Tuesday, October 31, 2017

Brendan Behan_critic_ब्रेंडन बेहन_आलोचक

Brendan Behan



आलोचक, एक हरम में किन्नरों की भांति होते हैं. वे दिन-प्रतिदिन के अनुभव के साक्षी होने के कारण जीवन के बढ़ने की सच्चाई से तो परिचित होते हैं पर वे स्वयं ऐसा कर पाने में सर्वथा अक्षम होंते हैं.

-ब्रेंडन बेहन, आयरिश लेखक 

Monday, October 30, 2017

memory_याद



गए पुराने दिनों की याद
कोई दिला गया,न चाहते हुए भी आँखों में
आंसू ला गया,मैं तो समझता था कि भूल गया है
दिल उसे जो चला गया,मुझे क्या मालूम था कि
कुछ ऐसे दिल में घर बना गया.

Saturday, October 21, 2017

Rahim_khankhana_Abdulभारतीय मुस्लिम परंपरा के प्रतीक रहीम



आज इस बात से कम व्यक्ति ही वाकिफ है कि दक्षिणी दिल्ली के बारापुला पुल के ऊपर से नीचे की ओर दिखने वाली लाल गुम्बद की इमारत अब्दुल रहीम खान का मकबरा है। निजामुद्दीन इलाके के सामने मथुरा रोड के पूर्व में बना यह मकबरा एक विशाल चौकोर इमारत है जो मेहराबी कोठरियों वाले एक ऊंचे चबूतरे पर बनी हुई है। हुमायूं के मकबरे की तर्ज पर बनी इस दोमंजिला इमारत की प्रत्येक दिशा में एक ऊंचे और गहरे मध्यवर्ती मेहराब और हर मंजिल में पिछली तरफ उथले मेहराब बने हैं। 


"दिल्ली और उसका अंचल" पुस्तक के अनुसारइस मकबरे के अन्दर का हिस्सा विशेष रूप से अन्दरूनी छतों पर सुन्दर डिजाइनों सहित उत्कीर्ण और चित्रमय पलस्तर से अलंकृत किया गया है। बीच में दुहरे गुम्बद के आस-पास कोनों में छतरियां और बगलों के मध्य में दालानखुले हालतैयार किए गए हैं।

रहीम अकबर के संरक्षक बैरम खां के बेटे थेजिन्होंने अकबर और जहांगीर दोनों के दरबार में अपनी सेवाएं दी।17 दिसम्बर 1556 ईस्वी में लाहौर में रहीम का जन्म हुआ था। उनके पिता की अपने परिवार के साथ मक्का के लिए जाते हुए पाटन में एक अफगान ने हत्या कर दी, जिसके कारण रहीम से सिर से पिता का साया उठ गया। उसके बाद रहीम अकबर के संरक्षण में रहे और उन्होंने अपने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखेजो कम लोगों को देखने को मिलते हैं।

रहीम युद्ध-वीरकुशल राजनीतिज्ञयोग्य शासन-प्रबंधकदानवीरबहुभाषाविद् तथा उच्च कोटि के कलाकार थे। 1573 ईस्वी गुजरात विजय के पश्चात् उनकी प्रशंसा में अबुल फजल अपनी किताब "मुनशियात अबुल फजल" में लिखता हैइंसाफ की बात तो यह है तुमने अद्भुत वीरता दिखाई। तुम्हारे हौंसले की बदौलत फतह संभव हो पाई। बादशाह ने प्रसन्न होकर बहुत शाबाशी और खानखाना की बपौती पदवी तुम्हें दी। 

अलबेरूनी ओर अबुल फजल के पश्चात् रहीम ही ऐसे तीसरे मुसलमान थेजिन्होंने देश की एक जीवित जाति (हिन्दू) के साहित्य का इतना विशद तथा सहानुभूतिपूर्ण अध्ययन किया था।
रहीम को उस काल की सामाजिक तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है। रहीम अरबीफारसीतुर्की और संस्कृत के विद्वान थे। इतना ही नहींउनके काव्य के कुछ नमूने देखने से यह पता चलता है कि अवधी और ब्रजभाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था।

"अब्दुर्रहीम खानखाना" पुस्तक में समर बहादुर सिंह लिखते हैं कि ऐसे वातावरण में रहकर भारत की ही मिट्टी में बने रहीम के उदार दिल में हिन्दी-संस्कृत के प्रति अपार अपनापन तथा ममत्व उमड़ आना स्वाभाविक ही था।

कविता के सच्चे ग्राहक होने के नाते कवियों के प्रति रहीम की उदारता इतिहास का विषय बन गयी है। कहते हैं कि उन्होंने गंग कवि को केवल एक छंद पर 36 लाख रूपया पुरस्कार दिया था। रहीम की स्वाभाविक उदारता से परिचित कवि गंग ने एक दिन दोहे में खानखाना से प्रश्न कियाःसीखे कहां नवाज जू ऐसी देन,ज्यों-ज्यों कर ऊंचे करोत्यों-त्यों नीचे नैन।खानखाना ने तुरंत इसके उत्तर में यह दोहा पढ़ाःछेनदार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैनलोग भरम हम पर धरेंयाते नीचे नैन

रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक "संस्कृति के चार अध्याय" में लिखा है कि यह समझना अधिक उपयुक्त है कि रहीम ऐसे मुसलमान हुए हैं जो धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे। 


उसकी मृत्यु सन् 1626-27 में हुई। 

Wednesday, October 18, 2017

Hindi Literature_society_diwali_हिन्दी साहित्य-समाज और दीपावली

Gaganendranath Tagore (India, 1867-1938) The Illumination of the Shadow, watercolour


साहित्य समाज का दर्पण होता है पर इस दर्पण को देखने की दृष्टि भाषा देती हैं। जबकि भाषा की गहराई और विचार को वहन करने की क्षमता लोकजीवन से उसके जुड़ाव से प्रकट होती है। लोकजीवन समाज के रहन-सहन, संस्कार, पर्व-त्यौहार से बनता है और साहित्य के रूप में शब्द इन्हीं सबको एक स्थान पर पिरोकर उसे चिरस्थायी बना देते हैं।


साहित्य में जहाँ अक्षर, अविद्या के तमस को हटाकर विद्या की ज्योति जलाते हैं वहीँ दीपावली जीवन में निराशा, असफलता के अँधेरे के क्षणिक होने और संघर्ष के बाद अंत में प्रकाश के आलोकित होने का प्रतीक पर्व है। हिंदी साहित्य और दीपावली का अंतर-संबंध भी कुछ ऐसा ही है, जो कि पाठक के रूप में व्यक्ति और समूह के रूप में समाज को सकारात्मकता और भविष्य के प्रति आस्था को दृढ़ करता है।





Saturday, October 14, 2017

History of Metcalf House_मेटकॉफ हाउस का सफर



दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे से बाहरी रिंग रोड से होते हुए मजनू का टीला की ओर आगे बढ़ने पर पहली लाल बत्ती पार करके ही बाएं हाथ पर ऊंचाई पर एक बहुत ही आलीशान कोठी बनी हुई है, जिसे मुगलों के जमाने में देश की आजादी की पहली लड़ाई से पहले थॉमस मेटकाफ (1795-1853) ने अपने रहने के लिए बनवाया था जो कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबार में अंग्रेज गवर्नर जनरल का आखिरी ब्रिटिश रेसिडेंट (1835-53) था। 1835 में सिविल लाइन्स के पास औपनिवेशिक शैली में बनाया गया यह पहला घर टाउन हाउस कहलाता था।

इसका बाहरी हिस्सा बड़ा आकर्षक था क्योंकि इसके चारों ओर एक बरामदा था। यह बरामदा बहुत ऊंचा तथा 20 फुट से 30 फुट तक चौड़ा था और इसकी छतों को थामने वाले पत्थर के शानदार स्तम्भों की संख्या बहुत अधिक थी। परन्तु वास्तविक रूप से प्रशंसनीय इसका आंतरिक भाग था। इसकी संगमरमर की मेजें बड़ी सुन्दर और सुथरी लगती थी। इसकी दीवारों पर ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बद्व दृश्य और प्रख्यात नर-नारियों के चित्र लगे थे। चांदी के बने कलमदान, कागज काटने के चाकू और घड़ियां इसके कमरों को आकर्षक और रमणीक रूप प्रदान करते थे। इस घर के उत्तर पूर्व की ओर का एक कमरा विशेष महत्ता का था। इसे नेपोलियन दीर्घा कहा जाता था क्योंकि इसे नेपोलियन बोनापार्ट की, जिसका थाॅमस बड़ा प्रशंसक था, स्मृति को समर्पित किया था। पुस्तक खानों में नेपोलियन के जीवन और कृतित्व से सम्बन्धित पुस्तकें और एक संगमरमर की पीठिका पर नेपोलियन की संगमरमर की मूर्ति रखी रहती थी। एक और कमरे में पुस्तकालय था, जो 25000 से अधिक पुस्तकों का उत्कृष्ट संग्रह के लिए उल्लेखनीय था।


1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में मैटकाफ हाउस को लूटा गया और बुरी तरह से जलाया गया। अंग्रेजों के दिल्ली पर दोबारा कब्जे के बाद इस घर का स्वामित्व उसके बेटे उसके बाद थियोफिलस मेटकाफ को मिल गया जो कि तत्कालीन अंग्रेज सेना का अफसर था।उसके बाद इस स्थान के कई मालिक बने। 


जब अंग्रेजों ने कलकत्ता से अपनी राजधानी दिल्ली स्थानांतरित की तब 1920-1926 की अवधि में यह स्थान केन्द्रीय विधान मंडल की कांउसिल आॅफ स्टेट का गवाह रहा। बाद में, इस भवन का उपयोग संघीय लोक सेवा आयोग और स्वतन्त्रता के उपरांत गठित भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल द्वारा किया गया। यहां पर 1947 में एक आईएएस प्रशिक्षण स्कूल स्थापित किया गया था जहां आपातकालीन युद्ध सेवा के अफसरों को प्रशिक्षित किया गया था। बाद में 1949 में नियमित अफसरों के पहले बैच (जो कि नयी प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण कर के आया था) यहां प्रशिक्षित किया गया।


सन् 1958 में इस स्कूल को मसूरी ले जाने का निश्चय किया गया। इस निर्णय के साथ ही मैटकाफ हाउस के उतार-चढ़ाव पूर्व इतिहास का एक और अध्याय समाप्त हो गया। अब यह स्थान रक्षा मंत्रालय के अधीन है, जहां पर उसके कई सहायक कार्यालय हैं।


Saturday, October 7, 2017

Hindi to English Highway_भाषायी राजमार्ग



हिंदी प्रदेशों के गांवों, कस्बों और शहरों की पगडंडी से देश की राजधानी के भाषायी राजमार्ग पर आने में अक्सर व्यक्ति चोटिल-घायल होते हैं तो कुछ बदनसीब हमेशा के लिए विकलांग को जाते हैं!

सबसे दर्दनाक तो इस सफ़र में हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने वाले होते हैं, जिनकी कहीं कोई गिनती नहीं होती!

भारत से इंडिया के इस भाषाई परिवर्तन की मार पंथिक मह्जबों में मतांतरण से कम त्रासदीपूर्ण नहीं है, क्यों ठीक कहा न ?

फिर चाहे दिल्ली पहुंचना हो या मुंबई...

wall of old city of delhi_पुरानी दिल्ली की दीवार_फसील




मुगल बादशाह शाहजहां ने 1639 में दिल्ली में एक नया शहर बसाने का फैसला किया। नतीजन लाल किला और शाहजहानाबाद दस साल में बनकर पूरा हुआ। सात मील के दायरे में फैले हुए इस नए शहर की तीन तरफ एक मोटी और मजबूत दीवार बनी थी। महेश्वर दयाल की पुस्तक "दिल्ली जो एक शहर है" के अनुसार, शाहजहानाबाद की दीवार 1650 में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी, जिस पर तब पचास हजार रूपए का खर्चा आया। यह 1664 गज चौड़ी  और नौ गज ऊंची थी और इसमें तीस फुट ऊंचे सत्ताईस बुर्ज थे।

1857 देश की आजादी की पहली लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह जफर की हार के बाद दिल्ली अंग्रेजों के गुस्से और तबाही का शिकार बनी। फरवरी 1858 में अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने शहर की दीवार को ध्वस्त करने का आदेश दिया। तत्कालीन कमिश्नर जाॅन लॉरेंस इस को पूरी तरह एक गलत फैसला मानता था। उसने दिल्ली में सात मील लंबी दीवार को उड़ाने के लिए अपर्याप्त बारूद होने की बात कही। फिर आदेश को पूरा करने के लिए मजदूरों ने एक-एक करके हाथ से दीवार के पत्थरों को हटाया। यह एक तरह से जानबूझकर देरी के लिए अपनाई रणनीति हो सकती है, क्योंकि वर्ष के अंत में सुप्रीम गर्वनमेंट ने उसकी बातों को स्वीकार कर लिया और दीवार को कायम रखने का फैसला किया।


जबकि पश्चिम और उत्तर दिशा की दीवार के विपरीत दक्षिण-पश्चिमी तरफ की दीवार, असलियत में एक रूकावट थी तथा 1820 के दशक में इसके कुछ हिस्सों को ध्वस्त कर दिया गया।

मार्च 1859 में "दिल्ली गजट" ने यह खबर छापी कि महल के अंदर गोला-बारूद से उड़ाने का काम हो रहा है। लाॅर्ड कैनिंग ने इसके एक साल बाद वास्तुकला या ऐतिहासिक महत्व की पुरानी इमारतों को संरक्षित किए जाने का आदेश जारी किया पर तब तक काफी देर हो चुकी थी। 1861 में रेलवे लाइन बिछाने के हिसाब से शहर की दीवार में बने काबुली गेट और लाहौरी गेट के बीच शहर की दीवार को तोड़ दिया गया। 
फिर अंग्रेजों ने भारतीय शहरों की प्रकृति, भारतीयों के दोबारा आजादी की लड़ाई छेड़ने के भय और शहरों में नए निर्माण की जगह बनाने के लिए पुराने शहर के केंद्रों को खत्म करने की बातों का ध्यान करते हुए नए शहरों की योजना बनाई।

1872 में दिल्ली को एक सुंदर शहर बनाने की चाहत रखने वाला अंग्रेज कमीश्नर कर्नल क्रेक्रॉफ्ट पुराने शहर की दीवार को अराजकतावाद की निशानी मानता था। 1881 में नगर पालिका ने लाहौरी दरवाजे की दोनों ओर रास्ते बनाते हुए दिल्ली गेट को नष्ट करने का इरादा बनाया। तत्कालीन अंग्रेज कमांडर-इन-चीफ ने इस पर आपत्ति व्यक्त की क्योंकि वह कश्मीरी गेट और उससे सटी दीवारों को ऐतिहासिक महत्व की वजह से बचाना चाहता था।

1911 में अंग्रेजों के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने के साथ ही एडवर्ड लुटियन को शाहजहांनाबाद के बाहर नई दिल्ली बनाने का दायित्व सौंपा गया। वह (लुटियन) तो वायसराय भवन से लेकर जामिया मस्जिद तक एक सीधी सड़क निकालना चाहता था, जो पुरानी दिल्ली की दीवार और बाजारों से होते हुई गुजरती। लेकिन उसकी इस योजना को अंग्रेज राजा की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण ऐसा नहीं हो सका।


Thursday, October 5, 2017

Kazuo Ishiguro_Nobel Prize for literature_काजुओ इशिगुरो, इस साल के नोबल साहित्य पुरस्कार विजेता



यह हैरानी की बात है कि तुम्हारी सबसे मूल्यवान स्मृतियां तेजी से विस्मृत होने लगती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने देता हूं। मैं स्मृतियों को सबसे अधिक सहेजकर रखता हूं, मैं उन्हें कभी मिटने नहीं देता...

-काजुओ इशिगुरो, इस साल के नोबल साहित्य पुरस्कार विजेता, नेवर लेट मी गो में

Sunday, October 1, 2017

Individualism in Indian Intellact_भारतीय बौद्धिकता




पश्चिम से उधारी की परंपरा वाली आज देश की कथित आधुनिक भारतीय बौद्धिकता के बौद्धिकों के अपने-अपने अलग चर्च हैं.
हर चर्च का एक अलग पादरी है!
सो, ईसाई पंथ की तरह एक कैथोलिक प्रोटोस्टेंट के गिरजे में नहीं जा सकता तो सीरियन चर्च दूसरे पंथ को अपने बराबर नहीं मानता.

सो, जनता तो किसी गिनती में ही नहीं है. 

सो, जो जितना ऊँचा है वह उतना अकेला है.

viginia woolf_वर्जीनिया वूल्फ



कुछ लोग पादरी के पास जाते हैं तो कुछ कविता का सहारा लेते हैं लेकिन मैं अपने दोस्तों के संगत में होती हूं। 

-वर्जीनिया वूल्फ

Selective Memory Loss_रतौंदी



"सभी मंदिर जाने वालों को महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वाला" बताने वाले बयान को देने वाला भला नवरात्रि में गुजरात के कुछ हिन्दू मंदिरों में क्यों गया?मंदिर जाने वाले हिन्दू को लेकर मन-मत बदल गया या मजबूरी आन पड़ी!मंदिर के मारे, मस्जिद-चर्च भी छूट गए!धर्मनिरपेक्षता जो कराये थोड़ा, पहले एक प्रधान मंत्री ने मंदिर का ताला खोला फिर दूसरे ने देश के संसाधनों पर पहला हक़ जमात वालों का बता दिया.हे भगवान, माफ़ करना नहींओह माय गॉड! पार्डन हिम. कॉन्फेशन बॉक्स में 'गलती' की माफ़ी मांग लेंगे.वैसे देसी हिंदी में इसके लिए "थूक कर चाटना" का एक मुहावरा है. (११२०१७)


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...