Wednesday, April 29, 2020

US Auction of Gandhi's Letter_गांधी की चिठ्ठी की नीलामी





'आर. आर. ऑक्शन' कंपनी की वेबसाइट पर नीलामी की लिए उपलब्ध गाँधी की चिठ्ठी

चिट्ठी का स्त्रोत: https://www.rrauction.com/bidtracker_detail.cfm?IN=259

कभी अमेरिका नहीं गए महात्मा गांधी के एक सार्वजनिक चिठ्ठी की बोस्टन शहर में नीलामी है। गाँधी ने नव स्थापित हरिजन सेवक संघ के लिए धन जुटाने के हिसाब से एक चिठ्ठी लिखी थी। पुणे की यरवदा जेल से लिखी सार्वजनिक अपील यही चिठ्ठी अमेरिका में बिक्री के लिए उपलब्ध है।




बोस्टन की नीलामी वाली कंपनी आर आर ऑक्शन की वेबसाइट पर फ्रेम में उपलब्ध चिट्ठी

बोस्टन की 'आर. आर. ऑक्शन' नामक कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर यह चिठ्ठी नीलामी के लिए डाली है। इस चिठ्ठी की बिक्री का न्यूनतम मूल्य पन्द्रह हजार डाॅलर रखा गया है। जबकि नीलामी में भाग लेने की आखिरी तारीख 13 मई है।

'आर. आर. ऑक्शन' की नीलामी वाली वेबसाइट का लिंक
https://www.rrauction.com/bidtracker_detail.cfm?IN=259

नौ अक्तूबर 1932 को एक पेज की आकार (4 X 6.5) वाली अंग्रेजी में गांधी की हस्तलिखित इस चिठ्ठी में एम के गांधी के नाम से हस्ताक्षर हैं।

गांधी इस चिठ्ठी में अपील करते हुए कहते हैं, “प्रिय मित्रों, मैं आपको आपके सहानुभूति वाले पत्र के लिए धन्यवाद देता हूं। इन विषयों को आगे बढ़ाने के हिसाब से घनश्याम दास बिरला की अध्यक्षता में गठित अस्पृश्यता विरोधी संघ को पैसे भेजे जा सकते हैं।” उल्लेखनीय है कि वर्ष 1932 में, गांधी ने भारत की जाति व्यवस्था से अस्पृश्यता की अवधारणा को मिटाने के अपने प्रयासों के तहत अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी लीग स्थापित किया था। यह अब हरिजन सेवक संघ के नाम से जाना जाता है।



गाँधी अपने घनिष्ट मित्र-उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला के साथ

गाँधी ने अपने घनिष्ट मित्र और उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला को संस्था का कर्ताधर्ता बनाया। इस समूह के नेक प्रयासों से देश में वंचित वर्गों को मंदिरों, स्कूलों, सड़कों, और पीने के पानी जैसी सार्वजनिक स्थानों की सुविधाओं के उपयोग में सहायता मिली। इससे पहले इन सुविधाओं पर कुछ का ही विशेषाधिकार था। यह चिठ्ठी में गांधी के हिंदू समाज सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की भूमिका उजागर होती है, जो कि सामान्य रूप से ओझल ही है।



पुणे का आगा खान पैलेस

फोटो स्त्रोत : https://insider.in/aga-khan-palace-pune-maharashtra/event


पुणे की येरवदा जेल (आगा खान पैलेस) में गांधी के उपवास के परिणामस्वरूप हुए ऐतिहासिक पूना पैक्ट के बाद सितंबर 1932 में हरिजन सेवक संघ की स्थापना हुई थी। वर्ष 1931 में लंदन में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधी ने हिंदू समुदाय के वंचित वर्गों के लिए एक पृथक निर्वाचन समूह बनाने का विरोध किया था। गांधी ने इसे निर्णय को ब्रिटिश सरकार के फूट डालो, विभाजन करो की उसकी नीति के अनुरूप हिंदू समाज को बांटने की एक भयावह कोशिश के रूप में देखा।




दिल्ली स्थित हरिजन सेवक संघ का केंद्रीय कार्यालय

फोटो स्त्रोत : http://www.gandhicreationhss.org

गांधी के कड़े विरोध के बावजूद, ब्रिटिश सरकार ने अगस्त 1932 में, वंचित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन देने के लिए एक कम्यूनल अवार्ड की व्यवस्था की। जबकि तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने गांधी के इस निर्णय पर पुनर्विचार करने की अपील खारिज कर दी।

दिल्ली के किंग्सवे कैंप में स्थित हरिजन सेवक संघ की स्थापना के बाद यहां बना कस्तूरबा-निवास राजधानी में गांधी का दूसरा घर बन गया था। इसके बाद गांधी जब भी दिल्ली प्रवास पर आते थे, वे इसी परिसर में ठहरते थे। यहां तक कि उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी और पुत्र देवदास गांधी इस परिसर में लंबे समय तक रहे।

Thursday, April 23, 2020

Sardar Patel Plaque at the Middle Temple_सरदार वल्लभ भाई पटेल_मिडिल टैम्पल






देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वर्ष 1910 में इंगलैंड जाकर वकालत के लिए मिडिल टैम्पल में दाखिला लिया था। उन्होंने रोमन लाॅ की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के साथ प्रथम स्थान प्राप्त किया था। 

सरदार पटेल वर्ष 1913 में बार से जुड़े थे। 

फरवरी 2014 में लंदन के मिडिल टेम्पल में उनके नाम की एक पट्टिका लगाकर सम्मानित किया गया।

Saturday, April 18, 2020

Civil Services Day_21 April_Sardar Patel and Indian Administrative Service_इंडियन सिविल सर्विस से भारतीय प्रशासनिक सेवा तक

सरदार पटेल भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के पहले बैच के साथ।


21 अप्रैल: सिविल सेवा दिवस

भारत सरकार हर साल 21 अप्रैल को सिविल सेवा दिवस मनाती है। इस दिन देश भर के सिविल सेवक नागरिकों के कल्याण कार्य के लिए स्वयं को पुर्नसमर्पित करते हुए और नए सिरे से सार्वजनिक सेवा और कार्य में उत्कृष्टता लाने की अपनी प्रतिबद्धताओं को दोहराते हैं। सिविल सेवा दिवस का पहला समारोह 21 अप्रैल 2006 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में हुआ था। यह तिथि इसलिए चुनी गई क्योंकि वर्ष 1947 में इसी दिन स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने वर्ष 1947 को दिल्ली के मेटकाफ हाउस स्थित अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल में प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के परिवीक्षकों को संबोधित किया था।


सरदार पटेल ने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल के पहले सत्र का उद्घाटन किया था। यहां पटेल के आगमन पर स्कूल के प्राचार्य श्री एम.जे.देसाई ने उनका स्वागत किया था। इतना ही नहीं, इंडियन सिविल सर्विस (आइसीएस) के वरिष्ठ अधिकारी देसाई ने उन्हें मेटकाॅफ हाउस भी दिखाया। पटेल ने प्रशिक्षुओं के साथ कुछ समय बातचीत करने के बाद उनके लिए बनाई गई कक्षाओं, छात्रावासों, भोजन कक्ष सहित शिक्षण और मनोरंजन की व्यवस्थाओं का भी निरीक्षण किया।


यमुना के किनारे स्थित मेटकॉफ हाउस में बने इस स्कूल में तब अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के 44 और भारतीय विदेश सेवा के नौ प्रशिक्षु थे। इन प्रशिक्षुओं के प्रशिक्षण के लिए निश्चित पाठ्यक्रम में भाषा, आपराधिक और नागरिक कानून, कानूनी साक्ष्य, कानूनी प्रक्रिया, इतिहास, अर्थशास्त्र, कार्यालय संगठन, लोक प्रशासन तथा मोटर यांत्रिकी के विषय शामिल थे। भारतीय विदेश सेवा के प्रशिक्षुओं को अंतरर्राष्ट्रीय कानून सहित कुछ विशेष विषयों की भी पढ़ाई करने का प्रावधान था।


स्वतंत्र भारत के पहले उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में पटेल नौकरशाही के पुर्नगठन और भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा को पुनः सृजित करने के प्रेरणाा स्त्रोत थे। 21 अप्रैल, 1947 को सिविल सेवा प्रशिक्षुओं के पहले बैच को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि पुरानी शैली के आधार पर कार्य करने वाली भारतीय सिविल सेवा का दौर समाप्त होने वाला है और इसके स्थान पर हमने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा की व्यवस्था की है। यह परिवर्तन न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि युगान्तकारी भी है। सर्वप्रथम तो यह बदलाव, सत्ता हस्तान्तरण की उस प्रक्रिया का द्योतक है, जिसके तहत शासन की बागडोर विदेशी हाथों से निकलकर भारतीयों के सुपुर्द हो रही है। दूसरा, यह ऐसे अखिल भारतीय सेवा संवर्ग का शुभारम्भ है, जिसके समस्त अधिकारी भारतीय होंगे और पूर्णतया भारत के नियंत्रण में होंगे। तीसरा, यह कि यह सेवा संवर्ग, बिना किसी पुरातन परंपरा और पुराने ढर्रे के बंधनों में बंधे, राष्ट्रीय सेवा की सच्ची भूमिका को अपनाने के लिए स्वतंत्र होगा और इसे ऐसा करना ही होगा।


उन्होंने युवा अधिकारियों को यह कहकर नई दिशा दी कि सर्वप्रथम, मैं आपको सलाह देना चाहता हूँ कि प्रशासन को पूर्णतया निष्पक्ष और भ्रष्टाचार से मुक्त बनाएं। एक सिविल सेवक राजनीति में हिस्सेदार नहीं बन सकता है, उसे राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए और न ही अपने आपको साम्प्रदायिकता के दायरे में बांधना चाहिए। किसी भी तरह से इस पथ से विमुख होना जन सेवा को दूषित करना है और इसकी गरिमा को कम करना है। कोई भी सेवा अपने नाम को तब तक सार्थक करने का दावा नहीं कर सकती, जब तक वह सेवानिष्ठा के उच्चतम शिखर कोक नहीं छू लेती। खेद की बात है कि अभी भारत भ्रष्टाचार मुक्त सेवा का दंभ नहीं भर सकता, लेकिन मैं आशा करता हूँ कि आप, जो कि सिविल सेवकों की नई पीढ़ी है और इस सेवा में नई शुरूआत करने जा रही हैं, पुरातन सिद्वान्तहीन देशहित विरोधी अंग्रेजी विरासत से पथ भ्रमित नहीं होगी और बिना भय या पक्षपात तथा बिना किसी अतिरिक्त ईनाम की प्रत्याशा के अपनी सेवाएं देगी।


सिविल सेवा की उनकी संकल्पना और प्रयोजन उनके एक खत से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें उन्होेंने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को 27 अप्रैल 1948 को लिखा था। उस पत्र में पटेल ने लिखा था कि अपने विवेकपूर्ण और ईमानदार कार्यों के फलस्वरूप, भविष्य के प्रति आश्वस्त एक कुशल, अनुशासित और संतुष्ट (सिविल) सेवा, किसी तानाशाही हुकूमत से कहीं अधिक, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में विश्वसनीय प्रशासन तंत्र के लिए अनिवार्य है। सिविल सेवा प्रणाली, दलगत हितों से ऊपर होनी चाहिए और हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि इसके अंतर्गत की जाने वाली भर्तियां अथवा इसकी अनुशानिक और नियंत्रण व्यवस्था के मामले में राजनीतिक निहितार्थ, यदि पूर्णतया समाप्त न किए जा सकते हों, तो न के बराबर होने चाहिए।


उल्लेखनीय है कि 15 अप्रैल 1958 को तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने लोकसभा में सरकार के सभी सिविल सेवकों के प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी स्थापित करने की घोषणा की थी। इस घोषणा के परिणाम स्वरुप केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी मसूरी के चार्लेविल एस्टेट में स्थापित किए जाने वाली राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के गठन के लिए दिल्ली स्थित आईएएस प्रशिक्षण स्कूल और शिमला के आईएएस स्टाफ कॉलेज के विलय का निर्णय किया। इस तरह, एक सितंबर 1959 को दिल्ली स्थित मेटकाफ हाउस का अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल सदा के लिए इतिहास का एक भाग बन गया।

18/04/2020, दैनिक जागरण 


Solitary thoughts_public writing_मन भागता है_अनजानी प्यास के पीछे

चित्र: शकुंतला_राजा रवि वर्मा 


















































































































































































हिन्दी साहित्य की उम्र दराज रुदालियाँ जब रोती हैं तो मजेदार है कि आंसू एक नहीं गिरता है।

जीवन कितना क्षणिक और तृष्णाएं-वासनाएं कितनी स्थायी!
इस क्षणभंगुरता को नकारात्मकता और नैराश्य का भाव और अर्थहीन बना देता है.
आखिर मृत्यु से बड़ी सीख क्या है?
एक हम है कि विपरीत दिशा में नैया को खेने में ही जीवन निस्सार कर रहे हैं! 16082020

कभी जिन्दगी ही
हमें अचानक छोड़ देती है,
बिना अपना पता बताएं!
देश कुशल बहुतेरे।
जब दूसरे को पतित बताने वाले स्वयं ही कीच धंसे हैं तो फिर ऐसे में किसी के कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता!


जीवन के रेगिस्तान में पिता ही संतान का सबसे बड़ा ध्रुव तारा होता है जो दिशाहीन होकर भटकने नहीं देता।


जीवन के प्रति इच्छा यानि जीवेष्णा ही मुख्य है जो विपरीत परिस्थितियों में भी व्यक्ति को जिलाए रखती है। शेष मृत्यु के समक्ष तो इलाज और डाक्टर सब, अर्थहीन और निरूपाय हो जाते हैं। बाकी बातें हैं, बातों का क्या!


अपन तो कबाड़ी है, बचपन से कतरन और किताबों को जुटाने का भूत सवार रहा है। इन्हीं में से गिलहरी की तरह थोड़ा-थोड़ा कुतरकर पढ़ते जाते हैं। अगर कोई बात लगती है कि मित्रों से बरती जाएं तो बता देते हैं। आखिर कौन ज्ञान से भारी होकर जाना है, जितना जीवन सहज रहेगा तो शरीर से प्राण भी आसानी से छूटते है।
लिखने का कम और पढ़ने का ज्यादा शौक है। बाकी किताबें जुटाना तो मानो मृगतृष्णा के समान है। जितनी एकत्र करो, कम लगती है। बाकी कुछ नहीं तो अंतिम समय में लकड़ी की जगह ही काम आ जाएंगी। वैसे अब तो सीएनजी से फूंकना भी आसान हो गया है। सही में, कोरोना ने सभी को जीवन की क्षणिकता और अपने सामथ्र्य की सीमा का भान करवा दिया है। (14/06/2020)


सच में हर परिस्थिति में जूझने की ताकत ही नए मार्ग प्रशस्त करती है. शेष विश्व तो सहज ही किसी लायक मानने को तैयार नहीं होता. 
हम अपना आकलन ऐसे करते है कि हम क्या कर सकते है जबकि दूसरा हमारा आकलन ऐसे करते हैं कि अभी तक हमने क्या किया है. 
सो, ऐसे में भविष्यमूलक और इतिहासमूलक दृष्टिकोणों का मूल अंतर को सही से समझने की जरुरत है. 
जो समझ जाते हैं, वे आगे बढ़ जाते हैं, बाकि बीच रास्ते में ही विचलित होकर भटककर अटके रह जाते हैं. 
वैसे भी वेदों (ऐतरेय ब्राह्मण) में कहा गया है कि चरैवेति-चरैवेति यानि लगातार चलते रहना ही धर्म है. 
ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की ऋचाओं पर आधारित वैदिक कर्मकांडों से संबंधित ग्रंथ है । उसमें एक कथा का उल्लेख है इक्ष्वाकुवंशीय राजा हरिश्चन्द्र और उनके पुत्र रोहित से संबंधित । उस कथा में पांच श्लोकों का उल्लेख है, जिनके अंतिम चरण का अंत “चरैवेति” से होता है ।
सो, नियमित रूप से अपने काम की निरंतरता ही इच्छित लक्ष्य तक पहुंचाती है. 
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति ॥
(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)


उसके मुंह अपनी तारीफ सुनना मुझे अच्छा लगता है कि मैं सुंदर हूँ आकर्षक हूँ या ऐसा ही बहुत कुछ। 
पर हकीकत यह है कि मुझे कुछ कहने-सुनने से ज्यादा यह बात पसंद है कि मेरी वजह से उसके लिए जिंदगी जीने लायक है, उसे मेरे होने-भर से बेहिसाब खुशी मिलती है। 
यह अजीब पर सच है कि उसको नहीं पता कि वह मेरे बिना क्या करेगी! मेरा वजूद ही, मेरी पहचान है, ताकत है। 
शायद इसी कारण, उसे लगता है कि हम कभी जुदा नहीं होंगे। 
उसे मुझ पर खुद से ज्यादा भरोसा है कि मेरे पास उसको देने के लिए सब कुछ है। 


जिंदगी में, तारीफ हमेशा आपके होने की ही नहीं होती है। वैसे, होने और न होने में 'न' भर का ही फर्क होता है। 


माटी के पुतले की बाहर गई सांस को अगर बाहर से भीतर की सांस का साथ न मिले तो सब ख़त्म। यह होता है सांसों का साथ, एक-दूसरे के सदा होने और साथ में चलने का भरोसा। यह जीवन है। (18/04/2020)


मन भी अजीब है।
न जाने, अनजाने के पीछे ही क्यों भागता है।
जानने वाला जो जानकर भी अपना नहीं होता, उसे याद रखता है।
न जानने वाला जो अपना हो जाता है, उसे भूल जाता है। पता नहीं, यह आदमी की सोच है या कोशिश।
जिन्दगी में सब कुछ अपने हिसाब से होता नहीं है।
फिर भी हम है कि हिसाब ही रखते हैं, जिंदगी को भूल जाते हैं।
जब अनचाहे या मजबूरी में याद करते हैं, बीते हुए पल तो आंखे भारी हो आती हैं और वक्त पहाड़ सा हो जाता है।
वह जिंदगी जो कभी लगती नहीं थी कि गिनने की जरूरत होती है, लम्हों को।
वहां लम्हे भी ऐसे कटते हैं, मानो हैंडब्रेक लगाकर गाड़ी चला रहे हो पूरी गति से।
आखिर जिंदगी की गति कहां सम होती है और कहां विषम, इतना कौन लेखा जोखा रखता है। (18/04/2020)


सदा के लिए महानगर-शहर में रच-बसने के बाद भी पता गांव बस याद भर का ठिकाना होता है। चाहे संबंध के नाम पर चाहे सुविधा के नाम पर कोई भी लौटता नहीं। इस कभी न लौटने की क्षतिपूर्ति पढ़े-लिखे किस्सा-कहानी, संस्मरण-रिपोतार्ज लिखकर पूरी कर लेते हैं। कुछ साहित्यिक प्रेमचन्द का नाम भी लेते हैं तो कुछ निर्मला का भी। मानो हुए तो नेहरू पर गांधी का नाम पुछल्ले की तरह अपने साथ लगाएं रखा ताकि अपने बाद वाले भी शहर में अकड़ के साथ रहे सकें, गांव को एक बेचारी याद बनाकर।


जिन्दगी में किसी को कभी न लौटकर आने वाले व्यक्ति को दी जाने वाली विदाई सदैव मौन होती है। यह देह-मन पर एक अमिट छाप की तरह रह जाती है, जो चिता पर ही मिटती है।


मां जैसा कोई नहीं। जीवन की प्रथम गुरु वही होती है।


अब तो सारे टीवी चैनल और अखबार पूरी तमन्यता से बाबा का विज्ञापन चला रहे हैं। कई जगह तो प्राइम टाइम को बाबा की कंपनी के उत्पाद प्रायोजित कर रहे हैं। ऐसे में, सब माया के भक्त बनकर लाइन में कीर्तनिए बने हुए हैं। ऐसे में कोई अंगुली नहीं उठा सकता!


मैं स्वयं की सीखने में लगा हूं। बस नियमित पढ़ने के साथ लिखने का भी एक सिलसिला बनाना जरूरी है। एक बार सध गया तो फिर लेखन की सवारी पूरी दुनिया की सैर तो करवा ही देती है। सबसे महत्वपूर्ण स्वयं से मिला देती है। बाकी पढ़ने वाले लिखना तो जानते ही है, बस अपने से लिखने के आलस से निकलना भर होता है।


हरेक की जिन्दगी में एक ऐसा पल आता है। जब सब तरफ से उम्मीदों की खिड़कियां और मदद के दरवाजे बन्द हो जाते हैं। हम जिन्हें सहारा और स्थायी समझे थे, सबसे पहले वे ही साथ छोड़कर निकल जाते हैं। जीवन बाहर से ही समाप्त नहीं होता, भीतर भी एक शून्य पैदा हो जाता है। मानो एकाएक अपने होने की व्यर्थता का बोध होता है। फिर लगता है कि इस धरती पर किसलिए हैं, इस संत्रास और पीड़ा के लिए! कितना कुछ होता है मन में। फिर भी मुंह के बोल नहीं फूटते, अबोल का ही मौन पसरा होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह संसार समझकर भी नहीं समझना चाहता। दुनिया मानती है कि आप हो क्या। इस होने न होने के द्वन्द में संबंध, संबोधन और सहजता सब तिरोहित हो जाते हैं। ऐसे में प्रकृति के पांच तत्व अपने मूल स्वरूप का ज्ञान करवा देते हैं! मानो कोई पहली बार धरती, हवा, पानी, आग, आसमान के अस्तित्व को जाना-समझा हो।


अरे बन्धु, ऐसा कुछ नहीं है। भगवान किसी-किसी की कुंडली बस साधना की बना देता है जबकि कुछ जीवन भर साधने में लगे रहते हैं। सो, अपन तो अपनी धार को ही सान पर चढाए रखते हैं पता नहीं कब, कहां, किसके काम आ जाएं। अपने मन के अनुरूप कार्य ईश्वर कम को ही प्रदान करता है। इसी को वरदान मानकर आनन्द से है।
(रोहित, श्रान्ताय नाना श्रीः अस्ति इति शुश्रुम,
नृषद्वरः जनः पापः, इन्द्रः इत् चरतः सखा, चर एव इति ।)
अर्थ – हे रोहित, परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं ऐसा हमने ज्ञानी जनों से सुना है । एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं । विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) । (20/04/2020)

Friday, April 17, 2020

Dance_Song_Martha Graham_मार्था ग्राहम_जिस्म_नाच_नगमा





जिस्म के लिए नाच, एक नगमा गुनगुनाने की तरह है फिर चाहे वह नगमा खुशी का हो या गम का।
-मार्था ग्राहम

Thursday, April 16, 2020

Sardar Patel_Family_सरदार पटेल और उनका परिवार

फोटो साभार: सरदार पटेल राष्ट्रीय स्मारक, अहमदाबाद




वल्लभ भाई पटेल की पत्नी ज़ावेरबेन गुना गांव से थी। उन्होंने गोधरा में अपना परिवार प्रारंभ किया। उन दिनों प्लेग एक महामारी के रूप में फैला, जिसे देखते हुए उन्होंने अपनी पत्नी को दूर भेज दिया और स्वयं एक संक्रमित मित्र की तिमारदारी में लग गए। 


प्लेग समाप्त होने के बाद वे वापस काम पर लौटे और फिर से वकालत करने लगे। इसके बाद वे बोरसाड़ चले गए, जहां इस दंपति के दो बच्चे मणिबेन और दया भाई पैदा हुए। उनकी पत्नी ज़ावेरबेन अधिक जिंदा नहीं रहीं और जवानी में ही कैंसर के कारण चल बसीं।
वल्लभ भाई ने बच्चों के लिए मां की भूमिका भी निभाई। दया भाई अपना खुद का काम करने लगे और मणिबेन ने अपना जीवन पिता को समर्पित कर दिया और जीवन-पर्यंत उनका ध्यान रखा।


परिवार के प्रति उनका समर्पण भी उल्लेखनीय था। यह उल्लेखनीय है कि अपनी जवानी में उन्होंने अपने अग्रज विट्ठल भाई के लिए जबर्दस्त त्याग किया था। वल्लभ भाई ने अधिवक्ता के रूप में कठिन परिश्रम किया और कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड जा कर काफी धन जमा कर लिया था। उन्होंने इसके लिए आवेदन भेजा और दाखिले संबंधी दस्तावेज उन्हें प्राप्त हो गए। परंतु, दाखिला श्री वी.जैड. पटेल को मिला। विट्ठलभाई उनके अग्रज थे और वे भी इंग्लैंड जा कर कानून की पढ़ाई करना चाहते थे। उन्होंने दाखिला दस्तावेज का आवरण पृष्ठ देखा और अपने अनुज वल्लभ भाई को सुझाव दिया कि पहले अध्ययन के लिए वे जाएंगे, चूंकि उनका नाम भी वी.जैड. पटेल है। वल्लभ भाई ने गरिमापूर्ण ढंग से अपनी बारी का त्याग कर दिया। उन्होंने न केवल विट्ठल भाई के लिए त्याग किया, बल्कि इस दौरान अपनी भाभी की भी बड़े सम्मानपूर्वक देखभाल की।


उस समय के अन्य नौजवानों से भिन्न वल्लभ भाई अंतत: 37 वर्ष की आयु में बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड गए। दुर्भाग्य से अध्ययन के लिए जाने से पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। उस समय वे बोरसाड में अधिवक्ता के रूप में वकालत कर रहे थे। पत्नी को कैंसर था और उनका आपरेशन किया जाना था। वल्लभ भाई उन्हें बंबई (अब मुंबई) के हरकिशनदास अस्पताल ले गए और सर्जरी की तैयारी की जा रही थी। परंतु उन्हें एक मामले के सिलसिले में वापस आना पड़ा। उन्होंने सोचा था कि वे जल्द ही वापस लौट आएंगे। परंतु, विधि को कुछ और ही मंजूर था। जब वे अदालत में जिरह के लिए जा रहे थे, तभी उन्हें टेलीग्राम मिला कि ज़ावेरबेन नहीं रहीं। उन्होंने तार को अपनी जेब में रखा और शांत भाव से पैरवी के लिए गए। पैरवी पूरी होने के बाद ही उन्होंने पत्नी की मृत्यु के समाचार का खुलासा किया। 


इस घटना के 19 वर्ष बाद मौलाना शौकत अली ने उन्हें ‘ए वॉल्कैनो इन आइस’ यानी ‘बर्फ में ज्वालामुखी’ की संज्ञा दी। उन्होंने अपने दोनों बच्चों को मुम्बई में मिशनरी छात्रावास में रखा। 

स्रोत: सरदार वल्लभ भाई पटेल के व्यक्तित्व के अनजाने पहलू_सुदर्शन अयंगर_गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद के पूर्व कुलपति (रोजगार समाचार में छपा लेख) 

Wednesday, April 15, 2020

Rightist_Leftist_राइटिस्ट बनाम लेफटिस्ट_वामपंथ_दक्षिणपंथ

पुरानी फ्रांसीसी संसद के एक सत्र पुराना चित्रण_1843




राइटिस्ट बनाम लेफटिस्ट का फंडा   

इसे बहुत कम लोग जानते हैं कि वामपंथ और दक्षिणपंथ ये यूरोपीय शब्द हैं। फ्रांस की संसद (पार्लियामेंट) में भी दो दल थे। जो दल फ़्रांसिसी सम्पति कम करने या समाप्त करने के पक्षधर थे, वे वामपंथी कहलाये। ये संसद में बायीं तरफ बैठते थे। इसलिए इन्हें "वामपंथी" कहा गया। ये लोग गिरजाघरों चर्च की शिक्षा के विरूद्व थे और चर्च के अधिकारों को कम करना चाहते थे। जबकि दूसरी तरफ, दक्षिणपंथी व्यक्ति, फ़्रांसिसी समाज में सम्पति के संरक्षण और चर्च की शिक्षा के समर्थक थे। ये नरम विचाराधारा के लोग थे। उदारवादी थे, ये दायीं तरफ बैठते थे, इसलिए उन्हें दक्षिणपंथी कहा जाता था।

Sunday, April 12, 2020

Writing of Gandhian writer Dharmpal_ गांधी दृष्टि लेखक धर्मपाल का लेखन






यूरोप और अमेरिका की तो प्लेटो और अरस्तू के समय से ही मान्यता है कि दासत्व ही साधारण मानव समाजों के लिए उचित व्यवस्था है। यूनानियों और यहूदियों के ओल्ड टेस्टामेंट के हिसाब से (जिसे ईसाई व इस्लाम दोनों मानते हैं) मनुष्य-मनुष्य में भी फर्क है। कुछ थोड़े से मनुष्य ही मनुष्य माने जा सकते हैं, बाकी तो पशु व शेष प्रकृति के समान है। आवश्यकता होने पर राजपुरुष उन्हें बगैर किसी कानूनी व्यवस्था में पड़े मार सकते हैं, जैसे कि पागल कुत्ते को। 

-धर्मपाल, भारत की पहचान, धर्मपाल की दृष्टि में


भारत केवल कृषि प्रधान देश ही नहीं था। सन् 1750 के आसपास भारत और चीन के कुल विश्व का 73 प्रतिशत औद्योगिक उत्पादन होता था। सन् 1820 तक भी यह उत्पादन 60 प्रतिशत तक रहा है। परन्तु इसके बाद लगातार गिरावट आई।

-धर्मपाल, भारत की पहचान, धर्मपाल की दृष्टि में

Raj_Swaraj_Mahtma Gandhi_Jawaharlal Nehru_राज_स्वराज_महात्मा गांधी_जवाहर लाल नेहरू

महात्मा गांधी_जवाहरलाल नेहरू_फोटो साभार: एएफपी 




प्रसिद्ध गांधी दृष्टि के लेखक धर्मपाल ने "भारत का स्वधर्म" पुस्तक में जवाहर लाल नेहरू के 'राज' के महात्मा गांधी के 'स्वराज' के बहिष्कार और फिर तिरस्कार की कहानी को विस्तार से बखान किया है। यह पुस्तक दिवंगत डाक्टर छगन मोहता की स्मृति व्याख्यान माला के प्रथम वक्ता के रूप में धर्मपाल के भाषणों का संकलन है। इस पुस्तक को बीकानेर के वाग्देवी प्रकाशन ने छापा है।


धर्मपाल अपनी "भारत का स्वधर्म" नामक पुस्तक में लिखते हैं, रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसी सर्जनात्मक प्रतिभाओं ने एक विचित्र आत्मग्लानि, आत्मदैन्य और उसी के साथ योरपीय लक्ष्यों की पूर्ति में ही भारत का आत्म गौरव देखने का बौद्धिक परिवेश रचा, उसमें ही जवाहरलाल नेहरू जैसे पश्चिमीकृत व्यक्तित्वों का उभरना और प्रतिष्ठित होना संभव हुआ।


वे पुस्तक में आगे बताते हैं कि चेतना-विकासवाद की अपनी विशिष्ट अवधारणाओं के फलस्वरूप जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग पश्चिम के चिन्तकों में सर्वाधिक विकसित चेतना देखते थे और पश्चिम के चिन्तकों के अनुगत समाज को सर्वाधिक विकसित समाज। अतः पश्चिम के द्वारा रची गई आधुनिक शिक्षा की स्वभावतः जवाहरलाल नेहरू के लिए प्रामाणिक ज्ञान का एकमात्र माध्यम थी। इसीलिए वे मानते थे कि भारतीय ग्रामीणों में आधुनिक शिक्षा के पर्याप्त प्रसार के बिना ज्ञान और गुण हो ही कैसे सकते हैं। इसीलिए वे भयंकर अज्ञान और गुणहीनता की इस दशा से करोड़ों भारतीयों का उद्धगार करना तथा उन्हें अपने अनुरूप रूपान्तरित करना, अपने नेतृत्व में आधुनिक शिक्षित वर्ग द्वारा संचालित राज्य का प्रमुख कर्तव्य मानते थे।


धर्मपाल एक दूसरी पुस्तक "स्वदेशी और भारतीयता" के "जारी है गांधी पर नेहरू के हमले" शीर्षक वाले अध्याय में लिखते हैं कि एक 1945 में तो नेहरू ने साफ कहा कि गांधी के स्वदेशी राग को उन्होंने कभी विचार के लायक नहीं माना। कांग्रेस ने भी स्वदेशी की बातचीत 1937 में ही छोड़ दी थी। गांधी ने पश्चिमपरस्त लोगों और उनके नेता नेहरू को संतुलित करन के लिए कोशिशें कम नहीं कीं। गांधी सेवा संघ बनाया गया। संघ पश्चिमपरस्त तबके के खिलाफ दबाव बनाने का साधन था। 1938 में नेहरू जब विदेश जा रहे थे तो उन्होंने संघ के खिलाफ हमले का बिगुल बजाया कि संघ राजनीति कर रहा है।


धर्मपाल इस संबंध में अपने निचोड़ की बात कहते हैं कि सृजनात्मक बुद्धि के इस अभाव का परिणाम था कि भारतीय इतिहास, भारतीय शास्त्र, धर्मग्रन्थ एवं वेदों तक में वे सब बातें ढूंढ़ी-बताई जाने लगीं, जो हमें अंग्रेजों के अनुगत बनने के योग्य सिद्ध करें। इसमें विशेष बात यह थी कि स्वयं अंग्रेजों के बारे में हमें लगभग कुछ भी ज्ञात था। न उनका इतिहास, न उनकी समाज व्यवस्था, न उनके लक्ष्य। वे अपने बारे में जो भी यहां हमें बता देते, उसे ही हमारे प्रबुद्ध लोग ब्रहा सत्य मानने लगे।


जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी ने अपनी "मसि कागद" पुस्तक के "गांधी के आश्रम में बंधा पश्चिम का अश्वमेधी घोड़ा" शीर्षक वाले अध्याय में लिखा है कि चाहे जवाहरलाल नेहरू हो या विनोबा भावे आजादी के बाद भारत को किस रास्ते पर ले जाया जाए और आर्थिक, सामाजिक और नैतिक आजादी की लड़ाई किस तरह लड़ी जाए, इस अहम मुद्दे पर गांधी के साथ कोई नहीं था।


नेहरू से उन (गांधी) के मतभेद बहुत पहले से थे। नेहरू उन्हें नेता मानते थे, लेकिन साफ कहते थे कि आजादी के बाद गांधी की सनक के लिए कोई गुंजाइश नहीं होगी। गांधी की धार्मिकता, रहस्यवादिता, पश्चिम-विरोध और उनका देश-दुनिया का सपना नेहरू की राय में गलत था। नेहरू मानते थे कि जीत पश्चिम की होगी। गांधी के जाने के बाद उन्होंने पश्चिम को इस देश में जिताया। देश के सारे लोग जो पश्चिम से प्रभावित हैं, नेहरू की इस पापग्रन्थि से पीड़ित है।


पश्चिम के अश्वमेध का घोड़ा अब भी गांधी के आश्रम में बंधा है। उसे छोड़कर पश्चिम से युद्ध करने जो भी जाता है, विकास का भूत उसे जला देता है।


Mira_First Indian Poet before British_Rajasthani_कवयित्री_मीरा_राजस्थानी

India 1952 Meera Bai 2A PONDICHERRY BAZAAR First Day Cover


अंग्रेजी प्रभाव से पूर्व हिन्दी साहित्य में अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली मीरा अकेली कवयित्री हैं। उन्होंने अपनी समस्त रचनाएं राजस्थानी में लिखी थी।

-विश्वनाथ मिश्र, हिन्दी भाषा और साहित्य पर अंग्रेजी प्रभाव







Saturday, April 11, 2020

Book Review_River of Love in an Age of Pollution_The Yamuna River of Northern India__David L Haberman_बीते ज़माने की 'नदी' यमुना की कहानी__डेविड एल हैबरमैन

रिवर ऑफ़ लव इन द ऐज ऑफ़ पाल्यूशन, 

द यमुना रिवर ऑफ़ नाॅदर्न इंडिया_डेविड एल हैबरमैन 


हमारे यहां नदी केवल नदी नहीं एक संस्कृति भी हुआ करती है। नदी का इतिहास शहर के इतिहास से पुराना होता है। उसके किनारे जो भी शहर बसा हो उसका पूरा जीवन उस नदी के इर्द गिर्द घूमता है। दिल्ली का जीवन भी कभी यमुना से जुड़ा था, कभी यह दिल्ली यमुना के कारण बसी थी।

यह एक इतिहास सम्मत तथ्य है कि राजधानी के रूप में दिल्ली के स्थान को यमुना के आकर्षक स्वरूप और पेयजल के लिए मीठे पानी की उपलब्धता के कारण चुना गया था। इतना ही नहीं, यमुना ने एक शहर के रूप में राजधानी के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लगभग सभी ऐतिहासिक विवरणों में दिल्ली के एक प्रमुख संसाधन के रूप में यमुना की सुंदरता का उल्लेख है।

दिल्ली में जमीन का ढलान और यमुना नदी के बहाव दोनों ही उत्तर से दक्षिण की ओर हैं। उत्तर भारत की प्राचीनतम नदियों में से एक यमुना अधिकांश उत्तर प्रदेश के साथ दिल्ली की पूर्वी सीमा रेखा के रूप में बहती है। यमुना नदी दिल्ली में पल्ला गांव से प्रवेश करती है और ओखला के पास जैतपुर में दिल्ली छोड़ देती है। दिल्ली में आने से पहले ही यमुना नदी से दो नहरें निकालने के कारण दिल्ली के मैदानी भाग में यह एक पतली धारा के रूप में बहती दिखती है, जिसे सिवाय बारिश के मौसम को छोड़कर सभी जगह से पार किया जा सकता है।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से प्रकाशित पुस्तक "रिवर ऑफ़ लव इन द ऐज ऑफ़ पाल्यूशन, द यमुना रिवर ऑफ़ नाॅदर्न इंडिया" (प्रदूषण के समय में प्रेम की सलिला, उत्तर भारत की यमुना नदी) में डेविड एल हैबरमैन ने दिल्ली के पारिस्थितिकी तंत्र और धार्मिक आस्था से उपजे द्वंद को रेखांकित किया है। यह एक रूप में, सदियों से एक देवी के रूप में पूजनीय, भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमिका के रूप में प्रसिद्ध और अपने अनन्य भक्तों का एक क्षमाशील माँ के रूप में पोषण करने वाली यमुना नदी की उपेक्षा की कथा है। इसमें औद्योगिक और मानव जनित कचरे के साथ आर्थिक और जनसांख्यिकीय विकास तथा मानवीय लापरवाही का योगदान जगजाहिर है। दूसरे शब्दों में, यमुना की यह दुर्दशा भारत सहित दुनिया के दूसरे देशों में जल स्त्रोतों के साथ किए गए धतकरम से जुदा नहीं है। वह भी तब जब हिंदू विचार और व्यवहार में नदी उपासना-भक्ति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। समझने वाली बात यह है कि हैबरमैन ने इस समूचे विमर्श में स्थानीय समाज की धार्मिकता की बात को गौण नहीं होने दिया है।

हिन्दू पौराणिक आख्यानों के अनुसार, यमुना को “यम की बहन” यानि “मृत्यु के देवता की बहन” माना जाता है। हैबरमैन ने “रिवर ऑफ डेथ” शीर्षक वाले अध्याय में नाटकीय रूप से इस पौराणिक और व्युत्पत्ति संबंधी कड़ी को सुलझाने का प्रयत्न किया है। पुस्तक में हैबरमैन ने जिस विस्तृत रूप से नदी के प्रदूषण और उसकी जलधारा के शोषण की आधुनिक कथा को प्रस्तुत किया है, वह पाठकों के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से विचलित कर देने वाला प्रसंग है।

लेखक, जब उन्होंने पहली बार यमुना नदी को देखा था, ने पाठकों के समक्ष तुलनात्मक रूप से आज की स्थिति और 1980 के दशक के आरंभ वाले समय में यमुना नदी के साथ अपनी मधुर स्मृतियों का विवरण दिया है। तब विशाल कछुए, पानी में उछलती मछलियां और कई जलपक्षी सभी पनप रहे थे और तब तैराकी तन-मन को आनंद देने वाली बात थी न कि जल प्रदूषण के कारण अकल्पनीय रूप से जान-जोखिम काम। दिल्ली और ब्रज, कृष्ण भक्ति और तीर्थयात्रा का सबसे पवित्र क्षेत्र, से सबसे अधिक कचरा सीधे जलधारा में आकर गिरता है। इस तथ्य को रेखांकित करते हुए हैबरमैन लिखते हैं, यह विडम्बना की बात है कि नदी का सर्वाधिक प्रदूषित भाग वह क्षेत्र है, जहां पर यमुना को लेकर धर्मशास्त्र और पूजा-अर्चना की सर्वव्यापकता का विकास हुआ है।

पुस्तक के अनुसार, हमेशा से हालात इतने बुरे नहीं थे। दिल्ली के लंबे समय से रहने वाले अनेक निवासियों के मन में एक नदी, जो कि अब पहले के समान नहीं है, की सुखद स्मृतियां हैं। मैं (हैबरमैन) अपने दिल्ली प्रवास में जिस होटल में अधिकतर ठहरता था, उसके साठ बरस के मालिक मोहन शर्मा ने एक सुबह मुझे नदी से जु़ड़े अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने आंखों में खुशी और चेहरे पर मुस्कान के साथ मुझे 1950 के दशक की शुरुआत में दिल्ली की यमुना में तैरने की बात कही। उन्होंने बताया कि वे अपने भाइयों के साथ नदी तक साइकिल चलाकर आते थे और पानी में तैरते थे तथा उसके बाद रेतीले तट पर कुश्ती और खेल खेलते थे। इतना ही नहीं, पानी साफ और आसमान नीला होता था।

हैबरमैन के साथ काम करने वाली दिल्ली की एक संपादक कृष्णा दत्त ने पुस्तक में नदी को लेकर अपनी जवानी के दिनों को याद किया। 1940 और 1950 के दशक में वह एक जवान लड़की के रूप में, अपने अपने परिवार के साथ पिकनिक के लिए यमुना के किनारे पर जाती थी। कृष्णा ने उन्हें (हैबरमैन) अपनी धर्म-कर्म करने वाली अपनीे मां और नदी की बात बताई। उनकी मां एक अत्यंत धार्मिक महिला थी, जो कि अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप, त्यौहारों के पवित्र दिनों में यमुना में स्नान करती थी। कृष्णा ने नदी के किनारे रहने वाली गहन शांति और मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हुए बताया कि तब दिल्ली में रहने वाले अनेक परिवार अपने सदस्यों के साथ मनोरंजन के लिहाज से नदी में तैराकी का आनंद लेते हुए अपना समय बिताते थे।

पुस्तक में एक ऐसी ही एक कहानी, दिल्ली में यमुना के जल की स्थिति में सुधार की दिशा में कार्यरत एक गैर-सरकारी संगठन पानी मोर्चा के संस्थापक कमांडर सुरेश्वर सिन्हा की है। वे 1940 के दशक के अंत से लेकर 1960 के दशक के आरंभ तक दिल्ली में एक युवा नौसेना अधिकारी के रूप में तैनात थे। वे राष्ट्रीय नौसेना तैराक दल (नेशनल नेवल सेलिंग टीम) के सदस्य थे, और उन्हें तब कि दक्षिणी दिल्ली में ओखला स्थित यमुना में तैराकी की मधुर स्मृतियों का पूरा तरह स्मरण है। वे उन दिनों नदी की सुंदरता को याद करते हैं जब वे यमुना में होने वाली नौकादौड़ स्पर्धाओं, जिनमें बड़ी संख्या में रंग-बिरंगी नौकाएं शामिल होती थी, में भाग लेते थे। 

बकौल सिन्हा, मैं आपको बता नहीं सकता कि 1970 के दशक तक भी नदी कितनी साफ और सुंदर हुआ करती थी। अनेक दिल्लीवासी पिकनिक मनाने के लिए आते थे और नदी के किनारों पर पूरा दिन बिताते थे। सिन्हा ने हैबरमैन को बताया कि एक मौके पर वे नाव सहित नदी में डूब गए थे। इस कारण उनके पेट में अनायास काफी पानी चला गया था, जिसे उन्होंने बाहर किनारे आकर निकाला। उन्होंने नदी में डूबने और पेट में पानी जाने की घटना को एक सुखद अनुभव करार दिया। आज यह विश्वास करना कठिन है कि नदी और समाज में अपनत्व का ऐसा भी एक समय था।

दैनिक जागरण, ११/०४/२०२० 



Friday, April 10, 2020

Inauguration of AIR Madras station_C. Rajagopalachari_ऑल इंडिया रेडियो_मद्रास स्टेशन_सी राजगोपालाचारी





मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन प्रमुख सी. राजगोपालाचारी ने 16 जून, 1938 को मद्रास (अब चैन्ने) स्थित एग्मोर की मार्शल रोड पर ऑल इंडिया रेडियो के मद्रास स्टेशन का उद्धघाट्न किया था। चित्र में उनके साथ है लियोनेल फील्डेन, प्रसारण के नियंत्रक और सर एंड्रयू क्लो, वायसराय की कार्यकारी परिषद में संचार विभाग के सदस्य।

फोटो साभारः द हिंदू आर्काइव्स

Lonliness_Vincent_Willem_van_Gogh_ अकेलापन_विलेम वैन गोभाई_खत_मौत

एटन के उद्यान की यादें (आर्ल की महिलाएँ)





‘खुशी और गम, दोनों जरूरी और फायदेमंद हैं, के बीच में फर्क और मौत या गुजर जाने की बात...यह एक जैसी ही है और ऐसे ही जिन्दगी भी। 1889 के साल में विन्सेंट (विलेम वैन गो) ने अपने भाई थियो को एक खत लिखा था।

“प्रिय विन्सेन्ट! मेरी यह तमन्ना है कि मैं तुम्हारे वक़्त में पैदा हुआ होता! काश मैं तुमसे मिल पाता! काश यह मुमकिन होता कि मैं तुम्हें जिन्दगी को तुम्हारी तस्वीरों में नहीं, बल्कि हकीकत में दिखा पाता! मुझे वजूद को खत्म कर देने वाले अकेलेपन से अचंभा है! मुझे इस बात ज्यादा हैरानी है कि अगर तुम्हारी मौत नहीं हुई होती तो शायद दुनिया तुम्हारे काम के कभी वाकिफ नहीं हो पाती! तुम्हारा हर रंग, हर लकीर, हर तस्वीर इंसानियत को एक तोफहा है! सच में तुम्हारी कमी बेहद खल रही है...




Thursday, April 9, 2020

New Beginning_Louis L'Amour_Lonely on the Mountain_आरंभ की घड़ी_लुइस लमोर_लोनली ऑन द माउंटेन






एक समय ऐसा आएगा, जब तुम्हे लगेगा कि सब कुछ समाप्त हो गया। बस, वही आरंभ की घड़ी होगी। 

-लुइस लमोर, लोनली ऑन द माउंटेन

There will come a time when you believe everything is finished. That will be the beginning.

-Louis L'Amour, Lonely on the Mountain


Sunday, April 5, 2020

Potter's Wheel_Indus Valley_कुम्हार का चाक_कुलालचक्र







कुम्हार के चाक का भारत में कब आविष्कार हुआ यह कहना कठिन है क्योंकि हमें आज से 5000 वर्ष पूर्व के भी जो बरतन सिन्धु सभ्यता के प्राप्त हुए हैं, वे भी हाथ के चाक पर बने हुए हैं। 


इसके आविष्कार ने मनुष्य के जीवन में एक क्रांति उत्पन्न कर दी होगी, इसमें सन्देह नहीं है। यह चाक, जो हमें आज कुम्हारों के घरों में दिखाई देता है, प्रायः उसी आकार का है जैसा प्राचीन भारत में व्यवहृत होता था। इसके आकार में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है।

आज भी ग्रामीण भारत में निवासी मिट्टी के बर्तनों को सबसे पवित्र समझते हैं और एक ही बार व्यवहार करके फेंक देते हैं।

हमारे यहां तो ऐसी किंवदन्ती है कि असुरों ने चाक का सबसे पहिले आविष्कार किया तथा इसी कारण मिट्टी के बने बरतनों का प्रेतकर्म में व्यवहार निषिद्ध है।


सिन्धुघाटी की सभ्यता में नीचे के स्तरों से भी चाकके बने बरतन प्राप्त हुए हैं जिनको इतिहासकार पिग्गट ने ईरान से प्राप्त बरतनों का समकालीन कहा है।


इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में भी उसी काल में चाक का व्यवहार होने लगा था जब ईरान में हो रहा था।
इस चाक को भारतीय समाज ने उत्तरकाल में अपने जीवन में इतना महत्व दिया गया कि विवाह जैसे शुभ कर्मों में (विशेषकर उत्तरी भारत में) तो इसका पूजन भी प्रचलित हो गया तथा प्रत्येक विवाह कर्म इन नये बनाये हुए मिट्टी के बरतनों से प्रारम्भ होने लगे।

वैदिक इण्डेक्स के अनुसार, शतपथ में इसे "कुलालचक्र" की संज्ञा दी गई है।


Saturday, April 4, 2020

First Printed Indian Language_Bengali_Book_





हुगली के एंड्रयूज के नाम से मशहूर एक किताब बेचने वाले ने वर्ष 1778 में एन. बी. हालहेड की "ए ग्रामर ऑफ़ बंगाली लैग्वेज" शीर्षक वाली पुस्तक को प्रकाशित किया था। मजेदार बात यह है कि करीब २५६ पृष्ठ वाली इस किताब में एक पेज पर किताब का विज्ञापन भी था, जिसमें किताब की जिल्दबाज़ी से संबंधित बात छपी हुई थी। 

यह पहली किताब थी, जिसमें एक भारतीय भाषा बंगाली के अक्षर छापे के आकार में मुद्रित किए गए थे। भारतीय भाषा के शब्दों को छापने वाले छापेखाने का नाम था, "हुगली इन बंगाल"।


Medical History of British India_ब्रिटिश भारत का चिकित्सा इतिहास





अंग्रेज भारत में चेचक और टीकाकरण 
दुनिया में टीकों और टीकाकरण का इतिहास समाज में रोग की रोकथाम के पहले प्रयास से आरंभ होता है। चेचक (खसरे सहित दूसरे संक्रामक रोगों के समान) की प्राचीन काल से पहचान थी और ऐसा माना जाता है कि 3,000 साल पहले इसकी उत्पत्ति भारत या मिस्र में हुई थी। 

उपलब्ध प्रमाण इस बात का संकेत करते हैं कि करीब 1000 ईस्वी में चीन, भारत, तुर्की और शायद अफ्रीका में भी चेचक का टीका लगाया जाता था। टीकाकरण (इनोक्यूलेशन) की इस प्रक्रिया में एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में टीका लगाकर एकबारगी संक्रामक तत्व को पहुंचाया जाता था, जिससे बहुधा रोग का प्रकोप कम होता था और शेष जीवन वह व्यक्ति गंभीर बीमारी से बचा रहता था। भारत में चेचक के इलाज का यह तरीका बहुप्रचलित था। 

भारत में इस रोग की घटना के कुछ विवरण मिलते हैं। वैसे वर्ष 1545 में गोवा में चेचक महामारी होने की सूचना दर्ज है, जब चेचक के कारण करीब 8,000 बच्चों की मौत हो गई थी। इतिहासकारों और चिकित्सकों ने कहीं-कहीं चेचक का "भारतीय प्लेग" के रूप में भी संदर्भ दिया है, जिससे पता चलता है कि पहले से ही भारत में इस बीमारी के व्यापक प्रचलन के संकेत मिलते हैं। 

चरक और सुश्रुत के इस देश में 18 वीं शताब्दी में भी आयुर्वेद का पर्याप्त प्रभाव शेष था। चेचक का टीका लगाने की देसी प्रथा भारत के कई हिस्सों में व्यापक थी जबकि इंगलैंड में चेचक का टीका 1720 ईस्वी के बाद ही चला। शल्य चिकित्सा में भी भारतीय ग्रामीण वैद्य 18 वीं शती में इतने उन्नत बचे रहे थे कि इंग्लैंड की स्थिति की उनसे तुलना ही नहीं हो सकती। 

"भारत का स्वधर्म" पुस्तक में धर्मपाल बताते है कि जिस तरह अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से भारतीय वस्त्रोद्योग एवं कारीगरी को विनष्ट किया, उसी तरह टीका लगाने एवं चिकित्सा कौशलों का भी हनन किया। 1802 ईस्वी के आसपास से बंगाल प्रेसीडेंसी में भारतीय तरीके से चेचक का टीका लगाना प्रतिबंधित कर दिया गया। इससे भयंकर महामारी फैली। भारत में परम्परा से इस रोग के निवारक उपाय भी अत्यन्त विस्तृत एवं व्यापक थे। पर साथ ही टीके की भी तकनीक विकसित थी। किन्तु अंग्रेजों ने उसका दमन किया और स्वयं की विकसित हो रही तकनीक के पक्ष में हवा बनाने के लिए उस काम को रोक दिया। अपनी टीका-तकनीक के पक्ष में हवा बनाने के लिए उस काम को रोक दिया। अपनी टीका-तकनीक भी सबको सुलभ नहीं करा पाए। फलतः उन्नीसवीं शती और बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में भारत में चेचक महामारी भयंकर रूप से बार-बार फैली। 

शल्य चिकित्सा में निपुणता भी भारतीय ग्रामीण वैद्यों में 18 वीं शती तक शेष थी। अंग्रेजों ने उनकी विधि को अवैज्ञानिक मानकर भारत में तो उसे दबाया, लेकिन ब्रिटेन में इसी भारतीय विधि के आधार पर यूरोपियन माने वाली शल्य-चिकित्सा को विकसित किया। ऐसा 1795 और 1815 के बीस बरसों में किया गया। 

उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों से पहले के भारत में बड़े पैमाने पर टीकाकरण किया जाता था (वैसे बाद में, वर्ष 1804 में बंगाल प्रेसीडेंसी में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिसका सीमित प्रभाव ही रहा)। वर्ष 1767 में डॉक्टर जे जेड होवेल ने लंदन में रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों को भारत में टीकाकरण की प्रथा का विस्तृत विवरण दिया था। (भारत में विशेषरूप से अंग्रेजोें की बंगाल और बॉम्बे प्रेसीडेंसियों से टीकाकरण की प्रथा के विषय में जानकारी संकलित की गई थी)। वैसे, इस बात की सीमित जानकारी है कि भारत में उस अवधि के दौरान चेचक से पीड़ित कितने व्यक्तियों को पूरे साल में टीका लगाया गया था। 

भारत में इंगलैंड में विकसित चेचक के टीका, जिसे एडवर्ड जेनर ने बनाया, लगाने का तरीका चार साल बाद वर्ष 1802 में पहुंचा। भारत में चेचक के टीके (तरल दवा के रूप में) की पहली खुराक मई, 1802 में पहुंची। भारत में बम्बई (अब मुंबई) की तीन वर्षीया एना डस्टहॉल, 14 जून 1802 को चेचक का टीका लगवाने वाली पहली बच्ची थी। 

अंग्रेज भारत में टीकाकरण का इतिहास (1900-1947) 
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कुछ ऐसी सामाजिक-वैज्ञानिक-भू-राजनीतिक घटनाएं हुईं, जिन्होंने देश के टीकाकरण अभियान के प्रयासों को स्थायी रूप से प्रभावित किया। ये परिवर्तनशील घटनाएं निम्नलिखित हैं। 
(क) भारत में हैजे और प्लेग का प्रकोप (1896-1907) हुआ और पहले से ही सीमित संख्या में मौजूद टीका लगाने वाले व्यक्तियों की सेवाओं को इन महामारियों के नियंत्रण के लिए लगा दिया गया। 
(ख) प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के आरंभ होने के साथ ही संयोग से इन्फ्लुएंजा महामारी (इस बीमारी के कारण कथित रूप से करीब एक करोड़ सत्तर लाख भारतीय मारे गए) भी फैली। इस कारण भारत में अंग्रेज सरकार को मजबूरी में जन स्वास्थ्य को अपनी प्राथमिकता बनना पड़ा। 
(ग) यह एक नई वैज्ञानिक समझ बनी कि दीर्घकाल तक सुरक्षित स्वास्थ्य के लिए दो बार चेचक के टीके लगवाना पर्याप्त होगा। देशवासियों को यह बात समझाना एक बड़ी चुनौती थी कि वे दो बार असुविधाजनक और दर्दनाक प्रक्रिया से गुजरकर टीका लगवाए। 
(घ) सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि भारत सरकार अधिनियम, 1919, के तहत केंद्र सरकार ने सूबों को कई प्रशासनिक शक्तियां स्थानांतरित की। इस कारण स्थानीय स्तर पर निकायों को चेचक टीकाकरण सहित दूसरी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। भारत में जन स्वास्थ्य सेवा उपलब्धता के राज्य का विषय होने की बात इसी अधिनियम के कारण है। (14/04/2020)


मद्रास मेडिकल काॅलेज 
अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदुस्तान में अपने बीमार सैनिकों के इलाज के लिए 16 नवंबर 1664 में एक छोटे अस्पताल के रूप में पहला गवर्नमेंट जनरल हाॅस्पिटल (आम सरकारी अस्पताल) शुरू किया था। मद्रास स्थित कंपनी के एजेंट एडवर्ड विंटर के अथक प्रयासों के कारण यह पहला अंग्रेज अस्पताल बना। आरंभिक दिनों में यह अस्पताल फोर्ट सेंट जॉर्ज में था, जो कि बाद के 25 बरसों में औपचारिक रूप से एक चिकित्सा सुविधा केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। अंग्रेज़ों की मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गर्वनर एलिय येल ने इस अस्पताल के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए वर्ष 1690 में फोर्ट सेंट जॉर्ज में ही एक नए परिसर के लिए स्थान प्रदान किया। 

दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रांसिसी युद्व (1746 -63), जिसे कर्नाटक युद्ध के नाम से भी जाना जाता है, के उपरांत इसे फोर्ट सेंट जॉर्ज से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया। उसके बाद, अस्पताल को आज के स्थान पर स्थायी रूप से बसने में बीस बरस का समय लगा और वर्ष 1772 में यह अपने वर्तमान स्थान पर कायम हुआ। वर्ष 1772 से यह अस्पताल यूरोपीय, यूरेशियाई और हिंदुस्तानियों को एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से रोगियों के निदान और उपचार के प्रशिक्षण के साथ दवाएं बनाने की विधि की शिक्षा देने लगा था। इन प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के जिला मुख्यालय में विभिन्न औषधालयों में योग्य डॉक्टरों की सहायता के लिए तैनात किया जाता था। वर्ष 1820 तक इस अस्पताल की ख्याति ईस्ट इंडिया कंपनी के मॉडल अस्पताल के रूप में हो गई थी। वर्ष 1827 में डॉ. डी. मोर्टिमर को अस्पताल का अधीक्षक नियुक्त किया गया। 

डॉक्टर मोर्टिमर की ओर से संचालित एक निजी मेडिकल हॉल को ही एक मेडिकल स्कूल के रूप में नियमित कर दिया गया और 2 फरवरी 1835 को मद्रास के तत्कालीन अंग्रेज़ गवर्नर सर फ्रेडिक एडम्स ने इसका उद्घाटन किया। गर्वनर ने इस मेडिकल स्कूल को कंपनी की ओर से सहायता देने संबंधित एक आदेश निकाला और मेडिकल स्कूल को जनरल हॉस्पिटल के साथ संलग्न कर दिया गया। 

वर्ष 1842 में मद्रास अस्पताल के दरवाजे भारतीयों के लिए भी खोल दिए गए। इसके बाद, अगले दो दशकों में यहां शिक्षक वर्ग की संख्या का विस्तार हुआ, मेडिकल पाठ्यक्रम की अवधि में बढ़ोत्तरी हुई और पाठ्यक्रम को व्यापक रूप दिया गया। फिर पांच साल की अवधि वाले वरिष्ठ पाठ्यक्रम शुरू किए गए और पहली बार संस्था में निजी लोगों को भी भर्ती किया गया। वर्ष 1850 की शुरुआत में स्कूल काउंसिल ने सरकार से कॉलेज का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया। अंग्रेज सरकार ने इस अनुरोध को स्वीकृति दे दी। इस तरह, 1 अक्तूबर 1850 को मद्रास मेडिकल कॉलेज अस्तित्व में आया। 

मद्रास मेडिकल कॉलेज से स्नातक छात्रों का पहला समूह वर्ष 1852 में पास होकर निकला। इन छात्रों को मद्रास मेडिकल काॅलेज के ग्रेजुएट का डिप्लोमा प्रदान किए गए। वर्ष 1857 में मेडिकल काॅलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गया। वर्ष 1857 में, मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के बाद कॉलेज दवा (मेडिसिन) और सर्जरी की सभी विशिष्टताओं में प्रशिक्षण देने वाला उत्कृष्टता का एक केंद्र बन गया। 

आज भारत के चोटी के मेडिकल संस्थानों में से एक मद्रास मेडिकल काॅलेज में चिकित्सा विज्ञान के स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर और सुपर स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई होती है। वर्ष 1988 से मद्रास मेडिकल कॉलेज के पाठ्यक्रमों को तमिलनाडु के डॉक्टर एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी से संबद्ध कर दिया गया है। इस कॉलेज के साथ अस्पतालों सहित नौ संबद्ध संस्थान हैं, जिनमें से प्रत्येक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में उत्कृष्टता के लिए मान्यता प्राप्त है। (12/04/2020) 

अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने हिंदुस्तान में अपने बीमार सैनिकों के इलाज के लिए 16 नवंबर 1664 में एक छोटे अस्पताल के रूप में पहला गवर्नमेंट जनरल हाॅस्पिटल (आम सरकारी अस्पताल) शुरू किया था। मद्रास में कंपनी के एजेंट एडवर्ड विंटर के अथक प्रयासों के कारण यह पहला अंग्रेज अस्पताल बना।

यह अस्पताल आरंभिक दिनों में फोर्ट सेंट जॉर्ज में था और उसके बाद 25 बरसों की अवधि में यह औपचारिक रूप से एक चिकित्सा सुविधा केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गवर्नर एलिय येल ने इस अस्पताल के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए वर्ष 1690 में किले में ही एक नए परिसर के लिए स्थान प्रदान किया। 

दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रांसिसी युद्ध के उपरांत इस अस्पताल को किले से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया। इस अस्पताल को उस किले से आज के स्थान तक स्थायी रूप से पहुंचने में बीस बरस का समय लगा और वर्ष 1772 में यह अपने वर्तमान पते पर कायम हुआ। उसी साल (वर्ष 1772) से यह अस्पताल यूरोपीय, यूरेशियाई और हिंदुस्तानी मूल के व्यक्तियों को अंग्रेजी (एलोपैथिक) तरीकों से रोगियों के निदान और उपचार के प्रशिक्षण के साथ दवाएं बनाने की विधि की शिक्षा देने लगा था। इन प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों को तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के जिला मुख्यालय में विभिन्न औषधालयों में योग्य डॉक्टरों की सहायता के लिए तैनात किया जाता था। वर्ष 1820 तक इस अस्पताल की ख्याति ईस्ट इंडिया कंपनी के मॉडल अस्पताल के रूप में हो गई थी। वर्ष 1827 में डॉ डी. मोर्टिमर को अस्पताल का अधीक्षक (मेडिकल सुपरिटेंडेंट) नियुक्त किया गया।

डॉक्टर मोर्टिमर की ओर से संचालित एक निजी मेडिकल हॉल को ही एक मेडिकल स्कूल के रूप में नियमित कर दिया गया और 2 फरवरी 1835 को मद्रास के तत्कालीन गवर्नर सर फ्रेडिक एडम्स ने इसका उद्घाटन किया। गर्वनर ने इस मेडिकल स्कूल को कंपनी की ओर से सहायता प्राप्त करने संबंधित एक आदेश निकाला और इसे जनरल अस्पताल के साथ संलग्न कर दिया गया। 

वर्ष 1842 में मद्रास अस्पताल के दरवाजे भारतीयों के लिए भी खोल दिए गए। इसके बाद, अगले दो दशकों में यहां शिक्षक वर्ग की संख्या का विस्तार हुआ, मेडिकल पाठ्यक्रम की अवधि में बढ़ोत्तरी हुई और पाठ्यक्रम को व्यापक रूप दिया गया। फिर पांच साल की अवधि वाले वरिष्ठ पाठ्यक्रम शुरू किए गए और पहली बार संस्था में निजी लोगों को भी भर्ती किया गया। वर्ष 1850 की शुरुआत में स्कूल काउंसिल ने सरकार से कॉलेज का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया। अंग्रेज सरकार ने इस अनुरोध को स्वीकृति दे दी। इस तरह, 1 अक्तूबर 1850 को मद्रास मेडिकल कॉलेज अस्तित्व में आया। 

यहां से स्नातक छात्रों का पहला समूह वर्ष 1852 में निकला। उन्हें मद्रास मेडिकल काॅलेज के ग्रेजुएट का डिप्लोमा प्रदान किया गया। वर्ष 1857 में मेडिकल काॅलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध हो गया। मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के बाद, कॉलेज दवा (मेडिसिन) और सर्जरी की सभी विशिष्टताओं में प्रशिक्षण देने वाला उत्कृष्टता का एक केंद्र बन गया। 
आज भारत के चोटी के मेडिकल संस्थानों में से एक मद्रास मेडिकल काॅलेज में चिकित्सा विज्ञान के स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर और सुपर स्पेशियलिटी पाठ्यक्रमों की पढ़ाई होती है। वर्ष 1988 से मद्रास मेडिकल कॉलेज के पाठ्यक्रमों को तमिलनाडु के डॉक्टर एमजीआर मेडिकल यूनिवर्सिटी से संबद्ध कर दिया गया है। इस कॉलेज के साथ अस्पतालों सहित नौ संबद्ध संस्थान हैं, जिनमें से प्रत्येक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में उत्कृष्टता के लिए मान्यता प्राप्त है। (12/04/2020)

अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने वर्ष 1664 में भारत में पहला अस्पताल आज की चेन्नई में मद्रास जनरल अस्पताल के नाम से खोला था। वर्ष 1796 में कलकत्ता में प्रेसीडेंसी जनरल अस्पताल बना। वर्ष 1800 से वर्ष 1820 की अवधि के भीतर मद्रास में चार अस्पताल बनाए गए। स्वास्थ्य क्षेत्र में पेशेवरों की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के उद्देश्य से फरवरी 1835 में एक आदेश से कलकत्ता मेडिकल कॉलेज स्थापित किया गया। यह पूरे एशिया में पश्चिमी चिकित्सा पद्वति की शिक्षा देने वाला पहला संस्थान था। वर्ष 1852 में कलकत्ता में मेडिकल कॉलेज अस्पताल बना। जबकि वर्ष 1860 में पंजाब सूबे की राजधानी लाहौर में लाहौर मेडिकल स्कूल (जिसका नाम बाद में किंग एडवर्ड मेडिकल कॉलेज रख दिया गया) शुरू हुआ। इसके बाद पूरे भारत में अस्पतालों का एक जाल बिछाया गया। वर्ष 1854 में, अंग्रेज भारत सरकार ने छोटे अस्पतालों और डिस्पेंसरियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए दवाओं और मेडिकल उपकरणों की आपूर्ति करने पर अपनी सहमति दी। इसके लिए कलकत्ता, मद्रास, बम्बई, मियां मीर और रंगून में सरकारी स्टोर डिपो स्थापित किए गए। वर्ष 1918 में अंग्रेज भारत की राजधानी दिल्ली में लेडी रीडिंग हेल्थ स्कूल खोला गया। वर्ष 1930 में कलकत्ता में अखिल भारतीय स्वच्छता और सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान की स्थापना हुई। वर्ष 1939 में कलकत्ता के पास सिंगुर में पहला ग्रामीण स्वास्थ्य प्रशिक्षण केंद्र बना। (11/04/2020)

ऐसा माना जाता है कि 16 वीं शताब्दी में, पुर्तगाली सौदागरों के साथ भारत में पहली बार पश्चिमी चिकित्सा पद्धति का आगमन हुआ। वर्ष 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले जहाजी बेड़ों के साथ पहुंचे चिकित्सा अधिकारी भी अपने साथ पश्चिमी चिकित्सा पद्वति की औषधियां लेकर आए। ईस्ट इंडिया कंपनी के आरंभिक दौर में, चिकित्सा विभाग के साथ आए सर्जनों का काम कंपनी के सैनिकों और कर्मचारियों को चिकित्सा प्रदान करना था। वर्ष 1775 में गठित कंपनी के अस्पताल बोर्ड में सर्जन जनरल और फिजिशियन जनरल शामिल थे। हर प्रेसीडेंसी में ब्रिटिश भारतीय सेना के मुख्य कमांडर अनिवार्य रूप इन अस्पताल बोर्डों का गठन करता था।उल्लेखनीय है कि तब हिंदुस्तान में कलकत्ता, मद्रास और बंबई तीन स्थानों पर अंग्रेजों की प्रेसीडेंसियां थी। 1785 में बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसियों में मेडिकल विभाग स्थापित किए गए। ये विभाग अंग्रेज सैनिकों और नागरिकों दोनों की देखभाल करते थे। वर्ष 1857 में हिंदुस्तान की पहली आजादी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भंग कर दी गई और भारत सीधे ब्रितानिया हुकूमत-ताज के अधीन हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान में अपनी सेना की सेहत को ध्यान में रखते हुए जन स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। इसी के तहत चिकित्सा सेवाएं प्रदान करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए भारतीय चिकित्सा सेवा (इंडियन मेडिकल सर्विस), केंद्रीय और प्रांतीय चिकित्सा सेवाएं और अधीनस्थ चिकित्सा सेवाएं जैसी अनेक संगठित सेवाएं चिकित्सा सेवाएं शुरू की गईं। भारत सरकार में एक जन स्वास्थ्य आयुक्त (पब्लिक हेल्थ कमिशनर) और एक सांख्यिकीय अधिकारी भी नियुक्त किए गए।

वर्ष 1869 में, ब्रिटिश भारत की तीन प्रेसीडेंसियों में चिकित्सा विभागों का भारतीय चिकित्सा सेवा में विलय कर दिया गया। भारतीय चिकित्सा सेवा में भर्ती के लिए लंदन में एक प्रतियोगी परीक्षा होती थी। भारतीय चिकित्सा सेवा के यूरोपीय अधिकारी ही तीनों प्रेसीडेंसियों में सैनिक और नागरिक चिकित्सा कार्यों को संचालित करते थे। इन यूरोपीय अधिकारियों को अपने चिकित्सा कार्य में सहायता के लिए प्रशिक्षित सहायकों और कर्मचारी वर्ग जैसे अत्तार, औषधि देने वाला और मरहम-पट्टी की जरूरत थी। यूरोपीय डॉक्टरों को नियुक्त करने से व्यय भी अधिक था। इस कारण अंग्रेज सरकार को हिंदुस्तान में ही कर्मचारियों को भर्ती के लिए भारत में चिकित्सा शिक्षा का एक तंत्र स्थापित करने की दिशा में सोचना पड़ा।

वर्ष 1822 में भारतीयों को चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए कलकत्ता में नेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूशन की स्थापना की गई। यहां पर 20 भारतीय युवा छात्रों को भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाया गया। इन छात्रों की सुविधा के लिए शरीर रचना विज्ञान (एनाटॉमी), चिकित्सा (मेडिसिन) और सर्जरी जैसे विषयों की यूरोपीय पुस्तकों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। वैसे चिकित्सा परीक्षण के लिए मानव शरीर की चीरफाड़ तो नहीं होती थी पर विभिन्न अस्पतालों और औषधालयों में नैदानिक अनुभव (मरीजों की जांच-पड़ताल का काम) अनिवार्य था। नेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूशन का पहला अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) एक प्राच्यविद जॉन टायलर था। यहां पर छात्रों को पश्चिमी और भारतीय दोनों प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में समानांतर रूप से पढ़ाया जाता था। वर्ष 1826 में यूनानी चिकित्सा पद्धति पर कलकत्ता के मदरसे में और आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति पर संस्कृत कॉलेज में पढ़ाई हुई। यहां से सफलतापूर्वक पढ़कर निकले देशी स्नातकों को सरकारी नौकरियों में रखा गया।

वर्ष 1826 में ही भारतीयों को पश्चिमी चिकित्सा पद्धति की औषधि के विषय में शिक्षित करने और अभ्यास का अवसर प्रदान करने के लिए दक्षिण बंबई में एक भारतीय मेडिकल स्कूल शुरू किया गया। सर्जन जॉन मैक्लेनन इसके पहले अधीक्षक थे पर यह स्कूल छह साल तक ही चला।
1830 के दशक में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक वर्ग (एंग्लिस्ट) को भारतीय भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक वर्ग (वर्नाकुलरवादी) और प्राच्यविदों की ओर से शुरू की गई अनेक सांस्कृतिक और शैक्षिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करने में सफल हो गए। हिंदुस्तान में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने के समर्थक वर्ग की सफलता के युगांतकारी परिणाम हुए। (07 /04/2020)

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ स्कॉटलैंड की आधिकारिक वेबसाइट ब्रिटिश भारत का चिकित्सा इतिहास के बारे में विस्तार से बताती है कि कैसे भारत में 19 वीं सदी के मध्य में वैज्ञानिक या अस्पताल चिकित्सा के उदय के साथ प्राचीन यूनानी चिकित्सा का त्रिदोषन (रक्त, कफ और पित्त के आधार पर इलाज की पारंपरिक पद्धति) प्रारूप समाप्त हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोपीय और भारतीय दवाएं पूरी तरह से मानव शरीर की भिन्न तरीके से पड़ताल पर आधारित हो गईं। पश्चिमी चिकित्सा पद्धति ने श्रेष्ठता की स्थिति को प्राप्त कर लिया और अंग्रेजों ने चिकित्सा के गैर-यूरोपीय तरीकों के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया। वे रोग होने के कारण के बारे में अपनी वैज्ञानिक समझ को लेकर घमंड का शिकार हो गए। वर्ष 1835 में अंग्रेज़ सरकार के अंग्रेजी भाषा को हिंदुस्तान की शिक्षा के माध्यम की आधिकारिक भाषा बनने के निर्णय के बाद देश में पश्चिमी और भारतीय चिकित्सा पद्धति के बीच का अंतर और अधिक बढ़ गया।

अंग्रेज सरकार, रूस के विरुद्ध क्रीमिया युद्ध (1853-56) लड़ने के बाद अपनी सेना के स्वास्थ्य को लेकर बेहद चिंतित हो गई। वहीँ दूसरी तरफ, वर्ष 1857 में भारत की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेज सैनिकों की संख्या में काफी कमी आई थी। इसका नतीजा, अंग्रेज और भारतीयों सैनिकों दोनों की गहन चिकित्सा जांच और छावनी क्षेत्र में साफ-सफाई की निगरानी के रूप में सामने आया। वर्ष 1863 के रॉयल सेनेटरी कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद यह बात महसूस की गई कि बुखार, पेचिश-दस्त, हैजा और जिगर संबंधित चार प्रमुख रोगों के कारण सैनिकों की मौत हो रही थी। (05/04/2020)

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी, विशेष रूप से वर्ष 1813 में व्हाइटलॉ आइंसली की पुस्तक "मटेरिया मेडिका ऑफ़ हिन्दुस्तान एंड आर्टिसन्स एंड अग्रिकल्चरिस्ट" के प्रकाशन के बाद, के आरंभ में अंग्रेजों ने भारत में एक व्यापक दवा नीति अपनाई। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक "कोलोनाइजेशन एंड इट्स इम्पैक्ट ऑन साइकाइट्री" के अनुसार, यह बात कही जा सकती है कि उदाहरण के लिए, कलकत्ता और बम्बई में, पश्चिमी चिकित्सा शिक्षा का भारतीय आबादी, जिसमें भद्रलोक और स्थानीय धनी लोग इसके मुख्य लाभार्थियों थे, पर महत्वपूर्ण पर सीमित प्रभाव था।

तब के अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में वैद्यों और हकीमों को सेवा में रखा गया था, जहां वे स्थानीय आबादी भारतीयों के ईलाज के लिए देसी दवाइयां देते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने के निर्णय के बाद वर्ष 1835 में "नेटिव मेडिकल इंस्टीट्यूशन" (एनएमआइ) को बंद कर दिया गया। इनमें पढ़ने वाले भारतीय छात्रों को देसी चिकित्सा पद्धति पढ़ाने वाले दूसरे संस्थानों में स्थानांतरित कर दिया गया। यह इस बात से संकेत है कि चिकित्सा की पारंपरिक पद्वतियों को "आदिम और काल बाह्य" कहकर पूरी तरह खारिज नहीं किया गया। सेज प्रकाशन से प्रकाशित लेखक अनिल कुमार की पुस्तक में "मेडिसिन एंड द राजः ब्रिटिश मेडिकल पॉलिसी इन इंडिया (1835-1911)" में इस बात का हवाला मिलता है। (04/04/2020)

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