Saturday, January 23, 2016

तीस हजारी, एक भूली बिसरी कहानी_Tis Hazari, a forgotten chapter of capital history

तीस हजारी का नाम आने पर अधिकतर दिल्लीवासियों की आंखों के सामने उत्तरी दिल्ली में एक भीड़भाड़, धूल भरी जिला अदालतों के परिसर का दृश्य उभर आता है। जहां वादियों की भीड़ लगातार अपने असंख्य मामलों, चाहे वे आपराधिक हो या सिविल, के समाधान के लिए जुटी रहती है। लेकिन कुछ ही इस नाम के इतिहास से परिचित हैं।

तीस हजारी शब्द “तीस हजार” से निकला है। मुगल साहित्य में इस बात का उल्लेख है कि एक मुगलिया राजकुमारी के कारण आज के तीस हजारी कोर्ट परिसर वाले स्थान पर ही 30,000 पेड़ों वाला एक बड़ा बगीचा लगाया गया था। आज उत्तरी दिल्ली के मोरी गेट बस टर्मिनल, जहां से तीस हजारी कचहरी की ऊंची इमारत दीखती है। वहां कभी शहजादी जहांआरा बेगम ने तीस हजार वृक्षों वाला बाग लगवाया था यहां जो तीस हजारी बाग कहा जाता था। 


“दिल्ली अतीत के झरोखे से” में राज बुद्विराजा लिखती है कि सब्जी मंडी से सगी बहन सी जुड़ी है तीस हजारी। आज के सेंट स्टीफन्स अस्पताल और इर्द गिर्द के इलाके में तीस हजारी बाग हुआ करता था। नीम के वृक्षों, रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों, फव्वारों और तालाबों वाला कई एकड़ का यह बाग। इससे यह बात तो साफ हो जाती है कि तीस हजारी परिसर का एक शानदार इतिहास रहा है।


जहाँआरा-तीस हजारी की राजकुमारी
तीस हजारी के समृद्ध इतिहास का एक सिरा मुगल बादशाह शाहजहाँ (1592-1666) तक जाता है। मुगल तारीख के पन्नों में झांकने से पता चलता है कि शहजादी जहाँआरा (1614-1681) को कुदरत से इतंहा प्यार था। शाहजहां की दिलअजीज और बड़ी बेटी शहजादी जहाँआरा के आदेश पर इस जगह पर 30,000 पेड़ों का एक बगीचा तैयार किया गया। इस तरह, तीस हजारी शब्द चलन में आया।
बाप और बेटी में बेहद प्यार था और शहजादी जहाँआरा पूरी ईमानदारी से अपने बीमार पिता का ख्याल रखा। ऐसा कहा जाता है कि जब शाहजहां अपने तीसरे बेटे, औरंगजेब आलमगीर उसे आगरा किले में कैद किया तो शहजादी जहाँआरा ने अपने पिता की मौत तक उनका पूरा ख्याल रखा था।शहजादी जहाँआरा को कुदरत से इस कदर मुहब्बत थी कि उसने कच्ची कब्र में ही दफन होने की तमन्ना जाहिर की थी। ऐसा माना जाता है कि वह फारसी कवि सादी से प्रभावित थी। सादी ने घास के गुणों की तारीफ करते हुए कहा कि घास एक अनन्त आशा की भांति उगती है और यहां तक कि एक पुराने भूले-बिसरे स्मारक में जहां कोई गुलाब नहीं खिलता, घास कभी भी साथ नहीं छोड़ती है। इसी के अनुरूप, हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास शहजादी जहाँआरा की संदूकनुमा खोखली कब्र बनी है, जिसमें घास उगी हुई है। उसके स्मृति लेख में लिखा है, मेरी कब्र को मत ढकना, उसे हरी घास से बचाना, घास ही मुझे ढकेगी। “दिल्ली: अननोन टेल्स आॅफ एक सिटी” में आर.वी. स्मिथ लिखते हैैं कि यह भाग्य की विडंबना है कि जहाँआरा को एक बगीचे में बनी कब्र में दफन होने की अंतिम इच्छा के विपरीत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास एक आधी कच्ची कब्र में दफनाया गया।


“शाहजहानाबादः द साॅवरिजन सिटी इन मुगल इंडिया 1639-1739” पुस्तक में स्टीफन पी ब्लेक लिखते हैं कि शाहजहां ने काबुल दरवाजे के बाहर नीम के पेड़ों वाला एक बाग बनवाया था, जो कि तीस हजारी बाग कहलाता था। औरंगजेब की बेटी जीनत-उल-निसा बेगम और मुहम्मद शाह की बेगम मल्का जमानी को भी वहाँ दफनाया गया।


मुगलों के जमाने में यह छायादार पेड़ों वाला एक खुला मैदान होता था, जहां कश्मीर जाने वाले कारवां दिल्ली का शहर छोड़ने के बाद अपना डेरा डालते थे। इसी तरह बाहर से सफर करके आने वाले यात्रियों के दल षहर में घुसने से पहले ठहरते थे। इसी वजह से, जिस दरवाजे से होकर ये तमाम मुसाफिर और कारवां गुजरते थे, उसे कश्मीरी दरवाजा (गेट) के नाम से जाना जाता था। यह शाहजहां के बसाए शहर शाहजहाँनाबाद के परकोटे के करीब बनाई गई विशाल दीवार में निर्मित दस दरवाजों में से एक था। उन दिनों में तीस हजारी में ऊंट, घोड़े और यहां तक हाथी भी देखे जा सकते थे। इसके अलावा बैलगाडि़यां और दूसरी पशु गाडि़यां भी नजर आती थी। जहां पर अनेक व्यापारी भी अपना डेरा डालते थे, जिनमें से एक बड़ी संख्या कष्मीरियों की होती थी। यहां कई छायादार पेड़ थे, जिनकी छांव में माल रखा जाता था और काफिले के पशु और आदमी पल भर आराम कर लेते थे। इस ठहराव स्थल वाले मैदान में कुत्ते, चील-कौवे और जंगली जानवरों सहित चोर तथा लुटेरे अपने-अपने कारण से जमा होते थे। यहां रात में छापे के डर से गुर्जरों का खासा आतंक था। 


दूसरी ओर, सिख साहित्य के अनुसार, तीस हजारी के मैदान में तीस हजार घोड़ो और घुड़सवार सेना की एक चौकी थी। अठारहवीं सदी में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के राज में एक सिख जत्थे की दिल्ली के लालकिले की घेरेबंदी करने और उस पर हमलों की तमाम कोषिषों को बहादुरी से विफल करते हुए रक्षा करने की एक कहानी लोकप्रिय है। सन् 1780 में तीस हजारी के मैदान, जहां कभी उगे पेड़ों को काट दिया गया, में करीब 30,000 घोड़ों वाली एक विशाल घुड़सवार सेना ने डेरा डाला था। सिख इतिहास में एक निपुण सेनापति और राजधानी में कई गुरुद्वारों की स्थापना करने वाले सच्चे सिख सरदार बघेल सिंह के नेतृत्व में तीस हजारी मैदान का पड़ाव एक मील का पत्थर माना जाना जाता है। 


अमृतसर के चाबल गांव में पैदा होकर सतलुज नदी के आसपास के क्षेत्र तक के सिख सरदार बनने वाले सरदार बघेल सिंह की सिख गुरुओं में अपार आस्था थी। एक सैन्य कमांडर के रूप में उनकी क्षमता, अनुशासन, निश्ठुरता और करुणा का दुर्लभ संयोग सिख इतिहास में बखूबी दर्ज है, जिससे तीस हजारी की ऐतिहासिकता प्रमाणिक होती है।

पंजाब में १२ मिसले थी और बघेल सिंह किरोडिया मिसल के सरदार थे। उन्होंने सन् 1783 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के समय में दिल्ली पर हमला करके दिल्ली को लूटते हुए लाल किले पर चढ़ गए थे। उनकी तीस हजार फौज ने जहाँ डेरा लगाया, उसी जगह को आज तीस हजारी कहते हैं। इसी बघेल सिंह ने अफगानी लुटेरे अहमद शाह अब्दाली को पंजाब में घायल कर दिया था और उसके चुंगल से हजारों बंदी बनाई गई महिलाओं को छुड़वाकर उसके कारवा को लूटा था। 


यह बघेल सिंह की वीरता ही थी, जिसके आगे झुकते हुए मुगल शहंशाह ने इस वीर योद्धा तीन लाख का नजराना देना पड़ा। इतना ही नहीं, उन्होंने दिल्ली में दो साल रहकर गुरूद्वारे बनवाए। आज दिल्ली में जितने भी प्राचीन गुरुद्वारे हैं सभी उन्हीं के बनवाए हुए हैं। इस तरह, बघेल सिंह ने न केवल शाह आलम से दिल्ली में सिखों के ऐतिहासिक गुरूद्वारों के निर्माण की आज्ञा का फरमान हासिल किया बल्कि राजधानी में गुरूद्वारों के निर्माण के लिए सिख सेना के चार साल रहने और उसके खर्च को भी मुगलों से वसूला। उन्होंने दिल्ली में सात ऐतिहासिक सिख धार्मिक स्थलों का निर्माण किया, जिनमें माता सुंदरी गुरुद्वारा, बंगला साहिब, बाला साहिब, रकाबगंज, शीशगंज, मोती बाग, मजनू का टीला और दमदमा साहिब शामिल है। 


“दिल्ली जो कि एक शहर है” के लेखक महेश्वर दयाल के मुताबिक, अंग्रेजों के जमाने में तीस हजारी बाग में रेलवे लाइन बिछाई गई। इंगलैंड में राज्याभिषेक के बाद किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी को भारत के सम्राट और साम्राज्ञी की पदवी देने के लिए जब सन् 1911 में दिल्ली दरबार का आयोजन हुआ तो तीस हजारी रेलवे स्टेशन परिवहन प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। 

कहा जाता है कि सन् 1911 के दिल्ली दरबार में शामिल होने के लिए उदयपुर के महाराजा (महाराणा मेवाड़) ने यहां पड़ाव डाला था और उन्होंने अपने पूर्वज महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए दिल्ली में घुसने से पहले तीस हजारी में एक लघु दिल्ली बनवाई और उसे जीतने के बाद ही चाहरदीवारी वाले पुराने शहर में प्रवेश किया।


अंग्रेजों के राज में तीस हजारी परिसर के तीस हजारी मैदान में “तीस हजारी रेलवे स्टेशन” का निर्माण हुआ। सन् 1911 में दस लाख पाउंड की धनराशि खर्च करके अंग्रेजों के तीसरे दिल्ली दरबार में पुरानी दिल्ली के आसपास चौबीस रेलवे स्टेशनों का निर्माण हुआ। इनमें से एक स्टेशन तीस हजारी का था, जहां अच्छी खासी संख्या में लोगों और यातायात की आवाजाही रही। रेल लाइन आने के बाद चारदीवारी के अंदर बसा शहर दो टुकड़ों में बंट गया। इस काम के लिए शहर की दीवार में बने काबुली गेट और लाहौरी गेट के बीच शहर की दीवार को तोड़ दिया गया। तीस हजारी और रोशनआरा बाग के बीच की हरियाली का एक बड़ा हिस्सा इस विकास की भेंट चढ़ गया। कश्मीरी गेट से तीस हजारी स्टेशन की ओर चलते हुए बाईं ओर शहर की दीवार का काबुली दरवाजा था। यह दरवाजा अब नहीं रहा। अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद सड़क निकालने के लिए इस दरवाजे को ही हटा दिया था। इस दरवाजे के बाहर मुगल परिवार के सदस्यों की ओर से विकसित किए गए बगीचे थे जो अब नहीं हैं।

 आज तीस हजारी मुख्य रूप से सन् 1857 में हुए देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के जुड़ाव की बजाय अदालतों के लिए जाना जाता है। दिल्ली के इतिहासकार आर. वी. स्मिथ अपनी पुस्तक “द दिल्ली दैट नो वन नोज” में बताते हैं कि कुछ साल पहले इस स्थल पर एक हवन आयोजित किया गया था और हवन के आयोजकों का दावा था कि उन्होंने ऐसा करके सन् 1857 की क्रांति में मारे गए 30,000 व्यक्तियों को श्रद्धांजलि दी है। बेशक, सन् 1857 की क्रांति के बाद, अंग्रेजों के दिल्ली पर हुए कब्जे में राजधानी में इससे कहीं अधिक व्यक्ति मारे गए थे। स्वाभाविक रूप से इसमें अंग्रेजों से ज्यादा संख्या हिंदुस्तानियों की थी। तिस पर भी इस हवन के आयोजन के पीछे की भावना सराहना योग्य है। मई की भरी गर्मी में लोग एकत्र हुए और उन्होंने सन् 1857 की आजादी की लड़ाई में लड़ने वाले और शहीद हुए नायकों की याद में स्मारक बनाने की जरूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया।


“ट्रीज आॅफ दिल्ली: एक फील्ड गाइड” नामक अपनी पुस्तक में प्रदीप कृष्ण लिखते हैं कि दिल्ली के पेड़ों को भी 1857 की जंगे आजादी की लड़ाई की कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने दिल्ली शहर पर कब्जे के बाद इसकी किलेबंदी की, जिससे उन्हें एक और संकट का सामना न करना पड़े। और इस तरह, शहर में किलेबंदी के नाम पर जमकर पेड़ो की कटाई हुई। यहां तक कि परकोटे के भीतर शहर में, सभी शाही संपत्तियों को जब्त कर लिया गया। यही नीति शहर की बाहरी दीवारों को लेकर भी अपनाई गई। किले की दीवार के पांच सौ गज की दूरी में तीस हजारी और कुदसिया बाग दोनों के सभी पेड़ काट दिए गए। 

सब्जी मंडी और उसके आसपास के इलाके में, जहां हिंदुस्तानी सैनिकों और अंग्रेजी सेना में भयंकर लड़ाई हुई थी, अंग्रेजों ने हजारों पेड़ काट डाले। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उत्तरी रिज पर हिंदुस्तानी सैनिकों ने अंग्रेज ठिकानों पर इन्हीं पेड़ों की आड़ में छिपकर घात लगाई थी। इस तरह अंग्रेजों ने अपनी जीत के बाद प्रतिशोध की भावना में तरीके से पूरे जंगल को मिटा डाला। तीस हजारी मैदान की जमीन में से एक नए बाग का निर्माण किया गया। आज जहां पर तीस हजारी अदालत, सेंट स्टीफन अस्पताल और उसके आस पास बनी रेलवे काॅलोनियां है, यहां पर फलों के बगीचे और जंगली क्षेत्र हुआ करता था। 


तीस हजारी अदालत दिल्ली की सबसे पुरानी जिला अदालतों में है। दिल्ली को नौ जिलों में बांटने के बाद हर जिले की अदालत का परिसर अलग अलग कर दिया गया है। इस विभाजन से पहले तक शहर के लगभग सभी सिविल और अधिकतर आपराधिक मामले यहीं चलते थे। “दिल्ली की खोज में” ब्रजकिशोर चांदीवाला लिखते हैं कि दिल्ली में सन् 1883 में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड कायम हुआ। इसके 21 सदस्य थे। डिप्टी कमिश्नर इसका सदर हुआ करता था। जब दिल्ली नगरपालिका बनी तो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हटा दिया गया। आचार्य चतुरसेन ने अपनी पुस्तक “वैदिक संस्कति, पुराणिक प्रभाव” में लिखा है कि पहले तीस हजारी के मैदान में जहां अब नई कचहरी बन गई है-रामलीला की जाती थी। परंतु बाद में तीस हजारी से हटकर अजमेरी दरवाजे के बाहर रामलीला मैदान में आ गई, जहां आज तक होती है।

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