Sunday, March 24, 2019

Facts_Figures of Indian Democracy_ भारतीय लोकतंत्र_तथ्य और आंकड़ों की कहानी


भारतीय संसद का एक पुराना चित्र 



देश की पहली लोकसभा (17 अप्रैल 1952-4 अप्रैल 1957) में 24 महिला सांसद निर्वाचित हुई थी।  

Saturday, March 23, 2019

Post Partition Settlement of Refugee Colonies in Delhi_दिल्ली में बसी विस्थापितों की काॅलोनियां





अगस्त 1947 में भारत के विभाजन के तुरंत बाद सांप्रदायिक कट्टरता और महजबी असहिष्णुता के कारण हुई अभूतपूर्व रक्तिम हिंसा हुई। इसी का नतीजा था कि पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं और सिखों को अपनी जानमाल की सुरक्षा के डर से पलायन करके भारत आना पड़ा। इस अप्रत्याशित माननीय आबादी के पलायन की पहले से कोई व्यवस्था न होने का परिणाम यह हुआ कि सरकार को राहत और पुनर्वास की भारी समस्याओं का सामना करना पड़ा। 


दिल्ली में ही पाकिस्तान से कुल 459,391 हिंदू-सिख विस्थापित आकर बसे, जिनमें 265,679 पुरुष और 229,712 महिलाएँ थी। इन शरणार्थियों में कुछ तो पाकिस्तान गए मुसलमानों के खाली घरों में ठहरे, लेकिन अधिकांश विस्थापित खुले आकाश के नीचे ही रहने को विवश थे। तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उनके अस्थाई आश्रय के लिए पुनर्वास सहित अन्य व्यवस्थाएं की गई, जिसके तहत उनको पुरानी सैनिक बैरकों और तंबू वाले शिविरों में रखा गया। किंग्सवे कैंप की पुरानी सैन्य बैरकों में 50,000 विस्थापितों को आश्रय प्रदान किया गया। 

पुराना किला में छप्पर की छत वाले तंबू लगाए गए। यहां तक कि किले की दीवारों से सटाकर रहने लायक कमरों में तब्दील कर दिया गया। अनेक शरणार्थियों को फिरोजशाह कोटला और सफदरजंग मकबरे के मैदानों में शरण दी गई। तीस हजारी में एक तंबू शिविर बनाया गया, जिसमें करीब 3000 विस्थापितों की रहने की व्यवस्था की गई। इन सभी अस्थायी शिविरों में रहने वाले विस्थापितों के लिए रसोई, स्नानघर और शौचालय बनाए गए।

आजादी के बाद दो साल तक सरकार के लिए दिल्ली में विस्थापितों को राहत और आश्रय देने की समस्या एक बड़ी चुनौती बनी रही। केंद्र सरकार ने दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली को तीन लाख विस्थापितों के पुनर्वास का लक्ष्य दिया था। पर वास्तविकता में विस्थापितों की संख्या उपरोक्त में वर्णित लक्ष्य से बहुत अधिक थी। यहां आने वाले विस्थापितों में 470386 शहरी विस्थापित और 25005 ग्रामीण विस्थापित व्यक्ति थे। 
केंद्रीय राहत और पुनर्वास मंत्रालय ने शहरी पुनर्वास की बड़ी समस्या के समाधान के लिए कार्यालय स्थापित किए। जिनमें से एक शत्रु संपत्ति संरक्षक कार्यालय पी ब्लॉक, नई दिल्ली में और दूसरा पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वेवल कैंटीन में हाॅउस एंड रेंट ऑफिसर का कार्यालय बनाया गया। इसमें पहले कार्यालय का काम शहर में खाली हुई संपत्ति के मामलों और दूसरे कार्यालय का काम नवनिर्मित घरों, दुकानों, किराए के मकानों, नए भूखंडों के आवंटन और ऋण और अनुदान के वितरण, रखरखाव के भत्तों और वजीफों के मामलों को देखना था। जबकि आवास और ग्रामीण क्षेत्र में भूमि के आवंटन की जिम्मेदारी मुख्य रूप से जिला प्रशासन के जिम्मे थी। 

1951 के अंत तक करीब 190, 000 विस्थापितों को दिल्ली छोड़कर पाकिस्तान गए परिवारों के खाली घरों में बसा दिया गया। केंद्रीय पुनर्वास मंत्रालय ने ऐसे व्यक्तियों को मकान उपलब्ध कराने के लिए नई आवास नीति और योजनाएँ तैयार की, जिन्हें खाली हुए घरों में रहने की जगह नहीं मिली। ऐसे में राजधानी में व्यापक स्तर पर आवासीय निर्माण की आवश्यकता को देखते हुए इस कार्य को केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग, जिसने बृहत्तर दिल्ली की योजना बनाने की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली, के माध्यम से करवाने का निर्णय लिया गया। जिसके तहत सभी क्षेत्र अनुसार वाली योजनाओं को उनके पड़ोस से जोड़ने और मुख्य शहर के केंद्र तक आसान पहुंच को ध्यान में रखते हुए योजना बनाई गई। 

इस काम के लिए करीब तीन हजार एकड़ की भूमि चिन्हित की गई, जहां पर लगभग दो लाख व्यक्तियों को आवास प्रदान करने का लक्ष्य था। इस योजना के तहत विभिन्न कालोनियों बनाई गईं। इन काॅलोनियों में प्रमुख रूप से राजेंद्र नगर (नई दिल्ली उत्तरी विस्तार क्षेत्र), पटेल नगर (शादीपुर), मलकागंज, किंग्सवे, विजय नगर, निजामुद्दीन, निजामुद्दीन एक्सटेंशन, जंगपुरा, जंगपुरा एक्सटेंशन ए और बी, लाजपत नगर (किलोकरी) पूर्व, लाजपत नगर पश्चिम, कालकाजी, मालवीय नगर, भारत नगर, तिलक नगर (तिहाड़), पुराना किला, फिरोजशाह कोटला, आजादपुर, रैगरपुरा, अंगूरी बाग और प्रदेश गाॅर्डन थीं।



dhaula kuan_meaning of dhaula_delhi




धौल, धौला, धौली
पीठ पर धौल जमाना।

धौला का अर्थ सफ़ेद यानी निर्मल जल मतलब धौला कुआँ।
धौली प्याऊ, ऐसी प्याऊ जिसका पानी स्वच्छ है, मतलब पीने लायक. धौली मगरी यानी सफ़ेद पत्थरों की पहाड़ी।


धौली मगरी (गांव चावण्डिया खुर्द, रायपुर-मारवाड़, जिला पाली राजस्थान) मेरे पैतृक स्थान का नाम और दिल्ली में धौला कुआँ, जहाँ से जयपुर की तरफ से आने वाला सड़क यातायात वाया धौला कुआँ ही राजधानी में प्रवेश करता है. अरावली पर्वतमाला में इस नाम से कई जगह हैं जैसे धौलागिरि, धौलपुरिया. धवल वर्ण की विशेषता से‌ यह नामकरण हुआ है। 


वैसे पश्चिमी दिल्ली में विकासपुरी से उत्तमनगर जाते हुए ए ब्लॉक जनकपुरी के पास एक धौली प्याऊ भी है.

Friday, March 22, 2019

Ballot Box_Loksahba Elections_1996_Outer Delhi constiteuncy_87 candidates




सबसे भारी भी काल बाह्य हो जाता है!
बीते जमाने की बात

(मतदान पेटी, मुख्य चुनाव आयुक्त कार्यालय म्यूजियम, ओल्ड सेंट स्टीफेंस कॉलेज बिल्डिंग, कश्मीरी गेट, दिल्ली)

Tuesday, March 19, 2019

कोई अपना_dear one_poem


फोटो साभार: लोनली ट्री_जूडिथ सायराच





जब कोई अपना जाता है 
आकाश सूना होता है 
आंखें सूनी 
हम निःशब्द 

कितना कुछ साथ चला जाता है 
उस एक अपने के साथ 
यादें, बातें, अपनापन 
हम बिलकुल अकेले 

कभी जो सोचा नहीं होता 
जब ऐसा कुछ होता 
तब इतना दर्द होता 
लगता आखिर ऐसा क्यों होता 

होने, न होने का भरम 
पहली बार सच होता 
सच प्रिय नहीं, कड़वा ही होता 
काश जीवन बस में होता! 


Saturday, March 16, 2019

sarai in india_भारत में सराय की समृद्ध परंपरा

दैनिक जागरण, 16/03/2019 





भारत में यात्रियों के लिए आश्रय की अवधारणा नई नहीं है। ऐतिहासिक अभिलेखों और पुस्तकों में धर्मशाला, विहार, सराय और मुसाफिरखाना जैसे शब्दों का उल्लेख है। इन प्रतिष्ठानों ने सभी पर्यटकों-चाहे वे तीर्थयात्री, विद्वान, व्यापारी या साहसी व्यक्ति कोई भी हो-को आश्रय प्रदान किया। भारतीय संस्कृति में हमेशा से विभिन्न रूपों आश्रय देने की एक महत्वपूर्ण सामाजिक परंपरा थी, जिसके माध्यम से सर्वसाधारण जन को भी सेवा प्रदान की जाती थी।


मोतीचन्द्र की पुस्तक "सार्थवाह" के अनुसार, प्राचीन भारत में सड़कों पर यात्रियों के आराम के लिए धर्मशालाएं होती थी। अंग और मगध के वे नागरिक, जो एक राज्य से दूसरे राज्य में बराबर यात्रा करते थे, उन राज्यों के सीमान्त पर बनी हुई एक सभा में ठहरते थे। रात में मौज से शराब, कबाब और मछलियां उड़ाते थे तथा सवेरा होते ही वे अपनी गाड़ियों कसकर यात्रा के लिए निकल पड़ते थे। उपर्युक्त विवरण से यह पता चलता है कि सभा का रूप मुगल युग की सराय जैसा था।


"धम्मपद अठ्ठकथा" के अनुसार, ऐसा पता चलता है कि तक्षशिला के बाहर एक सभा थी, जिसमें नगर के फाटकों के बंद हो जाने पर भी यात्री ठहर सकते थे। यात्रियों के आराम के लिए सड़कों के किनारे कुओं और तालाबों का प्रबन्ध रहता था। एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में यात्रा के मध्य आश्रय प्रदान करने की अवधारणा को संस्थागत बनाने वालों में सर्वप्रथम बौद्ध भिक्षु ही थे। भारत के समूचे दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र में यत्र-तत्र बिखरे हुए गुफा मंदिरों में पूजा और प्रार्थना के लिए चैत्य और विहार (मठ) दोनों थे। ये भिक्षु आबादी वाले कस्बों और गाँवों से दूर रहने के बावजूद भी यात्रियों और तीर्थयात्रियों की जरूरतों के बारे में सजग थे। इसी का परिणाम था कि इन मठों में उन्हें आश्रय और भोजन दोनों मिलता था। यह याद रखना दिलचस्प है कि ये मठ प्राचीन व्यापार मार्गों पर क्षेत्र के महत्वपूर्ण तीर्थ केंद्रों के बीच में ही स्थित थे।
"शब्दों का सफर" नामक तीन खंडों वाली पुस्तक के लेखक अजित वडनेकर के अनुसार, फारसी में कारवां सराय शब्द भी इस्तेमाल होता है जिसका मतलब है राजमार्गों पर बने विश्रामस्थल। प्राचीनकाल से ही राहगीरों की सुविधा के लिए शासन की तरफ से प्रमुख मार्गों पर विश्रामस्थल बनवाए जाते थे जहां कुछ समय सुस्ताने के बाद राहगीर आगे का सफर तय करते थे। गौरतलब है कि पुराने जमाने में अधिकांश यात्राएं पैदल या घोड़ों की पीठ पर तय की जाती थीं। सराय शब्द में मूलतः आश्रय का भाव है। ईरानी संस्कृति में सराय की अर्थवत्ता में महल भी शामिल है। मुस्लिम शासन के दौरान सराय शब्द का इस्तेमाल उत्तर भारत में खूब बढ़ा। सराय के धर्मशाला वाले अर्थ में इसका खूब विस्तार हुआ। देश भर में कई आबादियां बिखरी पड़ी हैं जिनके नाम के साथ-साथ सराय शब्द लगाता है। 


मुगलों के पड़ाव या डेरे के तौर पर बसी आबादी को मुगलसराय नाम से जाना जाता है। जाहिर है कभी यहां सराय नाम की इमारत जरूर रही होगी। शेख सराय और बेर सराय, जैसे नामों से यह साफ है। यहां तक कि दिल्ली के एक उपनगरीय रेलवे स्टेशन का नाम सराय रोहिल्ला है। जहां से आजकल राजस्थान की ओर जाने वाले रेलगाड़ियां चलती है।

"दिल्ली तेरा इतिहास निराला" पुस्तक में "सराय की प्रत्यय" वाले दिल्ली के गांवों के नाम सहित उनकी बसावट के इतिहास की रोचक ढंग से विस्तृत जानकारी दी गई है। ऐसे ही कुछ गांवों के नाम हैं, कानू सराय, लाडो सराय, नेब सराय, कटवाड़िया सराय, जिया सराय, दादो सराय, तोत सराय, शाहजी सराय, गांव बुआ सराय, यूसुफसराय, सरबन सराय, गटटू सराय, सराय कबीरुद्दीन, सूरा सराय और हमीद सराय। जैसे दरख्त नेब यानी नीम के पेड़ के कारण नेब सराय तो तोते के नाम पर तोत सराय पड़ा। वहीं गांव बुआ सराय पर बसे आज के मस्जिद मोठ इलाके की मस्जिद मोठ की दाल की भरपूर फसल होने के कारण मशहूर हुई। मालवीय नगर में विजय मंडल के उत्तर पश्चिम में लगभग 500 मीटर की दूरी पर कालू सराय नामक एक छोटा गांव भी है। 


"दिल्ली और उसका अंचल" पुस्तक के अनुसार, वर्तमान दिल्ली करनाल रोड से सब्जी मंडी को जोड़ने वाली सड़क पर एक सराय थी जो गुड़ की सराय कहलाती थी और जिसे बाद के मुगल काल में बनवाया गया था। इसके तीन प्रवेश द्वारों से, जिनके दोनों छोरों पर मेहराबी दरवाजे हैं, पुरानी ग्रांड ट्रंक रोड गुजरती थी। यह ज्यादातर ईटों से निर्मित है यद्द्पि उसकी परत में बलुआ पत्थर का भी इस्तेमाल हुआ है। ये द्वार जैसा कि उनके दोनों प्रवेश द्वार पर एक-एक अभिलेख से पता चलता है कि नाजिर महलदार खां ने 1728-29 में बनवाए थे।


Saturday, March 9, 2019

Delhi's Aravalli is worlds oldest mountain ranges_दिल्ली नहीं, देश की सबसे पुरानी पर्वतमाला अरावली


09032019_दैनिक जागरण


पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में जब पहली बार पर्वतजननिक गतिविधियां हुईं तो इसमें आर्कीयनकाल (आद्य महाकल्प) के अवसादों में उभार आया जिससे अरावली पर्वतमाला का जन्म हुआ। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि पुराजीवी काल के प्रारंभिक दौर में इस पर्वतमाला में फिर से उथल-पुथल हुई जो इससे पहले की तुलना में कहीं बड़े पैमाने पर थी तथा इसका विस्तार शायद दक्कन से लेकर हिमालय की सीमाओं के पार तक था।

अरावली पर्वतमाला प्रायद्वीपीय भारत की पर्वतमालाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं यह विवर्तनिक श्रृंखला का एकमात्र उदाहरण है। भारतीय भूगोल के प्राचीन पुराजीवी तथा मध्यजंतु काल में ये भौगोलिक परिदृश्य के महत्वपूर्ण प्रतिनिधि थे और इनका विस्तार अटूट रूप से एक भव्य पर्वतमाला के रूप में दक्कन से गढ़वाल तक था। किंतु वर्तमान में इस पर्वतमाला का केवल अवशेष हमें दिखलाई देता है जो अपरदन के सतत चक्रों को झेलते हुए इस अवस्था में विद्यमान है। भारत में सबसे प्राचीन पर्वतमाला धारवार काल के अंत में अस्तित्व में आई, जब उस काल के समुद्रों में एक अंदरूनी उग्र परिवर्तन के कारण नीचे का तलछट ऊपर उठ गया था। उस काल से लेकर आज तक अरावली पर्वतमाला भारतीय भूगोल की एक प्रमुख पहचान रही है और कालांतर में निक्षेपों और तलछटों के अपरदन से बनी अनेक निक्षेपात्मक संरचनाओं के निर्माण में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यह क्षेत्र संसार के प्राचीनतम भूगर्भीय अमीनतिय भूभाग का क्षेत्र है। अरावली सिस्टम के निचले हिस्से में क्वार्टजाइट कांग्लोमरेट्स (संगुष्टिकाश्म/मिश्र-पिंडाश्म), शेल, स्लेट, फाइलाइट और नाइस चट्टानें पाई जाती हैं। यह सुस्तरित और धारीदार नाइस चट्टानों के असामान्य अपरदनीय विन्यासों का क्षेत्र है।

बनावट की दृष्टि से अरावली भूगर्भीय समभिनति का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें अरावली तथा दिल्ली सिस्टम की चट्टान भरी हुई है। इनमें आधारभूत रूप से नाइस तथा ग्रेनाइट चट्टानों का अतिक्रमण देखा जा सकता है जो निश्चिंत रूप से उपरोक्त दोनों चट्टानों से पुरानी है। अरावली की चट्टानों में सघन कायांतरण की प्रक्रिया होती रही है। इस सिस्टम का अधिकांश भाग मृण्मय निक्षेपण से बना है जिनका रूपांतरण, शेल स्लेट तथा फिलाइट से क्रमशः माइका की स्तरित चट्टानों के रूप में हुआ है।

अरावली पर्वतमाला एक वक्रीय तलवार की तरह है तथा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में इस क्षेत्र की सर्वप्रमुख भू-आकृतिक संरचना के रूप में विस्तृत है। यह श्रृंखला समान चौड़ाई वाली नहीं है तथा यह गुजरात के पालनपुर से दिल्ली तक 692 किलोमीटर लंबी है। अरावली श्रृंखला के सबसे भव्य और सर्वाधिक प्रखर हिस्से मेवाड़ और मेरवाड़ा क्षेत्र के पहाड़ों के हैं जहां ये अटूट श्रृंखला के रूप में मौजूद हैं। अजमेर के बाद ये टूटी-फूटी पहाड़ियों के रूप में देखे जा सकते हैं। इस क्षेत्र में इनकी दिशा उत्तर पूर्ववर्ती उभार के रूप में सांभर झील के पश्चिम से होते हुए क्रमशः जयपुर, सीकर तथा अलवर से खेतड़ी तक जाती है। खेतड़ी में यह अलग-थलग पहाड़ियों के रूप में जमीन की सतह में विलीन होने लगती हैं और इसी रूप में इन्हें दिल्ली तक देखा जा सकता है।

रायलो श्रृंखला स्पष्टता के साथ अरावली पहाड़ियों से ऊपर और अलग नजर आती है। अरावली के उत्तरी हिस्से में रायलो श्रृंखला एक बार फिर अलग से दिखाई पड़ती है। यहां यह क्वार्ट्जाइट (कोल्हुआ पत्थर), ग्रिट और स्तरित चट्टानों से बनी, दिल्ली शहर के मशहूर रिज के रूप में मौजूद है। दिल्ली सिस्टम में विविध प्रकार की मूल चट्टानें प्रविष्ट हैं तथा ग्रेनाइट बॉस तथा लैकोलाइट की श्रृंखला एवं इससे संबद्ध पेगमलाइट तथा एपलाइट चट्टानों का समूह भी पाया जाता है जो अरावली श्रृंखला के पश्चिमी हिस्से तक एक बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। दिल्ली सिस्टम को पुराण युग के प्रारंभ के संकेत के रूप में देखा जा सकता है जिसमें इससे प्राचीनतर अरावली (आर्कियन) सिस्टम की अपेक्षा आग्नेय चट्टानों की विविधता और बहुलता है। यहां चट्टानों के सघन रूपांतरण को देखा जा सकता है। हिमनदीय परिस्थितियों के प्रमाण अरावली में बोल्डर बेडों के रूप में पाए जाते हैं। उत्तर में मुख्यतः अरावली पर ही हिमानी मैदान होते थे जहां से हिमनदियां सभी दिशाओं में बहती थीं।

अरावली पर्वतमाला वास्तविक विवर्तनिक श्रृंखला के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। यह उत्तर भारत का प्रमुख जल विभाजक (पनढाल) है जो गंगा नदी तंत्र के अपवाह क्षेत्र को सिंधु नदी तंत्र के अपवाह क्षेत्र से पृथक करता है। अरावली पर्वतमाला की सर्वाधिक स्थायी और सतत संरचनात्मक विशेषता यह है कि इसकी उत्कृष्ट क्वार्टजाइट चट्टानें अनाच्छादन का बेहतर प्रतिरोध कर सकती हैं और इसीलिए ये एक लगभग समतल परकोटे के रूप में मौजूद हैं।

पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास के प्राचीनतम एवं नवीनतक अध्यायों क्रमशः पूर्व-कैम्ब्रियन तथा क्वाटरनरी, दोनों काल की चट्टानें दिल्ली सिस्टम में विद्यमान हैं। इन कालावधियों के बीच के काल का रिकार्ड स्पष्ट नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र पूर्व-कैम्ब्रियन काल (1500 मिलियन वर्ष पूर्व) के उत्तरार्द् में समुद्र की सतह से ऊपर उठा था। तबसे यह उप-वायवीय अपरदन का साक्षी रहा है। इसका नवोन्मेष 800 मिलियन वर्ष पहले, पूर्व-कैम्ब्रियन काल के अंतिम खंड में हुआ। 250 मिलियन वर्ष पूर्व परमो-कार्बोनीफेरस काल में, जब गोंडवानालैंड के नाम से विख्यात विशाल महाद्वीप के रूप में भारत, मालागैसी, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा अंटार्कटिका संयुक्त थे, इस विशाल महाद्वीप के उत्तर-पूर्वी कोण में अरावली पर्वतमाला मेरूदंड का काम करती थी। एक मिलियन वर्षों से भी अधिक पहले अत्यंत नूतन काल में इसका नवोन्मेष हुआ। तुगलकाबाद का क्वार्ट्जाइट वाला पठारी भाग समुद्रतल से 243 मीटर ऊंचा तथा जमीन की सतह से 30 मीटर ऊंचा है। यहां की पहाड़ियों, रिजों और पठारों का विन्यास असामान्य है। यहां चारों तरफ क्वार्टरनरी काल की जलोढ़ मिट्टी तथा वायु-निक्षेपित बालू आच्छादित है।

अरावली पर्वतमाला और यमुना नदी
महान भारतीय जल-विभाजक अरावली, अरब सागर सिस्टम तथा पश्चिमी राजस्थान के अपवाह क्षेत्र को यमुना नदी द्वारा (जिसका जलस्त्रोत चंबल, बानगंगा, कुंवारी तथा सिंधु आदि नदियां हैं) गंगा सिस्टम से अलग करती है। इसमें चंबल सिस्टम शायद यमुना से भी पुराना है, क्योंकि टर्शियरी और होलोसीन कालों में यह सिंधु सिस्टम का एक हिस्सा हुआ करता था। गंगा डेल्टा के अवतलन के कारण तथा बाद में अरावली-दिल्ली धुरी क्षेत्र के उभार के कारण यमुना के प्रवाह मार्ग में परिवर्तन होने लगा, वह गंगा की सहायक नदी बन गई तथा मध्यक्षेत्रीय अग्रभाग में प्रवाहमान चंबल और अन्य नदियों के अपवाह क्षेत्र का इसने अपहरण कर लिया। सरस्वती नदी तंत्र का 1800 ईसा पूर्व परित्याग करने के बाद पूर्ववर्ती बहने वाली यमुना अपने प्रवाह मार्ग को तीव्र गति से परिवर्तित करती हुई पूर्व दिशा में ही बहती रही।

अरावली पर्वतमाला में मानव पुरावास
पहाड़ियों के ऊपर क्वार्ट्जाइट चट्टानों के खुले शैल दृश्यांशों से यमुना बेसिन में स्थित पुरापाषाण बाशिंदों को आवश्यक कच्चा माल सहजता से उपलब्ध हो जाता था। इसके अतिरिक्त इस इलाके में सघन वनों में रहने वाले जानवर बहुतायत में पाए जाते थे। पुराप्रवाह मार्ग पाषाणकालीन मनुष्य को कम खतरनाक पशुओं को हांक कर अपना शिकार बनाने के लिए अपनी सही स्थिति उपलब्ध कराते थे। वे या तो जानवरों को खदेड़कर पानी में डूबने देते थे या फिर इस भागदौड़ में जानवरी खुद घायल हो शिकार बन जाते थे। परवर्ती काल में जब मौसम खुशक होने लगा तब पाषाणकालीन बाशिंदों ने विवश होकर इस घाटी को छोड़ दिया। मरूभूमि के विस्तार के कारण इन पहाड़ियों को बालू की आंधियों का सामना करना पड़ा जिसके फलस्वरूप पर्यावरण पैटर्न में प्रतिकूल परिवर्तन होते गए।

दिल्ली रिज का वनस्पति समूह
अपनी भौगोलिक स्थिति तथा यहां के उप-उष्णकटिबंधीय मौसम के कारण इस क्षेत्र में सघन वानस्पतिक विविधता पाई जाती है। यहां के रिज क्षेत्र में स्थायी वनस्पति के रूप में कंटीले वृक्षों की प्रजातियां तथा कुछ कंटीली झाड़ियां उगती है। कीकर, कत्था, फुलाही, और, ये एकेशिया प्रजाति की हैं। एकेशिया प्रजाति की तरह ही प्रोसोपिस प्रजाति है, फिर अन्य प्रजातियां भी हैं, जैसे पीलू, हल्दू, हिंगोल, नीम, ढाक। जंगली खजूर के झुरमुट भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ते हैं। यहां की स्थायी प्रकार की झाड़ियों में हीनस, करोर, बेर, ककेरा, लैसूरा तथा बांस की प्रजातियां भी छोटी झाड़ियों के रूप में पाई जाती है। पुराप्रवाहिकाओं तथा क्वार्ट्जाइट चट्टानों के भूगर्भीय वलनों के कारण बने अवनमनों या गर्तों में जो प्रजातियां पाई जाती हैं वे हैं-धॉय, तेंदू, सफेद चमेली, रोहेरा, हैथी और बेर। यहां अस्थायी प्रकृति की जड़ी-बूटियां भी पाई जाती हैं जिनमें प्रमुख हैं-लापा, मिस्सी, झोझरू, पुरर्नवा, कसनी, तिल, हुलहुल, गोखरू तिा विविध घासों एवं नरकटों की प्रजातियां। कंटीली झाड़ियों की ये प्रजातियां अनेक लतिकाओं एवं वल्लरियों को आश्रय प्रदान करती हैं जिनमें प्रमुख हैं-अमरबेल, रामबेल तथा एक अर्ध परजीवी (बंडा)।

दिल्ली रिज का जंतु समूह
इस क्षेत्र में जो प्रमुख मांसाहारी जानवर पाए जाते हैं, उनमें प्रमुख हैं-लकड़बग्गा, गीदड़, लोमड़ी, सियार तथा तेंदुआ एवं नेवला। खुरदार जानवरों में जंगली वराह, काला हिरण, नीलगाय प्रमुख हैं। इनके अलावा मछलियां, खरहे, चूहे, गिलहरी भी पाए जाते हैं। पक्षियों में जंगली कौआ, जंगली पंडुक, जंगली बेबलर, बया पक्षी, बंगाली गिद्व, नीलकंठ इत्यादि चट्टानी और घाटी इलाके में काफी संख्या में पाए जाते हैं। मध्यकालीन युग में दिल्ली के रिज वाला इलाका शिकार के लिए काफी मशहूर रहा, जिसका प्रमाण फिरोजशाह तुगलक के काल (1351-1388) में बने शिकार महलों से मिलता है। जिनमें से चार की जानकारी मिलती हैं-मालचा महला या मालचा बिस्टदारी तथा कुश्क महल (दक्षिणी रिज क्षेत्र में), भूली-भटियारी का महल (मध्य दिल्ली का रिज) तथा पीर-गालिब (दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट उत्तरी रिज)।

दिल्ली विकास प्राधिकरण के अनुसार, मोहम्मदपुर, मुनीरका, बसंत गांव, मसदूपुर, कुसुमपुर, महिपालपुर और मुरादाबाद पहाड़ी में आने वाले बड़े भूखंड़ों के सबंध में अधिग्रहण की प्रक्रिया दिल्ली के सुनियोजित विकास के लिए प्रारंभ की गई थी, न कि किसी विशिष्ट परियोजना के लिए। तत्पश्चात, कुल अधिग्रहीत भूमि में से, भूमि के कुछ भाग में अरावली जैव विविधता उद्यान का विकास करने का निर्णय लिया गया था।

माननीय उच्चतम न्यायालय ने टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में 1995 की रिट यिचका (सी) सं. 202 की विभिन्न आई ए में दिनांक 29 और 30 अक्तूबर 2002 और 16 दिसम्बर 2002 के अपने आदेश द्वारा समूची अरावली खंला में सभी खनन कार्यकलापों को प्रतिबंधित और निषिद्ध किया है। दोबारा उच्चतम न्यायालय ने दिनांक 08.10.2009 के अपने आदेश द्वारा कतिपय शर्तों सहित, अरावली पहाड़ी क्षेत्र में कतिपय क्षेत्रों में खनन कार्य अनुमत किया था। उन शर्तों में से एक शर्त यह थी कि खनन प्रचालन, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के अंर्तगत पूर्व अनुमोदन और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अंर्तगत स्वीकृति सहित आवश्यक मंजूरियां प्राप्त करने के बाद प्रारम्भ किए जा सकते थे। अरावली पहाड़ी क्षेत्र के संबंध में एक नीति लाने की कोई आवश्यकता नहीं है और केंद्र सरकार की उसके लिए कोई योजना नहीं है।

दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के अनुसार, उसने 692.00 एकड़ की कुल अपेक्षित भूमि में से अरावली जैव विविधता पार्क के विकास के लिए 689.35 एकड़ भूमि अधिग्रहीत की है। दिल्ली में अरावली जैव विविधता पार्क के लिए शेष 2.65 एकड़ भूमि सहित भूमि का अधिग्रहण भूमि और भवन विभाग, दिल्ली सरकार द्वारा वर्तमान अधिनियम, नियम और नीतियों के अनुसार किया जाता है।

केंद्र सरकार ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत दिनांक 7 मई, 1992 की अधिसूचना द्वारा अरावली रेंज के विनिर्दिष्ट क्षेत्रों में पर्यावरणीय अवक्रमण करने वाली कुछ प्रक्रियाओं और प्रचालनों पर रोक लगा दी थी। बाद में केंद्र सरकार ने दिनांक 29 नवंबर, 1999 को अधिसूचना द्वारा इस क्षेत्र में पर्यावरण गुणवत्ता की सुरक्षा और सुधार के लिए उपाय करने हेतु इसे प्रदत्त अधिकारों को संबिंधत राज्यों हरियाणा और राजस्थान को सौंप दिया था।

उपर्युक्त अधिसूचना में संबंधित राज्य सरकार के पर्यावरण विभाग के सचिव की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के उल्लंघनों पर आवश्यक कार्रवाई करने के लिए संबंधित (हरियाणा में गुड़गांव और राजस्थान में अलवर) जिला अधिकारी की अध्यक्षता में मॉनीटिरंग समिति का गठन करने का प्रावधान है। राज्य सरकारों से पर्यावरण सरोकारों को शामिल करते हुए इस क्षेत्र का विकास करने और भविष्य में भू-उपयोग के लिए मास्टर प्लान तैयार करने की अपेक्षा भी की गई थी।

Saturday, March 2, 2019

Partition of India and Gandhi_महजबी कड़वाहट दूर करने वाला महात्मा

02032019, दैनिक जागरण 




मुल्क के टुकड़े तो हो चुके। अब उसे दुरूस्त करने का तरीका क्या है? एक हिस्सा गंदा बने तो क्या दूसरा भी वैसा ही करे? हिंदुस्तान की रक्षा का, उसकी उन्नति का यह रास्ता नहीं कि जो बुराई पाकिस्तान में हुई उसका हम अनुकरण करे। अनुकरण हम सिर्फ भलाई का ही करें। अगर पाकिस्तान बुराई ही करता रहा तो आखिर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में लड़ाई होनी ही हैं मेरी बात कोई सुने तो यह संकट टल सकता है। अगर मेरी चले तो न तो मैं फौज रखूं और न पुलिस। मगर ये सब हवाई बातें हैं। मैं हुकूमत नहीं चलाता। आज जो चल रहा है, उससे तो लड़ाई का ही आभास होता है। यही संबोधन दिया था महात्मा गाँधी ने 16 सितंबर 1947 को दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ताओं के समक्ष।


मैं यह देखने के लिए पंजाब जा रहा था कि जो हिंदू-सिक्ख पाकिस्तान से खदेड़ दिए गए हैं, वे अपने-अपने घरों को वापिस लौट सके और वहां हिफाजत और इज्जत से रह सकें। मगर रास्ते में मैं दिल्ली में रोक लिया गया और जब तक हिंदुस्तान की इस राजधानी में शांति कायम नहीं होती तब तक मैं यही रहूंगा। मैं मुसलमानों को यह सलाह कभी नहीं दूंगा कि वे लोग अपने घर छोड़कर चले जाय, भले ही ऐसी बात कहने वाला मैं अकेला ही क्यों न होऊं। अगर मुसलमान लोग हिंदुस्तान के कानून मानने वाले और वफादार नागरिक बनकर रहे तो उन्हें कोई भी नहीं छू सकता।

वहीं 18 सितंबर 1947 को दरियागंज मस्जिद में महात्मा गांधी ने मुसलमानों के बीच में भाषण देते हुए कहा कि मैं जिस तरह हिंदुओं और दूसरों का दोस्त और सेवक हूं उसी तरह मुसलमानों का भी हूं। मैं तब तक चैन नहीं लूंगा जब तक हिंद-यूनियन का हर एक मुसलमान, जो यूनियन का वफादार नागरिक बनकर रहना चाहता है, अपने घर वापिस आकर शांति और हिफाजत से नहीं रहने लगता।

उन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने कहा है कि सरदार पटेल ने मुसलमानों के पाकिस्तान में जाने की बात की ताईद की है। जब सरदार से मैंने यह बात कही तो वे गुस्सा हुए। मगर साथ ही उन्होंने मुझसे कहा कि इस शक के लिए मेरे पास कारण हैं कि हिंदुस्तान के मुसलमानों की बहुत बड़ी तादाद हिंदुस्तान के प्रति वफादार नहीं है। ऐसे लोगों का पाकिस्तान में चले जाना ही ठीक है। मगर अपने इस शक का असर सरदार ने अपने कामों पर नहीं पड़ने दिया। 

गाँधी ने कहा था कि अगर हिंदुओं को लगता है कि भारत में हिंदुओं के अलावा किसी और के लिए कोई स्थान नहीं है और अगर गैर-हिंदू, विशेष रूप से मुस्लिम, यहां रहना चाहते हैं, तो उन्हें गुलाम के रूप में रहना होगा तो ऐसे में वे (हिंदू) हिंदू धर्म को समाप्त कर देंगे। इसी तरह, अगर पाकिस्तान यह सोचता है कि पाकिस्तान में केवल मुसलमानों को रहने का अधिकार है और गैर-मुसलमानों को वहां पीड़ित होकर और उनके गुलाम के रूप में वहाँ रहना पडे़गा तो यह भारत में इस्लाम का अंत होगा।

मैं पूरी तरह मानता हूं कि जो मुसलमान भारतीय यूनियन के नागरिक बनना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले यूनियन के प्रति वफादार होना ही चाहिए और उन्हें अपने देश के लिए सारी दुनिया से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। जो लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे ऐसा करने के लिए आजाद हैं। मैं सिर्फ यही चाहता हूं कि एक भी मुसलमान, हिंदुओं या सिक्खों के डर से यूनियन न छोड़े। मगर पाकिस्तान रवाना होने से पहले मुझे दिल्ली की आग बुझाने में मदद करनी ही होगी।

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