Saturday, August 31, 2019

Story of Lost Traditional Water Resources_Bawalis of Delhi_बीते समय की बावलियों की अकथ कथा

31/08/2019, दैनिक जागरण 




अंग्रेजी के नामचीन कवि शेक्सपियर ने लिखा है कि नाम में क्या रखा है। पर वह बात अलग है कि नाम से ही बीते समय का रास्ता खुलता है जो कि आज को इतिहास में ले जाता है। पुरानी दिल्ली की खारी बावली की गली, भारत की ही नहीं बल्कि एशिया का सबसे बड़ा थोक किराना और मसाले का बाजार है। जैसे कि नाम से ही पता चलता है कि यहां कभी खारे पानी की बावली होती थी। पर आज बस नाम ही नाम रह गया है, बावली समय के साथ गुम हो गई है।

पर्सी ब्राउन ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक "इंडियन आर्किटेक्चर" में लिखा है कि बावड़ी बनाने का सिलसिला हिंदुओं के शासन के कार्यकाल के दौरान शुरू हुआ। मुसलमानों के शासन के दौरान इसका और भी विकास हुआ। ब्राउन का मानना है कि सार्वजनिक उपयोग के लिए बनाए गए कुंओं के साथ इन इमारतों को बनाने में जिस प्रकार की निर्माण कला का इस्तेमाल किया गया, उसका उदाहरण दुनिया के किसी और देश में देखने को नहीं मिलता।

ऐसा माना जाता है कि अफगान शासक शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह (सलीम शाह) के शासनकाल में ख्वाजा अब्दुल्ला लाजर कुरैशी ने खारी बावली कुंए की नींव रखी। जो कि वर्ष 1551 में बन कर तैयार हुआ। अब इस बावली के भौतिक अवशेष तो नहीं बचे हैं पर सर सैयद अहमद खां की पुस्तक ‘आसारूस सनादीद’ (सन् 1864) और "मिफ्ता अल तवारीख" किताबों में इसका उल्लेख मिलता है।

इसी तरह, एक पालम बावली थी, जिसका नाम दिल्ली-हरियाणा के नाम का उल्लेख करने वाले अभिलेख की वजह से प्रचलन में है। 13 वीं के पालम गांव में एक सीढ़ीदार कुंए (बावली), जो कि अब नहीं है, से मिले संस्कृत अभिलेख में उल्लेख है कि ढिल्ली के एक व्यक्ति उद्वार ने सीढ़ीदार कुंए का निर्माण कराया था। यह अभिलेख मुुलतान जिले (अब पाकिस्तान में) में उच्छ से आए उद्वार (नामक व्यापारी) द्वारा पालम में एक बावली और एक धर्मशाला के निर्माण की बात दर्ज करता है। गुलाम वंश के शासक बलबन के समय के पालम-बावली अभिलेख तिथि 1272 ईस्वी (विक्रम संवत् 1333) में लिखा है कि हरियाणा पर पहले तोमरों ने तथा बाद में चौहानों ने शासन किया। अब यह शक शासकों के अधीन है। "जर्नल ऑफ़ दि एपिग्राफिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल" भाग 43 (वर्ष 1874 में प्रकाशित) के अनुसार, पालम बावली के अभिलेख में, जो गयासुद्दीन बलबन के शासन काल में लिखा गया था, नगर का नाम दिल्ली बताया गया है और जिस प्रदेश में यह स्थित है, उसे हरिनायक कहा गया है।

दिल्ली के सबसे पुराने शहर महरौली को तो बावड़ियों का शहर ही कहा जा सकता है। जहां की चार प्रमुख बावड़ियों में राजों की बैन, गंधक की बावली, कुतुबशाह की बावड़ी और औरंगजेब की बावड़ी हैं। इनमें से अब औरंगजेब की बावड़ी के प्रमाण नहीं मिलते। आदित्य अवस्थी ने अपनी पुस्तक "नीली दिल्ली, प्यासी दिल्ली" में लिखा है कि यह बावड़ी बहादुरशाह द्वितीय के महल के पश्चिम में करीब 36 फीट की दूरी पर बनी हुई थी। यह बावड़ी जिस जमीन पर बनाई गई, उसे सरकारी जमीन के रूप में दर्ज किया गया था। इस बावड़ी को औरंगजेब की बावड़ी का नाम देने का कारण यह बताया गया कि उसके औरंगजेब के शासन काल (1658-1707) के दौरान बनाए जाने के प्रमाण मिले हैं। इस बावड़ी को संरक्षित रखने की सिफारिश की गई थी। यह बावड़ी 130 फीट लंबी और 36 फीट चैड़ी थी। इस बावड़ी में पानी तक उतरने के लिए 74 सीढ़ियां बनाई गई थीं।

सरकारी दस्तावेजों में रायपुर खुर्द कहे जाने वाले इलाके में एक बावड़ी होने का हवाला मिलता है। अब यह कहां खो गई, फिलहाल इसका पता लगा पाना संभव नहीं है। इसे "बस्ती बावड़ी" के नाम से भी जाना जाता है। सैयद अहमद खान के अनुसार, यह बावड़ी वर्ष 1488 में बनाई गई थीं-यानी अब से करीब 531 साल पहले। यह बावड़ी दिल्ली पर लोदी शासन के दौरान बनाई गई एक महत्वपूर्ण इमारत मानी जा सकती है। दिल्ली की ऐतिहासिक इमारतों के सर्वेक्षक मौलवी जफर हसन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि यह "बावड़ी फूटा गुबंद" कही जाने वाली इमारत के 250 गज दक्षिण में बनी हुई थी। यह बावड़ी 96 फीट लंबी और 263 फीट चैड़ाई में बनी हुई थी। इस बावड़ी का पता इसमें बनी पांच मेहराबों वाली दालानों से चलता था। यह बस्ती सिकंदर लोदी के कार्यकाल के दौरान ख्वाजा सारा द्वारा बसाई गई मानी जाती है।


Saturday, August 24, 2019

First Public works in Delhi by Britishers_दिल्ली में पहले अंग्रेजी सार्वजनिक निर्माण कार्य का इतिहास

24082019, दैनिक जागरण 








अंग्रेजों की दिल्ली में दो कालखंड ऐसे थे जब यहां सर्वाधिक सार्वजनिक निर्माण कार्य हुए। इनमें पहला दौर 1860-80 तक और फिर दूसरा 1912 के बाद कलकत्ता से दिल्ली में अस्थायी तथा शाही राजधानी के बनने-बसने का दौर था। पहले दौर में, अंग्रेजी सैन्य आवश्यकताओं के साथ व्यावसायिक और नागरिक प्रशासन की जरूरतों को पूरा करने के हिसाब से सार्वजनिक निर्माण कार्य हुए। 


दिल्ली में रेलवे पटरी शहर के बाहर से बिछाने की बजाय भीतर से बिछाई गई। ऐसा करने में अंग्रेजों के मन में 1857 में भारतीयों के आजादी की पहली लड़ाई की बात ध्यान में थी। अंग्रेजों के दिमाग में दोबारा ऐसी परिस्थिति के पैदा होने पर अपनी सुरक्षा की बात सर्वोपरि थी। सलीमगढ़ और लाल किला में अंग्रेज सेना की उपस्थिति के बाद सैनिक दृष्टि से रेल पटरी के शहर को इन दो किलों में बांटने की बात अधिक लाभदायक थी। जबकि अंग्रेज़ों ने रेल को लेकर तैयार मूल योजना में रेलवे के यमुना नदी के पूर्वी किनारे पर बसे गाजियाबाद तक ही आने की बात सोची थी।
1860 में फोर्ट विलियम (कलकत्ता स्थित किला, जहां से पूरे भारत में अंग्रेजी राज चलता था) ने दिल्ली की हिंदू आबादी को नई सड़कों के बनने से होने वाली परेशानी से अपनी हमदर्दी जताई। इसका कारण यह था कि ये सड़कें शहर की सबसे अधिक आबादी वाले हिस्सों में बनाई गई थी। वह बात अलग है कि हिंदुओं के कष्ट को दूर करने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया। भारत में अंग्रेज सरकार और प्रांतीय सरकार के विभागों के रेलवे लाइन के साथ में 100 फीट चौड़ी क्वींस रोड और हैमिल्टन रोड के बनने से सैकडों लोग विस्थापित हुए।

दिल्ली में रेलवे स्टेशन (आज का पुराना दिल्ली स्टेशन) के बनने के बाद टाउन हाल बना। यह विक्टोरिया दौर की अंग्रेज़ों के नागरिक निर्माण की सोच का स्वाभाविक परिणाम था। टाउन हाल का कुल क्षेत्रफल तत्कालीन नगर पालिका के कार्यालय से दोगुना था। उस इमारत में बाद में, चैम्बर ऑफ़ कामर्स, एक लिटरेरी सोसाइटी और एक संग्रहालय का भी प्रावधान किया गया। अंग्रेज़ों की इन सारी कोशिशों के मूल में स्थानीय व्यक्तियों की सोच को विकसित करना था, जिससे देसी नागरिकों और यूरोपीयों लोगों के बीच आदान प्रदान को बढ़ावा मिल सकें। तत्कालीन अंग्रेज कमीश्नर कूपर टाउन हाल के भीतर कोतवाली बनवाना चाहता था, जिससे पंजाब के न्यायिक आयुक्त ने अस्वीकृत कर दिया। दिल्ली की जनता ने अस्वीकृति के इस निर्णय का तहेदिल से स्वागत किया।
टाउन हाल की योजना आजादी की पहली लड़ाई से पहले बनी और 1860-5 की अवधि में इसका निर्माण हुआ। इसे पहले लारेंस इंस्टिट्यूट का नाम दिया गया और इसके निर्माण में प्रांतीय सरकार के अलावा अंग्रेजों के वफादार हिंदू-मुस्लिम व्यक्तियों से दान में मिले पैसों का उपयोग हुआ। जब यह इमारत बन कर तैयार हो गई तो अंग्रेजों के वफादार इसे नगरपालिका के इस्तेमाल के लिए लेना चाहते थे।

इन वफादारों ने अपनी मांग को बतौर "दिल्ली के लोग" के रूपक के हिसाब से पेश किया। वर्ष 1866 में नगरपालिका ने विशेष प्रयास करते हुए 135457 रूपए में यह इमारत खरीद ली। एक लाइब्रेरी और एक यूरोपीय क्लब की अलग से व्यवस्था रखी गई।

तत्कालीन अखबार "मुफसिल" ने इस घटना के बारे में लिखा, भारतीयों और यूरोपीय नागरिकों में यह भावना है कि सरकार को कुल दो लाख रूपए की लागत में से शिक्षा विभाग के दस हजार रूपए लौटाकर इस इमारत से उनका बोरिया बिस्तर बांध देना चाहिए। भारतीय नागरिकों की भावना न केवल इमारत से जुड़ी है बल्कि वे यहां पर लगाने के हिसाब से दिल्ली के इतिहास में हुए नामचीन व्यक्तियों के आदमकद चित्रों को भी जुटा रहे हैं।




Sunday, August 18, 2019

day dreams_दिन के सपने




हम सभी को सपने देखने का हक है। उन सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास करने का अधिकार भी है। पर दिन में देखे हुए कुछ सपने हमारी कल्पनाओं में ही रह जाते हैं। ऐसे सपने हमें एक सुरक्षित और भरोसा बनाए रखने वाली फंतासी का सहारा देते हैं। जिनकी गोद में हम अपनी असली जिंदगी के दबावों और परेशानियों को भूलकर कुछ पल आराम कर सकते हैं। हमारे मन में इस बात को लेकर आशंका होती है। अगर हमारे सपने सच हो गए तो जिंदगी अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाएंगी।

Saturday, August 17, 2019

Kashmir House of Delhi_दिल्ली का कश्मीर हाउस

17082019, Dainik Jagran


आज कश्मीर संसद के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के कारण देशव्यापी चर्चा का विषय बना हुआ है। ऐसे में अंग्रेजों के दौर की दिल्ली में बने लेकिन अपेक्षाकृत कम चर्चित कश्मीर हाउस की उपस्थिति को नोटिस में लिया जाना स्वाभाविक है। नई दिल्ली के राजाजी मार्ग पर स्थित कश्मीर हाउस के नाम से ही आभास होता है कि कोई रिहाइश की इमारत रही होगी। अगर हकीकत में देखें तो यह इमारत पहले एक महलनुमा निवास थी। इतिहास में झांकने से पता चलता है कि वर्ष 1930 के दशकों में अंग्रेजों ने इस इमारत को मूल रूप से अंग्रेजी सेना के कमांडर-इन-चीफ के निवास स्थान के रूप में बनाया था। उल्लेखनीय है कि भारत में इस अवधि में दो अंग्रेज कमांडर इन चीफ रहे, जो कि फील्ड मार्शल विलियम रिडल बर्डवुड (6 अगस्त 1925-30 नवंबर 1930) और फील्ड मार्शल फिलिप वालहाउस चेटवोड (30 नवंबर 1930-30 नवंबर 1935) थे। लेकिन अज्ञात कारणों से, इस इमारत को कश्मीर रियासत को बेच दिया गया।


कश्मीर रियासत को इस इमारत को खरीदने के कारण इंडिया गेट के पास बने प्रिंसेस पार्क में आवंटित अपने भूखंड को छोड़ना पड़ा। अंग्रेजों ने नई दिल्ली को बसाने के समय अपने वफादार राजा-रजवाड़ों को इंडिया गेट के दोनों ओर भवन निर्माण के लिए भूखंड दिए थे। "द लाॅस्ट महारानी ऑफ़ ग्वालियरः एक आत्मकथा" में राजमाता विजयराजे सिंधिया ने इस बात का उल्लेख किया है कि प्रिंसेस पार्क में ग्वालियर के अलावा दूसरी रियासतों त्रावणकोर, धौलपुर और नाभा को भी निर्माण के लिए स्थान प्रदान किए गए थे।


इंटैक के दो खंडों में प्रकाशित पुस्तक "दिल्ली द बिल्ट हैरिटेज ए लिस्टिंग" के अनुसार, कश्मीर हाउस आयताकार में बनी एक बड़ी इमारत है। इस दो मंजिला ऊंची इमारत के मुख्य प्रवेश द्वार के लिए समानांतर रूप से बने पंक्तिबद्व खंबों से होकर गुजरना पड़ता है। जबकि इसके बाहर की तरफ दो कोनों पर अलग से खंड बने हुए हैं और मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर का हिस्सा ढका हुआ है। इस इमारत में प्रयुक्त ईंट चिनाई साफ दिखती है।

आजादी के बाद, वर्ष 1953 में यहां यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंडिया का कार्यालय शिमला से दिल्ली स्थानांतरित हुआ। वर्ष 1870 में बने यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंडिया की स्थापना का श्रेय एक अंग्रेज सैन्य विद्वान कर्नल (बाद में मेजर जनरल) सर चाल्र्स मैकग्रेगर को है। एक तरह से कहा जा सकता है कि इस संस्थान की प्रगति की कहानी, भारतीय सशस्त्र बलों के विकास से जुड़ी हुई है। इसके गठन का मूल उदेश्य राष्ट्रीय सुरक्षा और उसमें भी विशेष रूप से रक्षा सेवाओं के साहित्य और उससे संबंधित कला, विज्ञान और साहित्य में रुचि और ज्ञान को बढ़ाना था। कश्मीर हाउस में 1957 से 1987 की अवधि में इस संस्थान तत्कालीन सचिव कर्नल प्यारे लाल ने तमाम कठिनाइयों के बावजूद पूरे समर्पण और निस्वार्थ भाव से इसे रचनात्मक रूप से क्रियाशील रखा। उसके बाद, यह संस्थान कश्मीर हाउस करीब 43 साल यहां रहने के बाद वर्ष 1996 में बसंत विहार के राव तुलाराम मार्ग पर स्थानांतरित हो गया।

अब कश्मीर हाउस में मुख्य रूप से भारतीय सशस्त्र बलों के इंजीनियर-इन-चीफ का कार्यालय है। मिलिट्री इंजीनियर सर्विसेज (एमईएस), भारतीय सेना के इंजीनियर कोप्र्स (बल) का एक प्रमुख अंग है जो कि सशस्त्र बलों को पार्श्व में रहकर इंजीनियरी सहायता प्रदान करता है। इसकी गिनती देश की सबसे बड़ी निर्माण और रखरखाव एजेंसियों में होती है। एमईएस पूरे देश में अपनी इकाइयों के माध्यम से सेना, वायु सेना, नौसेना और डीआरडीओ की विभिन्न इकाइयों को इंजीनियरिंग क्षेत्र में सहायता प्रदान करता है।

एमईएस, इंजीनियर-इन-चीफ के नेतृत्व में कार्य करता है। इंजीनियर-इन-चीफ युद्वकाल और शांति के समय में निर्माण गतिविधियों के संबंध में दिल्ली स्थित रक्षा मंत्रालय और सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों के सलाहकार के दायित्व का निर्वहन करते हैं। मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विसेज के जिम्मे थल सेना, नौसेना और वायु सेना की सभी ढांचागत परिसंपत्तियों के डिजाइन, निर्माण और रखरखाव की जिम्मेदारी है। सेना की इंजीनियरी शाखा के माध्यम से उसके अधिकारियों की देखरेख में ठेके पर होने वाले कार्यों का डिजाइन भी एमईएस तैयार करता है। एमईएस के पास बहु-विषयक विशेषज्ञों का एक एकीकृत समूह है, जिसमें वास्तुकार, सिविल, इलेक्ट्रिकल, मैकेनिकल इंजीनियरों सहित स्ट्रक्चरल डिजाइनर, सर्वेक्षक और विभिन्न कार्यों के नियोजन, डिजाइनिंग और निगरानी के लिए विशेषज्ञ शामिल हैं।

Monday, August 12, 2019

Time_Haruki Murakami_समय_मुराकामी




"अपनी आँखें खुली रखें। केवल एक कायर ही अपनी आँखें बंद कर लेता है। अपनी आँखों को बंद करने और कानों में तेल डालने से समय थम नहीं जाता है।"
- हारुकी मुराकामी

Saturday, August 10, 2019

Delhi of Partition_1947_बँटवारे की दिल्ली का डरावना माहौल

10082019_दैनिक जागरण 


अगस्त 1947 में भारत के विभाजन ने दुर्भाग्य समूचे देशवासियों को मानो शैतानी जकड़न का शिकार हो गए। खासकर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले हिंदू-सिख शरणार्थी और पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को इस सांप्रदायिक हिंसा का सर्वाधिक खामियाजा भुगतना पड़ा। इनमें भी विशेष रूप से असंख्य महिलाएं और लड़कियां अपहरण, दुष्कर्म और हिंसा का शिकार हुईं। यहां तक कि बाद में सरकार और सामाजिक संगठनों के प्रयास से ऐसी अगवा की गई महिलाओं को बचाया गया, उनको लेकर तत्कालीन समाज का दृष्टिकोण सहज और मानवीय नहीं था। 1951 की दिल्ली की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, यहां पर बंटवारे के बाद कुल 4,59,391 शरणार्थी आएं, जिनमें 229,712 महिलाएं थी। 

पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा "मैटर्स ऑफ़ डिसक्रिशन" में लिखा है कि दोनों देशों में 15 अगस्त को आजादी के उत्सव के चार दिनों के भीतर ही अराजकता का माहौल बन गया। अकेले लाहौर में 70 हजार मुसलमान पहुंचे जबकि हिंदू और सिखों ने शहर से पलायन किया। अप्रैल 1947 में जहां लाहौर में हिंदू-सिख आबादी तीन लाख थी जो कि अगस्त 1947 में घटकर मुश्किल से दस हजार रह गई। ऐसे में यह मानना व्यर्थ था कि बदले के भावना की आग दूसरी तरफ नहीं फैलेगी। विभाजन रेखा की दोनों तरफ हुए भयानक दंगों ने दो मित्रवत देशों के संबंध के सपने और सभी उम्मीदों को पूरी तरह ख़त्म कर दिया।"

29 अगस्त 1947 को सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को भेजे अपने एक तार में कहा, भारत में हमें लोगों हो नियंत्रण में रखना अत्यंत कठिन मालूम हो रहा है। दिल्ली तथा अन्य स्थानों में आने वाले निराश्रित अत्याचारों और बर्बरता की मर्मभेदी कहानियां सुनाते हैं। यदि पश्चिम पंजाब की वर्तमान स्थिति तुरन्त न सुधरी अथवा सदि सीमाप्रान्त की स्थिति बिगड़ी, तो भारत की स्थिति नियंत्रण से बाहर चली जा सकती है और उसकी प्रतिक्रिया अन्यन्त व्यापक और विनाशकारी होगी। यहां प्राप्त हुई जानकारी यह संकेत करती है कि तुरन्त ही डेरा इस्माईल खान की भयंकर घटनाएं दोहराई जाने की संभावना है या सामुदायिक हत्या, आगजनी और बलात् किये जाने वाले धर्म-परिवर्तन की घटनाएं दोहराई जाएंगी।

इतना ही नहीं, सिंतबर 1947 में करोलबाग़ में करीब पांच हजार मेवों की भीड़ में रात को सड़कों पर प्रदर्शन करने से स्थिति विस्फोटक बन गई। सैन्य दल के आने के कारण मेव लोग तो बिखर गए पर उस क्षेत्र की गैर-मुस्लिम जनता में में आक्रमण का भारी डर पैठ गया। इस घटना का संज्ञान लेते हुए राजेन्द्र प्रसाद ने पांच सिंतबर 1947 को सरदार पटेल को एक पत्र लिखा। उन्होंने कहा यदि एक बार शहर (दिल्ली) में उपद्रव फूट पड़ा, तो उसे रोकना कठिन होगा। निराश्रितों से भिन्न शहर के हिन्दुओं की यह मांग है कि उन्हें (शहर के निवासियों) को हथियार दिये जाने चाहिये, ताकि वे आत्मरक्षा कर सकें।

इस पत्र के जवाब में पटेल ने लिखा कि पिछले छह या आठ महीनों में हम गैर मुस्लिम प्रार्थियों को उदारतापूर्वक हथियार देते रहे हैं। परन्तु दिल्ली की वर्तमान अशांत परिस्थितियों में अधिक उदार नीति अपनाना असंभव होगा, क्योंकि आज के अविश्वास, संदेह और पश्चिमी पंजाब की करूण घटनाओं के लिए मुसलमानों के खिलाफ शिकायतों से भरे वातावरण में हम निश्चिंत रूप से यह नहीं कह सकते कि इन हथियारों का उपयोग आक्रमण करने में नहीं होगा, जिसका परिणाम होगा अव्यवस्था और अराजकता का माहौल।





Saturday, August 3, 2019

Stages of Creativity_संस्कार, पुरस्कार, तिरस्कार








संस्कार, पुरस्कार, तिरस्कार।


एक अपनी धुन-स्व प्रेरणा से रचने का संस्कार है, जिसमें किसी तरह की प्राप्ति को कोई विचार नहीं है।
दूसरा, काम कैसा भी हो, दूसरों की नज़र में चढ़ने के लिए पुरस्कार मिले इस विचार से बही खाते में लिखने का व्यापार है।
तीसरा, तिरस्कार है जो स्व-अर्जित अनुभव की व्यथा-कथा को सामूहिक चेतना के लिए कलम से कागज़ पर उतारने का उपक्रम है।


ऐसे में यह स्वांत सुखाय: और पुरस्कार के लिए लिखने के व्यापार से हर स्थिति में बेहतर है।

Delhi_city of many cities_अनेक शहरों का एक शहर, दिल्ली




First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...