का पानी नहीं पीते थे।

दिल्ली के गजेटियर (1883-84) के अनुसार, ''पंजाब सूबे के सभी जिलों में दिल्ली खेती के लिए सिंचाई योग्य क्षेत्र के मामले में अव्वल थी। अकाल आयोग को दिए गए आंकड़ों के हिसाब से कुल 37 सिंचाई योग्य क्षेत्रों में से 15 क्षेत्र कुंओं से सिंचित होते थे जबकि चार सिंचाई योग्य क्षेत्रों में झील पर बने बंध से और अठारह सिंचाई योग्य क्षेत्रों में नहरों के पानी से सिंचाई की जाती थी।" जबकि दिल्ली के गजेटियर (1912) के अनुसार, "दिल्ली में होने वाली कुल सिंचित क्षेत्र में 57 प्रतिशत में सिंचाई के कृत्रिम साधनों से, 19 प्रतिशत में कुओं से, 18 प्रतिशत में नहरों से, और 20 प्रतिशत में बंध से होती थी।"

“आज भी खरे हैं तालाब” में अनुपम मिश्र लिखते हैं कि दिल्ली के सन् 1930 के एक दुर्लभ नक्शे में उस समय के शहर में तालाबों और कुओं की गिनती लगभग 350 की संख्या का छूती है। उसी दौर में नल लगने लगे थे। इसके विरोध की एक हल्की सुरीली आवाज सन् 1900 के आसपास विवाहों के अवसर पर गाई जाने वाली गारियों,-गीतों में दिखी थी। बारात जब पंगत में बैठती तो स्त्रियां फिरंगी नल मत लगवाय दियो गीत गाती। लेकिन नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित वाटर वर्क्स से पानी आने लगा।

Saturday, June 2, 2018

My life_poem_मेरी जिंदगी






कभी ऐसे भी आना-बिना बुलावे
मेरे पास यूँही, जब न हो कहीं जाना
मेरी जिंदगी

मेरा रास्ता बेशक सीधा न हो
पर इतना मुश्किल भी, नहीं है
न खोज सकें, न पूछ सके जो
किसी से आगे होकर, नहीं है

तेरे लिए बस इतना पता है
ये जो मेरी थोड़ी सी खता है
न है जरुरी, तेरा मुझसे मिलना
मेरे नाम का तुझसे वाकिफ होना

दुनिया इतनी बड़ी नहीं, जो मिल न सकें
हैं मन की चाहत पर लब की हरकत नहीं
तेरे दोस्त, मेरे भी जानिसार हो जरुरी नहीं
फिर क्यों-कर एतबार हो, जो जुदा न हो सकें

बड़ी ख्वाहिश है तेरी
जिंदगी जो है मेरी
तेरे साए का तलबगार होकर रहना
मेरी जिंदगी

मुझ तक आना मुश्किल नहीं
जो कूकती है मानो कोयल
मेरे नाम का ही तराना

आम की बौर, कुएं की मुंडेर
रहट की आवाज़ में गूंजता नगमा
किसान की माथे से टपकता पसीना
गोरी की पायल से निकलता प्यार का नगमा

कैसे पहचान होगी, मिलन की
न देखे, न जाने, बस सुगंध की
हिरन को न दिखती कस्तूरी
पर महक भरमाती है, बढ़ाती है दूरी

अब तेरा ही हूँ, दोस्त
जैसा भी जो भी हूँ, दोस्त
अब कैसे पहचान हो
जाने-बिना भी कैसे अनजान हो

तेरी साँसों में है, जीना
तेरी बांहों में है, मरना
क्या कहना भी, जरुरी हो
मानो प्यार भी, जरुरी हो

मगर जब भी हो आना
यह सोच-समझ कर आना
तेरा जमाने से है इंतज़ार
फिर चाहे, आये न आये यार

हकीक़त न सही, हो बेशक प्यार
अगर इतना भी माना तो बेशक हो इंकार
हमें न होगा कैसे भी गम
चाहे हम न करना चाहे फिर इकरार
मगर जीना है, इसी भरम में
करते है, तुझसे कितना प्यार

तेरे साथ, चले चार कदम
देखना तुझे, जाते हुए हमदम
पल्लू सिर पर ढके, थिथके कदम
फिर चाहे जाते-ओझल होते निकले दम

जीना है, जिंदगी
साथ न सही पर पास ही सही
करीब न सही पर दूर ही सही

तेरे होने के वजूद
न होने के बावजूद
रहेगी जिंदगी तनहा ही सही
पर होगी तो चाहे जुदा ही सही
मेरी जिंदगी.

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