Wednesday, November 29, 2017

Self writing_Mahadevi verma_स्वान्तः सुखाय_महादेवी वर्मा_निराला

महादेवी वर्मा संग महाप्राण निराला 


स्वान्तः सुखाय रचना का आनंद उस गदहे के आनंद की तरह है जो उसे धूल में लोटकर आता है।


-महादेवी वर्मा ("मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है" शीर्षक निबन्ध में)

Sunday, November 26, 2017

पद्मिनी का तो बहाना है_Anti Hindu vemon on the name of padmani



न्यूज़ वेबसाइट स्क्रॉल से "पद्मिनी" पर जेएनयू से इतिहास में पीएचडी कर रही रुचिरा शर्मा के लेख को स्वेच्छा से हटा दिया है, जिसमें रुचिरा ने एक दूसरे राजपूत राजा को "पद्मिनी" के जौहर का कारण बताया था.

वैसे एक पक्षीय इतिहास बताता यह कोई पहला लेख नहीं है, एक दूसरे लेख में अपने चाचा-ससुर को मार कर गद्दी पर काबिज अलाउद्दीन खिलजी को "रियाया का सुल्तान" बताने वाली लेखिका यह बात छिपा जाती है कि अलाउद्दीन खिलजी ने ही इस्लामी कानून के नाम पर जजिया देने में असमर्थ हिन्दू प्रजा को बाज़ार में गुलाम के रूप बेचने को सबसे पहली बार 'मान्यता' प्रदान की थी. बाकि मालिक काफूर से खिलजी के संबंध के लिए गूगल सर्च पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, उसके चरित्र को जानने के लिए.


वैसे जवाहर लाल नेहरु ने भी "भारत एक खोज में" राघव चेतन की खिलजी से दक्षिणा के लालच में मंथरा की भूमिका निभाने की बात का उल्लेख किया है, जिसने मेवाड़ से निर्वासित होने के बाद दिल्ली दरबार में जाकर काम-पिपासु खिलजी को पद्मिनी का सौन्दर्य बताकर चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए उकसाया था.

Saturday, November 25, 2017

Delhi in British Maps_अंग्रेज़ नक्शों की दिल्ली


भारत में वर्ष 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराने के बाद अंग्रेज व्यापारिक कंपनी ईस्ट इंडिया को यह बात समझ आई कि यहां की भूमि के प्रबंधन और राजस्व संग्रह के लिए भौगोलिक नक्शे उपयुक्त नहीं है। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने बंगाल से राजस्व सर्वेक्षण करने का काम शुरू किया।


वर्ष 1882 में थॉमस ओलिवर ने दिल्ली के राजस्व सर्वेक्षणों का आरंभ किया, जिन्हें 1870-72 में सुधारा गया। उस समय की दिल्ली क्षेत्र का फैलाव अंबाला, हिसार, लुधियाना और फिरोजपुर तक था। सर्वेक्षण (नक्शे बनाने का काम) का संबंध सामान्य रूप से भूमि को नापना और तदनुसार उन्हें कागज पर चित्रित करना है जिससे कि पृथ्वी की सतह की विशेषताओं की पहचान जहां तक ईमानदारी से संभव हो मानचित्र पर पैमाने की सीमाओं के भीतर चित्रण करना है।

ईस्ट इंडिया कंपनी की सैनिक आवश्यकताओं का ध्यान रखने के लिए वर्ष 1905 में बनी एक सर्वेक्षण समिति ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग की नीति और कार्य के स्वरूप को तय किया। इसी क्रम में समिति ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग से राजस्व सर्वेक्षण करने के कार्य को स्थानांतरित करते हुए यह जिम्मेदारी प्रांतीय प्रशासन पर डाल दी।

जब अंग्रेज बंगाल, अवध से होते हुए भारत की पश्चिम दिशा की ओर बढ़े तो यमुना नदी से आगे के नए जिलों के सीमांकन के काम की जिम्मेदारी फ्रांसिस व्हाईट को सौंपी गई। यह अंग्रेज सर्वेक्षक वर्ष 1805-06 में कर्नल बॉल की सैन्य ब्रिगेड के साथ रेवाड़ी के आगे के सैनिक अभियानों में नक्शे बनाने का काम कर रहा था। उसने अपने इसी काम को मूर्त रूप देते हुए इस भूभाग के लिए “दिल्ली, हांसी और जयपुर का त्रिभुज” शीर्षक से एक नक्शा बनाया।

फिर उसने वर्ष 1807 में दिल्ली के पड़ोस का नक्शा तैयार किया। यह हाथ से बनाया गया नक्शा है जिसकी मूल प्रति भारतीय सर्वेक्षण विभाग, देहरादून में सुरक्षित है। यह एक दिलचस्प नक्शा है जो कि आज की राजधानी के कई गांवों और स्थानों को दिखाता है, जैसे तालकटोरा, रकाबगंज, जंतर मंतर, चिराग दिल्ली और महरौली। फिर शाहजहांबाद की दिल्ली है। यह नक्शा जामा मस्जिद का एकदम सटीक अक्षांश-28 डिग्री, 38 मिनट 40 सेकंड का बताता है। दिल्ली का यह मानचित्र एक मील के लिए 0.79 इंच के पैमाने के आधार पर तैयार किया गया था। इस मानचित्र में उत्तर-पश्चिम की दिशा से शाहजहानाबाद में आने वाली नहर का भी चित्रण किया गया है। इसी तरह, वर्ष 1850 के आसपास बनाया गया शाहजहांबाद का एक मानचित्र है, जिसमें चांदनी चौक के उत्तर में बनी लगभग सभी गलियां और कूचों तथा बड़े बगीचों को दिखाया गया है, जिनकी जगह अब पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन है।

ऐसे ही, 1912 का दिल्ली का एक मानचित्र उल्लेखनीय है। इस नक्शे को भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने गृह विभाग के लिए बनाया था जो कि 1870-72 के दिल्ली के सर्वेक्षणों और गृह राजस्व सर्वेक्षणों के आधारित था। इसी नक्शे के आधार पर वर्ष 1913 में अंग्रेजों की नई राजधानी नयी दिल्ली का प्रस्तावित लेआउट सरकार को प्रस्तुत किया गया था। उल्लेखनीय है कि 1905 में बनी समिति ने बहुरंगी रूपरेखा वाले मानचित्रों के निर्माण के लिए भी आधुनिक मानदंड निर्धारित किए थे। भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने इन आधुनिक मानदंडों के आधार पर वर्ष 1912 में पहली बार एक इंच के एक मील के पैमाने पर दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों का सर्वेक्षण किया।


Saturday, November 11, 2017

Food habits of kayastha_कायस्थों का खाना-खजाना





किसी समय एक कहावत प्रचलित थी, "दिल्ली की बेटी, हिसार की गाय, करम फूटे से बाहर जाय।" 


इस करम फूटने की आशंका और कारणों में से दिल्ली शहर के खान-पान की अपनी रवायत भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा होगा, इसमें शक की गुंजाइश कम है। दिल्ली के मूल निवासी जितने अपने चटोरपन के लिए मशहूर थे, उतनी ही दिल्ली उन खान पदार्थों के वैशिष्ट्य और विविधता के लिए, जिनकी लज्जत ने खानेवालों में यह कद्रदानी पैदा की।


दिल्ली में कायस्थ घरों में बड़ा उम्दा खाना बनता था। अगर इसके ऐतिहासिक कारण देखें तो शाहजहांबाद में रहने वाले कायस्थ और खत्री समुदायों के मुगल दरबारों में काम करने के कारण उनकी भाषा, संस्कृति और खान-पान में मुस्लिम प्रभाव था। माथुरों में यह विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता जो कि भोजन के बेहद शौकीन थे और नए व्यंजनों को बनाने में अपार खुशी महसूस करते थे। 


"दिल्ली शहर दर शहर" पुस्तक में निर्मला जैन लिखती है कि दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी, इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ। मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी। विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आनेवाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए। सामिष भोजन के ठिकाने मुख्य रूप से कायस्थ और मुस्लिम परिवारों में या जामा मस्जिद के आसपास के गली-बाजारों तक सीमित थे। 


दरअसल खान-पान की संस्कृति का गहरा सम्बन्ध हर समुदाय के इतिहास और भूगोल से होता है। लम्बी आनुभविक प्रक्रिया से गुजरकर मनुष्य अपने खान-पान की रवायतें विकसित करता है जो उसके संस्कार का हिस्सा हो जाती हैं। "दिल्ली जो एक शहर है" पुस्तक में महेश्वर दयाल बताते हैं कि दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी जिसे शबदेग कहा जाता था। गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर विभिन्न पर खास मसाले डालकर घंटो धीमी आंच पर पकाया जाता था। मछली के कोफ्ते (मरगुल), और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे।


"दिल्ली का असली खाना" में प्रीति नारायण बताती है कि माथुरों ने बकरे के मांस या जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार किए। दाल को भीगोकर और फिर पीसकर पीठी तैयार की जाती थी, जिससे दाल की कलेजी और दाल का कीमा बनाया जाता था। किसी भी सब्जी से कोफ्ते तो कच्चे हरे केले से केले का पसंदा बनाया जाता था। 


यहां पर कायस्थ घरों में अरहर, उदड़ और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी। अरहर और उड़द की दाल धुली-मिली मिलवां भी बनाते थे और खिलवा भी। खिलवां अरहर और उड़द की दाल में एक-एक दाना अलग नजर आता था। कायस्थ घरों में बेसन के टके-पीसे भी सब्जी के तौर पर बनाए जाते थे। बेसन का एक गोल रोल-सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल टके पीसे काट कर उसकी रसेदार सब्जी बनाते थे-जो बड़ी स्वादु होती थी। 


इतना ही नहीं, राजधानी में कायस्थ परिवारों में विवाह की तैयारियों का श्रीगणेश परिवार की महिलाओं के मंगोड़ियों बनाकर होता था। मसूल की दाल, कायस्थों में बड़ी उम्दा बनाई जाती थी और उसे स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वह कहावत मशहूर हुई "यह मुंह और मसूर की दाल।"


Sunday, November 5, 2017

Maharaja Surajmal_ हिंदू हितकारी, महाराजा सूरजमल



महाराजा सूरजमल अठारहवीं सदी के भारत का निर्माण करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। उनके जन्म ऐसे समय में हुआ जब दिल्ली की राजनीति में भारी उथल-पुथल हो रही थी तो देश विनाशकारी शक्तियों की जकड़न में था। विदेशी लुटेरों नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने उत्तर भारत में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मार डालने के साथ उनके तीर्थों-मंदिरों को भी नष्ट कर दिया था। इन बर्बर आक्रांताओं को रोकने वाला कोई नहीं था। श्रीविहीन हो चुके मुगल, न तो दिल्ली का तख्त छोड़ते थे और न अफगानिस्तान से आने वाले आक्रांताओं को रोक पाते थे। ऐसे अंधकार में महाराजा सूरजमल का जन्म उत्तर भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी। 


दिल्ली के यमुना पार क्षेत्र शाहदरा के एक पार्क में सूरजमल की छोटी समाधि बनी हुई है। सूरजमल सोसाइटी ने दिल्ली सरकार की मदद से इस समाधि को अच्छा स्वरूप देते हुए पत्थरों से सुसज्जित किया। यह पार्क उस क्षेत्र में स्थित है, जहां कभी युद्ध क्षेत्र हुआ करता था। आज भी यहां नाले के अवशेष देखे जा सकते हैं। यहां कांटेदार झाड़ियां भी दिखती हैं जो कि सूरजमल के समय भी थी। इस क्षेत्र की भूआकृति आज भी जस की तस है, केवल इसके आसपास कुछ निर्माण हुआ है। यह समाधि भरतपुर राज्य के खजाने में सुरक्षित रखे सूरजमल के दांत पर बनाई गई। मथुरा के नजदीक गोवर्धन में कुसुम सरोवर में भी सूरजमल की स्मृति में एक सुंदर छत्तरी बनी हुई है।


बदनसिंह के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सूरजमल (1756-63) जाट शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए तथा उनके शासनकाल में जाट समुदाय, जो कि किसान होने के साथ ही वीर और सदैव युद्ध के लिए तैयार थे, की शक्ति अपने चरम पर पहुँच गई। महाराजा सूरजमल का राज्य आर्यावर्त के केन्द्र में था। एक योग्य कूटनीतिज्ञ व सेनापति होने के साथ-साथ वह अपने समय का महान निर्माता भी थे। उनके राज्य का प्रशासनिक मुख्यालय भरतपुर था तो डीग दूसरी राजधानी। सूरजमल ने 1730 में डीग में सुदृढ़ दुर्ग और ऊंचे रक्षा प्राचीर सहित बुर्जों का निर्माण करवाया। डीग में सुन्दर एवं विशाल बगीचों से शहर का सौन्दर्यीकरण किया जाना, सूरजमल की सबसे महत्वपूर्ण कलात्मक देन थी, जो आज भी जाटों के इस महानायक की गौरवपूर्ण स्मृति के रूप में जीवित है। 


सूरजमल ने दिल्ली के एक बर्खास्त वजीर इमाद-उल-मुल्क से धन प्राप्त किया था, जो कि अब इस जाट प्रमुख का सहयोगी बन गया था। उल्लेखनीय है कि युवराज के रूप में सूरजमल की वैधता जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने अपने अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर प्रदान की थी।


वर्ष 1761 में पानीपत में अफ़ग़ान लुटेरे अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुए युद्ध से पूर्व महाराजा सूरजमल ने सैनिक तथा आर्थिक साधन मराठा सेनापति भाऊ की सेवा में प्रस्तुत किए थे, परन्तु उन्हें ग्रहण करने के बजाय उसने उनके प्रति अप्रच्छन्न तिरस्कार दिखाया। इससे ज्यों ही सूरजमल दिल्ली से चले गए, त्यों ही वास्तविकता भाऊ के सामने आ गई। अब्दाली को रसद रूहेला प्रदेश से प्राप्त हो रही थी और भाऊ की सेना के लिए भोजन सामग्री सूरजमल देते रहे थे। भाऊ की नासमझी के कारण यह अक्षय स्त्रोत अब सूख गया। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि मराठों को पानीपत में खाली पेट रहकर लड़ना पड़ा।


14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों की पूरी पराजय थी और युद्व से बचे हुए एक लाख मराठे बिना शस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य-क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने प्रेम और उत्साह से उन्हें ठहराया और उनका आतिथ्य किया। हर मराठे सैनिक या अनुचर को मुफ्त खाद्य सामग्री दी गई। घायलों की तब तक शुश्रूषा की गई, जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य न हो गए।


"हिस्ट्री आॅफ मराठा" में अंग्रेज़ इतिहासकार ग्रांट डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बरताव के बारे में इस प्रकार लिखा है-जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए, उनके साथ सूरजमल ने अत्यंत दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए जाटों का व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं। नाना फड़नवीस ने एक पत्र में लिखा है कि सूरजमल के व्यवहार से पेशवा के चित्त को बड़ी सान्त्वना मिली।


विदेशी यात्री फादर फ्रांस्वा ग्जाविए वैंदेल ने अपनी पुस्तक "मेम्वार द ल इंदोस्तान" (हिंदुस्तान के संस्मरण) में लिखा है कि यह तब जब कि उनकी शक्ति सचमुच इतनी थी कि यदि सूरजमल चाहता, तो एक भी मराठा लौटकर दक्षिण नहीं जा सकता था। जब हिन्दुस्तान के नवाब तथा अन्य शक्तिशाली मुस्लिम शासक उनके अपने ही इलाकों को लूटने और उजाड़ने के लिए अब्दाली के मनमौजी संग्रामों (अपने खर्च पर) सम्मिलित होने को विवश हुए थे, तब भी सूरजमल को अपने घर में बैठे यह पता था कि ऐसे प्रचंड शत्रु से अपने राज्य-क्षेत्र की रक्षा कैसे करनी करनी है। 


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...