Wednesday, October 29, 2014

सफाई_बाल कविता Cleanliness-poem for children





सफाई है कितनी जरुरी 
जाने हर कोई बच्चा-बड़ा 
करना है उसको सबकुछ पड़ा 

सफाई है कितनी जरुरी 
सफाई बिना सब बेकार 
चाहे हो न खिलौना, मोटर कार 

सफाई है कितनी जरुरी 
बिना नहाये शरीर अधूरा
दिन नहीं लगता पूरा 

सफाई है कितनी जरुरी 
बिना मुह धोएं, चमकाए दांत 
पेट रहेगा ख़राब, दुखेगी आंत

सफाई है कितनी जरुरी 
घर-स्कूल, रहेगा साफ जितना 
होगा सुन्दर अपना देश उतना 



Tuesday, October 28, 2014

शहर_city




शहर हर लेता है अपना वजूद, 
बचे रहे अगर इसके बावजूद 
खुशनसीब हो जो अभी तक हो जिन्दा, 
नहीं तो यहाँ कैसा खुदा, कौन सा बंदा ?

Monday, October 27, 2014

पश्चिम- हीनभावना_Indian Art:West




पश्चिम के संदर्भ में, दरअसल हम सदा हीनभावना के शिकार रहे हैं लगभग सभी कलाओं में.....

  चित्र: नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, जयपुर हाउस, दिल्ली 

देवगढ़ चित्र कला_Devgarh painting: Gulam M Sheikh

सामंती व्यवस्था की तमाम सीमाओं के बावजूद राजस्थान के छोटे से ठिकानेे देवगढ़ में इतनी जीवित कला पंरपरा देखकर यह सवाल मन में उठता है कि यह कैसे संभव हुआ ।
-गुलाम मोहम्मद शेख

बीता हुआ कल_Yesterday




इस धरती पर बीते हुए कल जितनी दूर कोई दूरी नहीं...



         चित्र: राजा रवि वर्मा 

स्मृतियाँ_memories


स्मृतियाँ मन को भीतर से ताप तो देती है पर व्यक्तित्व को विखंडित भी कर देती है.…

Friday, October 24, 2014

नेहरू-चीन _nehru-china




वह मानस, जो किसी मुल्क का इतिहास नये ढंग से लिखता है.शायद भारत में है ही नहीं. 

इसी चीन पर पंडित नेहरू ने यकीन किया था और भारत मेंदिल्ली के अंदर 30 एकड़ जमीन चीनी दूतावास के लिए मुहैया करायी थी. सबसे अधिक जमीन इसी दूतावास को मिली.


source-http://www.prabhatkhabar.com/news/harivansh-ke-kalam-se/story/153222.html

Thursday, October 23, 2014

दिया_lamp of light





तिल-तिल कर स्वयं को समाप्त कर, तिमिर को दूर करते हुए
दूसरों को रोशनी देना हर किसी के बस की बात नहीं...

टीवी न्यूज़ एंकर_TV News Anchor



टीवी न्यूज़ की दुनिया के एंकर अपने को परम ज्ञानी मानते हैं जैसा कि उन्हें हर विषय का ज्ञान हो और उनकी राय ही अंतिम हो.
पता नहीं ऐसे स्वघोषित एंकर, टीवी चैनल जानबूझ कर रखे जाते हैं या स्क्रीन पर दिखने के मारे उन्हें आत्ममोह हो जाता है. क्या थोड़े कम ज्ञानी एंकर से दर्शकों का काम नहीं चलता ?

दिवाली:विद्यानिवास मिश्र_diwali: Vidhyaniwas Mishra




सुनना चाहेंगे इस दिए का इतिहास? तो पहले रोमक इतिहासकार प्लिनी का रुदन सुनिए। भारतवर्ष में सिमिट कर भरती हुई स्‍वर्ण-राशि को देखकर बेचारा रो पड़ा था कि भारत में रोमक विलासियों के कारण सारा स्‍वर्ण खिंचा जा रहा है, कोई रोक-थाम नहीं।
उस दिन भी भारत में श्रेष्‍ठी थे और थे श्रेष्ठिचत्‍वर, श्रष्ठि-सार्थवाह और बड़े-बड़े जलपोत, बड़ी-बड़ी नौकाएँ और उनको आलोकित करते थे बड़े-बड़े दीपस्‍तंभ।
स्कंदगुप्‍त का सिक्‍का 146 ग्रेन का था, कब? जब‍कि भारतवर्ष की समस्‍त शक्ति एक बर्बर बाढ़ को रोकने में और सोखने में लगी हुई थी। 146 ग्रेन का अर्थ कुछ होता है…
आज के दिए को टिमटिमाने का बल अगर मिला है तो उस जल-विहारिणी महालक्ष्‍मी के आलोक की स्‍मृति से ही, और भारत की महालक्ष्‍मी का स्रोत अक्षय है, इसमें भी संदेह नहीं।
बख्तियार खिलजी का लोभ, गजनी की तृष्णा, नदिरशाह की बुभुक्षा और अंग्रेज पंसारियों की महामाया के उदर भरकर भी उसका स्रोत सूखा नहीं, यद्यपि उसमें अब बाहर से कुछ आता नहीं, खर्च-खर्च भर रह गया है।
हाँ, सूखा नहीं, पर अंतर्लीन आवश्‍य हो गया है और उसे ऊपर लाने के लिए कागदी आवाहन से काम न चलेगा। कागदी आवाहन से कागदों के पुलिंदे आते हैं, सोने की महालक्ष्‍मी नहीं।
आज जो दिया अपना समस्‍त स्‍नेह संचित करके यथा-तथा भारतीय कृषक के तन के वस्‍त्र को बाती बनाकर टिमटिमा रहा है, वह इसी आशा से कि अब भी महालक्ष्‍मी रीझ जायँ, मान जायँ।उसका आवाहन कागदी नहीं, कागद से उसकी देखा-देखी भी नहीं,जान-पहचान नहीं, भाईचारा नहीं; उसका आवाहन अपने समस्‍त हृदय से है, प्राण से है और अंतरात्‍मा से है।
इस मिट्टी के दिए की टिमटिमाहट में वह शीतल ज्‍वाला है, जो धरती के अंधकार को पीकर रहेगी और बिजली के लट्टुओं पर कीट-पतंग जान दें या न दें, यह शीतल ज्‍वाला समस्‍त कीट-पतंगों की आहुति ले के रहेगी।
चलिए, केवल शहर के अंदेशे से दुबले न बनिए, तनिक देहात की भी सुधि लीजिए।
दिया टिमटिमा रहा है: विद्यानिवास मिश्र
Source:http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=4765&pageno=1

Wednesday, October 22, 2014

शौक की पढ़ाई_Reading for self


मैं तो बस शौक के लिए पढ़ता हूं और जो याद रह जाता है या याद आ जाता है, उसे मित्रों से साँझा कर लेता हूं, "ज्योत से ज्योत जलाते चलो" के अनुरूप.अब जहां तक तत्व और तर्क की बात है तो वह मैदान दिग्गजों के लिए खुला है.
इसी बहाने मेरा भी थोड़ा ज्ञान वर्धन हो जाता है.

राजा-जाति_king-caste


 
राजा की कोई जाति नहीं होती क्योंकि जैसे कि संस्कृत में कहावत है, 
"राजा कालस्य कारणं", मतलब राजा काल का कारण होता है न कि काल राजा का.

Monday, October 20, 2014

मौसम तो आना जाना है_ghazal




मौसम तो आना जाना है,
आसमान फिर भी वही रहना है
दुश्वारियों को बस यूंही सहना है
फिर भी बस यही कहना है

मौसम तो आना जाना है,
यादों को बस घर किए रहना है
उसके बोझ को दिल को यूंही सहना है
फिर भी उसको कुछ नहीं कहना है

मौसम तो आना जाना है,
दर्द के साथ खामोश रहना है
ज़माने भर के तानों को यूंही सहना है
फिर भी दोस्त है बस यहीं कहना है

मौसम तो आना जाना है,
तेरी यादों के साथ रहना है
जुदाई का दर्द यूंही सहना है
फिर भी खामोश कुछ नहीं कहना है

चित्र : रामकुमार  

निरंतर-नियमित कार्य_consistency



जीवन में कभी-कभार किए जाने वाले कार्य की अपेक्षा निरंतर नियमित रूप से किए जाने वाले कार्य ही हमारे जीवन को वास्तविक आकार देते हैं. 

Sunday, October 19, 2014

चुनाव:आत्ममुग्ध टीवी एंकर_Election:TV Anchor



हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम घोषणा के दिन आज हिंदी टीवी चैनल के कुछ आत्ममुग्ध-स्वनामधन्य एंकर कम-बोल रहे थे और कुछ अनमने से थे.
पता नहीं क्यों अर्चना सिनेमा से लेकर नोएडा फिल्म सिटी के स्टूडियो इबोला से सहमे हुए से लग रहे थे. 
भोजपुरी का तड़का भूलकर "इ-बोला, मैं नहीं बोला" कहना चाहते थे शायद !

लिखना_spontenous writing






कभी कभी क्या क्या लिखा जाता है, अगर सोच कर लिखो तो लिखा ही नहीं जायेगा...

दर्द-ताकत_अर्ध नारीश्वर Parents are god

 
अपने नकार भाव में, माँ-पिता को लाना ठीक नहीं, अब जो है, वह माँ-पिता का प्रतिरूप है.
अर्ध नारीश्वर का आख्यान व्यर्थ नहीं है. अपना दर्द ही तो अपनी ताकत है, उसे जाया क्यों किया जाये.
जब दधीची अपना देह दान कर सकते हैं, एक बड़े कारक के लिए. एक कारण बन सकते हैं, आसुरी-नकारात्मक शक्ति के उन्मूलन का तो क्या हम इतने गए गुजरे हैं जो माता-पिता की ओट में अपने दर्द का ठिकाना खोजे.
कतई नहीं.

चरैवति-चरैवति_slowly-steadily makes a way


 
थक कर, हार कर ठहरने से क्षण भर के लिए दिखावे के लिए दूसरों की दिलासा तो मिल सकती है पर मंजिल नहीं, उल्टा मंजिल और दूर हो जाती है. 
हंस कर, रो कर, रेंग कर, कैसे भी चले चलना महत्वपूर्ण है, चलने से ही मंजिल मिलती है. 

Friday, October 17, 2014

जीवन का रास्ता_way of life




जीवन की कुछ कठिनतम चुनौतियाँ मानो हमारा ही इंतज़ार कर रही होती है. हर बार हमें अपना पसंदीदा रास्ता नहीं मिलता. इन रास्तों से गुजरने का हमारा तरीका ही हमारे जीवन की अर्थवत्ता को तय करता है. 

Thursday, October 16, 2014

इतिहास_History



अमूनन विजेता ही लिखते हैं, वह बात अलग है कि पराजितों के वंशज, अगर जीवित बचें और मानसिकता से गुलाम नहीं हुए, अपने पुरखों की कहानी लिखें।

चित्र: सोमनाथ मंदिर 

लिखना_writing




मैं तो खुद अपढ़ हूं, आज भी लिखने की कोशिश करता हूं, और बहुत संकोच के साथ लिखता हूं. वह भी तब जब रहा नहीं जाता, मुझे नहीं लगता पत्रकार और नेता किसी प्रशिक्षण से या सिखाकर बनाए जा सकते हैं. इसके लिए लोगों से बेवजह बात करना, खूब पढ़ना ही जरूरी है, जिसका आजकल घोर अभाव ही नज़र आ रहा है.

गुजरा हुआ जमाना_Past

 
गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा  
गुजरा समय न बदला जा सकता है, न भुलाया जा सकता है, न सुधारा और न ही मिटाया जा सकता है. उसे सिर्फ स्वीकारा जा सकता है.

जीवन-चक्रव्यूह life is struggle




जीवन चक्रव्यूह है, इसमें जूझ कर ही रास्ता बनाना पड़ता है, लीक पर तो सब चलते है पर अलग होने के लिए लीक से हटकर रास्ता बनाना पड़ता है. ज्ञान अगर मुक्त न करे तो वह अज्ञान है...बुद्ध ने कहा है, अप्पो दीप भव यानि अपना दीपक स्वयं बने

Delhi and Cinema (दिल्ली और सिनेमा का अटूट रिश्ता)


दिल्ली से सिनेमा का संबंध मूक फिल्मों के दौर जितना पुराना है। सन् 1911 में अंग्रेजों के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही यहाँ अनेक सिनेमाघर खुलें जो कि दिल्ली में बढ़ती अंग्रेजों की आबादी के लिए हाॅलीवुड की फिल्में दिखाते थे।

उसके बाद भारतीय फिल्मों की षुरूआत के साथ यहां फिल्मी दर्शकों का एक बाजार तैयार था। ऐसे में, दिल्ली उत्तर भारत में इन फिल्मों का एक बड़े वितरण केंद्र के रूप में उभरी।
सन् 1925 के करीब बाॅम्बे टाकीज के संस्थापक हिमांशु राॅय ने अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए गौतम बुद्ध के जीवन पर आधारित "लाइट आॅफ एशिया" नामक फिल्म के निर्माण का अपना अभिनव प्रयास शुरू किया।
हिमांशु राॅय ने इस फिल्म के लिए आवश्यक वित्तीय साधन जुटाने के लिए दो साल कड़ी मेहनत की और इस दौरान अंग्रेज सरकार, भारतीय राजे रजवाड़ों से लेकर मंदिर के ट्रस्टों तक को संपर्क किया पर उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अंत में, दिल्ली के स्थानीय वकीलों, जजों और अन्य पेशेवरों ने राॅय की फिल्म परियोजना के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से एक बैकिंग काॅरपोरेशन की स्थापना की।
देश में फिल्मों के प्रादुर्भाव के साथ ही नवोदित युवा कलाकार प्रसिद्ध दिल्ली घराने के उस्तादों (शिक्षकों) से संगीत और नृत्य सीखने के लिहाज से दिल्ली आने लगे। तीस के दशक के आरंभ में मल्लिका पुखराज नृत्य सीखने दिल्ली आई। उल्लेखनीय है कि उस दौर की हिंदी फिल्मों में संवाद के स्तर पर उर्दू का ही बोलबाला था और गीत हर फिल्म का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा होते थे।
लंबे समय तक फिल्मी दुनिया में ऐतिहासिक फिल्मों का दबदबा होने के कारण "मुगल भारत" एक पसंदीदा विषय था और दिल्ली में शानदार मुगलिया इमारतों और स्मारकों के कारण फिल्म निर्माता दिल्ली में फिल्म के दृश्यों के फिल्मांकन के लिए आकर्षित रहते थे। हाल यह था कि दिल्ली के ऐतिहासिक मुख्य बाजार "चांदनी चौक" और "नई दिल्ली" के नाम ही फिल्मों का निर्माण हुआ। इसी तरह, ऐतिहासिक शहर दिल्ली से जुड़ी अन्य फिल्में भी बनीं, जिनमें 'हुमायूं', 'शाहजहां', 'बाबर', 'रजिया सुल्तान', 'मिर्जा गालिब' और '1857' प्रमुख हैं।
इतना ही नहीं, दिल्ली ने फिल्मी दुनिया को युवा प्रतिभावान कलाकार भी दिए। इनमें सर्वप्रमुख, शमशाद बेगम की बेटी नसीम बानो थी। सन् 1920 से लेकर 30 के दशक तक दिल्ली के मनोरंजन जगत में गायिका नसीम बानो का एकछत्र साम्राज्य था। ऐतिहासिक फिल्मों के सर्वकालिक निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी की क्लासिक फिल्म 'पुकार' में नूरजहां की यादगार भूमिका निभाने के साथ ही निहायत खूबसूरत और दिलकश नसीम बानो एक चमकता सितारा बन गई। इसी तरह से, 1940 के दशक के सितारा अभिनेता मोतीलाल भी दिल्ली के रहने वाले थे, जिन्होंने फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुंलदियों को छुआ। सदाबहार पार्श्व गायक मुकेश भी दिल्ली के ही बाशिंदे थे, जिनके गाए सदाबहार गीत आज भी आम जनता की जुबान पर हैें।
हिंदी फिल्म दुनिया, संगीत के क्षेत्र में भी दिल्ली की ऋणी है। कव्वाली के जन्मदाता अमीर खुसरो की कर्मभूमि भी दिल्ली ही थी। दिल्ली संगीत घराने की देन ठुमरी, दादरा और गजल भी हिंदी फिल्मों का अटूट हिस्सा बनी।

दिल्ली के दरबारियों के यहां आयोजित होने वाले मुजरा कार्यक्रमों के सजीव किस्सो ने अनेक फिल्म निर्माताओं को प्रसिद्ध गायकों और नृतकों के जीवन पर आधारित फिल्मों के निर्माण के लिए प्रेरित किया। इसी का नतीजा था कि फिल्मों में लोकप्रिय मुजरा दृश्यों को समाहित किया गया, जिसमें नृतकियां अपने शानदार लिबास, मधुर गायन और सम्मोहक नृत्य से देखने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती थी।

Wednesday, October 15, 2014

सोचने का कीड़ा_Thinking keeps alive




 
यह सोचने का कीड़ा, कुछ न कुछ बुना ही लेता है.…

रेशम न सही अनगड़, टेढ़े-मेढ़े न बूझ सकने वाले शब्दों का खुरदरा कपड़ा जो चुभता तो है पर ठंडी से बचाता है और जिन्दा रखता है आत्मा को लड़ने-जूझने के लिए एक और अंतहीन लड़ाई।

रण_struggle





रण छोड़ने वाले दास ही बनते है....
इतिहास यही बताता है, आगे बढकर टिककर रण जीतने वाले इतिहास रचते हैं, हम यही पाते हैं

उजले चेहरे का चलन_Mask





आजकल उजले चेहरे का चलन है, मन बेशक मैला हो...

Tuesday, October 14, 2014

pain_दर्द



दर्द ऐसी स्याही है, 
कलम खुद-ब-खुद चलने लग जाती हैं 
फिर ख़ुशी की, किसे आरजू है

दूर का फेर_Long distances are always deceptive





दूसरों को और दूर देखने के फेर में अपने और पास वाले नज़र ही नहीं आते...


Destination_मंजिल





अफसाने को अंजाम तक लाने की 
कोशिश का ही सबब है, 
वर्ना मोड़ तो खूबसूरत कई आए थे, 
न राह छूटी न हिम्मत टूटी, 
कदम हैं बढ़ रहे है मंजिल की ओर, 
रात दिन बेसाब्ता बेसबब 

Saturday, October 11, 2014

law_नियम




हर नियम का अपवाद होता है पर अपवाद कभी नियम नहीं हो सकता.

Friday, October 10, 2014

पश्चिम की स्वीकार्यता नोबेल के बरक्स nobel prize


 पश्चिम की स्वीकार्यता को लेकर परेशान भारतीय मेधा-प्रतिभा !
याद करें तो यही लड़ाई गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी ने लड़ी थी। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है।
मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था।
भवानी प्रसाद मिश्र अपनी कविता में इसे कहूं तो, 
यह कि तेरी भर न हो तो कह
और सादे ढंग से बहते बने तो बह
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी/हमसे बड़ा तू दिख।
(कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने के हो-हल्ले पर)

नोबेल शांति पुरस्कार: गाँधी बनाम कैलाश सत्यार्थी (nobel peace prize from Gandhi to Kailash Satyarthi)



पश्चिम का गुणा-भाग-गणित
मोहनदास करमचंद गाँधी को न और कैलाश सत्यार्थी को हां से साफ़ है कि नोबेल समिति पर लदे रूडयार्ड किपलिंग के श्वेत आडम्बर (white burden) की "अर्थी" ही निकल गईं है.

Thursday, October 9, 2014

Pakistani TV channels black out on Indian befitting reply on international border_पाकिस्तानी टीवी चैनलों में ब्लैकआउट



बात निकलेगी तो दूर तलक जाएंगी 
भारतीय सेना के मुंहतोड़ जवाब पर पाकिस्तानी टीवी चैनलों में ब्लैकआउट....
(जिससे सीमा पार, भाड़े के कट्टरपंथी हथियारबंद गिरोह के सरगनाओं को अपना काला मुंह छिपाना न पड़े)

पैट्रिक मोडिआनो-नोबेल पुरस्कार (Patrick Modiano)


काश देश में भी विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव के अध्ययन के लिए कोई जीवन होम करे! 
(नाजियों के कब्जे और उसकी वजह से फ्रांस पर पड़े प्रभावों का जीवन भर अध्ययन करने वाले फ्रांसीसी उपन्यासकार एवं लेखक पैट्रिक मोडिआनो को साहित्य का नोबेल पुरस्कार)

Tuesday, October 7, 2014

Marc Wambolt-मार्क वामबोल्ट





बेशक मैं न रहूं
तुम्हारे साथ हमेशा 
पर जब हम हो जाएंगे जुदा 
याद रखना 
रहोगी साथ मेरे तुम सदा 
मेरे दिल की गहराई में 

-मार्क वामबोल्ट, मन से कविताएँ

Monday, October 6, 2014

कुल जमा जोड़ जीवन_sum of activities is life



जीवन में सबका सहयोग होता है, अपनी अपनी भूमिका होती है, कभी कोई आगे तो कभी कोई नेपथ्य में. इन सबका कुल जमा जोड़ है, जीवन. 
अलग-अलग तो बस अपने अपने स्वार्थ और परमार्थ हैं. 
  

Sunday, October 5, 2014

हैदर_हिन्दू पंडित Haider_single view



हैदर में कश्मीर से इस्लाम के नाम पर अपने दर से बेघर कर, दर-दर भटकने को मजबूर किए हिन्दू पंडितों का जिक्र भी न होना, कश्मीर के रक्तरंजित इतिहास का एकतरफा पहलू है. 

बुर्के से शरीर ढकने की बात तो पता थी पर सच को भी ढका जाता है, देख लिया.

कश्मीर मे मिले तन के घाव अब पंडितों के लिए मन के नासूर बन चुके हैं और अब जनसंचार में उन्हें लोकस्मृति से भी बिसराने का काम किया है इस फिल्म ने.

हॉलीवुड के नक़ल वाले और आयातित आचार-विचार-व्यवहार के मुरीद बॉलीवुड के नक्कालों से और क्या उम्मीद की जा सकती है ? 

आखिर विदेश जाने की इच्छा लिए अनंतमूर्ति तो अनंत की यात्रा पर निकल गये, विशाल भरद्वाज भी चंद स्वघोषित बुद्धि जीवियों से कागज़ पर अंगूठा लगवाने वाले सहमतनुमा अभियान के कारगुजारी का एक पुर्जा है. 

बाकि चाणक्य का प्रसिद्ध सूत्र है ही यह साबित करने को काफी है, इस देश को दुर्जनों की दुष्टता से अधिक विद्वानों की कायरता से हानि हुई है. 

कभी दाउद इब्राहीम और शिवसेना के आतंक और भय से ग्रसित इस आत्ममोह से ग्रसित कालिदास के वंशजों से और उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है.

काश शेक्सपियर के हैमलेट और मैकबेथ के नक्कालों ने कल्हण की राजतरंगिनी के पन्नों, सिकंदर बुतशिकन, सिख गुरु के अमर बलिदान  और आतिशे चिनार के कुछ पन्नों को भी पलटने की जहमत उठाई होती तो हैदर एक रंग के कहानी न होकर अनेक रंगों की दास्ताँ होती.

Saturday, October 4, 2014

"भारत" के मुकाबले "इंडिया"_India vs Bharat in cleanliness



इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि "इंडिया" के चार महानगरों दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और चेन्नई की औद्योगिक झुग्गी झोपड़ी वाली बस्तियों के मुकाबले "भारत" के भीतरी भाग के गांवों, जहां अधिकांश वनवासी और गरीब रहते हैं, में ज्यादा सफाई है.

तन की भी और मन की भी.

रतौंदी colour blindness



मन का दर्द जब कागज़ पर उतरता है तो फिर चढ़ते नशे की तरह रोके नहीं रूकता.
सवाल पर यही है कि बने रहो पगला, काम करेगा अगला वाले तंत्र में भरोसा रखना कितना बड़ा छलावा है, क्या इतनी बार, इतनी कीमत चुकाने के बाद भी हमको सच्चाई दिख नहीं रही या फिर हम भी रतौंदी के शिकार है!

Bihar stampede बिहार दुर्घटना





मंगल ग्रह पर पहले प्रयास में पहुचने वाले भारत में, भारतीय क्यों किसी भी दुर्घटना के बाद प्राथमिक चिकित्सा उपचार से भी वंचित रह जाते हैं ? और फिर ईश्वर ने उन्हें इतना ही जीवन दिया था, कह कर हम भी इस सामूहिक पाप से मानो हाथ दो लेते हैं जैसे शमशान से मुर्दा फूकने के बाद हाथ धोते हैं.

क्या बिहार की इस दुर्घटना और आज के बिहार के लिए सिर्फ बिहारी जिम्मेदार हैं? आखिर कोई अपना घर, गांव, कस्बा, शहर, जिला और प्रदेश छोड़ कर महानगर के सड़के नापने मर्जी से तो निकलेगा नहीं !

अब इसके लिए योजना आयोग की तालाबंदी को जायज ठहराया जाना बेशक ज्यादा होगा पर आजादी के तुरंत बाद वित्तीय रूप से सबसे बेहतर राज्य का दर्जा पाने वाले प्रदेश की दुर्दशा के लिए अकेले किसी एक राजनीतिक दल, जाति, व्यक्ति, इलाके, आंदोलन और क्रांति को जिम्मेदार बताना बेहद बचकाना होगा. 

पर सवाल से बड़ा जवाब देने में जिम्मेदारी का होना है न कि केवल किताबी खानापूर्ति.

Friday, October 3, 2014

strong personality


Rejection of self and flopness of ideas makes your personality stronger.

जिंदगी-मात Life-defeat



 
जिंदगी में मात मिलना तो तय है, असली कसौटी तो मात खाकर फिर से उठकर आगे बढ़ने की है.

इंतज़ार-अवसर_wait-oppurtunity


 
इंतज़ार से संयोग बनते नहीं हैं, कठिनाईयों को अवसर में बदलने से जरूर कार्य सिद्ध होते हैं.....

राम-महात्मा गांधी_Ram-Gandhi



"यह ठीक है कि रामधुन के क्रम में सीताराम और राजाराम शब्द बार-बार आते हैं किन्तु ध्यान देने की बात यह है कि राम से अधिक शक्तिशाली उनका नाम है। हिन्दू धर्म तो महासिन्धु के समान है जिसमें असंख्य बहुमूल्य मोती भरे पड़े है। इस धर्म में ईश्वर के अनेक नाम हैं। हजारों लोग असंदिग्ध रूप से राम और कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं तथा यह विश्वास करते हैं कि वे ईश्वर के अवतार थे। इतिहास, कल्पना और सत्य हिन्दुत्व में सब मिलकर एकाकार हो गए हैं।
-महात्मा गांधी, हरिजन, 2 जून, 1946

Thursday, October 2, 2014

Gandhi and US महात्मा गाँधी:अमेरिका





शायद, अमेरिका की इसी फितरत को पहचान कर महात्मा गाँधी ने अमेरिका को बनिया देश कहा था और वे स्वयं कभी वहां नहीं गए. वैसे भी हिंदुस्तान के सबसे बड़े बनिए की नज़र से बनिया देश कैसे बच सकता था !
फोटो: वाशिंगटन के भारतीय दूतावास में गाँधी की मूर्ति 

चाय वाला पीएम Tea seller Prime Minister



एक 'चाय वाले' को पीएम बना दिया, आप बांचते रहिये 'कैपिटल'...गुजरात से लेकर दिल्ली और अब फिर तमिलनाडु.… 
यहाँ की जनता की समझ तो देखो, दासों के दास, लाल लंगोठ वाले की चालीसा जनता-जनार्दन ने मन ही मन कंठस्थ कर ली और नामुराद कैपिटल की दास नहीं हुई...
मेरे आइआइएमसी के हिंदी के बैच (1995) में भी एक साथी कामरेड ने संस्थान में हिंदी दिवस वाले दिन कुछ ऐसी ही बात कही थी कि यहाँ मौजूद ज्यादातर छात्रों ने कार्ल मार्क्स की "दास कैपिटल" नहीं पढ़ी है. जिस पर मेरा कहना था कि अपने समाज को समझने के लिए ज्यादा जरूरी तुलसीदास की "रामचरितमानस" को पढ़ना है, जिसे हमारे कॉमरेड ने भी नहीं पढ़ा था....
इतिहास सही में खुद को दोहराता है, पढ़ा था. आज मान लिया.

माँ_mother

 

माँ
तो माँ है,
माई कहीं जाती नहीं,
वह तो हमारे भीतर-बाहर होती है
हमेशा साथ,
बस महसूस करने की बात होती है...
जब चाहे कर लो.

Wednesday, October 1, 2014

“Swachh Bharat Abhiyaan” Students of Government Schools, Delhi





2700 students of 44 Government Schools of the Directorate of Education of Government of NCT of Delhi will participate in a programme under “Swachh Bharat Abhiyaan” organized at the India Gate on 2nd October 2014, the birth anniversary of Mahatma Gandhi. These students will also take Swachhta Shapath (Sanitation Pledge) along with the Prime Minister Shri Narendra Modi by reading the contents from the ‘Pledge Paper’. These students will participate in a 3 km long ‘Walkathon’ which is being organized on this occasion.

In addition, all the schools and offices of the Directorate will remain open on 2nd October. The staff have been told to report for duty at 09.00 am and participate in the ‘Swachhta Shapath’ at 09.45 am. Thereafter, they will engage themselves in cleanliness activities in/near their respective work places.

Students have also been asked to come to schools and participate in the cleanliness programmes/activities. A special mid day meal has been arranged for the students on this special occasion.

The Directorate is organizing Painting and Slogan Writing Competitions also in order to commemorate this occasion. Private schools are not far behind either. A number of them are also participating in this cleanliness campaign.

The Director Education Mrs. Padmini Singla said that private and aided schools apart, the entire family of the Directorate – which includes 17 lakh students and 50,000 staff – will be contributing towards ensuring the ‘ Swachh Vidyalaya - Swachh Delhi Abhiyan’.

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...