Saturday, December 31, 2011

New Year: Bachan

नव वर्ष/ हरिवंश राय बच्चन


नव वर्ष

हर्ष नव

जीवन उत्कर्ष नव

नव उमंग

नव तरंग

जीवन का नव प्रसंग

नवल चाह

नवल राह

जीवन का नव प्रवाह

गीत नवल

प्रीति नवल

जीवन की रीति नवल

जीवन की नीति नवल

जीवन की जीत नवल

Thursday, December 29, 2011

Destination: Poetic lines

मंजिल

बेसबब गुजर गया मुकाम से बिना नजर डाले ।
मंजिल पर थी निगाहें सो नजर आया नहीं कोई ।

दिल में रहता था कोई, इसका हमें गुमान था ।
बसाकर किसी दूसरे का घर, उसने अपने अहसास से भी जुदा कर दिया ।

Tuesday, December 27, 2011

Target

खुद के टारगेट और गोल स्पष्ट सोचो फिर उसको पूरा करने में जुट जाओं । टारगेट हाल फिलहाल के लिए और गोल लंबे साल के लिए ।

Sunday, December 18, 2011

Life: Hanuman (जीवन)



जीवन में कुछ बेकार नहीं होता, वह खाद का काम करता है। 
जीवन रूपी पेड़ और बढ़ाने के लिए, जड़ जमाने के लिए । 
अगर समाज यानी आपके साथियों को यह भरोसा हो जाए कि आप सही प्रयासों से सभी के भले के लिए काम कर रहे है तो एक समय बाद सभी आपको चाहे, अनचाहे सहयोग देने लगेंगे। 
सभी व्यक्तियों में कम से कम एक गुण तो काम का होता ही है । 
हम सब आज के दौर में हनुमान की तरह अपनी ताकत को भुलाए बैठे है मैं तो बस जामवंत बनकर सबको उनकी ताकत का अहसास कराता हूं । 
जिस दिन जाग गए उस दिन सीधा समुंदर लांघ जाएंगे । 
फिर सीता को खोजने से कोई रोक नहीं सकता है ।

Monday, December 12, 2011

History to Present: Changing face of Delhi_समय की धारा पर बदलती दिल्ली


देश की आजादी के बाद दिल्ली में बाहर से आने वाले व्यक्तियों को प्रमुख पर्यटक स्थलों पर बिकने वाले पोस्टकार्ड में लालकिला, कुतुब मीनार और राजपथ पर इंडिया गेट राजधानी के जीवंत प्रतीक थे । मानो इनके बिना किसी का दिल्ली दर्शन पूरा नहीं होता था । पर यह दिल्ली की एक अधूरी तस्वीर थी क्योंकि दुनिया में बहुत कम शहर ऐसे हैं जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन अविच्छिन्न अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने का दावा कर सकें । दिल्ली का इतिहास, शहर की तरह की रोचक है । ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली, दमिशक और वाराणसी के साथ आज की दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है । इस शहर के इतिहास का सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के निर्माण किया था। समय का चक्र घुमा और अनेक राजाओं और सम्राटों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया । दिल्ली का सफर लालकोट, किला राय पिथौरा, सिरी, जहांपनाह, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीनपनाह, शाहजहांनाबाद से होकर नई दिल्ली तक जारी है। समय के इस सफर में दिल्ली बदली, बढ़ी और बढ़ती जा रही है और उसका शाही रूतबा आज भी शहर के मिजाज में बरकरार है ।
आज नई दिल्ली की रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन के सामने खड़े होकर बारस्ता इंडिया गेट नजर आने वाला पुराना किला, वर्तमान से स्मृति को जोड़ता है । यहां से शहर देखने से दिमाग में कुछ बिम्ब उभरते हैं जैसे महाकाव्य का शहर, दूसरा सुल्तानों का शहर, तीसरा शाहजहांनाबाद और चौथा नई दिल्ली से आज की दिल्ली । इंद्रप्रस्थ की पहचान टीले पर खड़े 16वीं शताब्दी के किले और दीनपनाह से होती है, जिसे अब पुराना किला के नाम से जाना जाता है । दिल्ली में भूरे रंग से चित्रित मिट्टी के विशिष्ट बर्तनों के प्राचीन अवशेष इस बात का संकेत करती है कि यह करीब एक हजार ईसापूर्व समय का प्राचीन स्थल है । दिल्ली में सन् 1966 में कालका जी मन्दिर के पास स्थित बहाईपुर गाँव में मौर्य सम्राट अशोक महान के चट्टानों पर खुदे लघु शिलालेखों के बारे में आज कम लोग ही जानते हैं ।
दूसरे अदृश्य शहर के अवशेष आज की आधुनिक नई दिल्ली के फास्ट ट्रैक और बीआरटी कारिडोर पर चहुंओर बिखरे हुए मिलते हैं । महरौली, चिराग, हौजखास, अधचिनी, कोटला मुबारकपुर और खिरकी शहर के बीते हुए दौर की निशानी है जो कि 1982 में हुए एशियाई खेलों के दौरान खिलाडि़यों के लिए बनाए एशियाड विलेज, जहां अब दूरदर्शन का कार्यालय और सरकारी बाबूओं के घर हैं, फैशन हाउस, कलादीर्घाओं से लेकर साकेत में एक साथ बने अनेक शापिंग माल की चकाचौध में सिमट से गए हैं । दिल्ली में सन् 1982 में आयोजित किए गए एशियाई खेलों से दिल्ली में बसावट की प्रक्रिया में और तेजी आई । इस दौरान दिल्ली में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य हुआ जिसके चलते इस इलाके में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से मजदूरों, राजमिस्त्रियों, दस्तकारों और दूसरी तरह के कामगारों का व्यापक स्तर पर प्रवेश हुआ । आठवें दशक के उस शुरूआती दौर में दिल्ली जैसे लोगो के लिए अवसरों की नगरी थी ।
हर साल लगने वाले प्रसिद्व हस्तशिल्प सूरजकुंड मेले में जाने वाले अधिकतर पर्यटक इस बात से अनजान है कि 10वीं शताब्दी में एक तोमर वंश के राजा ने अनंगपुर गांव में एक बांध का निर्माण किया था और सूरजकुंड उसी जल प्रणाली का एक भाग है । जबकि तोमर राजपूतों के दौर में ही पहली दिल्ली यानी 12 वीं शताब्दी का लालकोट बना जबकि पृथ्वीराज चौहान ने शहर को किले से आगे बढ़ाया । कुतुब मीनार और महरौली के आसपास आज भी इस किले के अवशेष देखे जा सकते हैं । जबकि कुतबुद्दीन ऐबक ने 12वीं सदी के अंतिम वर्ष में कुतुबमीनार की आधारशिला रखी जो भारत का सबसे ऊंचा बुर्ज (72.5 मीटर) है । अलाउद्दीन खिलजी के सीरी शहर के भग्न अवशेष हौजखास के इलाके में आज भी देखे जा सकते हैं जबकि गयासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के तीसरे किले बंद नगर तुगलकाबाद का निर्माण किया जो कि एक महानगर के बजाय एक गढ़ के रूप में बनाया गया था । फिरोजशाह टोपरा और मेरठ से अशोक के दो उत्कीर्ण किए गए स्तम्भ दिल्ली ले आया और उसमें से एक को अपनी राजधानी और दूसरे को रिज में लगवाया । आज तुगलकाबाद किले की जद में ही शहर का सबसे बड़ा शूटिंग रेंज है, जहां एशियाई खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों की तीरदांजी और निशानेबाजी प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन हुआ । आज यहां इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय से लेकर सार्क विश्वविद्यालय तक है ।
सैययदों और लोदी राजवंशों ने करीब सन् 1433 से करीब एक शताब्दी तक दिल्ली पर राज किया। उन्होंने कोई नया शहर तो नहीं बसाया पर फिर भी उनके समय में बने अनेक मकबरों और मस्जिदों से मौजूदा शहरी परिदृश्य को बदल दिया । आज की दिल्ली के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर, जहां कि आज कुकुरमुत्ते की तरह असंख्य फार्म हाउस उग आए हैं, तक लोदी वंश की इमारते इस बात की गवाह है । आज के प्रसिद्व लोदी गार्डन में सैययद लोदी कालीन इमारतें को बाग के रखवाली के साथ सहेजा गया है । आज दिल्ली में बौद्विक बहसों के बड़े केंद्र जैसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर और इंडिया इस्लामिक सेंटर लोदी गार्डन की परिधि में ही है । सन् 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर भारत से बेदखल कर दिया । शेरशाह ने एक और दिल्ली की स्थापना की । यह शहर शेरगढ़ के नाम से जाना गया, जिसे दीनपनाह के खंडहरों पर बनाया गया था । आज दिल्ली के चिडि़याघर के नजदीक स्थित पुराना किला में शेरगढ़ के अवशेष देखें जा सकते हैं ।
हुमायूं के दोबारा सत्ता पर काबिज होने के बाद उसने निर्माण कार्य पूरा करवाया और शेरगढ़ से शासन किया । हुमायूं के दीनापनाह, दिल्ली का छठा शहर, से लेकर शाहजहां तक तीन शताब्दी के कालखंड में मुगलों ने पूरी दिल्ली की इमारतों को भू परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया । बाबर, हुमायूं और अकबर के मुगलिया दौर में निजामुद्दीन क्षेत्र में सर्वाधिक निर्माण कार्य हुआ जहां अनेक सराय, मकबरे वाले बाग और मस्जिदें बनाई गईं । हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और दीनापनाह के किले पुराना किले के करीब मुगल सम्राट हुमायूं  के मकबरे, फारसी वास्तुकला से प्रेरित मुगल शैली का पहला उदाहरण, के अलावा नीला गुम्बद के मकबरे, सब बुर्ज, चौसठ खम्बा, सुन्दरवाला परिसर, बताशेवाला परिसर, अफसारवाला परिसर, खान ए खाना और कई इमारतें बुलंद की गईं । एक तरह से यह इलाका शाहजहांनाबाद से पूर्व मुगल दौर की दिल्ली था ।
शाहजहां सन् 1638 में आगरा से राजधानी को हटाकर दिल्ली ले आया और दिल्ली के सातवें नगर शाहजहांनाबाद की आधारशिला रखी । इसका प्रसिद्व दुर्ग लालकिला यमुना नदी के दाहिने किनारे पर शहर के पूर्वी छोर पर स्थित है सन् 1639 में बनना शुरू हुआ और नौ साल बाद पूरा हुआ । इसी लालकिले की प्राचीर से आजादी मिलने के बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपना भाषण दिया था । सन् 1650 में शाहजहां ने अपनी विशाल जामे मस्जिद का निर्माण पूरा करवाया जो कि भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है ।
जब अंग्रेजों ने 1857 के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो इमारतों को नेस्तानाबूद कर दिया और उनकी जगह सैनिक बैरकें बना दी । इसी तरह, जामा मस्जिद और शाहजहांनाबाद के दूसरे हिस्सों को भी समतल कर दिया गया । इस तरह न केवल सैकड़ों रिहाइशी हवेलियों बल्कि शाहजहां की दौर की अकबराबादी मस्जिद भी को जमींदोज कर दिया गया । शहर में रेलवे लाइन के आगमन के साथ जहांआरा बेगम द्वारा चांदनी चैक के निर्मित बागों में भी इमारतें खड़ी कर दी गई और इस तरह शाहजहांनाबाद का स्थापत्य और शहरी स्वरूप हमेशा के लिए बदल गया ।
मीर की प्रसिद्व आत्मकथा "दिल्ली-जिक्र ए मीर" , उनके अपने उजड़ने और बसने से ज्यादा दिल्ली के बार बार उजड़ने और बसने की कथा है। बीसवीं शताब्दी के अंत में भारत की अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली के वजूद को राजधानी के तौर पर दोबारा कायम करने का फैसला लिया और इसलिए शाहजहांनाबाद और रिज के साथ उत्तरी छोर तक के कश्मीरी गेट इलाके में अस्थायी राजधानी बनाई गई । वाइसराय लाज, जहां अब दिल्ली विश्वविद्यालय है, के साथ अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, स्मारक, अदालत और पुलिस मुख्यालय बनाए गए । एक तरह से, अंग्रेजों की सिविल लाइंस को मौजूदा दिल्ली के भीतर आठवां शहर कहा जा सकता है।
सन् 1911 में, सबसे पहले अंग्रेजों ने राजधानी के लिए दिल्ली के उत्तरी छोर का चयन किया था, जहां पर दूसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया, जिसे बाद में शाहजहांनाबाद के दक्षिण में रायसीना पहाड़ी पर नई दिल्ली बनाने के निर्णय के कारण छोड़ दिया गया । एडवर्ड लुटियंस के दिशानिर्देश में बीस के दशक में नियोजित और निर्मित दिल्ली की शाही सरकारी इमारतों, चौड़े-चौड़े रास्तों और आलीशान बंगलों को एक स्मारक की महत्वाकांक्षा के साथ बनाया गया था।
अंग्रेज पहले दिन से ही इस शहर को एक आधुनिक शाही शहर वायसराय के तबोताब और ताकत की निशानी की हैसियत में ढ़ालने को बेताब थे । सन् 1947 में मिली आजादी के साथ हुए देश विभाजन के समय राजधानी होने के कारण दिल्ली में बेहतर ढांचागत सुविधाएं और अवसर थे । इस वजह से अपने ही देश में शरणार्थी बने नागरिकों ने भारी तादाद में दिल्ली में ही डेरा जमाया । सन् 1955 तक आते आते पुराना किले के इर्दगिर्द की जगह भरने लगी थी ।
पुराना किले के ठीक उत्तर में भारतीय उद्योग मेले के लिए मैदान खाली कर दिया गया । यह मेला 29 अक्तूबर 1955 से शुरू हुआ और नौ सप्ताह तक चलता रहा । 1 जनवरी 1956 को नेहरू ने लिखा, "उद्योग मेले की कामयाबी इतनी जबदस्त रही कि मेरे ख्याल में अगर आप नुमाइशों के लिए स्थायी इंतजाम कर लें तो बेहतर रहेगा कहने का मतलब कि जहां यह नुमाइश लगाई गई है उस स्थान को स्थायी रूप से इसी काम के लिए आरक्षित कर दिया जाए।" और इस तरह उस कहानी की शुरूआत हुई जिसे 1972 के बाद प्रगति मैदान के नाम से जाना गया । पहले दिल्ली में एक मुख्य आयुक्त होता था जो कि पूरे प्रांत का कामकाज देखता था आजादी के बाद दिल्ली को भाग सी के तहत दर्जा देते हुए एक पृथक विधानसभा दी गई । सन् 1956 में राज्य पुर्नगठन आयोग की सिफारिशों के परिणमस्वरूप दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश बन गई ।
आज प्रमुख पर्यटक स्थलों पर बिकने वाले पोस्टकार्ड में तस्वीरें बदल चुकी है। अब लालकिला, कुतुब मीनार और इंडिया गेट की जगह मेट्रो रेल, अक्षरधाम मंदिर और बहाई मंदिर ने ले ली है । सन् 2002 में दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन की शाहदरा और तीस हजारी के बीच पहली बार चली मेट्रो रेल ने राजधानी के सार्वजनिक परिवहन की सूरत और सीरत दोनों बदल दी है। दिल्ली परिवहन निगम की बसों से पहले राजधानी में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के नाम पर ग्वालियर के सिंधियाओं की कंपनी जीएनआईटी ग्वालियर ऐंड नार्थ इंडिया टांसपोर्ट कंपनी की प्राइवेट बसें थी ।
आज मेट्रो का यह नेटवर्क बढ़कर 139 स्टेशनों के 190 किलोमीटर तक फैल चुका है, जहां 200 से अधिक ट्रेनें प्रतिदिन करीब 18 लाख यात्रियों को सुबह छह बजे से रात के ग्यारह बजे तक अपनी मंजिलों पर पहुंचाती है । आज दिल्ली मेट्रो राजधानी की सीमा से बाहर निकलकर नोएडा, गुड़गांव और गाजियाबाद तक पहुंच चुकी । एक तरह से मेट्रो ने करीब एक शताब्दी से उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और पुराने शहर में बंटी दिल्ली को एक सूत्र में पिरो दिया है । 
प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के ब्रिटिश संस्करण में (जुलाई 2011) नई दिल्ली स्थित स्वामीनारायण अक्षरधाम को 21 वीं सदी के सात आश्चर्यों में से एक के रूप में चयनित किया । केवल पांच साल में बनकर तैयार हुए और 100 एकड़ में फैले स्वामीनारायण अक्षरधाम परिसर का शुभारंभ नवंबर 2005 को हुआ। इसका मुख्य मंदिर मुख्य रूप से राजस्थान के गुलाबी बलुआ पत्थर से बनाया गया है और इसकी संरचना में लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है । 141 फीट ऊंचे, 316 फुट चौड़े और 356 फुट लंबे इस मंदिर में प्रस्तर की अद्भुत हस्तकला दर्शनीय है । अब तक 25 लाख से अधिक आगंतुक इस लुभावनी कला और स्थापत्य कला के प्रतीक से अभिभूत होने के साथ समाज में शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने वाले एक मूल्य आधारित जीवन के वैश्विक संदेश का प्रचार से प्रेरित है ।
रीडर्स डाइजेस्ट के शब्दों में, ताजमहल निर्विवाद रूप से भारत की वास्तुकला का प्रतीक था पर अब इस मुकाबले में अक्षरधाम मंदिर एक नया प्रतिद्वंदी है। जबकि बहाई मंदिर भारतीय धार्मिक सहिष्णुता का एक और प्रतीक है । मजेदार बात यह है कि सन् 1844 में अपने उद्भव के साथ ही बहाई धर्म भारत से जुड़ा हुआ है । अनेकता में एकता का प्रचार करने वाले बहाउल्लाह इस धर्म में दीक्षित होने वाले सबसे पहले 18 व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भारतीय था। सन् 1986 में दिल्ली में बने बहाई मंदिर (लोटस टेम्पल) में प्रतिदिन औसतन दस हजार पर्यटक आते हैं । आज बहाउल्लाह के नैतिक संदेश को देश में एक हजार से अधिक स्थानों पर बच्चों की कक्षाओं के माध्यम से फैलाया जा रहा है।
मिर्जा गालिब की जुबान में कहे तो दिल्ली की हस्ती मुनहसर कई हंगामों पर थी ।
किला, चांदनी चौक, हर रोजा बाजार मस्जिद ए जामा का, हर हफते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का।
ये पांचों बातें अब नहीं फिर कहो, दिल्ली कहां।
Source: Purana Qila (Old Fort), Delhi Flickr Prato9x's photostream

Friday, December 9, 2011

Delhi:Trend

दिल्ली में यूज होने और यूज करने की रवायत है, आपको सिर्फ इतना भर तय करना है कि किसे यूज करेंगे और किसके लिए यूज होंगे ।

Thursday, December 1, 2011

Lines

बिकते रहे फुटपाथों पर पुरानी किताबों की तरह ।

खंजर से तो कत्ल होते कईयों ने देखाए बात से मरते हुए किसी ने गौर नहीं किया ।

हम भी आजमाते है, अपने आप को, कुछ उनको और कुछ अपने समय को जो घिसता सबको चाक पर कुम्हार की तरह ।

Books:Reading


किताब का पढ़ना तो दो चार दिन में ही हो जाता है। फिर उसे समझने के लिए ज्यादा समय लगता है। यह दूध उबाल कर,उसका दही जमाने से लेकर घी निकालने के समान है ।

क्या क़यामत है कि जिनके नाम पर पसपा[2] हुए
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़आरा[3] देखना

शब्दार्थ:2. ↑ पराजित 3. ↑ युद्ध मे...

Friday, November 11, 2011

Expectation


कसौटी

उम्मीद पर खरा उतरना ही सबसे बड़ी कसौटी है वरना सब उतरन ही है ।

Thursday, November 10, 2011

closed way (बंद रास्ता)



भगवान कोई रास्ता इसलिए बंद करता है कि आप नए चार रास्तों पर बढ़ो। 
जो चुक गया, उसके साथ चुकना, बंदरिया की तरह अपने मरे हुए बच्चे को छाती से चिपकाने सरीखा है ।


Tuesday, November 8, 2011

Life beyond horizon

जीवन का दायरा
जीवन में दायरे से बाहर जाकर झांकना चाहिए, लीक से हटकर सोचना और करना जरूरी है। नहीं तो आप अपने ही नाते रिश्तेदार और कथित मित्रों से उलझ कर रह जाते है। ये मित्र साथी कम और मुकाबले में चुनौती देने वाले साबित होते है।

Maternal rememberence


ननिहाल की याद
जब मौका मिले, झांक लेता हूं । जैसे ननिहाल में हम सब बच्चे फेरीवाले के फेर में रहते थे और मौका मिलते ही खिड़की में से उचक कर देख लेते थे मानो कुछ हुआ ही न हो । मौका मिलने पर फाटक वाला दरवाजा खोल कर दबे पांव चप्पल उतारकर नंगे पांव गर्म रेत पर दौड़ जाते थे, ठंडी कुल्फी की आस में । कितनी अलग दुनिया थी अब न नानी है, न ननिहाल और न ही नौनिहाल तथा न ही जौ, बाजरा और गेहूं कि एवज में कुल्फी देने वाला कुल्फीवाला ।

Sunday, November 6, 2011

latest lines


समय का चक्का सब को घिस देता है, सड़क को भी, पहिए को भी और उस पर चलने वाले को भी ।

मतलब आप चाहते कुछ और है और होता कुछ और है । जरूर भगवान आपको अपने सपनों को पूरा करने की ताकत दें ।

सच कहना और संग रहना नर्तक की तरह बांस पकड़कर रस्सी पर चलने सरीखा है।

today's politics makes divisions but not create vision. so before politics we have to develop a vision to see across the wall means future of our coming generation. It lies only in Education and particular girls education. We should make education as a torch for our upliftment instead of spending our energy on so called politics.

Sunday, October 16, 2011

चार कौए उर्फ चार हौए / भवानीप्रसाद मिश्र


बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।

lines

शब्द केवल कहे हुए को न हीं, किए हुए को भी चरितार्थ करते हैं यही होती है शब्द की प्राण प्रतिष्ठा ।
पुरानी शराब को पीने जैसा ही है, पुरानी पुस्तक को खोज कर अपने संग्रह में जोड़ना................

कठपुतली / भवानी प्रसाद मिश्र


कठपुतली

गुस्‍से से उबली

बोली- यह धागे

क्‍यों हैं मेरे पीछे-आगे?

इन्‍हें तोड़ दो;

मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो।

सुनकर बोलीं और-और

कठपुतलियाँ

कि हाँ,

बहुत दिन हुए

हमें अपने मन के छंद छुए।

मगर...

पहली कठपुतली सोचने लगी-

यह कैसी इच्‍छा

मेरे मन में जगी?

Poem-Bhavani prasad mishra

जाहिल के बाने / भवानीप्रसाद मिश्र

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूँ

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाये हूँ याने !

Sunday, October 9, 2011

साथ और साझा

बोझ को बोझ मत मानो, दर्द को कमतर जानो तो जिन्दगी का सफर आराम से कट जाएगा, राह आसान हो जाएगी। इसलिए जब कोई बात मन में घर जाती है तो उसे कागज की बजाय अब कंप्यूटर पर उतार देता हूं ।

साहित्य साथ होने और साझा करने का ही दूसरा नाम है । पढ़ना,लिखने को संभव करता है जैसे बात करना मन को हल्का करता है ।

अच्छा है जो भी लिखो जमा करो फिर जमा चाहे इस्तेमाल करो या नहीं तुम्हारी मर्जी । गुल्लक में कोशिश करके रोज कुछ शब्द जमा कर लेने चाहिए । फिर गुल्लक एक दुनिया रच ही देती है ।

कांटे से कील

बात मन में थी सो कह दी नहीं तो कांटे से कील बन जाती । सो उम्र भर दुख देती । भूल मान लेना मन में कांटे को कील न होने देना है । हम अपने दिल के गुब्बारे में कई कीलें जानभूझकर लगाते जाते हैं और फिर चाहते हैं कि दिल घायल न हो ।

Sunday, August 14, 2011

Delhi's undiscovered dimension - history

From the back of a honking autorickshaw on Press Enclave Road, Delhi feels nothing like Rome.
Rebecca Dalzell
Friday, February 25, 2011, The Washington Post

The rutted thoroughfare passes construction sites and the shiny Select City Mall and is jammed with cars, rusty bicycles hauling bananas and sari-clad women dashing from one side to the other. But if you get out across the street from the mall and walk up a short path through a cluster of trees, you'll discover a building as monumental as any on the Palatine Hill: the 14th-century Khirki Mosque.

Though it's the size of a city block, the mosque, hidden behind tall apartment buildings, is invisible from the surrounding streets. No signs point the way to it. Walking through the dusty, labyrinthine alleys of Malviya Nagar, in South Delhi, in search of it, you can easily take a few wrong turns before coming upon it suddenly around a corner. With three-story sandstone walls, tapering turrets and latticed windows, it towers like a fortress. A chain-link fence encircles the site, the long grass around it strewn with trash tossed from the garish pink and yellow balconies above.

It's not particularly welcoming. When I walked through the deserted site last fall, trailed by a stray dog, it reeked of urine. Climbing up the crumbling staircase and standing in the shadowed doorway, I heard voices at the other end, a group of young men hanging out in the opposite entrance. Alarm bells went off in my head; in most other places I would have retreated.

But heritage tourism in Delhi comes with a bit of adventure, which heightens the sense of discovery. Inside, long rows of pointed arches stretched before me into darkness, and four open courtyards splashed light on the stone floor. The thick square pillars are gray and unembellished, focusing the eye on the mosque's perfect symmetry and form. As in a Norman church, this purity and simplicity feels mystical, as if calls to prayer might echo still.

Built in the 1370s by sultan Firoz Shah Tughlaq, one of the great builders of Delhi, Khirki is an early example of a semi-covered mosque; most in India are open. It stood in Jahanpanah, a walled city 40 miles around with half a million people. With his productive public works department, Firoz Shah built mosques as neighborhoods needed them; Khirki clearly served a large community.

A staircase near the eastern entrance leads to the roof, which is covered with dozens of bubblelike domes, some fallen, and round towers at each of the four corners. It overlooks modern eyesores: electrical wires, clotheslines and the mall beyond the treetops. It all seems ephemeral beside the mosque.

Ruins, ruins everywhere
Delhi is filled with more than 1,200 such monuments, dating back 1,000 years. They're as ubiquitous as ruins in Rome, with Mughal tombs in neighborhood parks, half-fallen walls by the sides of roads and blackened battlements in residential enclaves. Yet protecting them has been a struggle, especially given India's rapid development. Delhi's population is growing at 4 percent each year, which will make it the world's fifth-largest city in 2015, with more than 20 million people. In the race to house them all, preservation has not been a priority.
Critics complain that the government often looks the other way when heritage sites are threatened. Urbanization has destroyed theoretically protected monuments. The Archaeological Survey of India, a government agency that monitors 3,600 sites nationwide including 174 in Delhi, has neither the funds nor the manpower to police them all. Under 1992 regulations, new construction is barred within about 100 yards of historically significant buildings, yet some of the apartment blocks near Khirki Mosque have gone up since then. Hundreds of monuments have been legally protected only since 2009.

"The protection we have is empty," says Nalini Thakur, a leading conservationist and a professor at Delhi's School of Planning and Architecture. "Delhi is under tremendous pressure of development, and it is killing our heritage."

What Delhi needs, conservationists such as Thakur say, is to become a UNESCO World Heritage city. It is their longtime goal to join the likes of Edinburgh and St. Petersburg in winning that designation, and they hope to apply for recognition this year. History would then be central to Delhi's identity.

But sites such as Khirki Mosque suggest the city's shortcomings as much as its wealth. There are rarely informational signs outside sites - you have to guess at their names or whether you've even found the right place - nor is there security or good maintenance. UNESCO requires that World Heritage cities have effective management and legal protection for its sites, and until recently, Delhi has fallen short.

It also lacks the tourist infrastructure that is a matter of course in most historic cities: information booths, maps and interpretive signs. Apart from its three World Heritage sites - the Red Fort, Humayun's Tomb and the Qutb Minar complex - and major attractions such as the Lodi Gardens, Delhi doesn't publicize its monuments or make them easy for tourists to access.

That may be slowly starting to change. Spurred by last fall's Commonwealth Games, the city launched its first hop-on, hop-off bus (www.hohodelhi.com) - to mixed reviews - and the tourist board has teamed with the Indian National Trust for Art and Cultural Heritage (INTACH) to provide informational booklets on board. INTACH also restored and lit 17 monuments near the Games sites so that they stand out at night.

These are early steps in INTACH's Delhi Heritage Route project, which would link monuments around the city with landscaping and guides, as on Boston's Freedom Trail. Supported by the World Monuments Fund, INTACH hopes that the heritage routes would make historic sites focal points for neighborhoods and give locals a sense of ownership.

"We need to project heritage," says A.G. Krishna Menon, head of INTACH's Delhi chapter. "In any other city, a place like Khirki Mosque would be a star attraction. But we have to make these sites accessible to both tourists and citizens, so they become part of the city's image."

Treasure hunt
For now, the curious are basically on their own. Though it's challenging, seeking out Delhi's lesser-known monuments is hugely rewarding and can overturn grating first impressions of the city. I arrived loath to spend an entire week there, but after finding sites recommended by conservationists, I left wishing that I had more time to explore. With a detailed Eicher city map, available in most bookstores, and a patient driver, I approached Delhi like a treasure hunt.

As at Khirki Mosque, the startling juxtaposition of old and new is everywhere. As much as purists may bemoan concrete encroachments, historic sites woven into the fabric of the modern city feel especially powerful, like humbling whispers from the past.

When the British began building New Delhi in 1911, they wiped away nearly everything that stood on the site of their modern new city. Architect Edwin Lutyens designed a gleaming city of tree-lined boulevards and perfect order, spiraling out from India Gate, the memorial to British soldiers at the heart of his plan. Now home to luxury hotels and embassies, New Delhi seems to possess nothing hinting at what came before, and little is known about the villages that did.

You would hardly expect to glimpse the area's past life at a stepwell on residential Hailey Road, two blocks from Connaught Place, New Delhi's commercial center. The stone wall on the street is easy to pass by. But then you turn into a metal gate, walk through an archway and gasp: Before you, 100 steps tumble three stories down, bounded by thick walls with pointed niches and arcades. Though mere municipal infrastructure, the 15th-century Agrasen ki Baoli is classically grand and looks far sturdier than the office blocks behind it.

Simply built by carving into the earth to reach underground water channels, stepwells can be found around Delhi but are rarely this large. There must have been a village nearby, and people would have come here not just for water but also to sit out the heat. It may also have been used for religious rituals, which perhaps explains why the British left it alone. The well's modest purpose gave me a rare sense of everyday life 500 years ago, a connection hard to feel at royal palaces like the Red Fort.

A jewel box
Though Agrasen ki Baoli and Khirki Mosque sit amid apartment buildings, neither is the sort of neighborhood focal point that INTACH hopes the Delhi Heritage Route would create. The Hauz Khas madrasa is. At the edge of chic Hauz Khas village in South Delhi, this elegant, two-story Islamic seminary overlooks a reservoir and treetops, and was built in 1354 by Firoz Shah, who is buried in an ornate tomb here.

In the Tughlaq era (1321-1398), students from around Central Asia came to the madrasa to learn about Muslim jurisprudence, astronomy and medicine. Contemporaries praised the beauty of its long, pillared halls, carved balconies and fragrant courtyard. It is still a peaceful, contemplative spot, only now the young men sitting in the archways bring guitars and girlfriends here for the romantic view. In the United States, these precipitous perches would be fenced off, made safe and austere. Kept open, the madrasa is part of the local back yard.

On my final afternoon, I went to Mehrauli Archaeological Park, behind Qutb Minar. The park's more than 300 ruins date from the 11th-century city of Lal Kot to the 19th-century Mughals. At the highest point in South Delhi, they cluster around a ridge that drains the monsoon rains, which made it a healthy place to settle. This fascinating jumble includes a 12th-century water tank and brilliant blue tiles in Quli Khan's tomb, where East India Company agent Sir Thomas Metcalfe bizarrely set up a country residence in the 1840s. His landscaping remains in the surrounding area, with small pavilions, or "follies," on hilltops.

Though you could pass days here, I had just an hour; it was hard to know where to start. Inside the main gate, I turned right up a bumpy dirt road and stopped at the 1528 Jamali Kamali mosque and tomb. As I peered through the locked gate, a caretaker appeared and motioned me inside. Leaning on a walking stick, he led me up to the sandstone prayer hall, with its five large arches and niches decorated with Koranic inscriptions. Up to 800 people would have come here on Fridays, a crowd hard to imagine in the park's pastoral calm today.

The caretaker walked across a courtyard to the simple square tomb, and we took off our shoes and stepped inside. Bright reds and blues popped before my eyes: The plaster ceiling is intricately carved and painted, arabesque shapes fanning out as in a kaleidoscope. Nearly every curve in the pointed arches is covered with blue stars or circles. In the middle of the small chamber lie two graves, one unknown and the other belonging to the Sufi saint and poet Jamali, whose verses are inscribed on the wall.

When we left and closed the door, it was like clicking shut the lid of a music box. Inside, vibrant colors swirled around us; outside was drab stone. Finding the tomb made the city feel magical. Its magnificence, like Delhi's, was utterly unexpected.

Dalzell is a writer and urban historian living in New York.

Thursday, August 4, 2011

Diary: Ramesh chandra shah

 

इस खिड़की से: रमेशचन्द्र शाह, प्रकाशक: किताबघर

रमेशचन्द्र शाह ने अपनी डायरी के इस दूसरे खंड में 1986-2004 तक के कालखंड की महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक सरोकारों के साथ अपने नजरिए को दर्ज किया है। इस डायरी में 70 और 80 के दशक की छूटी हुई सामग्री भी शामिल है। डायरी नितांत अपनी निजी अनुभूतियों को अंकित रकने के लिए ही लिखी जानी चाहिए का मूलमंत्र में विश्वास रखने वाले शाह ने अपनी पहली डायरी अकेला मेला  में 1981-85 के दौर की राम कहानी दर्ज की । 

खुद लेखक के शब्दों में डायरी लेखन अपने आप को दूर से देख सकना मानो वह कोई दूसरा हो। शाह के इंद्रधनुषी संसार में कबीर, निराला, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, निर्मल वर्मा से लेकर काफका, इलियट, रूडोल्फ, राबर्ट फ्रास्ट, हैरल्ड रोजेबर्ग की झलकी मिलती है। गागर में सागर की तरह कविता, चित्रकला, यात्रा वृंत्तात से लेकर आलोचना तक एक स्थान पर उपलब्ध है।

लेखक ने दुनिया में सभ्यता के नाम पर हो रहे संघर्ष से लेकर भारतीय समाज से कटे देसी बौद्धिक वर्ग और शैक्षिक दुनिया के सच से लेकर भाषाई गुलामी को अपनी कसौटी पर पूरी तरह कसा है । मुद्दे की बात यह है कि हाल में अपनी मौत के बाद भी लगातार मीडिया में सुर्खियां बना हुआ ओसामा बिन लादेन भी लेखक की दृष्टि से बचा नहीं है । 

जबकि आज भी हिंदी का बौद्धिक समाज इसे असहज विषय मानकर कुछ बोलने लिखने से बचाव की भूमिका में ही है । जबकि शाह इस पर मौंजू टिप्पणी दर्ज करते हुए लिखते हैं कि तीन सौ करोड़ से अधिक डालरों की संपत्ति का मालिक बिन लादेन टाइम्स  पत्रिका को इंटरव्यूह देते हुए एक ऐसी बात कहता है जो रोंगटे खड़े कर देने वाली है । यह कि "हमारे महजब में उन व्यक्तियों के लिए खास महत्व की जगह सुरक्षित है परलोक में, जो जिहाद में हिस्सा लेते है । मेरे लिए अफगानिस्तान की इस गुफा में बिताया गया एक दिन भी मस्जिद में इबादत के सौ दिनों के समतुल्य है।" 23 सितंबर 2001 को हैरल्ड टिब्यून  की खबर पर लेखक टिप्पणी दर्ज करता है कि "सवाल उठता है सहज ही, तब फिर ओसामा को अपने इस धर्म की प्रेरणा कैसे और कहां से मिली और उसे लगातार इतनी बड़ी संख्या में आत्मघात के लिए तत्पर मुजाहिदीन भी कहां से और कैसे उपलब्ध हो जाते रहे सवाल निश्चय ही बहुत टेढ़ा और असुविधाजनक है।"

लेखक की डायरी में ऐसे अनेक मुश्किल और ज्वलंत विषय दर्ज है, जिनसे सीधे जूझने की बजाय हिंदी का बुद्धिजीवी वर्ग बगल से गुजरने में ही वीरता समझता है । सरकारी सुख सुविधाओं और प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए शतरमुर्गी रवैए को अपनाने वाले तथा भगवा, लाल और हरे रंग की रंतौधी के शिकार बुद्धिजीवी तबके की स्थिति पर रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों से सटीक कुछ नहीं कि "खंडन लोग चाहते है याकि मंडन या फिर अनुवाद का लिसलिसाता भक्ति से, स्वाधीन इस देश में, चौंकते हैं लोग एक स्वाधीन व्यक्ति से।" 

सन् 1941 में उपन्यासकार ई एम फास्टर की "भारतीय बुद्धिजीवी सिवा राजनीति के और कोई बात ही नहीं करते" की टिप्पणी के जरिए आत्मकेंद्रित बौद्धिक समाज के दोगलेपन को उजागर करते हुए लेखक कहता है कि देश की, समाज की वास्तविक समस्याएं कभी भी इन बुद्धिजीवियों की नींद हराम नहीं करती । शिक्षा के अभाव में नब्बे प्रतिशत लोगों के रचनात्मक कार्यों में भागीदारी नहीं है-यह उनकी चिंता का विषय कभी नहीं रहा। न शिक्षा नीतियों का दिशाविहीन खोखलापन ही। मगर यूजीसी स्केल लागू करने के मुद्दे को लेकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे विश्वविद्यालय और कालेज महीने भर तक ठप्प करके सीपीआई और सीपीएम की अगुवाई में संघर्षरत शिक्षकों ने अपनी अभूतपूर्व और अभूतपश्चात एकता का रिकार्ड कायम कर दिया।

फिर डायरी में एक मौंजू सवाल दर्ज होता है कि अंग्रेजी के बिना दस मिनट तक भी अपनी बौद्धिक बहस चला पाने में अक्षम इन बुद्धिजीवियों से भला अब कौन पूछने वाला है कि हिंदुस्तान की महान् भाषाओं की बेकद्री करने वाला कौन है । इसी के मारे लेखक देश के सामूहिक औसत चरित्र की निंदा और कामचोरी की मुखर आलोचना करने वाले नायपाल को सरकारी पट्टे पर अपनी राजनीति चलाने वाले और समाज को उसकी असली आत्मा होने का विश्वास दिलाने की चाहत रखने वाले सहमत छाप बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा भरोसेमंद और प्रामाणिक मानता है ।

"मैं कह चुका हूँ कि मुझे अपनी परंपरा और पूर्वजों पर गर्व है कि जिन्होंने बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत को विश्व में अग्रणी बनाया । मैं आपसे पूछता हूँ -भारत के इस अतीत के बारे में आप कैसा महसूस करते हैं, क्या आप खुद को उसका सहभागी-उत्तराधिकारी महसूस करते हैं और इसलिए, क्या आप उस सपंदा पर सचमुच गर्व करते हैं जो आपकी भी उतनी ही है, जितनी मेरी या कि आप उसे पराई वस्तु मानते हैं-और अपने को उसके सामने परदेसी-अजनबी महसूस करते हैं ।"

सन् 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पंडित जवाहरलाल नेहरू के दीक्षांत भाषण के उपरोक्त अंश की टीप के साथ लेखक आज की राजनीति और शिक्षा जगत में पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी दूरदर्शिता और साफगोई की कमी को रेखांकित किया है ।

उसे लगता है पोलिटिकल करेक्टनेस के मारे इस देश में आज सच बोलना ही मुहाल हो गया है ।

( कादम्बिनी, अंक जुलाई 2011 में प्रकाशित )


Saturday, July 30, 2011

media ki kahani (मीडिया की कहानी)



सत्ता के नंगेपन ने सचिन को दोराहे पर ला दिया था। यूज करने और यूज होने का विकल्प था तो दूसरी ओर अकेले जूझने का। काला,सफेद रंग चौसर में होता है राजनीति के ग्रे रंग ने उसकी जिंदगी बदरंग कर दी थी। सत्ता के गुबंद में कई राज ममी बन चुके थे,कुछ पैसे की धार और सलवार की कतार में थे। सत्ता की रखवाली कोई ठकुरेती नहीं समय की मार थी।शेर,सियारों का कैदी था तो गीदड़ भगवान महान से माहौल गुंजाएं हुए थे। समय,सीखने से ज्यादा भुलाने का था।
राहुल दिल्ली के आइआइएमसी में पढ़ाई के बीच में ही मुंबई एक चैनल में ब्रेक मिलने की वजह से यमुना की बजाया समुंदर किनारे पहुंच गया । करीब साल भर चैनल में रात की शिफ्ट में काम करने के बाद उसका खुद के बारे में मानना था कि वह पहले से ज्यादा काला हो गया था । पर यह चमड़ी से ज्यादा मन का मैल था जो कि चैनल में रात की शिफ्ट की देन चैनल था।

उसकी यूनिट से लेकर कैन्टीन का किशोर तक दोनों के दिल में उठ रही प्यार की लहरों के शोर से वाकिफ थे । उनके कदमों की आहट से संगी साथी उनके मिलने का अंदाजा लगा लेते थे तो लंबे समय तक न दिखने पर अक्सर कैन्टीन में मिलने वाली लखनऊ की सपना उसे नजमा के रात की शिफ्ट में न होने की बात बता देती थी।  

मजेदार बात यह थी कि यह ब्रेकिंग स्टोरी लाने वाली नजमा दीन के नाम हरदम दान करती थी । सिनेमा की बेपर्दा हकीकत को पूरे से बयान करने वाली पटना के नामचीन डॉक्टर की यह खुद्दार लड़की अपने निकाह के इकरारनामे को ठुकराते हुए ठाकरे की मुबंई में आबाद थी । इस ब्रेकिंग स्टोरी पर काम करते हुए दोनों की मुलाकात की बात चैनल में आम हो गई थी ।

उसने गोरे, सुदंर स्क्रीन पर चमकने वाले चेहरों को एडिट रूम में चैनल हैड के साथ अंधेरे में जाते देखा, टीआरपी की दौड़ में अंधे आउटपुट इंचार्ज को मुंबादेवी के बाबाजी और कामतीपुरा की बाईजी के आगे झुकते देखा तो सेकुलरवाद की वजह से मुंबई के गली चौराहों पर फल बेचने के धंधे पर बांग्लादेशियों के कब्जे की स्टोरी को ड्रॉप होते हुए देखा था ।

kahani 2

उसने कितनी बार बस स्टॉप पर इंतजार में बसों को छोड़ा था, ऑफिस से उसके साथ निकलने के फेर में रहा था। पर साथ चलने के बावजूद वह जिंदगी में नहीं आई। हिस्से आया तो सिर्फ इंतजार। आज उसी स्टॉप पर बीते पल ताजा हो गए क्योंकि दर्द तो दिल के कोने में सीता की तरह समा गया था। मिलने, ‌बिछड़ने की कश्मकश से जिंदगी कहां रूकती है । झूठ के पांव नहीं होते और सच का गांव नहीं होता । सो, बस आई तो वह उसमें चढ़ गया और मन स्टॉप पर ही रह गया ।

pasandida line

कभी किसी का साथ

ऐसा मत छोड़ना दोस्त

जिंदगी बहुत लंबी है

फिर आमने सामने ला खड़ा करती है

पहला

पहला जन्म,

पहला स्पर्श

पहला नाद,

पहला पग,

पहला डग,

पहला पाठ,

पहला गुरू

पहला भाव,

पहला अभाव

पहला कुभाव,

पहला प्रभाव

पहला पराभव

पहला स्वीकार,

पहला अस्वीकार

Saturday, July 16, 2011

bombay bomb blast




अब तो जटा खोल, गंगा को बहने दो
हो चुका बहुत, अब शिव का तांडव होने दो
कितना संभालोगे, इन मर चुके पुतलों को
खुली आंखों से, सोने वालो को सोने दो

पार से आए, बन बैठे पहरूओं का ज्यादा भरोसा ठीक नहीं
डालर के लारे, कहां गिरेंगे पता नहीं
दिल्ली से वाशिंगटन क्या लाहौर भी दूर नहीं
रण है, रणभेरी है, रणछोड़दास है

ऐसे मन के कालों से धरती भारी, आकाश उदास है
चारों ओर पसरा शल्य भाव, जता रहा अभाव है
ऐसी क्या मजबूरी है, मरना जनता का जरूरी है
मेरी जुबानी हो या तेरे जुबानी, अब बहस बेमानी है

देश के शरीर पर उग आई है फुन्सियां, उनका ईलाज अब जरूरी है
चीरा लगाएं या गरम चिमटा चिपकाएं, कुछ होना अब अपने लिए जरूरी है

याद करो उन मासूमों की कुर्बानी, न आसमान फटा न धरती हिली
न किसी ने दी, तिरंगे में लिपटाकर तोपों की सलामी

क्या फर्क रह जाता मांग के लाल सिंदूर और चिता का लाल चंदन में
उजड़ से उजाड़ तक दोनों की एक ही नियति है

राजा विदेह के लिए देह का क्या है मोल, जब बड़े हो रहे हो खेल
सभा में विमर्श जारी है संयम का छूटना भारी है,अब जनता के अष्टाबक्र की बारी है

Tuesday, June 28, 2011

Night Journey in Metro


रात की आखिरी मेट्रो थी लिहाजा खचाखच थी। लेडिज कम्पार्टमेंट में वे एक दूसरे से ऐसे घुलेमिले थे मानो गर्म पानी में रम । दूसरे मुसाफिरों पर जोड़े के रमने का सुरूर तारी था । लेडिज डिब्बा मुकम्मल प्यार की रील था । सबकी निगाहों का फोकस इन पर था तो जोड़ा एक दूसरे में डूबा था । आखिरी स्टेशन के साथ रील खत्म हुई तो पात्र भी उबरे और दर्शक भी । जिंदगी फिर अपनी रफ्तार पर चल पड़ी।

कविता

कभी बहुत पहले पीटीआइ के दिनों में एक लिखी कविता की एक लाइन है होने न होने के बीच का अहसास ही कविता को संभव करता है


जिंदगी में मुश्किलों का अंत नहीं था

पर मेरे दोस्तों में भी दम था

दोनों में होड़ थी

कौन किस को पछा़ड़ता है

बिना भागे

जिंदगी से

कविता

मां छाया है
पिता बरगद है
भाई टहनी है
बहन फल है
गुरू ज्ञान है
मौन ध्यान है
पितर जल है
पत्नी श्यामल है
संतान निर्मल है
मेहनत खाद है
दोस्त साथ है
प्रेमिका याद है
जीवन आसक्ति है
देश भक्ति है
भगवान शक्ति है

1857 : देश का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम



कभी हम कहते है कि एक बुत की तरह खामोश और फिर कि कभी बुत बोल भी सकते हैं, जब ग्रीम डेविसन ने ये शब्द लिखे थे, तो उसका अभिप्राय इस बात से था कि सार्वजनिक स्मारक इस बात का एक महत्वपूर्ण संकेत होते हैं कि लोग क्या याद रखते हैं।

सन् 1857 देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150 वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में होने वाले कार्यक्रमों में ग्रीम की अंतर्दृष्टि की झलक देखने को मिली । यह एक विडंबना ही है कि दिल्ली की जनता, सरकार को एक कथित विद्रोह का स्मरण करते हुए देखने की गवाह बनी । देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पनपा राजनीतिक वर्ग, इस महत्वपूर्ण घटना को लेकर एक भयंकर आत्मविस्मृति का शिकार रहा है ।
दिल्ली में अंग्रेजी राज के स्वतंत्रता सेनानियों (कथित विद्रोहियों) के सम्मान में अलग से कोई स्मारक नहीं है । अंग्रेजों के विरूद्व लड़ते हुए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले वीरों सहित गद्दारी और राजद्रोह के झूठे आरोपों में फाँसी पर चढ़ा दिए गए, हजारों निर्दोष लोगों का कहीं कोई नामलेवा नहीं है । हमारी राष्ट्रीय राजधानी में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शानदार दास्तान इतिहास के पन्नों से गायब है।

रेगिस्तान में मानसून/Nalin Chauhan


मुझमें भी था
जीवन में बादल बनकर
धरती पर छा जाने का पागलपन
चाहा था,
फुहार बरसे घर में,
खिले फूल,
बगिया में
बदली बनकर कड़के कोई
बिछ जाएं मन आंगन में
निकल गए बादल जब नजर बचाते हुए
घर चिनने के लिए पड़े पत्थर,
अपने ही लेकर निकल गए
जब घर बसने से पहले ही
खंडहर हो गया
औरों से क्या कहता
रह गया मन अकेला रेगिस्तान में
मानसून की मृगतृष्णा झेलने को अभिशप्त

Hundred Years of New Delhi (सौ बरस की अपनी नई दिल्ली)


किसी भी भारतीय को यह बात जानकर हैरानी होगी कि आज की नई दिल्ली, किसी परंपरा के अनुसार अथवा स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेताओं की वजह से नहीं बल्कि एक सौ साल (सन् 1911) पहले आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के राजा किंग जार्ज पंचम की घोषणा के कारण देश की राजधानी बनी । इस दिल्ली दरबार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना ब्रिटिश भारत की राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली स्थान्तरण की घोषणा थी ।
12 दिसंबर 1911 में ब्रिटेन के राजा की घोषणा से पहले इस ऐतिहासिक तथ्य से अधिक लोग वाकिफ नहीं थे । किंग जार्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में आयोजित दरबार के शाही जमावड़े में भारी संख्या में ब्रिटिश भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और अभिजात्य वर्ग के व्यक्ति एकत्र हुए थे । तब दरबार के अंतिम चरण में अंग्रेज राजा ने उपस्थित व्यक्तियों के लिए अजरजभरी घोषणा की। तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग ने राजा के राज्यारोहण उत्सव के अवसर पर प्रदत्त उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद उन्हें एक दस्तावेज सौंपा । अंग्रेज राजा ने अपने प्रमुख दरबारियों के बीच में खड़े होकर ऊंची आवाज में सावधानी से तैयार किया हुआ एक वक्तव्य पढ़ते हुए राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने, पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक करने सहित अन्य प्रशासनिक परिवर्तनों की घोषणा की । उस समय भी दिल्ली वालों के लिए यह एक हैरतअंगेज फैसला था जबकि एक ही झटके में इस घोषणा से एक सूबे के शहर को एक साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया जबकि सन् 1772 से ब्रिटिश भारत की राजधानी ने कलकत्ता थी ।
लार्ड हार्डिंग लिखते है कि इस घोषणा से दर्शकों में एक आश्चर्यजनक रूप से एक गहरा मौन पसर गया और चंद सेंकड बाद करतल ध्वनि गूंज उठी । ऐसा होना स्वाभाविक था । अपने समृद्व प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को अनचाहे राजधानी बनने का मौका दिया गया, उस समय दिल्ली किसी भी लिहाज से एक प्रांतीय शहर से ज्यादा नहीं थी । लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा (1903) के बाद से ही इसका विरोध कर रहे और एकीकरण की मांग को लेकर आंदोलनरत असंतुष्ट बंगालियों की तरह दिल्लीवालों ने कोई मांग नहीं रखी और न ही कोई आंदोलन छेड़ा । सबसे बड़ी बात यह है कि किंग जार्ज पंचम की घोषणा से हर कोई हैरान था क्योंकि इस बात को पूरी तरह से गोपनीय रखा गया था ।
किंग जार्ज पंचम की भारत यात्रा के छह महीने पहले ही ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का निर्णय हो चुका था । इंगलैंड और भारत में मात्र दर्जन भर व्यक्ति ही इस तथ्य से वाकिफ थे । यहां तक कि राजा की घोषणा के समानांतर बांटे गए उद्घोषणा के गजट और समाचार पत्रकों को भी पूरी गोपनीयता के साथ छापा गया । दिल्ली में एक प्रेस शिविर लगाया गया, जहां सचिवों, मुद्रकों और उनके नौकरों के लिए रहने की व्यवस्था की गई और वहीं पर छपाई के अलए प्रिटिंग मशीनें लगाई गईं । दरबार से पहले इन शिविरों में कर्मचारियों को लगा दिया गया था और दरबार की वास्तविक तिथि से पहले इस स्थान की सुरक्षा को चाक चौबंद रखने के लिए सैनिकों और पुलिस की टुकडियां तैनात कर दी गई थी । इससे लार्ड हार्डिंग का राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की बात को इतिहास के गोपनीय राज बताना सही साबित होता है ।
सात दिसंबर, 1911 को ब्रिटेन के राजा और रानी (जार्ज पंचम और क्वीन मेरी) दिल्ली पहुंचे । शाही दम्पति को एक जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से होते हुए इस अवसर पर विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर (किंग्सवे कैंप) में पूरे गाजे बाजे के साथ पहुंचाया गया । उत्तर पश्चिम दिल्ली में विशेष रूप से निर्मित एक सोपान मंडप में आयोजित दरबार में चार हजार खास मेहमानों की बैठने की व्यवस्था की गई थी और एक बृहद अर्ध आकार के टीले से करीब 35,000 सैनिक और 70,000 दर्शक भी इस दरबार के चश्मदीद गवाह बनें ।
इस दरबार के दौरान लार्ड हार्डिंग सहित कौंसिल के सदस्यों, भारतीय राजाओं, राजकुमारों सहित कइयों ने अंग्रेज राजा की कदमबोसी की और हाथ को चूमा । 25 वर्ग मील और 30 मील के घेरे में फैले क्षेत्र में 223 तंबू लगाए गए थे, जहां पर 60 मील की नई सड़के और करीब 30 मील लंबी रेलवे लाइन के लिए 24 स्टेशन बनाए गए ।
 अहमद अली का उपन्यास ट्विलाइट इन दिल्ली (1940) के अनुसार, वायसराय लार्ड हार्डिंग ने व्यक्तिगत रूप से दरबार की तैयारियों का जायजा लिया । कुल 40 वर्ग किलोमीटर में फैले और 16 वर्ग किलोमीटर के घेरे में पूरे भारत से करीब 84,000 यूरोपीय और भारतीयों को 233 शिविरों में ठहराया गया । 1911 में बसंत के मौसम के बाद करीब 20,000 मजदूरों ने दिन रात एक करके इन शिविरों को तैयार किया । इस दौरान 64 किलोमीटर की सड़क, शिविरों में पानी की व्यवस्था के लिए 80 किलोमीटर की पानी की मुख्य लाइन और 48 किलोमीटर की पानी की पाइप लाइनें डाली गईं । इतना ही नहीं, दिल्ली में आने वाले मेहमानों के खानपान के लिए दुधारू पशुओं सहित सब्जी और मांस का इंतजाम किया गया ।
उल्लेखनीय है कि मूल योजना के अनुसार, दिल्ली दरबार का आयोजन एक जनवरी, 1912 को होना था पर उस दिन मुहर्रम होने की वजह इस इसे कुछ दिन पहले करने का फैसला किया गया। हालांकि एक जनवरी का अपना महत्व था क्योंकि इसी दिन भारत को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की घोषणा हुई थी और सन् 1877 तथा सन् 1903 में दरबारों का आयोजन हुआ था । सन् 1877 में लार्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया की कैसरे हिंद के रूप में उद्घोषणा के अवसर पर पहले दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था । महारानी विक्टोरिया के उत्तराधिकारी के रूप में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर सन् 1903 में लार्ड कर्जन के समय दूसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था । यह दरबार 29 दिसंबर से अगले साल दस दिनों तक चला था । इस दरबार के एक भाग का आयोजन लालकिले के दीवान-ए-आम में भी किया गया था । सन् 1903 में लार्ड कर्जन के समय हुए दूसरे दिल्ली दरबार पर खर्च हुए 1,80,000 पाउंड की तुलना में तीसरे दिल्ली दरबार पर 6,60,000 पाउंड की राशि का खर्चा आया ।
किनेमाकलर ने तीसरे दिल्ली दरबार की फिल्म, 'विथ अवर किंग एंड क्वीन थ्रू इंडिया' (1912 में सबसे पहली बार प्रदर्शित), बनाई जिनकी अवधि दो घंटे से अधिक समय की थी । यह फिल्म से अधिक एक मल्टीमीडिया शो थी, जिसके अनेक हिस्सों को जरूरत के मुताबिक बदला जा सकता था । 
किंग जार्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली दरबार में 15 दिसंबर 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखें । बाद में, इन पत्थरों को नार्थ और साउथ ब्लाक के पास स्थानांतरित कर दिया गया और 31 जुलाई 1915 को एक अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया । दिल्ली के नए शहर के स्थापना दिवस समारोह में लार्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्दगिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है पर किसी से भी भविष्य में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक खुशहाली की संभावना नहीं दिखती है ।
राबर्ट ग्रांट इर्विंगन्स की पुस्तक इंडियन समर में लार्ड हार्डिंग कहते हैं, हमें मुगल सम्राटों के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र में अपने नए शहर को बसाना चाहिए । वाइसराय ने बतौर राजधानी दिल्ली के चयन का खुलासा करते हुए कहा था कि यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को प्रभावित करेगा । हम सब इसे भारत में अंग्रेजी राज को कायम रखने के अटूट संकल्प के रूप में स्वीकार करेंगे । तत्कालीन भारत सरकार के गृह सदस्य सर जान जेनकिन्स ने कहा था कि यह एक साहसिक राजनयिक कदम होगा जिससे चहुंओर संतुष्टि के साथ भारत के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी ।
अंग्रेजों के राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के दो प्रमुख कारण थे । पहला, बंगाली अंग्रेजों के लिए काफी समस्याएं पैदा कर रहे थे और अंग्रेजों की नजर में कलकत्ता राजनीतिक आतंकवाद का केंद्र बन चुका था जहां लोग राइटर्स बिल्डिंग में बम फेंक रहे थे जबकि दिल्ली में ऐसे हालात नहीं थे । खासकर लार्ड कर्जन के शासनकाल के बाद अंग्रेज बंगालियों को उपद्रवकारी, राजनीतिक रूप से सजग मानने लगे थे । दूसरा, यह एक तरह से यह मुसलमानों को खुश करने का भी फैसला था । अंग्रेजों की सोच यह थी कि वे एक ही समय में हिंदू और मुसलमानों को नाराज नहीं कर सकते ।
इसी सिलसिले में, सन् 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार की ऐतिहासिक घटनाओं के ब्यौरे वाला अहमद अली का उपन्यास दिल्ली में आहत मुस्लिम सभ्यता की पड़ताल करता है । इस किताब के जरिए लेखक ने तत्कालीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की कहानी को बयान करते हुए उपनिवेशवादी ताकत से टक्कर पर मुस्लिम नजरिए को सामने रखते हुए साम्राज्यवादी साहित्य को चुनौती दी हैं । अली के शब्दों में, मुसलमानों ने स्पेन में कोरडोवा और ग्रेनाडा की तरह दिल्ली खो दी है और उनकी हार की तरह मुसलमानों को यह बात अपने खोए हुए सम्मान के रूप में सालती रहेगी ।
नीरद सी चौधरी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद प्रकाशित अपनी आत्मकथा द आटोबायोग्राफी आफ अननोन इंडियन में उनकी (बंगालियों) प्रतिक्रिया का स्मरण करते हुए लिखा है कि सन् 1911 में मौत का साया, जिससे हम सब अपरिचित थे, पहले ही कलकत्ता पर पसर चुका था । मुझे अभी भी अपने पिता का उनके मित्रों के साथ राजधानी के दिल्ली स्थानांतरण के समाचार के पढ़ने की बात याद है । कलकत्ता का स्टेटसमैन गुस्से में था पर वह भविष्य की बजाय इतिहास के बारे में ज्यादा सोच रहा था और वह कासनड्रा की तरह भविष्यवाणियां करने का इच्छुक नहीं था । हम बंगाली कासनड्रा की तरह भविष्यवक्ता नहीं थे । हम बातूनी थे । मेरे पिता के एक दोस्त ने रूखेपन से कहा कि वे साम्राज्यों के कब्रिस्तान दिल्ली में दफन होने जा रहे हैं । इस बात पर वहां मौजूद हर कोई हंस पड़ा पर हम सभी की तीव्र इच्छा का लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य का दफन होना ही था पर उस दिन हम में से किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा होने में केवल छत्तीस साल लगेंगे । अंग्रेज सत्रह सौ सत्तावन से कलकत्ते में राज करते रहे । उन्नीस सौ ग्यारह में दिल्ली राजधानी बनाने के छत्तीस साल बाद उनके विश्वव्यापी साम्राज्य का सूरज डूब गया ।
सन् 1912 में एडविन लैंडसिर लुटियन और उनके पुराने दोस्त हरबर्ट बेकर को बतौर वास्तुकार नए शहर को बसाने की जिम्मेदारी दी गई। लुटियन के चुनाव में उनके काम के अनुभव का कम और रिश्ते का जोर ज्यादा था । सरकारी इमारतें और शहर के वास्तु से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था पर महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने लार्ड लिटन, जिन्होंने सन् 1877 में महारानी विक्टोरिया के समय दिल्ली दरबार की अध्यक्षता की थी, की एकलौती बेटी एमली लिटन से शादी की थी । लुटियन का खास मित्र और सहयोगी गर्टरूड जेकल, जो कि अच्छा बाग वास्तुशास्त्री भी था, भी एक अच्छे संपर्कों वाला व्यक्ति था ।
लार्ड हार्डिंग भी मार्च 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहुच गया । सन् 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लाज वायसराय का निवास बना । प्रथम विश्व युद्व से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना ।मौजूदा नई दिल्ली शहर दिल्ली का आठवां शहर है । नई दिल्ली के लिए अनेक स्थानों के बारे में सोचा गया और उन्हें अस्वीकृत किया गया । दरबार क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर और अनिच्छुक घोषित कर दिया गया, जहां बाढ़ का भी खतरा था । सब्जी मंडी का इलाका बेहतर था पर फैक्ट्री क्षेत्र में अधिग्रहण से मिल मालिक नाराज होते । इसी तरह, सिविल लाइंस में यूरोपीय आबादी को हटाने की जरूरत के चलते उनकी नाराजगी का खतरा था । अतः वास्तुकार लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर शाहजहांनाबाद के दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ जब नई दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया । इसने पुराने शहर का तिरस्कार किया और उसके आसपास के इलाके तत्काल ही एक दूसरे दर्जे का शहर मात्र पुरानी दिल्ली बन गया ।
लुटियन के जिम्मे नई दिल्ली शहर और गर्वमेन्ट हाउस और हरबर्ट बेकर के सचिवालय के दो हिस्सों (नार्थ और साउथ ब्लाक) और कांउसिल हाउस (संसद भवन) को तैयार करने का भार आया । करीब 2,800 हेक्टेअर क्षेत्र में फैली लुटियन दिल्ली का मूल स्वरूप 1911 से 1931 के मध्य में बना जो कि साम्राज्यवादी भव्यता का एक खुला उदाहरण था । इसका मुख्य केंद्र ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि वायसराय का महलनुमा परिसर (अब राष्ट्रपति भवन) था । अंग्रेज वास्तुकार नई दिल्ली को पुरानी दिल्ली की अराजकता के विपरीत एक कानून और व्यवस्था का प्रतीक बनाना चाहते थे । वास्तुकार हरबर्ट बेकर का मानना था कि नई राजधानी अच्छी सरकार और एकता का एक स्थापत्यकारी स्मारक होनी चाहिए क्योंकि भारत को इतिहास में पहली बार अंग्रेज शासन के तहत एकता मिली है । भारत में अंग्रेज शासन केवल सरकार और संस्कृति का प्रतीक नहीं है । यह एक विकसित होती नई सभ्यता है जिसमें पूर्व और पश्चिम के बेहतर तत्वों का समावेश है । दिल्ली का स्थापत्य इस महान तथ्य इस बात का प्रतीक होना चाहिए ।
गौर करने वाली बात यह है कि वायसराय पैलेस का मुख्य गुम्बद सांची के बौद्व स्तूप और लाल बलुआ पत्थर और जालियों को मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर बनाया गया पर अंग्रेजों ने अपने महत्व को बरकरार रखने के लिए वायसराय पैलेस की उंचाई शाहजहां की जामा मस्जिद से अधिक रखी । यहां तक कि नई दिल्ली में किसी भी देसी पेड़ पौधों की किस्मों को नहीं लगाया गया । यहां लगाए गए पेड़ों की किसी की किस्म को दिल्ली का देसी नहीं कहा जा सकता था ।
एक तरह से, नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्रेज़ हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का वक्त लगा यह भी तब जबकि राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया था । इस तरह, नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी । नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ जब पूरी सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई । 13 फरवरी 1931 को तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया ।
प्रसिद्व लेखक खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने लुटियन और बेकर के साम्राज्यवादी नक्शे के अनुरूप चूना पत्थर और संगमरमर को तराशने का काम किया । खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत  नई दिल्ली पर खासी रोशनी डाली है। उनके ही शब्दों में, मेरे पिताजी को साउथ ब्लाक बनाने का ठेका मिला था और उनके सबसे जिगरी दोस्त बसाखा सिंह को नार्थ ब्लाक बनाने का । हमारे मकान के सामने, और दक्षिण दिल्ली से कोई बारह किलोमीटर दूर, बदरपुर गांव से दिल्ली के लिए जिसे आज कनाट सर्कस कहते हैं छोटी रेलवे लाइन गई थी । बदरपुर से निर्माण स्थल तक पत्थर, रोड़ी और बजरी लाने के लिए ही यह लाइन बिछाई जाती थी । जिस दिन छुट्टी होती, हम छोटी सी इम्पीरियल दिल्ली रेल के आने का इंतजार करते कि कब वह आकर पत्थर उतारे और हम उसमें सवार होकर मुफत में कनाट प्लेस की सैर करके आएं ।
वे आगे बताते हैं कि खालसा मिल्स के प्रवेश द्वार के उपर बने कमरों को छोड़ अब हम रायसीना पहुंच गए थे जो आगे चलकर नई दिल्ली बना । पहले एक दो साल तक हम लोग एक बड़े से झोपड़ीनुमा मकान में रहते थे । वह मकान जिस सड़क पर था वह आगे चलकर ओल्ड मिल रोड अब रफी मार्ग कहलाई क्योंकि वहां एक आटे की चक्की थी । यह जगह आज के संसद मार्ग के सामने पड़ती थी जहां दोनों सचिवालय नार्थ और साउथ ब्लाक बनाए जाने थे उसके यह काफी नजदीक थी ।


दिल्ली दरबार रेलवे
समूचे देश से दिल्ली में लोगों के दरबार में शामिल होने को देखते हुए अंग्रेजों ने यातायात के सुचारू आवागमन के लिए अतिरिक्त रेल सुविधाएं बढ़ाने और नई रेल लाइनें बिछाने का फैसला किया । सरकार ने इसके लिए दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया । मार्च से अप्रैल, 1911 के बीच सभी संभावित यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं । इन बैठकों में दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाडि़यों के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आजादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनें, बंबई से दिल्ली बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने के महत्वपूर्ण फैसले किए गए । कलकत्ता से दिल्ली सैनिक और नागरिक रसद का साजो सामान पहुंचाने के लिए प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई जो कि दोपहर साढ़े तीन बजे हावड़ा से चलकर अगले दिन दिल्ली के किंगस्वे स्टेशन पर सुबह दस बजे पहुचती थी । इस तरह, मालगाड़ी करीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी । नंवबर, 1911 में ‘मोटर स्पेशल‘ नामक पांच विशेष रेलगाडि़यां हावड़ा रेलवे स्टेशन और दिल्ली रेलवे स्टेशन के बीच में चलाई गई ।
इसी तरह, देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष सैनिक रेलगाडि़यां चलाई गई । ये रेलगाडि़यां मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी रेल के टर्मिनल पर खाली हुई । इस अवसर पर पूर्वी भारत रेलवे ने अपने स्टेशनों पर आने वाली 15 सैनिक रेलगाडि़यां चलाई और 19 सैनिक रेलगाडि़यों में सैनिकों को दिल्ली दरबार की समाप्ति के बाद वापिस भेजा ।


इतिहास और अगर-मगर
-अगर प्रथम विश्व युद्व नहीं छिड़ा होता तो नई दिल्ली के निर्माण में अधिक धन खर्च किया जाता तथा यह शहर और अधिक भव्य बनता।
-इतना ही नहीं, यमुना नदी पुराने किले के साथ बहती होती और राजपथ से गुजरने वाले इसके गवाह बनते ।
-अगर लार्ड कर्जन और उनके अंग्रेज व्यापारी मित्रों की चलती तो नई दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला रद्द हो जाता । यह तो लार्ड हार्डिंग के अंग्रेज राजा को भारतीय जनता को दिए वचन से न फिरने के बारे में समझाने के कारण ऐसा नहीं हो सका ।
-अगर हरबर्ट बेकर ने प्रिटोरिया का निर्माण नहीं किया होता तो लुटियन को नई दिल्ली परियोजना में अवसर नहीं मिलता और न ही विजय चैक (इंडिया प्लेस) प्रिटोरिया की तर्ज पर तैयार होता ।
-इतना ही नहीं, अगर लुटियन की मर्जी चली होती तो राष्ट्रपति भवन (गर्वमेंट हाउस) सरदार पटेल मार्ग पर मालचा पैलेस के नजदीक रिज में बना होता । लार्ड हार्डिंग के इस प्रस्ताव को खारिज करने के बाद रायसीना पहाड़ी पर वायसराय हाउस बना ।


दिल्ली शहर का सफर
शहर का क्रम   शहर का नाम    स्थापना का साल    संस्थापक       कुल क्षेत्रफल (वर्ग किमी में)
पहली               लाल कोट         1000                      अनंगपाल      3.40
दूसरी                सिरी                1303          अलाउद्दीन खिलजी     1.70
तीसरी               तुगलकाबाद    1321          गयासुद्दीन तुगलक      2.20
चैथी                   जहांपनाह       1327      मुहम्मद बिन तुगलक     0.20
पांचवी                फिरोजाबाद     1354          फिरोजशाह तुगलक    0.10
छठीं                   पुराना किला    1533                               हुमायूं    0.20
सातवीं                शाहजहांनाबाद 1639                          शाहजहां    4.90
आठवीं                नई दिल्ली        1911                   एडवर्ड पंचम     12.20

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