Friday, August 10, 2012

Trikal Sandhya: Mantra



त्रिकाल संध्या

त्रिकाल संध्या - जो कहती है दिन में सिर्फ तीन बार भगवान को याद करना ।
सुबह उठने के बाद , दोपहर को भोजन के समय और रात को सोने से पहले । तीनों कालों के लिए स्वाध्याय ने हमें अलग अलग तीन मंत्र दिए है।

सुबह उठने के बाद :

1. कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमूले सरस्वती
करमध्ये तू गोविंद प्रभाते कर दर्शनं।
हमारे हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, तथा हाथ के मूल मे सरस्वती का वास है अर्थात भगवान ने हमारे हाथों में इतनी ताकत दे रखी है,ज़िसके बल पर हम धन अर्थात लक्ष्मी अर्जित करतें हैं। जिसके बल पर हम विद्या सरस्वती प्राप्त करतें हैं।इतना ही नहीं सरस्वती तथा लक्ष्मी जो हम अर्जित करते हैं, उनका समन्वय स्थापित करने के लिए प्रभू स्वयं हाथ के मध्य में बैठे हैं। ऐसे में क्यों न सुबह अपनें हाथ के दर्शन कर प्रभू की दी हुई ताकत का अहसास करते हुए तथा प्रभू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए दिन की अच्छी शुरूवात करें।

2. समुद्रवसने देवि पर्वतस्तन मंडले
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पशं क्षमस्व में।
इस श्लोक के अंर्तगत धरती माँ से माफी की याचना की गई है। कहा गया है, हे धरती माँ मै ना जाने कितने पाप कर रहा हूँ तुझ पर, रोज मैं तेरे उपर चलता हूँ, तुझे मेरे चरणों का स्पर्श होता है, फ़िर भी तू मुझ जैसों का बोझ उठाती है अतः तू मुझे माफ कर दे। यहां धरती माँ को बिष्णु की पत्नि कहा गया है।

3. वसुदेव सुतं देवं ,कंस चारूण मर्दनं
देवकी परमानंदं, कृष्णं वंदे जगतगुरूं।
वसुदेव के पुत्र, कंस तथा चारूण का मर्दन करने वाले, देवकी के लाल , भगवान श्रीकृष्ण ही इस जगत के गुरू हैं। उन्हें कोटि कोटि प्रणाम।

दोपहर के खाने के समयः

यज्ञशिष्टाशिनः संतो मुच्च्यंते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात ।।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरूष्व मदर्पणम ।।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यान्नं चतुविधम ।।
ॐ सह नाववतु सह नव भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विध्दिषावहै ।।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।

यज्ञशिष्ट याने यज्ञ से देवों को समर्पण करके बाकी बचा हुआ उपभोगने वाला सज्जन सभी पापों से मुक्त होता है, जो केवल अपने लिए ही स्वार्थ सिध्दि से अन्न पकाता है वह पाप का अन्न भक्षण करता है। हे अर्जुन तू जो जो कर्म करेगा, जो जो सेवन, जो जो हवन करेगा, जो जो देगा अथवा जो जो तप याने व्रताचरण करेगा वह सभी मुझे परमेश्वर को अर्पण कर। मै परमात्मा अग्निरूप और सभी प्राणियों के आश्रय से प्राण, अपान वगैरह आयुओं से युक्त होकर चतुर्विद्य खाद्य, पेय, लेह्य, और चौष्य अन्न पचाता हूँ। हे परमात्मन् हम दोनो का गुरू तथा शिष्य का बराबर रक्षण कर, हम दोनों ही समान बल प्राप्त करें, हम दोनो में परस्पर द्वेष न हो। हम दोनो की अध्ययन की हुई विद्या तेजस्वी रहे। हमारे सभी संतापों की निवृत्ति होने दो।

हमें भगवान की कृपा से अन्न मिलता है। पकाने वाला या उगाने वाला भले कोई भी हो, तो भी उसके पीछे भगवान की ही कृपा होती है। हम कहते हैं कि किसान बीज बोते हैं और तब अन्न मिलता है, लेकिन प्रथम बीज कहाँ से आया। खेत में चार दानें बोनें के बाद चार हजार दाने बनाने मे किसान की कौन सी शक्ति काम मे आयी। जो जीव को जन्म देता ह,ै वही उसके पोषण की चिंता करता है। जिसने दांत दिये उसी ने दानें दिये। अरे, उस करूणानिधि नें अपने शरीर की रचना भी कैसे की है। ज्वार बाजरे की रोटी खायें या गेहूँ की रोटी खायें सभी का खून लाल ही बनता है। खाने के बाद अन्न किस प्रकार पचता है, इसकी चिंता कौन करता है। अन्नरस खून में मिलकर सतत् शक्तिप्रदान करता है, इतना ही हम जानते हैं। बडे बडे वैज्ञानिक भी विविध पदार्थों से एक ही रसायन नही बना पाते है। ऌसीलिए इस अदृश्य शक्ति को जिसने हमारे लिए अन्न उगाया और् हमारा खाया हुया पचाया, लाल खून बनाया है, उसे खाते समय कृतज्ञतार्पूवक नमस्कार करना ही हमारी संस्कृती का आदेश है। खाना खाते समय भगवान को याद करना ही चाहिए।

भोजन सिर्फ उदर भरण ही नहीं है वह एक यज्ञकर्म है। सभी यज्ञों का स्वामी और भोक्ता भगवान ही है।

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