Tuesday, January 28, 2020

Reunion_पुर्नमिलन




पुर्नमिलन

क्लास में हमेशा अव्वल आने वाला,
घर पर रहकर अपनी गृहस्थी संभालता है,
जबकि हमेशा पीछे की कतार में रहने वाला,
एक उद्यमी है।

क्लास में हमेशा में फैशन के हिसाब से रहने वाला,
एक आला दर्जे का वकील है।
अधिकतर दरकिनार किए जाने वाला छात्र,
एक मशहूर लेखक है।

हमेशा गणित के पर्चे में फेल होने वाला,
अब एक फैशन डिजाइनर है। 
और अधिकतर सजा के तौर पर क्लास से बाहर रहने वाला,
अब सेना का नामचीन अफसर है। 

क्लास के साथियों के पुर्नमिलन ने मुझे सिखाया,
कैसे हरेक आदमी के कई चेहरे होते हैं। 
और बताया कि हमें किसी किताब का आकलन,
केवल उसके आवरण को देखकर नहीं करना चाहिए। 

दुनिया में हर बच्चे की,
अपनी एक अलग सफलता की कहानी होती है।

maryada purushottam shriram_मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

ग्वाटेमाला में श्रीराम की मूर्ति 





मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम


‘हरि अनंत, हरिकथा अनन्ता’ अर्थात् ‘राम’ अनंत हैं और रामकथा’ भी अनंत है।


रामकथा केवल एक आख्यान नहीं है, वह ‘राम’ के माध्यम से मानव-जीवन के उच्च नैतिक आदर्शों को, मर्यादाओं को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने का माध्यम भी है।


एक पुत्र, शिष्य, भाई, मित्र और राजा के रूप में आदर्श जीवन, मर्यादापूर्ण जीवन कैसे जिया जाए, इसके उदाहरण के रूप में‘ राम’ का जीवन प्रस्तुत किया गया है।


इन मर्यादाओं को निभाने के कारण ही राम ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहलाए।

Sunday, January 26, 2020

Flypast of First Republic Day Parade in Delhi_पहले गणतंत्र दिवस परेड में फ्लाई पास्ट का था विशेष आकर्षण






देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद (1884-1963) ने 26 जनवरी 1950 के दिन सुबह राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। उल्लेखनीय है कि उनका कार्यकाल 26 जनवरी, 1950 से 13 मई, 1962 तक रहा और वे दो बार राष्ट्रपति रहे।


राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के उपरांत 26 जनवरी 1950 के दिन वे प्रिंस एडवर्ड प्लेस (अब राष्ट्रपति भवन) से इर्विन स्टेडियम (अब नेशनल स्टेडियम) के लिए दोपहर 230 बजे से राजकीय बग्घी में बैठकर निकले थे। उनका राजकीय काफिला राष्ट्रपति भवन से निकलकर बारास्ता संसद भवन से होकर पार्लियामेंट स्ट्रीट, आउटर कनाॅट सर्किस, बाराखम्भा रोड, भगवान दास रोड, हार्डिंग एवेन्यू से होते हुए करीब 345 बजे इर्विन स्टेडियम पहुंचा था।


तब राष्ट्रपति के स्टेडियम में पहुंचने पर रक्षा मंत्री बलदेव सिंह ने उनकी अगवानी की और तीनों सेनाओं के प्रमुखों से परिचय करवाया। फिर राष्ट्रपति ने स्टेडियम में तिरंगा फहराया, जिसके बाद वहां मौजूद सशस्त्र सेना के बैंड समूहों ने नौसेना के ड्रम मेजर बर सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय गान की धुन बजाई थी। इन सभी बैंड समूहों के लिए संगीत का संयोजन नौसेना के संगीत निदेशक लेफ्टिनेंट एस. ई. हिल ने किया था। उसके बाद, राष्ट्रपति को तोप के 31 गोले दागकर सलामी दी गई।


राष्ट्रपति ने जीप पर चढ़कर परेड का निरीक्षण किया और फिर सलामी स्थल की ओर लौट गए। इस परेड में तीनों सेनाओं और पुलिस के करीब तीन हजार अफसरों और जवानों ने भाग लिया था।

इस समारोह की मुख्य परेड के कमांडर ब्रिगेडियर जे. एस. ढिल्लन थे। जबकि सुनहले बैज के साथ नीली वर्दी पहने नौसेना के 120 सैनिकों की टुकड़ी का नेतृत्व लेफ्टिनेंट कमांडर इंदर सिंह ने किया था। थल सेना के जवानों ने हरे जैतून रंग की वर्दी और सिर पर टोपी पहनी थी।

जबकि विभिन्न इकाइयों के सैनिकों ने अपनी-अपनी रेजिमेंटों के अनुरूप रंगों वाली पोषाकें पहनी थी। जबकि वायु सेना के दो दस्तों में 240 वायुसैनिक थे, जिनकी कमान स्काड्रन लीडर वी एम राधाकृष्णन और स्काड्रन लीडर जे. एफ. शुक्ला के हाथ में थी। इसके अलावा, दूसरी पंजाब बाॅयज बटालियन की भी एक कंपनी थी। दिल्ली पुलिस के पुलिस अधीक्षक अजब सिंह की कमान वाली खाकी वर्दी पहने 120 जवानों की भी एक टुकड़ी थी।


इरविन स्टेडियम में परेड समारोह की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति किंग्सवे (राजपथ) से होते हुए वापिस गवर्नमेंट हाउस लौट गए। राष्ट्रपति के काफिले के पूरे रास्ते पर सेना, नौसेना और वायुसेना के सैनिक तैनात किए थे। इतना ही नहीं, राजधानी के पूरे तयशुदा रास्ते में जगह-जगह पर स्वागत के लिए तोरण द्वार बनाए गए थे।


दिल्ली में समाज के सभी वर्गों की तिरंगे को फहराने और परेड समारोह में भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई थी। इर्विन स्टेडियम में होने वाले समारोह के लिए आस-पड़ोस के गांवों के निवासियों के आने के लिए प्रबंध किये गए थे। इस कार्यक्रम के लिए खास आमंत्रण भी भेजे गए थे। यहां आने वाले गणमान्य व्यक्तियों से लेकर जनसाधारण के वाहनों जैसे बस, कार, तांगा और साइकिलों की पार्किंग के लिए भी प्रबंध किया गया था। स्टेडियम के भीतर होने वाले कार्यक्रम के लिए आमंत्रित व्यक्तियों को विशेष रंग वाले अलग-अलग कार पार्क दिए गए थे।


इस परेड का मुख्य आकर्षण इर्विन स्टेडियम के ऊपर आकाश में विमानों का "फ्लाई पास्ट" था। जिसमें राॅयल इंडियन एयरफोर्स के चार इंजिन वाले लिबरेटर विमानों सहित एक बमवर्षक विमानों  की उड़ान प्रमुख थी। 'लिबरेटर' नामक इन विमानों के बेड़े का नेतृत्व विंग कंमाडर एच. एस. आर. गुहेल ने किया था।


इस फ्लाई पास्ट में भाग लेने वाले विमानों से समारोह स्थल पर होने वाले कार्यक्रम के समय के अनुरूप तालमेल बनाए रखने के लिए स्डेडियम में एक नियंत्रण कक्ष वाली कार तैनात की गई थी। जिससे राष्ट्रपति के झंडारोहण के ठीक बाद होने वाले फ्लाई पास्ट में विमान स्टेडियम के ठीक ऊपर से सही समय पर उड़ान भर सकें। 


उल्लेखनीय है कि भारत में कस्बों और शहरों के ऊपर आकाश में विमानों के समूह (फार्मेशन) में उड़ान पर प्रतिबंध था। पर चीफ ऑफ़ एयर स्टाफ एयर मार्षल सर थाॅमस एलमर्हिस्ट ने ऐतिहासिक गणतंत्र दिवस परेड के महत्व को देखते हुए इसकी अनुमति दी थी।

एक तरह से, आज़ाद हिंदुस्तान के मुक्त आकाश में, इन विमानों की उड़ान इतिहास के एक नए अध्याय के आरंभ का प्रतीक थी। 

Sunday, January 19, 2020

poem_kadambani_और कादम्बिनी?




हर बार कहना जरूरी नहीं होता!
सो चुप रहा।
फिर भी मन भारी रहा!


मानो मौन घनीभूत पीड़ा थी।
अनुत्तरित प्रश्नों का कहाँ कोई ठौर?
स्वयं में ही सिमट गए।


श्वास ही साक्ष्य थे

और पसरा था, मौन।
बस मेघों का था गर्जन!


और कादम्बिनी?
मेघ राग की थी, रागिनी
बूंद बनकर हरीतिमा हो गई।


Saturday, January 18, 2020

Dr Bhimrao Ambedkar_Cow_ancient Hindus_गाय_ डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर




गाय_ डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर


पुरातन तथा आधुनिक हिन्दुओं को खेती से पुरानत यूनानियों से भी अधिक प्रेम है। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि वे गाय की पूजा करते हैं। हिन्दुओं की गाय के प्रति श्रद्वा अधिकांश विदेशियों के लिए एक पहेली बनी हुई है और सबसे बड़ी बात यह है कि उन अधपके धर्म-प्रचारक मिशनरियों के लिए एक आकर्षण है, जो अपने धर्म प्रचार के लिए भारत आकर हिन्दुओं को ठगते हैं। 
गाय की पूजा के पीछे वही आर्थिक भावना है, जो रोम में देवताओं को बिना छांटी अंगूर की शराब न देने की पीछे हैं। गाय और इसी तरह के अन्य पशु किसानों के प्राण हैं। गाय बैलों को जन्म देती है, जो खेत जोतने के लिए अति आवश्यक हैं। यदि हम गाय को गोश्त के लिए मार देते हैं तो अपनी खेती की सम्पन्नता को खतरे में डालते हैं। पूरी दूरदर्शिता से प्राचीन हिन्दुओं ने गाय का मांस खाने पर रोक लगा दी और इस प्रकार गायों का मारा जाना रोका। लेकिन इसके पीछे धार्मिक स्वीकृति भी होनी चाहिए। इसलिए पुराने हिन्दू धार्मिक साहित्य में गाय के बारे में विभिन्न कथाएं पाईं जाती हैं।

-डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर वाड्मय, भाग 23 (प्राचीन भारतीय वाणिज्य, अस्पृश्य तथा पेक्स ब्रिटानिका), पेज 8



Post Independent Legislative Journey of Delhi_स्वतंत्रता उपरांत दिल्ली की विधायी यात्रा

18012022, दैनिक जागरण 



देश की आजादी के बाद दिल्ली की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता-पूर्व दिल्ली में अनेक स्थानीय निगम थे, जिसके प्रशासन का दायित्व मुख्य आयुक्त का था। 22 फरवरी 1951 को बने भाग सी राज्य (विधि) अधिनियम 1951 के तहत 17 मार्च, 1952 को दिल्ली राज्य विधानसभा अस्तित्व में आई। पुराना सचिवालय में लोकप्रिय सरकार के गठन के अवसर पर आयोजित समारोह का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री श्री कैलाश नाथ काटजू ने इस कार्यक्रम को ”ऐतिहासिक राजधानी दिल्ली की कथा का एक गर्वीला क्षण” बताया था।


1952 की विधानसभा में 48 सदस्य थे। मुख्य आयुक्त को उसके कार्य के निष्पादन में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद का प्रावधान था। इन विषयों के सम्बन्ध में राज्य विधानसभा को कानून बनाने की शक्तियां दी गई थीं।

दिल्ली को एक लोकतांत्रिक व्यवस्था और एक उत्तरदायी शासन प्रदान करने के उद्देश्य और प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिल्ली प्रशासन अधिनियम, 1966 को क्रियान्वित किया गया। इस अधिनियम के तहत "मेट्रोपोलिटन काउंसिल" नामक एक निकाय का प्रावधान किया गया, जिसे संस्तुतिपरक शक्तियां प्राप्त थी। इस तरह, दिल्ली प्रशासन में शीर्ष पर उपराज्यपाल अथवा प्रशासक का स्थान था, जिसकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति करते थे। मेट्रोपोलिटन काउंसिल, एक सदनीय लोकतांत्रिक निकाय थी, जिसमें 56 निर्वाचित सदस्य और राष्ट्रपति की ओर से नामित पांच सदस्य होते थे।


दिल्ली में पहली मंत्रिपरिषद कांग्रेस के विधायक चौधरी ब्रह्म प्रकाश के नेतृत्व में बनी थी। फिर वर्ष 1955 में सरदार गुरुमुख निहाल सिंह मुख्यमंत्री बने जो कि एक साल (1956) तक इस पद पर रहे। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के अनुसरण में, दिल्ली 1 नवंबर, 1956 से एक भाग सी का राज्य बन गया। जिसके परिणामस्वरूप दिल्ली विधान सभा और मंत्रिपरिषद को समाप्त कर दिया गया और दिल्ली राष्ट्रपति के प्रत्यक्ष शासन के तहत एक केंद्र शासित राज्य बन गया।


आयोग की एक अन्य सिफारिश के अनुसार, दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 को लागू किया गया। इस अधिनियम के तहत समूची दिल्ली के लिए नगर निगम का गठन किया गया, जिसके लिए सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होने का प्रावधान था।


दिल्ली में आंरभिक अन्तरिम काल वाली महानगर परिषद के कार्यकाल (1966-1967) में एक ही सत्र हुआ, जिसके मुख्य कार्यकारी पार्षद मीर मुश्ताक अहमद थे। जबकि पहली महानगर परिषद के कार्यकाल (1967-1972) में 17 सत्र हुए, इस दौरान मुख्य कार्यकारी पार्षद प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा थे। दूसरी महानगर परिषद के कार्यकाल (1972-1977) में भी 17 सत्र हुए, जिसके कार्यकारी मुख्य पार्षद राधा रमण थे। तीसरी महानगर परिषद के कार्यकाल (1977-1980) में दस सत्र हुए, जिसके कार्यकारी मुख्य पार्षद केदारनाथ साहनी थे। चौथी महानगर परिषद के कार्यकाल (1983-1990) में बीस सत्र (जनवरी 1989 तक) हुए, जिसके मुख्य कार्यकारी पार्षद जगप्रवेश चन्द्र थे। दिल्ली में बनी मेट्रोपॉलिटन काउंसिल विधायी शक्तियों रहित थीं। काउंसिल की भूमिका शासन व्यवस्था में केवल एक सलाहकार की थी।


दिल्ली उपराज्यपाल की सहायता और सलाह के लिए मंत्रिपरिषद वाले एक पूर्ण राज्य की विधानसभा की आवश्यकता के अनुरूप, केन्द्र सरकार ने 24 दिसंबर 1987 को सरकारिया समिति (जिसे बाद में बालकृष्णन समिति का नाम दिया गया) का गठन किया। इस समिति का उद्देश्य केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के प्रशासन से जुड़े विभिन्न मुद्दों की समीक्षा और प्रशासनिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के उपायों की अनुशंसा करना था।


इस समिति ने 14 दिसंबर, 1989 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए दिल्ली को केंद्रशासित प्रदेश बने रहने की सिफारिश की। साथ ही समिति ने जन साधारण से जुड़े विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त शक्ति सम्पन्न विधानसभा देने की बात भी कही। समिति ने राजधानी में स्थिरता और स्थायित्व को सुनिश्चित करने के लिए, राष्ट्रीय राजधानी को केंद्र शासित प्रदेशों के मध्य एक विशेष दर्जा देने के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन की भी सिफारिश की।


बालकृष्णन समिति की  अनुशंसा   के अनुरूप, संसद ने संविधान (69 वाँ संशोधन) अधिनियम, 1991 पारित किया। जिसमें दिल्ली में एक विधान सभा के गठन के लिए संविधान में नए अनुच्छेद 239 एए और 239 एबी जोड़े गए। संसद ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 को भी पारित किया जो कि विधान सभा और मंत्रिपरिषद से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों से संबंधित है। विधानसभा को राज्य सूची में सभी मामलों या भारत के संविधान की समवर्ती सूची में सिवाय  प्रविष्टि   एक (सार्वजनिक व्यवस्था), दो (पुलिस) और 18 (भूमि) तथा राज्य सूची इन प्रविष्टियों से संबंधित 64, 65 और 66 प्रविष्टियों के अलावा समस्त कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है।


इस तरह, दिल्ली में एक फरवरी 1992 से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 239 के प्रभावी होने के बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिए एक विधान सभा की व्यवस्था बनी। इसी के अनुरूप दिल्ली विधानसभा की पहली बैठक 14 दिसम्बर 1993 को पुराना सचिवालय में आयोजित हुई।



Saturday, January 11, 2020

First Delhi Visit of Swami Vivekananda_1891_स्वामी विवेकानन्द की पहली दिल्ली यात्रा_1891

11012020_दैनिक जागरण


दिल्ली चलो का नारा देने वाले अमर स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने आध्यात्मिक गुरू स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) के विषय में लिखते है कि ‘‘मैं मुश्किल से पंद्रह साल का था जब विवेकानंद ने मेरे जीवन में प्रवेश किया, तब मेरे मन में एक क्रांति हुई और सब कुछ परिवर्तित हो गया।’’ यही युवा सन्यासी विवेकानन्द २७ वर्ष की आयु में पहली बार जनवरी 1891 के अंत में मेरठ से दिल्ली आएं।

स्वामी गम्भीरानन्द की पुस्तक "युग नायक विवेकानन्द" (प्रथम खण्ड) के अनुसार, 1891 की जनवरी के अन्तिम भाग में एक दिन प्रातःकाल स्वामीजी ने अकेले दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। उल्लेखनीय है कि स्वामीजी तपस्या करने के विचार से अकेले मेरठ से निकले थे। यहां तक कि उन्होंने अपने रहने के स्थान के विषय में किसी को नहीं बताने का निश्चय किया था। पुस्तक में बताया गया है कि मेरठ के उपरान्त साधारण वेषभूषा में साधारण रूप से विभूषित स्वामीजी ने हिन्दू-मुस्लिम-युगों की अनेक स्मृतियों से जुड़ी इतिहास प्रसिद्ध महानगरी दिल्ली में पदार्पण किया।

दिल्ली में स्वामीजी का डेरा सेठ श्री श्यामल दास का घर था। इस बारे में स्वामी गम्भीरानन्द लिखते हैं कि इस घर को केन्द्र बनाकर वे (स्वामी विवेकानन्द) अतीत काल के राजप्रासाद, दुर्ग, समाधिस्थल, परित्यक्त राजधानी के भग्न खण्डहर और गुल्माच्छादित निवास-स्थान और अन्यान्य प्राचीन गौरव के समाप्तप्राय अवशेष आदि को देखने निकलने लगे। उनकी अध्यात्मानुभूति पुष्ट ऐतिहासिक चेतना ने उन्हें बता दिया कि भारत की सभ्यता कितनी पुरानी है, भारत की संस्कृति किस प्रकार अविनश्वर है और विभिन्न धाराओं के मिलन से कितनी विचित्र तथापि क्रमश: वृद्धिशील है। पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं के इस अपूर्व लीलाक्षेत्र ने हजारों लुप्त महिमाओं की साक्ष्य अपने वक्ष में धारण कर उनके वैराग्यप्रवण मन को सहज रूप में ही बता दिया था कि सांसारिक ऐश्वर्य के क्षणभंगुर होने पर भी उसी के बीच में आत्मा की महिमा किस प्रकार चिरउज्जवल दीप्ति और विभिन्न भंगिमाओं से अपना विकास करती चली है। उनका मन उन दिनों काफी तेजपूर्ण था और दिल्ली के शीतकाल की विशुद्ध जलवायु के फलस्वरूप उनका शरीर भी स्वस्थ और सबल था।

मेरठ से स्वामी जी के किसी को बिना बताए आने के कारण उनके गुरुभ्राताओं ने दस दिनों बाद दिल्ली में उन्हें खोज निकाला और उनके साथ सम्मिलित हो गए। स्वामीजी को उनसे मिलकर प्रसन्नता तो हुई पर उन्हें अपनी तपस्या में बाधा की आशंका हुई। उन्होंने अपने गुरुभ्राताओं से कहा, देखो भाई मैंने तुम लोगों को पहले ही कहा है कि मैं अकेला रहना चाहता हूँ, मैंने तुम लोगों से कह रखा है कि मेरा पीछा मत करो। वही बात फिर कहता हूँ-मैं यह नहीं चाहता हूँ कि कोई मेरे साथ रहे। मैं अभी दिल्ली छोड़कर जा रहा हूँ। 

कोई मेरे पीछे चलने की चेष्टा न करे, कोई मुझे ढूंढ़ निकालने के लिए प्रयास न करें। मैं चाहता हूँ कि तुम लोग मेरी बातों का पालन करो। मैं सारे पुराने सम्बन्धों को तोड़ना चाहता हूँ। मैं अपनी इच्छा से भ्रमण करूंगा-पहाड़, जंगल, मरुभूमि अथवा नगर में-चाहे जो हो, जो मुसीबत आवे। मैं चला। मेरी इच्छा है कि हर कोई अपनी बुद्धि के अनुसार साधना करने में लग जाय। गुरुभाइयों ने उन्हें समझाकर कहा, हम लोगों को यह मालूम ही नहीं था कि तुम यहां ठहरे हो। हम लोग केवल दिल्ली नगर देखने आए थे। यहां आकर स्वामी विविदिशानन्द नामक एक अंग्रेजी-भाषी साधु के विषय में खबर मिली। तब उन्हें देखने आए। अतएव, तुमसे जो मुलाकात हो गयी, यह एक आकस्मिक घटना मात्र है। 

जैसे भी हो, स्वामीजी उस समय शान्त हो गए और तुरन्त दिल्ली त्यागकर नहीं गए। उनके दूसरे गुरुभाइयों के अलग-अलग स्थानों पर जाने के बाद दिल्ली में स्वामीजी के साथ स्वामी अखण्डानन्द और स्वामी अद्वैतानन्द ही रह गए। 

तब स्वामीजी गले में टाॅन्सिल होने के कारण उस समय दिल्ली के प्रसिद्ध डाक्टर हेमचन्द्र सेन को अपना गला दिखाने गए। तब डाक्टर सेन उनसे प्रभावित न होने के बावजूद गहन वार्तालाप के लिए उत्सुक थे। इस कारण डाक्टर साहब ने एक दिन अपने घर पर महाविद्यालय के अनेक अध्यापकों को बुला लिया और स्वामीजी भी अपने दोनों गुरुभाइयों के साथ उस बैठक में उपस्थित हुए। बैठक में शीघ्र ही विचार-विमर्श होने लगा और स्वामीजी की तीक्ष्ण बुद्वि और अगाध पाण्डित्य देखकर सभी चकित हो गए। इसके कुछ दिनों बाद, फरवरी 1891 में स्वामीजी दिल्ली से अलवर के लिए निकल गए।

दिल्ली की प्राचीनता का स्वामीजी पर एक अमिट प्रभाव पड़ा। विदेशी भूमि की यात्रा के समय उन्हें दिल्ली के भूदृश्य के समान स्थान देखने को मिलें। उन्होंने कैलिफोर्निया में 'सांता फे रूट' के बारे में सिस्टर निवेदिता को लिखा कि आज मैं जिन भूदृश्यों से होते हुए गुजर रहा हूं, वह दिल्ली के पड़ोस की तरह है। जहां आरंभ में एक बड़ा मरूस्थल, बेरंग पहाड़, डरावनी-कंटीली झाड़ियाँ और बेहद कम पानी है। यहां छोटी जल धाराएं (ठंड के कारण) जमी हुई हैं, लेकिन दिन में गर्मी है। मुझे लगता है, गर्मियों में ऐसा ही होना चाहिए। 

स्वामीजी को पेरिस यात्रा के समय दिल्ली की भावना की अनुभूति हुई। इस विषय पर स्वामीजी लिखते हैं कि मुझे ऐसा लगता है कि दिल्ली का चांदनी चौक एक समय में डे लाॅ कॉनकॉर्ड की तरह रहा होगा। यहाँ और वहां विजय स्तंभ, विजयी मेहराबें, पुरुषों और स्त्रियों तथा सिंहों की विशाल मूर्तियां मूर्तिकला कला के रूप में चौराहे पर सजी हुई हैं।


Sunday, January 5, 2020

Delhi and Political Life of Gandhi_ गांधी के राजनीतिक जीवन में दिल्ली





मोहनदास करमचंद गांधी दिल्ली में पहली बार वर्ष 1915 में आए थे। वे अपने पहले दिल्ली प्रवास के दौरान सेंट स्टीफंस कॉलेज के पहले भारतीय प्रिंसिपल सुशील कुमार रूद्र के कश्मीरी गेट स्थित आवास में ठहरे थे। इस प्रवास के दौरान गांधी ने 13 अप्रैल को कॉलेज के छात्रों को संबोधित किया था। गांधी ने कहा कि प्रिंसिपल से पहले ही यह बात सुनिश्चित करके कि कॉलेज का यूरोपीय स्टॉफ यहां के लोगों की भाषा समझता है, हिंदी में बोलने का निर्णय लिया है। उन्हें यह बात जानकर ख़ुशी हुई कि यूरोपीय स्टॉफ यहां की भाषा का जानकार है। उन्होंने छात्रों को कहा कि मैं आपको यह बात समझाना चाहूंगा कि आप अपने शिक्षकों का अनुसरण करें और अपने कॉलेज के "ध्येय वाक्य, सत्य के प्रति समर्पित" को ईमानदारी के साथ अपने जीवन में उतारें। इस तरह से आप अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए पूरी तरह सुयोग्य साबित होंगे। उन्होंने कहा कि काफी बरस पहले वह अपने गुरू गोखले (गोपाल कृष्ण गोखले) से मिले थे तब उन्होंने यह बात महसूस की थी कि उन्हें राजनीति के क्षेत्र में अपना गुरू मिल गया है और तब से उन्होंने पूरी विनीत भाव और ईमानदारी से उनका अनुसरण करने की कोशिश की है।
फिर गाँधी, दिल्ली में 23 नवंबर, 1919 को आयोजित प्रथम अखिल भारतीय खिलाफत आंदोलन में उपस्थित हुए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिन्दू-मुसलमानों के पारस्परिक सहयोग से केवल खिलाफत ही पैदा न की जाए, अपितु अन्य शिकायतों को भी दूर किया जाये। उन्होंने सम्मेलन में पहली बार असहयोग आंदोलन की अपनी योजना और क्रिया विधि प्रस्तावित की। अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करने, अंग्रेज सरकार से असहयोग करने और विदेशी लोगों को भारतीय लोगों की शिकायतों के प्रति प्रबुद्ध करने के लिए इंग्लैंड (और यदि आवश्यक हो तो अमेरिका) में प्रतिनिधि भेजने के प्रस्ताव पारित किए गए। यह उल्लेख दिलचस्प है कि पहले सत्याग्रह की योजना सुशील रूद्र के दिल्ली स्थित घर में गांधी के ठहराव के दौरान बनाई गयी।
गाँधी के नेतृत्व में दिल्ली खिलाफत आंदोलन का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गयी।  दिल्ली में असहयोग आंदोलन में शामिल होने के कारण हकीम अजमल खां को छोड़कर कांग्रेस के सभी प्रमुख नेता डाक्टर अंसारी, शंकर लाल, आसफ अली, देशबन्धु गुप्ता को जेल में डाल दिया गया। दिल्ली में 11 और 15 जुलाई के बीच हिन्दू और मुसलमानों में भयंकर संघर्ष हुआ, जिसके फलस्वरूप बहुत से व्यक्ति घायल हुए। सांप्रदायिक उन्माद के प्रति दुखी होकर गांधी ने 21 दिन का उपवास (18 सिंतबर) "आत्मशुद्धि" ( उन्होंने इसे यही संज्ञा दी) के उद्देश्य से किया। अंग्रेज़ पादरी और  स्टीफंस कॉलेज में शिक्षक सी. एफ. एन्ड्रयूज ने "यंग इंडिया" के अपने संपादकीय में उल्लेख किया है, दिल्ली में रिज के नीचे, शहर से काफी दूर दिलखुश भवन में गांधी अपना उपवास रख रहे थे। वही, दोनों समुदायों के बीच सदभाव लाने के लिए गांधी की अध्यक्षता में अखिल भारतीय पंचायत की स्थापना की गई।

वर्ष 1930 में गांधी के नेतृत्व में देश में असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। इस आंदोलन की शुरूआत औपचारिक रूप से गांधी ने 12 मार्च 1930 को डांडी की ओर कूच करके नमक का कानून तोड़ने की दृष्टि से की। 5 मई 1930 को गांधी के बंदी बनाए जाने की खबर के बाद दिल्ली में हड़ताल होने के साथ सभी दुकानें बंद हो गईं। कश्मीरी गेट स्थित जिला मजिस्ट्रेट के दफ्तर तक एक जुलूस निकाला गया जहां लाल रंग के कपड़े पहने हुए महिला स्वयंसेविकाओं ने दीवानी और फौजदारी अदालत, खजाने तथा पुलिस कार्यालयों का घेराव किया। देवदास गांधी, लाला शंकर लाल, देशबंधु गुप्त तथा चमन लाल सहित बहुत से लोगों ने गिरफ्तारियां दी। वर्ष 1931 में सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरे जोरों पर था।

यह निर्णायक समय था जब इस आंदोलन को राष्ट्रवादी बढ़ावा मिल रहा था। उसी समय अचानक दिल्ली शांतिवार्ता का केन्द्र बन गई थी।  अंग्रेज   वाइसराय लार्ड इर्विन तथा गांधी के बीच लंबी बातचीत चली तथा सरकार व कांग्रेस के बीच 5 मार्च 1931 को 15 दिन की लगातार बातचीत के बाद "गांधी-इर्विन पैक्ट" नामक एक समझौता हुआ। इसके कुछ दिनों बाद जब 23 मार्च को लाहौर में भगत सिंह सहित उनके दो साथियों को फांसी लगाई गई तो न केवल दिल्ली, बल्कि सारा देश शोक में डूब गया। दिल्ली में पूर्ण रूप से हड़ताल रही। 18 अप्रैल को लार्ड इर्विन के दिल्ली से रवाना होते ही गांधी-इर्विन पैक्ट का उल्लंघन होना शुरू हो गया। लार्ड इर्विन ने जिन बातों से सहमति प्रकट की थी उनको उसके बाद आने वाले नए वाइसराय लार्ड विलिंगडन ने अस्वीकार कर दिया। इतना ही नहीं, गांधी और सरदार पटेल को 4 जनवरी 1932 को गिरफ्तार कर लिया गया।

दूसरे महायुद्ध के शुरू होने पर 15 सितंबर, 1939 को दिल्ली में कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति की बैठक हुई। गांधी की सलाह पर कार्यकारिणी समिति ने अंग्रेजी सरकार से भारत को स्वतंत्र घोषित करने की प्रार्थना की। यूरोप में फ्रांस के पतन बाद जब 3 जुलाई 1940 को दिल्ली में दोबारा कार्यकारिणी समिति की बैठक हुई तब भी यह मांग रखी गई। भारत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध गांधी के नेतृत्व में सांकेतिक विरोध के रूप में वैयक्तिक सत्याग्रह आरंभ किया गया।

आंदोलन में एक स्थिति ऐसी भी आई थी जब गांधी ने अपेक्षा की, कि जो सत्याग्रही गिरफ्तार नहीं किए गए थे उन्हें युद्ध विरोधी प्रचार करते हुए दिल्ली की ओर पैदल प्रस्थान करना चाहिए। भारत में स्थिति खराब होते देख ब्रिटिश कैबिनेट के प्रस्तावों के साथ 23 मार्च 1942 को स्टेफोर्ड क्रिप्स दिल्ली आए। 27 मार्च को गांधी की उनसे बातचीत हुई और समझौते की उम्मीद के साथ वे 4 अप्रैल को दिल्ली से वापिस लौट गए। मौलाना आजाद की अध्यक्षता में दिल्ली में कार्यकारिणी समिति की एक बैठक हुई, जिसमें अंग्रेजों के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया गया।

भारत का वाइसराय बनने के बाद लार्ड माउन्टबेटन (24 मार्च 1947) ने गांधी सहित सभी प्रमुख राजनीतिक नेताओं, जिसमें मुहम्मद अली जिन्ना भी शामिल थे, की कठिन भारतीय समस्या का हल खोजने के लिए दिल्ली बुलाया। 3 जून की योजना अनिच्छा से स्वीकार कर ली गई। माउन्टबेटन ने एक प्रसारण में कहा कि जोर जबरदस्ती का विकल्प केवल बंटवारा है। स्वतंत्रता और विभाजन दोनों की घोषणा 15 अगस्त 1947 को एक साथ हुई।

भारत-विभाजन के कारण हुए विस्थापन और दंगों की भीषणता से दिल्ली भी अछूती नहीं रही। ऐसे में गांधी 9 सितंबर 1947 को दिल्ली आए। गांधी ने कश्मीर में पाकिस्तान के हमले के बावजूद भारत सरकार को पाकिस्तान की बकाया राशि का भुगतान करने के लिए कहा। अन्ततः उन्होंने आमरण अनशन तब तक जारी रखने का निर्णय लिया जब तक दिल्ली में सांप्रदायिक तनाव समाप्त नहीं हो जाता। 13 जनवरी, 1948 को उन्होंने सामुदायिक सौहार्द की पुनः स्थापना के लिए अनशन, उनका 15 वां, प्रारम्भ किया। 18 जनवरी को डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में सौ नेता बिरला भवन गए, जहां गांधी ठहरे हुए थे तथा उन्हें राजधानी में सांप्रदायिक शांति स्थापित करने का वचन दिया। दो सप्ताह से भी कम समय में राजधानी में सामान्य अवस्था की दोबारा स्थापना हो गई। अतः अनशन समाप्त हो गया। परंतु केवल 12 दिन के पश्चात् ही गांधी की हत्या हो गई।

लेखक प्यारेलाल ने अपनी पुस्तक "महात्मा गांधी-अंतिम चरण" में गांधी की शव यात्रा के बारे में लिखते हैं कि राजा जार्ज पंचम की प्रतिमा के आधार तक जनता आस पड़ोस के तालाबों को बड़ी मेहनत से पार करके पहुंची थी। जैसे ही जुलूस गुजरने लगा वे जुलूस का दृश्य भली प्रकार से देखने के लिए, पत्थर की छतरी को सहारा देने वाले खम्भों पर लटक गए, 150 फुट ऊंचे युद्व स्मारक की चोटी पर बैठे हुए दिखाई दिए, बत्ती के अथवा टेलीफोन के खम्भों पर तथा रास्ते के दोनों ओर लगे हुए वृक्षों की शाखाओं पर बैठ गए। दूर से समस्त केंद्रीय मार्ग (सेंट्रल विस्टा) मानवता का लगभग निश्चल सा विशाल जनसमुद्र दिखाई पड़ता था।

गांधी के पीछे थे, राजधानी के नागरिक 
दिल्ली में स्वतंत्रता संग्राम के चरित्र की विशेषता यह रही कि राजधानी की शहरी और ग्रामीण आबादी दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई में भाग लिया। महरौली और नरेला में स्थित खादी आश्रमों, बवाना की चौपाल और बदरपुर में गांधी खैराती अस्पताल कुछ ऐसे केंद्र थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के संदेश को फैलाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दिल्ली में आजादी की लड़ाई में हिंदू-मुस्लिम एकजुटता एक और खास बात थी। भारतीय मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन को गांधी के आह्वान कारण हिंदुओं का पूरा समर्थन मिला।

यह गांधी के नेतृत्व का ही करिश्मा था कि अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में दिल्ली की महिलाओं की हिस्सेदारी उल्लेखनीय थी। सत्यवती, पार्वती देवी डिडवानिया, अरुणा आसफ अली, वेद कुमारी, बृज रानी, मेमो बाई दिल्ली की कुछ ऐसी प्रमुख महिलाएं थीं, जिन्होंने आगे बढ़कर आंदोलन में भाग लिया। इन महिलाओं ने व्यापक रूप से विदेशी वस्तुओं की बिक्री के खिलाफ आंदोलन में दुकानों की पिकेटिंग में भाग लिया।
इस दौरान शिक्षक और छात्रों भी स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी के प्रभाव से अछूते नहीं थे। सेंट स्टीफन कॉलेज के प्रिंसिपल सुशील रुद्र सहित हिंदू कॉलेज के शिक्षक आजादी की लड़ाई में हरावल दस्ता थे। सेंट स्टीफन, रामजस, हिंदू, इंद्रप्रस्थ गर्ल्स कॉलेज के छात्र-छात्राओं ने आंदोलन में पूरी सक्रियता से भाग लिया।

गांधी ने दिल्ली में स्वतंत्रता आंदोलन को बहुत महत्व दिया और वास्तव में वे व्यक्तिगत रूप से यहां उपस्थित होकर उसे गति देने के इच्छुक थे। यही कारण है कि उन्होंने स्थानीय नेताओं जैसे हकीम अजमल खान, बहिन सत्यवती, देश बंधु गुप्ता, आसफ अली और डॉ मुख्तार अहमद अंसारी को काफी प्रोत्साहित किया। इस अवधि में वे अधिकतर रूद्र (सेंट स्टीफन कॉलेज), मोहम्मद अली, डॉ अंसारी के निवास और बिरला हाउस में रहे और लगातार वायसराय हाउस आते-जाते रहें।


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तिथि एवं वर्ष

दिल्ली में गांधी के कार्यक्रम का विवरण

  
13-04-1915  

गांधी दिल्ली में पहली बार वर्ष 1915 में आए। इस प्रवास के दौरान गांधी ने 13 अप्रैल को कश्मीरी गेट स्थित सेंट स्टीफंस कॉलेज में छात्रों को संबोधित किया था।

01-11-1918
पटौदी हाउस में दिल्ली के नागरिकों की सार्वजनिक बैठक में भाग लिया।

23-11-1919
गांधी ने पहले अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन में भाग लिया और खिलाफत सहित दूसरी शिकायतों के निवारण के लिए एक संयुक्त हिंदू-मुस्लिम आंदोलन की वकालत की।

30-11-1919
गांधी ने प्रिंसेस पार्क में रोलेट एक्ट के खिलाफ आयोजित बैठक को संबोधित किया।

15-9-1924
गांधी ने हिंदुस्तान टाइम्स समाचार पत्र का उद्घाटन किया।

17-9-1924 से
8-10-1924
गांधी ने मौलाना मोहम्मद अली के निवास पर दिल्ली में आत्म शुद्धि के उपाय के रूप में 21 दिन का उपवास रखा।

1-3-1925
गांधी ने रायसीना हॉस्टल में हिंदू-मुस्लिम एकता पर सर्वदलीय सम्मेलन समिति की उप-समिति की बैठक की अध्यक्षता की।

19-2-1929
गांधी ने विठ्ठलभाई पटेल की पार्टी में वायसराय सहित भाग लिया।

1-11-1929
गांधी ने दिल्ली पहुंचकर संयुक्त वक्तव्य के मसौदे तैयार करने के लिए विट्ठलभाई पटेल के घर पर नेताओं की बैठक में शामिल हुए। गांधी ने इस बात को रेखांकित किया कि शर्तों को पूरा किए बिना अंग्रेज वायसराय का प्रस्ताव अस्वीकार्य है।

2-11-1929
गांधी ने टाउन हॉल में भाषण दिया। कांग्रेस समितिमजदूर सभा ने उन्हें अपने विचारों से अवगत करवाया और नागरिकों ने उन्हें धनराशि भेंट की।

17-2-1931
गांधी रेल से गाजियाबाद पहुंचे। वे शाहदरा में सुबह की सैर के बाद डॉ अंसारी के घर पहुंचे। वहां पार्क में एकत्र लोगों से बातचीत की। अंग्रेज वायसराय से मिलने से पहले वी. एस शास्त्रीतेजबहादुर सप्रू और एम. आर. जयकर से भेंट की।

25-2-1931
गांधी ने हिंदू कालेज में छात्रों और शिक्षकों को संबोधित किया।

26-2-1931
गांधी ने शीशगंज गुरुद्वारा में संगत को भाषण दिया।

5-3-1931
वायसराय हाउस में लॉर्ड इरविन और गांधी ने अस्थायी समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसकी आधिकारिक घोषणा शाम 5 बजे की गई।

10-12-1933
गांधी ने हरिजन क्वार्टरोंखादी भंडार और जामिया मिलिया इस्लामिया का दौरा किया।

13-12-1933
गांधी सुबह अलीपुर गए और जनसभा को संबोधित किया।

2-1-1935
गांधी ने हरिजन सेवक संघ के नए संविधान के बारे में चर्चा की। दिल्ली में हरिजन कॉलोनी का शिलान्यास किया। नरेला में हरिजन सम्मेलन का उद्घाटन किया।

12-1-1935
दिल्ली में मवेशी प्रजनन फार्म का दौरा किया।

15-1-1935
दिल्ली में माॅडर्न हाई स्कूल का दौरा किया।

19-1-1935
जामिया मिल्लिया में एक भाषण कार्यक्रम की अध्यक्षता की और सांसियों की बस्ती में सांसी समाज के लोगों से बातचीत की।

23-1-1935
गांधी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधीडॉ जाकिर हुसैनकृष्णन नायर के साथ दिल्ली के गांवों का तीन दिवसीय दौरा शुरू किया। इस दौरे में नरेला और बाकनेर भी गए।

24-1-1935
गाँधी ने थुडसुलतानपुर और बवाना नामक गांवों का दौरा किया।

25-1-1935
गाँधी ने हुमांयूपुरमुनिरका और रामताल का दौरा किया।

27-1-1935
गाँधी ने दिल्ली में विधायकों को संबोधित किया।

15-03-1939
गाँधी ने दिल्ली जेल में कैदियों को भूख हड़ताल समाप्त करने का अनुरोध किया।

18-03-1939
गाँधी ने लक्ष्मी नारायण मंदिर के शुभारंभ के अवसर पर भाषण दिया।

27-07-1939
गाँधी ने हरिजन काॅलोनी में हरिजन औद्योगिक गृह के पहले दीक्षांत समारोह के कार्यक्रम की अध्यक्षता की और छात्रों को प्रमाणपत्र वितरित किए।

01-11-1939
गाँधी ने जिन्ना के आवास में उनसे बातचीत की।

02-11-1939
गाँधी ने हरिजन निवास में प्रार्थना कक्ष के उद्घाटन समारोह में भाषण दिया।

सितंबर, 1947
गाँधी ने सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों का दौरा किया। पाकिस्तान से आए हिंदू और सिख विस्थापितों के शरणार्थी शिविरों का  भी प्रवास।

13-1-1948
गाँधी ने दिल्ली में सांप्रदायिक एकता के लिए बिरला हाउसतीस जनवरी मार्ग पर पांच दिन का उपवास रखा।

27-01-1948
गांधी ने महरौली स्थित ख्वाजा कुतुबउद्दीन बख्तियार की दरगाह का प्रवास किया और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया।

30-01-1948
नाथूराम गोड़से ने 78 वर्षीय गांधी की बिरला हाउस में हत्या कर दी।



Saturday, January 4, 2020

History of Delhi_Indraprastha to Shahjahanabad_दिल्ली_इन्द्रप्रस्थ से शाहजहांबाद तक

04012020_दैनिक जागरण 


अंग्रेज इतिहासकार कर्नल गार्डन हेअर्न ने वर्ष 1908 में लिखी किताब “दी सेवन सीटिज आफ डेल्ही”, जिसका दूसरा संस्करण 1928 में छपा था, में सात दिल्ली का विवरण है। जबकि ब्रजकृष्ण चांदीवाला की किताब “दिल्ली की खोज” (वर्ष 1964) में अठारह दिल्ली का उल्लेख है।

एक शहर की इतनी गिनती से स्वयंसिद्ध है कि इस शहर की किस्मत में ही उजड़ना और बसना लिखा था। आखिर परिवर्तन ही जीवन का मूल तत्व है। यही कारण है कि यह नगर अनेक बार उजडा़ और दोबारा स्थान बदलकर नए ढंग से बसता रहा। इस उजड़ने और बसने के सिलसिले में इस नगर के नाम भी बदलते रहे हैं। ज्ञात इतिहास में दिल्ली पुराना नाम है और यह आज भी प्रचलित है। ऐसे में, दिल्ली से सम्बन्धित नामों पर अलग-अलग रूप में विचार बनता है।
दिल्ली का सबसे प्राचीन नाम, जिसे पाण्डवों की दिल्ली कहा गया है, का नाम इन्द्रप्रस्थ है। इस समय दिल्ली का पुराना किला जहां स्थित है, वहां पर पहले पाण्डवों का यह नगर था, ऐसा कहा जाता है।

“पृथ्वीराजरासउ” के अनुसार, महाभारत के आदिपर्व में इस नगर का वर्णन मिलता है। पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से खाण्डवप्रस्थ पहुंचकर इन्द्र के सहयोग से इन्द्रप्रस्थ नाम नगर बसाया। इसके बसाने में विश्वकर्मा ने अद्भुत कार्य किया है, जिसका महाभारत में विस्तार से वर्णन मिलता है। जातकों और पुराणों में भी इन्द्रप्रस्थ का उल्लेख मिलता है। पुराने किले के भीतर का भाग दिल्ली का सबसे प्राचीन भाग है। इस भाग को इन्द्रप्रस्थ से सम्बन्धित भाग कहा जाता है। इन्द्र ने यह नगर बसाने में सहयोग दिया, अतः उसी के नाम पर यह नगर इस भूमि से जुड़कर इन्द्रप्रस्थ कहलाया।

महाभारत में इन्द्रप्रस्थ का वर्णन जिस रूप में है, वह अद्भुत नगरी के रूप में है। आदिपर्व के 206 वें अध्याय में इस नगरी के निर्माण का वर्णन है। यह नगर योजनाबद्ध है। विश्वकर्मा ने इस नगरी को बनाया था। पाण्डवों को जब आधा राज्य दिया गया तो उन्होंने इन्द्रप्रस्थ को अपनी राजधानी बनाया। पाण्डवों के समय से तोमरों के समय तक का ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है। इस बीच का दिल्ली का इतिहास अज्ञात है और विद्वानों ने तरह-तरह के अनुमान ही प्रस्तुत किए हैं। दिल्ली का ज्ञात इतिहास तोमर वंश के राज्य के बाद का ही है।

तोमरों के समय से पूर्व दिल्ली का जो विवरण मिलता है, उसे पौराणिक मानना चाहिए। पुराण, इतिहास का प्राचीन रूप है, जिसके साथ धर्म भी जुड़ा हुआ है। ईसा पूर्व की पांचवीं शती से लेकर आठवीं शती तक (तोमरों के अस्तित्व में आने तक) का दिल्ली का इतिहास ज्ञात नहीं है। लगभग डेढ़ हजार वर्ष तक (ज्ञात इतिहास से पूर्व) का इतिहास नहीं मिलता।
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट, भाग-एक में अलेक्जेंडर कनिंघम ने दिल्ली के सम्बन्ध में कुछ पारम्परिक मिथकीय आख्यान भी लिखे हैं। इनमें राज दिलू या ढिलू का वृत्त है। कहा गया है कि फरिश्ता ने इसे परम्परा के आधार पर लिखा है। कनिंघम ने निष्कर्ष रूप में लिखा है कि न चाहते हुए भी मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ  कि (दो अपवादों को छोड़ते हुए-लौह स्तम्भ और कुतुब-मंदिरों के अवशेष) दसवीं तथा ग्यारहवीं शती से पूर्व के कुछ भी अवशेष हमें उपलब्ध नहीं हैं।
दिल्ली का नाम योगिनीपुर के रूप में भी प्रसिद्व रहा है। इस नाम का कारण योगमाया का मन्दिर है। इस मन्दिर का सम्बन्ध भी महाभारत काल से जोड़ा जाता है।

ब्रजकृष्ण चांदीवाला ने अपनी किताब “दिल्ली की खोज” में लिखा है कि श्रीकृष्ण के जन्म के सम्बन्ध में भागवत में कथा है कि वह योगमाया की सहायता से कंस के जाल से बच पाए। उसी योगमाया की स्मृति में सम्भवतः पांडवों ने यह मन्दिर स्थापित किया होगा या यह हो सकता है कि उस खांडव वन को जलाकर श्रीकृष्ण और अर्जुन निवृत्त हुए तो उसे विजय की स्मृति में यह मन्दिर बना दिया हो। क्योंकि बिना भगवान की योगशक्ति के इन्द्र को पराजित करना आसान न था। जब तोमरवंशीय राजपूतों ने इस स्थान पर दिल्ली बसाई तो सम्भव है कि उन्होंने योगमाया की पूजा करनी प्रारम्भ कर दी हो क्योंकि वह भी चन्द्रवंशी थे और देवी के उपासक थे।

“पृथ्वीराज रासो” में दिल्ली का नाम जुग्गिनिपुर के रूप में आया है। पंक्तियां इस प्रकार है-
तिहिं तप आषेटक भयौ, थिरू न रहैं चहुंवान।
वर प्रधान जुग्गिनि पुरह, धर रष्षै परधान।
(अर्थात कैमास को राज्य का भार सौंपकर पृथ्वीराज स्वयं (दुर्गा वन में) मृगयार्थ चला गया। कैमास को जुग्गिनिपुर की रक्षा का भार सौंपा गया।)

“पुरातन प्रबन्ध संग्रह” में पृथ्वीराज प्रबंध के जो छन्द उद्घृत हैं, उनमें दिल्ली को योगिनीपुरा कहा गया है।
संस्कृत में योगिनीपुर कहा गया है और रासो की भाषा में उसी का रूप जुग्गिनिपुर है। इस नाम का उल्लेख तोमरों के बाद के इतिहास में ही मिलते हैं। तोमरों का जब राज्य था, उस समय यह नाम अधिक प्रचलित रहा हो और बाद में पृथ्वीराज चौहान के समय में भी यह नाम प्रचलित रहा है।

महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक "दिल्ली, मेरी दिल्ली" के अनुसार, कहा गया है कि इस समय में योगमाया का जो मन्दिर है उसे अकबर द्वितीय के काल में सन् 1827 में लाला सिद्धमलजी ने बनवाया था। योगिनीपुर से सम्बन्धित उल्लेखों को देखते हुए इस मन्दिर के प्राचीन होने के सम्बब्ध में सन्देह नहीं किया जा सकता। "इन्द्रप्रस्थ प्रबन्ध" (1715 वर्ष के आसपास की रचना) में दिल्ली के ग्यारह नाम दिए गए हैं। उनमें योगिनीपुर भी है।

हरिहर निवास द्विवेदी की किताब "दिल्ली के तोमर" के अनुसार, ग्यारह नामों से सम्बन्धित पंक्तियां इस प्रकार है
शक्रपंथा इन्द्रप्रस्था शुभकृत् योगिनीपुरः
दिल्ली ढ़िल्ली महापुर्या जिहानाबाद इष्यते।
सुषेणा महिमायुक्ता शुभाशुभकरा इति।
एकादशमितनामा दिल्लीपुरी च वर्तते।

इनमें शक्रपंथा, इन्द्र के राज्य का सतयुग का नाम है, दिल्ली और शाहजहांबाद तोमरों के पश्चात के नाम हैं। दूसरे सर्ग में शक्रपंथा से इन्द्रप्रस्थ नाम कैसे पड़ा इसका वर्णन है। शक्रपंथा में इन्द्र ने राज्य किया, इस कारण उसका नाम इन्द्रप्रस्थ पड़ा था फिर पांडव वंश के राजाओं के नाम दिये गये हैं। तृतीय सर्ग में रामवंश का राज्य प्रारम्भ होता है। रामवंश का पहला राजा शंखध्वज है। योगिनीपुर राजधानी बनाई तथा राजधानी का नाम दिल्ली रखा। उसके पश्चात परमार विक्रमी राजा हुआ।
दिल्ली के नामों में योगिनीपुर का नाम अनेक ग्रन्थों में मिलता है। तोमरों के समय में यह नाम प्रचलित रहा होगा। इस नाम के ऐतिहासिक उल्लेखों को देखते हुए, (इन उल्लेखों में अनुश्रुतियां अधिक हैं, फिर भी) इस बात को तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि दिल्ली से यह नाम पुराना है।

अनंगपुर
इन्द्रप्रस्थ से दिल्ली को हटाकर सातवीं या आठवीं शती में प्रथम अनंगपुर ने अड़गपुर बसाया। इसे अनकपुर तथा अनंगपुर भी कहा गया है। यह बदरपुर-महरौली रोड से पूर्व दिषा में कोई ढाई मील के अन्तर पर पहाड़ियों में बना हुआ है। हरिहर निवास द्विवेदी ने "दिल्ली के तोमर" पुस्तक अनंगपाल प्रथम को तोमरों का संस्थापक माना है। उन्होंने लिखा है कि परन्तु एक बात में कोई सन्देह नहीं है कि दिल्ली के प्रथम राजा का विरूद अनंगपुर था। इतिहास के प्रयोजन के लिए दिल्ली के तोमर राज्य के संस्थापक का नाम अनंगपाल प्रथम मानकर चलना सुविधाजनक होगा।
यह अनंगपुर बहुत दिनों तक आबाद नहीं रहा। स्वयं तोमरों के काल में ही राजधानी का स्थान बदल गया। अनंगपाल प्रथम का समय 736 वर्ष से 754 वर्ष माना गया है।

ढिल्लिकापुरी
अनंगपाल प्रथम के पुत्र महीपाल ने महीपालपुर बसाया था। कहते हैं, इसी महीपालपुर और योगिनीपुर के बीच में दूसरे अनंगपाल ने 1052 वर्ष के आसपास ढिल्लिकापुरी नई राजधानी बसाई।
कहते हैं दिल्ली के पास ही सारवन/सरवन नामक एक गांव में विक्रम संवत् 1384 (सन 1328 वर्ष) का एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख में लिखा है
देशोऽस्ति हरियानाख्याः पृथ्व्यिां स्वर्गसन्निभः
ढ़िल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।
तोमरान्तरं तस्यां राज्यं हितकंटकम्
चाहामाना नृपाष्चक्रः प्रजापालन तत्पराः।
इन पंक्तियों में ढ़िल्लिकाख्या पुरी ढ़िल्लिकापुरी का उल्लेख है। यदि यह उल्लेख प्रामाणिक है, तो इस बात पर विचार करना पड़ेगा कि दिल्ली का मूल नाम ढ़िल्लिकापुरी है।

इन्द्रप्रस्थ से ढ़िल्लिकापुरी तक के नाम संस्कृत भाषा से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। इन्द्रप्रस्थ तो विशुद्ध रूप से संस्कृत है। योगिनीपुर भी संस्कृत है। इस योगिनीपुर से सम्बन्धित इसका एक और रूप जुग्गिनिपुर मिलता है। अनंगपुर, संस्कृत का नाम है। इन नामों में इन्द्रप्रस्थ नाम प्राचीन है।

इस इन्दरपत के सम्बन्ध में सर सैयद अहमद खां ने "अतहर असनादीद" में लिखा है, पहले इन्द्रप्रस्थ उस मैदान का नाम था जो पुराने किले और दरीबे के खूनी दरवाजे के दरमियान में है। हिन्दुओं के एअतकाद में इन्द्र नाम है अकास के राजा का जो हिन्दुओं के महजब में एक मुकररी राजा है और प्रस्थ कहते हैं, दोनों हाथों के मिले हुए लबों को। हिन्दुओं के एअतकाद में ये बात है के यहां के राजा इन्द्र ने किसी फरजी जमाने में दोनों हाथ भरकर मोतियों का दान किया था। इस सबब से इस जगह को इन्द्रप्रस्थ कहते हैं। कसरत इस्तेमाल से ’रे’ और ’सीन’ हजफ (लोप) हो गया और इन्दरपत मशहूर हो गया और मेरी समझ में ये मानी तो ऐसे ही है जैसे और हिन्दुओं की कहानियां। सही बात ये मालूम होती है के पत के मानी साहब और मालिक और हाकिम के हैं। जब शहर आबाद हुआ तो आबाद करने वाले ने नेक फाल समझकर इन्दरपत नाम रखा यानी इस शहर का मालिक इन्द्र है जो अकास और बहिश्त का राजा है। पहले जमाने में यहां के राजाओं की तख्तेगाह में हस्तिनापुर था जो गंगा के किनारे दिल्ली से तखमीनन सौ मील दूर है। अब इस शहर का निशान नहीं रहा लेकिन शहर शाहजहान आबाद के जुनुब की तरफ दिल्ली दरवाजे के बाहर जो जमीन है, इन्दरपत की जमीन कहलाती है। मगर खास इन्दरपत की आबादी अब नहीं रही और सारी जमीन में अब जिआरत होती है और वहां के जमीनदार पुराने किले में बसते हैं और ये सबसे पहला शहर है जो यहां आबाद हुआ। इसके बाद फिर और आबादियां इसके आसपास होती रही।
इन्द्रप्रस्थ का रूप इन्दरपत बना है। यह नाम दिल्ली में बाद में बोलचाल में प्रचलित हुआ।
इन्द्रप्रस्थ नाम पांडवों के समय का नाम है। इन्द्रप्रस्थ से लेकर दिल्ली नामकरण तक के नामों में अरबी, फारसी, तुर्की भाषाओं का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई नहीं देता। 

मुहम्मद गौरी का जब आक्रमण हुआ और बाद में गुलाम वंश का शासन यहां पर हो गया, उस समय तक दिल्ली नाम का प्रचलन हो गया था। दिल्ली यह नाम तोमरों के समय का नाम है।
कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा निर्मित मस्जिद पर हिजरी सन् 587 के शिलालेख है कि उक्त मस्जिद के निर्माण में पांच करोड़ दिल्लियाल (दिल्ली की मुद्राओं का) मूल्य का मसाला लगा था।
इस दिल्लियाल शब्द में दिल्ली रूप है। इस रूप के लिखे जाने में दिल्ली का प्रयोग मुस्लिम शासकों द्वारा, उनके यहां पर बस जाने के बाद हुआ है। 'याल' यहां मुद्रा के अर्थ में प्रयुक्त है। बाद में फारसी में इसी मुद्रा के लिए (हसन निजामी के ताजुल-मआसिर में) "देहलीवाल" शब्द का प्रयोग हुआ है। दिल्लीयाल तथा देहलीयाल दोनों में भाषा भेद है।

"पृथ्वीराजरासो" (बृहत् संस्करण) का तीसरा समय दिल्ली किली कथा है। इसी तरह दिल्ली की राजावली भी मिलती है। इनमें अनुश्रतियां हैं। लौहस्तम्भ को दिल्ली की किली कहा गया है। इस सम्बन्ध में जो अनुश्रति है, उसे कनिंघम ने भी अनुश्रति के रूप में ही लिखा है। वस्तुतः ज्ञात इतिहास में सबसे पुरानी दिल्ली का भाग कुतुब मीनार के पास का भाग है। लौहस्तम्भ यही है। लालकोट का भाग भी यही है। पृथ्वीराज चौहान का सम्बन्ध इस दिल्ली के साथ जोड़ा जाता है और जब कुतुबुद्दीन ऐबक का राज्य शुरू हुआ तो उसकी राजधानी भी इसी भाग में थी। दिल्ली नामकरण का सम्बन्ध इसी भाग से है।
गुलाम वंश के समय में राजधानी तोमरों की दिल्ली ही रही। इसी वंश के दसवें बादशाह कैकबाद ने (बलबन के पोते ने) 1286 वर्ष में किलोखड़ी में एक महल बनाया और वहां नया शहर बसाया।
इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने 1303 वर्ष में सीरी को राजधानी बनाया।
बाद में गयासुद्दीन तुगलक ने 1321-1332 वर्ष में राजधानी का स्थान बदल दिया। सीरी से हटाकर उसने नया नगर तुगलकाबाद बसाया। उसी के लड़के मोहम्मद आदिलशाह ने तुगलकाबाद के निकट आदिलाबाद बसाया। कुछ वर्ष बाद उसने दिल्ली (तोमरों की) और सीरी के चारों ओर एक दीवार 1327 वर्ष में बनवाई और इस तरह जो नया शहर बना, उसका नाम जहांपनाह रखा। बाद में फिरोजशाह तुगलक ने 1354 वर्ष में एक और नया नगर फीरोजाबाद के नाम से आबाद किया। तैमूर के आक्रमण ने इस नये शहर को पूरी तरह से बरबाद कर दिया। बाद में सैयद खानदान ने पहले बादशाह खिजर खां ने 1418 वर्ष में खिजराबाद बसाने का प्रयत्न किया और उसके बाद बाद मुबारकशाह ने 1432 वर्ष में मुबारकाबाद आबाद किया। जब मुगलों ने (बाबर ने) भारत पर आक्रमण किया, उस समय तक दिल्ली के इतने रूप बन गए थे। मुबारकाबाद के बसने के बाद में ही मुगल बादशाह भारत में आते हैं।
मुस्लिम बादशाहों का शासन 1193 वर्ष में शुरू होता है और तब से 1286 वर्ष तक लगभग (गुलाम वंश के दसवें सुल्तान तक) 93 वर्ष तक राजधानी कुतुब के पास ही दिल्ली (तोमरों की दिल्ली) ही रहती है। किलोखड़ी (1286 वर्ष) नया शहर बसाया गया, 17 वर्ष बाद 1303 वर्ष में सीरी, आठ वर्ष बाद 1321 वर्ष में तुगलकाबाद, दो वर्ष बाद 1323 वर्ष में आदिलाबाद, चार वर्ष बाद 1327 वर्ष में जहांपनाह, सत्ताईस वर्ष बाद 1354 वर्ष में फीरोजाबाद, 54 वर्ष बाद 1458 वर्ष में खिज्रबाद और 14 वर्ष बाद 1432 वर्ष में मुबारकबाद (जिसे मुबारकपुर भी कहा गया है) शहर बसते हैं।

लोदियों के समय राजधानी आगरे चली जाती है और फिर बाद में मुगल आ जाते हैं। कुल मिलाकर,1193 वर्ष से 1432 वर्ष तक 239 वर्ष की अवधि में तोमरों की दिल्ली से मुबारकाबाद तक पहुँच जाते हैं। इनमें भी प्रथम 93 वर्ष तक राजधानी पुरानी दिल्ली ही रहती है। इन 93 वर्षों को हटा दे तो 146 वर्षों के भीतर की दिल्ली किलोखड़ी, सीरी, तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फीरोजाबाद, खिज्राबाद और फिर मुबारकाबाद है। इस बीच आठ स्थल बदल जाते हैं। मेहरौली के निकट ढ़ीली है। इसी तरह ढ़िली के निकट खिड़की (खिरकी) है और उससे निकट सीरी है और सीरी से उत्तरी में किलोखड़ी है।
जब मुस्लिम सत्ता ने दिल्ली पर अधिकार किया, उस समय उसका नाम ढ़िली के रूप में प्रचलित रहा होगा। बाद में इन सुल्तानों ने अपनी सुविधा के लिए जब नये नगर बसाए, तो उनका नामकरण उनकी अपनी भाषा में है। तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फिरोजाबाद, खिज्राबाद तथा मुबारकाबाद नाम ऐसे ही हैं। बलबन के पोते ने (कैकबाद ने) ने जब नया शहर बसाया तो उसने उसका नाम बदला नहीं, किलोखड़ी गांव के पास यह नया शहर बसाया गया।
यह नाम बहुत दिनों तक आबाद नहीं रहा।

इसी तरह, अलाउद्दीन खिलजी के समय सीरी को राजधानी बनाया गया। सीरी नाम भी गांव का है और यह पुराना नाम है।
विदेशी मुस्लिम हुकुमरानों की एक शताब्दी के आसपास का समय दिल्ली में ही गुजरा है। बाद में जब नगर का विस्तार हुआ और किलों का निर्माण भी हुआ, तो वे उसी नाम के नगर से जाने गए। किलोखड़ी हो या सीरी या और कोई-आबाद, सब के सब दिल्ली के ही भाग रहे। यहां तक कि मुगल बादशाह शाहजहां का बसाया हुआ शहर भी शाहजहांबाद के रूप में ख्यात नहीं हो सका, वह भी दिल्ली कहलाया, आज की पुरानी दिल्ली, शाहजहांबाद है।

तुगलकाबाद (1321 वर्ष से 1323 वर्ष तक जिसका निर्माण हुआ) के दरवाजों के नाम निम्नलिखित है। चकलाखाना दरवाजा, धोवन धोवनी दरवाजा, नीमवाला दरवाजा, बड़ावली दरवाजा, चोर दरवाजा, होड़ी दरवाजा, लालघंटी दरवाजा, तैखंड दरवाजा, तलाई दरवाजा। ये सारे शब्द ऐसे हैं, जो स्थानीय है। दरवाजों के नामकरण में वे तथ्य अधिक काम करते हैं, जो दरवाजे के पास पाए जाते हैं। इन नामों में 'दरवाजा' तो फारसी शब्द है। 'चकला' शब्द तुर्की है।
शाहजहांबाद (इस समय की पुरानी दिल्ली) के 52 दरवाजे बतलाए जाते हैं। इन दरवाजों के सम्बन्ध में लिखा गया है, इस नये शहर जहांपनाह (मुहम्मद तुगलक के समय में बने) के पुरानी दिल्ली (कुतुब मीनार के पास की) और सीरी (अलाउद्दीन खिलजी के समय में बसाया गया शहर) को मिलाकर 13 दरवाजे थे। इन 13 मंे से 6 उत्तर-पश्चिम में थे, जिनमें से एक का नाम मैदान दरवाजा था, लेकिन यजदी ने इसका नाम हौजखास दरवाजा लिखा है क्योंकि वह इस नाम के हौजखास दरवाजा लिखा है क्योंकि वह इस नाम के हौज की ओर खुलता है। इन नामों में 'मैदान' तो फारसी शब्द है और 'बुरका' अरबी है। कुतुब मीनार के पास का अलाई दरवाजा अलाउद्दीन खिलजी (1310 वर्ष) का बनाया हुआ है। इसमें 'अलाई' (1310 वर्ष) का तात्पर्य बनाया हुआ है। इसमें 'अलाई' (तात्पर्य ऊंचा) शब्द अरबी है और दरवाजा फारसी शब्द है।

तोमरों के समय जो दिल्ली थी, उसमें सुल्तानों के समय में बहुत विस्तार हुआ। यह विस्तार सुल्तानों के समय में जहांपनाह के रूप में सबसे अधिक हुआ। उसने (मुहम्मद तुगलक) मेवातियों की लूटमार से बचाने के लिए पुरानी दिल्ली और सीरी दोनों की आबादियों को जोड़ दिया। यह नई चारदीवारी 'जहांपनाह' कहलाने लगी। मुहम्मद बिन तुगलक के ही समय में ही दिल्ली से हटकर देवगिरी राजधानी बनाई गई थी। इससे बसा-बसाया नगर उजड़ गया, बाद में फिर दिल्ली को ही राजधानी बनाया गया।
जियाउद्दीन बरनी ने "तारीख-ए-फीरोजशाही" में लिखा है, सुल्तान की दूसरी योजना यह थी कि उसने देवगिरी को अपनी राजधानी बनाया और उसका नाम दौलताबाद रखा। इससे साम्राज्य की राजधानी नश्ट हो गई। सुल्तान ने किसी से सलाह नहीं की और लाभ-हानि पर विचार नहीं किया, जिससे दिल्ली नगर, जो 170 या 180 वर्ष से बगदाद और कैरो की प्रतिस्पर्धा करता था और जिसकी स्मृद्वि बढ़ती जाती थी, नष्ट-सा हो गया।

बाद में फिरोजशाह तुगलक के समय में दिल्ली फिर आबाद ही गया। फिरोजाबाद का निर्माण हुआ। शम्स-ए-सिराज-अफीफ ने फिरोजाबाद के निर्माण के बाद की दिल्ली का वर्णन इस प्रकार किया है-सुल्तान ने फिरोजशाह तुगलक ने जमुना नदी के तट पर गाबिन नामक गांव की भूमि पसन्द करके दूसरी बार लखनौती जाने से पहले वहां फिरोजाबाद नामक नगर स्थापित किया। यहां उसने एक महल का निर्माण शुरू किया। दरबार के अमीरों ने भी वहां पर अपने मकान बनवा लिए। इस प्रकार दिल्ली में पांच कोस की दूरी पर एक नया नगर खड़ा हो गया।

तैमूरलंग ने जब भारत पर आक्रमण किया, तो उसने दिल्ली को लूटा था। स्वयं तैमूर ने अपनी आत्मकथा "मुलफुजात-ए-तैमूर" में उस समय की दिल्ली का वर्णन किया है। तैमूर के शब्दों में दिल्ली का वर्णन ऐसे हैं, जिस रात को मैंने सुल्तान और उसके सेनापतियों के दिल्ली से भाग जाने की खबर सुनी तथा अमीर अल्लाहदाद और दूसरे अफसरों के हौज रानी के दरवाजे की चौकसी करने के लिए भेजा। इसी दरवाजे से महमूद भागा था। बरक नामक दरवाजे से मल्लू खां भागा था। मैंने अपने आदमी सारे दरवाजों पर भेज दिए और आदेश दिया कि किसी को निकलने नहीं दिया जाय।

तैमूरलंग ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सीरी गोल नगर हैं इसमें ऊंची-ऊंची इमारतें हैं। इनके चारों ओर ईंट और पत्थर की प्राचीरें बनी हुई हैं। जिसको जहांपनाह कहा जाता है। वह आबाद शहर के मध्य में स्थित है। इन तीनों नगरों की प्राचीर में 30 दरवाजे हैं। जहांपना में 13 दरवाजे हैं। सीरी के सात दरवाजे हैं। पुरानी दिल्ली की प्राचीर में दस दरवाजे हैं।
सुल्तानों के समय में जो दिल्ली रही है, वह इस समय पूरी तरह से दिखलाई नहीं देती। कुछ खंडहर, कुछ इमारतें और मकबरे शेष हैं। दिल्ली का सबसे पुराना भाग तो अब भी (कुतुब मीनार के पास का) सुरक्षित है किन्तु किलोखड़ी, सीरी, तुगलकाबाद, आदिलाबाद, जहांपनाह, फिरोजाबाद, मुबारकाबाद आदि सब उजड़ गए हैं। सुल्तानों के समय में ही दिल्ली दो बार तो पूरी तरह से उजड़ गई थी। मुहम्मद तुगलक के समय में जब उसने अपनी राजधानी देवगिरी से बदल दी थी और दूसरे जब तैमूरलंग का आक्रमण हुआ, उस समय भी नष्ट किया गया। इनके बाद जब शेरशाह सूरी ने दिल्ली पर विजय प्राप्त की दिल्ली की दीवारें तोड़ दीं और उसी के मसाले से अपना नया नगर बसाया। कहना यह है कि सुल्तानों की दिल्ली जिस तेजी से घनी आबाद हुई, उतनी ही तेजी से वह नष्ट भी हुईं।

सुल्तानों के शासन के 322 वर्षों से (1193 वर्ष से 1525 वर्ष तक) जो दिल्ली रही हेै, उस दिल्ली के आज हमें नगर के रूप में दर्शन नहीं होते। स्वयं सुल्तानों ने समय-समय पर दिल्ली में ही अपनी-अपनी सुविधानुसार दिल्ली में स्थान बदले हैं और आबादियां बसाई हैं। मुगलों के समय-समय पर आक्रमण हुए हैं और विशेष रूप से तैमूर का आक्रमण तो बहुत प्रबल था। मुहम्मद तुगलक के समय तो दिल्ली देवगिरी में स्थानांतरित हुई थी और बाद में जब मुगल यहां आए (बाबर), उस समय से पहले ही राजधानी आगरे में चली गई थी। सिकन्दर लोदी ने ही राजधानी बदल दी थी। दिल्ली से हटकर राजधानी आगरे में स्थानांतरित हो गई। इस सम्बन्ध में नियामतुल्ला ने "मखजन-ए-अफगानी" और "तारीखे-ए-खानजहां लोदी" में लिखा है, सुल्तान (सिकन्दर लोदी) को बहुत पहले ध्यान आया था कि जमुना के तट पर एक नगर बसाया जाय, जहां सुल्तान निवास किया करे और जो सेना का केन्द्र बने और जहां से उधर के विद्रोहियों को दबाया जा सकें, जिससे वे फिर विद्रोह करने के अवसर से वंचित तो जाएं।
तात्पर्य यह है कि 1505 वर्ष के बाद दिल्ली का प्रभाव कम हो गया। बाबर के आगमन से पूर्व ही राजधानी का स्थान बदल गया था।
सुल्तानों के शासनकाल में ही राजधानी दिल्ली से आगरा चली गई किन्तु सारे देश में दिल्ली को ख्याति मिल गई थी, वह ख्याति आगरे को नहीं मिली। आगरे में रहने वाला बादशाह दिल्ली के बादशाह के रूप में ही ख्यात रहा। आगरा एक प्रकार से निवास स्थान हो गया। आगरे में किले का निर्माण हुआ। अकबर, जहांगीर तथा शाहजहां का काल आगरे में ही गुजरा।
मुगलकाल में शाहजहांबाद के रूप में जो दिल्ली बनी है, वह आज पुरानी दिल्ली के रूप में मौजूद है। किन्तु उससे पूर्व मुगलकाल में ही दिल्ली का निर्माण और दो स्थानों पर अलग-अलग रूप मंे हुआ है। एक है दीनपनाह। इसका निर्माण हुमायूं के समय में हुुआ था। यद्यपि सिकन्दर लोदी के समय से ही राजधानी आगरे में चली गई थी तथापि दिल्ली आना-जाना बना हुआ था। दीनपनाह के सम्बन्ध में लिखा गया है-खोन्दामीर के हुमायूंनामा से, उसने (हुमायूं ने) दीनपनाह नामक नगर का निर्माण करवाया। जमना के तट पर एक ऊंचा स्थान जो नगर से तीन कोस दूर था, दीनपनाह की स्थापना के लिए पसन्द किया गया।
दीनपनाह आज पुराना किला कहलाता है। इन्दरपत गांव उसी के पास है। पांडवों के समय की दिल्ली का स्थान भी यही बतलाया जाता है। इस किले के भीतर ही खुदाई हुई है। यह भी कहा जाता है कि हुमायूं ने उसी पुराने किले को ठीक ठाक करवाकर उसका नाम दीनपनाह रखवा दिया है। पुराने किले में खुदाई वाले स्थानों को देखें और उनमें खुदाइयों के क्रम (स्तर के अनुसार) को देखें तो कुतुब की दिल्ली से पूर्व के अवशेष वहां मिलते हैं। इस नाते इतना तो कहा जा सकता है कि दीनपनाह बनने से पूर्व वहां नगर और किला था। इन्दरपत गांव वहां पर होने के कारण उसे इन्द्रप्रस्थ का बिगड़ा हुआ रूप मानकर पांडवों की दिल्ली के रूप में भी उसे पहचाना जा सकता हे।
बाबर का शासन अल्पकालीन था और हुमायूं आगरे में ही रहता था। उसने दीनपनाह बनावाया और दिल्ली आता-जाता रहता था। वैसे राजधानी दिल्ली से हट गई थी किन्तु दीनपनाह का वहां निर्माण इस बात का द्योतक है कि राजधानी की ख्याति दिल्ली को प्राप्त थी। इसके बाद में शेरशाह सूरी के शासनकाल में दिल्ली शेरगढ़ का निर्माण हुआ। कहते हैं दीनपनाह के किले को ठीक करके उसका नाम शेरगढ़ रखा गया।

"तारीखे शेरशाही" में लिखा है कि दिल्ली शहर की पहली राजधानी यमुना से फासले पर थी जिसे शेरशाह ने तुड़वाकर फिर से यमुना के किनारे पर बनवाया और उस शहर में दो किले बनवाने का हुक्त दिया-छोटा किला गवर्नर के रहने को और दूसरा तमाम शहर की रक्षा के लिए चारदीवारी के रूप में।

"तारीखे दाउदी" में लिखा है कि 1540 वर्ष में शेरशाह आगरे से दिल्ली गया और उसने सीरी में अलाउद्दीन के किले को मिसमार करवा दिया तथा यमुना के किनारे फीरोजाबाद व किलोखड़ी के बीच में इन्दरपत से दो-तीन कोस की दूरी पर किला बनवाया। इस किले का नाम शेरगढ़ रखा, लेकिन उसकी हुकूमत के मुख्तसर होने से वह अपने जीवनकाल में इसे पूरा न करवा सका। किलोखड़ी बारहपुले के पुल से आगे तक फैली हुई थी।

अफगान शासक सलीमशाह सूरी ने 1546 वर्ष में दीनपनाह के स्तर पर यमुना के किनारे पर एक मजबूत किला बनवाया। किन्तु इसके निर्माण होते-होते बादशाह की मृत्यु हो गई। उसके बाद में उस किले की उपेक्षा होती रही। लाल किले के कोने में यह बना हुआ है। (लालकिला बाद में बना है) लाल किला बनने के बाद इसका उपयोग शाही कैदखाने के रूप में किए जाने लगा। इस सम्बन्ध में लिखा है, यह लम्बाई में पांच मील भी नहीं है और किले का तमाम चक्कर पौन मील के करीब है। यह यमुना के पश्चिमी किनारे पर एक द्वीप में बना हुआ है। नूरूद्दीन जहांगीर ने पांच महराबों का एक पुल इसके दक्षिण दरवाजे में सामने बनवाया था। तब ही से इसका नाम नूरगढ़ पड़ गया था। लेकिन आम नाम सलीमगढ़ ही रहा।

दीनपनाह से सलीमगढ़ तक का काल ऐसा है, जिसे अस्थिर ही कहा जा सकता है। यह राजनीतिक अस्थिरता है। दीनपनाह 1533 वर्ष में बसाया गया, शेरगढ़ 1540 वर्ष में बना और सलीमगढ़ 1546 वर्ष में। बारह-तेरह वर्ष में अलग-अलग स्थान पर किलों का निर्माण होना, राजनीतिक स्थिरता का द्योतक नहीं है। इसमें फिर यह समय ऐसा रहा है कि राजधानी के रूप में आगरे का आकर्षण अलग बना रहा। मुगल बादशाह तो आगरे में ही रहते थे।

ऐसा लगता है कि सुल्तानों के समय की दिल्ली लोदी बादशाहों के समय में ही उजड़ने लगी थी। सिकन्दर लोदी के आगरा चले जाने के बाद ही दिल्ली कुछ उपेक्षित हो गई। उसका राजनीतिक महत्व तो कम नहीं हुआ किन्तु नगर की श्रीवृद्वि की ओर ध्यान नहीं दिया गया।

लगभग एक शताब्दी तक मुगलों का ध्यान दिल्ली की ओर नहीं गया। दीनपनाह (निर्माण काल 1533 वर्ष) के बाद शाहजहांबाद का निर्माण 106 वर्षों के बाद 1639 वर्ष में होता है। शाहजहांबाद के किले और शहर के निर्माण में लगभग नौ वर्ष निकल जाते हैं। 1648 वर्ष में यह कार्य पूर्ण होता है।

"दिल्लीः मेरी दिल्ली" में महेश्वर दयाल ने लिखा है मुकर्रमत मीर इमारत को हुक्म मिला कि दिल्ली में बादशाह शाहजहां के लिए एक शानदार लाल पत्थर का किला बनाने के लिए कोई अच्छी जगह तलाश की जाए। बहुत खोज के बाद तालकटोरा बाग और उसके पास की जगह पसन्द आई। यहां पानी की कमी नहीं थी और हर तरफ हरियाली ही थी। मीर इमारत ने किला बनवाने के लिए दिल्ली के दो मशहूर कारीगरों को बुलवाया जिनके नाम उस्तार हामिद और उस्ताद हीरा थे। इन दोनों को लाल पत्थर का किला बनाने का काम सौंपा गया। दोनों उस्तादों ने तालकटोरा और उसके आसपास की जगह को लाल पत्थर की इमारत के लिए ठीक न समझा। इन उस्तादों ने दिल्ली में जमना के किनारे शेरशाह सूरी के बेटे सलीमशाह के बनाए सलीमगढ़ के पास खुली जगह पर एक किला बनाने की राय दी। शाहजहां का दिल्ली का लाल किला नौ बरस में तैयार हुआ।

शाहजहां ने उन उस्तादों के कार्य से प्रसन्न होकर उन्हें इनाम दिया और हरने के लिए हवेलयिां थी। कहते हैं दिल्ली के जामा मस्जिद के पास बड़े दरीबे के बाहर उस्ताद हामिद और उस्तार हीरे के नाम से कूचे आज भी दिल्ली में मौजूद हैं।
“शाहजहांनामा” में लिखा है कि बादशाह ने आगरा और लाहौर की गलियों और अश्वशालाओं को तंग देखकर दिल्ली के मैदान में नूरगढ़ के पास जमुना के ऊपर एक नया शहर बसाने का आदेश दिया था (1639 वर्ष) अब वह चालीस लाख रूपए के खर्च से बन चुका था। और इतना ही रूपया जनाने महलों और मरदानी इमारतों में खर्च हुआ था।
“शाहजहांनामे” के अनुसार, बादशाह शाहजहां ने 8 अप्रैल 1648 वर्ष को नदी के मार्ग से किले में प्रवेश किया।
शाहजहां द्वारा बनाया गया शहर शाहजहांबाद पूरी तरह से नया आबाद किया हुआ शहर है। यही शहर आज पुरानी दिल्ली के रूप में ख्यात है। शाहजहां के समय में ही इसे ही नई दिल्ली कहा गया है। शाहजहांबाद के रूप में नये आबाद शहर का मूल ढांचा शाहजहां के समय का ही है। उस समय से लेकर आज तक उस मूल ढांचे में बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है। शहर के मुहल्ले, बाजार, मार्ग, प्राचीन तथा दरवाजे आदि सब शाहजहां के समय के ही बने हैं।

फ्रांसिसी यात्री बर्नियर ने जिस दिल्ली का वर्णन किया है, वह शाहजहांबाद का ही है। उसने इस नगर के बसने के 40 वर्ष बाद का वर्णन किया है। वर्णन इस प्रकार है-किला जिस शाही महलसरा और मकान है, अर्ध गोलाकार सी है। इसके सामने जमुना नदी बहती है। किले की दीवार और जमुना नदी के बीच में एक बड़ा रेतीला मैदान है। जिसमें हाथियों की लड़ाई दिखाई जाती हैं और अमीरों, सरदारों और हिन्दू राजों की फौज बादशाह के देखने के लिए खड़ी की जाती है। जिन्हें बादशाह महल के झरोखों से देखा करता है। 
बर्नियर ने दिल्ली के जनजीवन की झांकियां भी प्रस्तुत की है। किले के महल का और दरबार का विवरण दिया है और वहां के शिल्प का भी विस्तार से वर्णन किया है। इन वर्णनों में दरवाजों का विवरण है, और मीना बाजार का भी आंखों देखा हाल है। कहना यह है कि बर्नियर ने दिल्ली शहर का आंखों देखा हाल लिखा है। उसने जिस समय का यह चित्र खींचा है, दाराशिकोह और औरंगजेब के समय का चित्र है।


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...