Friday, May 31, 2013

Indian heritage


The study of India’s heritage has to go beyond Indology and become the intellectual resources that mainstream studies in philosophy, aesthetics, drama, linguistics and ethics etc., across the world draw upon. 

Romain Rolland:Vivekananda


Romain Rolland, French Nobel laureate, in his book The Life of Vivekananda and the Universal Gospel, has written: “In two words ‘equilibrium’ and ‘synthesis’ Vivekananda’s constructive genius may be summed up. ……….He was the personification of the harmony of all Human Energy.”

Thursday, May 30, 2013

Simple Language: Bride


सादी भाषा चुनना कई मायनों में सादी दुलहिन चुनने जैसा होता है, जहाँ आप उसके प्रेम के प्रति आश्वस्त होते हैं और दहेज न लाने के प्रति भी !

Raskhan


सोलहवीं सदी में रसखान दिल्ली के समृद्ध पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। लेकिन उनका सारा जीवन ही कृष्ण भक्ति का पर्याय बन गया। लोकपरंपरा में कथा आती है कि एक बार वे गोवर्धनजी में श्रीनाथ जी के दर्शन को गए तो द्वारपार ने उन्हें मुस्लिम जानकर मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया बाद में लोगों को पता चला कि ये तो कृष्ण को अनन्य भक्त हैं। गोस्वामी विट्ठलनाथ जो को रसखान की कृष्णभक्ति के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें बाकायदा गोविन्द कुण्ड में स्नान कराकर दीक्षा दी।
रसखान ने प्रभु के श्रीचरणों की प्रार्थना गाई।
मानुस हों तो वही रसखान, बसौं बृज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करों, नित कालिंदी कूल कदंब की डारन।।

रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी में भी किया।

Patriotism: Nirmal Verma



अतीत में देश के प्रति यह भावना अन्य देशों में भी देखी जा सकती थी, जहाँ देश-प्रेम का गहरा सम्बन्ध संस्कृति और परम्परा की स्मृति से जुड़ा था। मुझे तारकोवस्की की फिल्म ‘मिरर’ की याद आती है, जिसमें एक पत्र पुश्किन का पत्र अपने मित्र को पढ़कर सुनाता है, और उस पत्र में पुश्किन रूस के बारे में जो कुछ अपने उदगार प्रकट करते हैं, वे एक अजीब तरह का आध्यात्मिक उन्मेष के लिए हुए हैं, वे लिखते हैं, ‘‘एक लेखक होने के नाते मुझे कभी-कभी अपने देश के प्रति गहरी झुँझलाहट और कटुता महसूस होती है लेकिन मैं सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं किसी भी कीमत पर अपना देश किसी और देश से नहीं बदलना चाहूँगा। न ही अपने देश के इतिहास को किसी दूसरे इतिहास में परिणत करना चाहूँगा, जो ईश्वर ने मेरे पूर्वजों के हाथों में दिया था।’’
शब्द पुश्किन के हैं, देश ‘मदर रशिया’ के बारे में, लेकिन उनमें देशभक्ति का एक ऐसा धार्मिक आयाम दिखाई देता है, जिससे हमें विवेकानन्द, श्री अरविन्द और गाँधी की भावनाएँ प्रतिध्वनित होती सुनाई देती हैं, जो उन्होंने समय-समय पर गहरे भावोन्मेष के साथ भारत-भूमि के प्रति प्रकट की थीं। आज के आधुनिक भारतीय धर्मनिरपेक्षीय बुद्धिजीवियों को भारत के सन्दर्भ में ईश्वर और पूर्वजों की स्मृति का उल्लेख करना कितना अजीब जान पड़ता होगा,. इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। वे लोग तो वन्दे मातरम्’ जैसे गीत में भी साम्प्रदायिकता सूँघ लेते हैं। सच बात तो यह है कि देशप्रेम की भावना को देश से जुड़ी स्मृतियों और उसके इतिहास की धूल में सनी पीड़ाओं को अलग करते ही इस भावना की गरिमा और पवित्रता नष्ट हो जाती है। वह या तो राष्ट्रवाद के संकीर्ण और कुत्सित पूर्वाग्रह में बदल जाती है। अथवा आत्म घृणा में....दोनों ही एक तस्वीर के दो पहलू हैं।

-निर्मल वर्मा ( आदि, अन्त और आरम्भ )

Bharat-Nirmal Verma


देशभक्ति, देशप्रेम....क्या .ये सिर्फ थोथे शब्द हैं, जिन्हें हमारे आधुनिक बुद्धिजीवी मुँह पर लाते हुए झिझकते हैं, जैसे वे कोई अपशब्द हों, सिर्फ एक सतही, मस्ती भावुकता, और कुछ नहीं ? कौन स्वतन्त्र हुआ ?
नहीं, देश के प्रति यह लगाव न तो इतिहास में अंकित है, न भूगोल की छड़ी से नापा जा सकता है, क्योंकि अन्ततः वह...एक स्मृति है, व्यक्तिगत जीवन से कहीं अधिक विराट और समय की सीमाओं से कहीं अधिक विस्तीर्ण....हमारे समस्त पूर्वजन्मों का पवित्र-स्थल, जहाँ कभी हमारे पूर्वज और पुरखे रहते आए थे। यदि हर भावना एक घटना है, तो ‘देशप्रेम’ एक चिरन्तन घटना है, हर पीढ़ी की आत्मा में नए सिरे से घटती हुई।
किन्तु वह कोई अमूर्त भावना नहीं; एक कविता की तरह वह किसी ठोस घटना अथवा अनुभव के धुँधले, टीसते, टिमटिमाते बिन्दु से उत्पन्न हो सकती है। अपनी बात कहूँ तो मुझे बचपन का वह क्षण याद आता है,, जब मैं माँ के साथ ट्रेन में बैठकर जा रहा था। कहाँ जा रहा था। कुछ याद नहीं, सिर्फ इतना याद है कि मैं सो रहा था, अचानक मुझे धड़धड़ाती-सी आवाज सुनाई दी; हमारी ट्रेन पुल पर से गुजर रही थी। माँ ने जल्दी से मेरे हाथ में कुछ पैसे रखे और मुझसे कहा कि मैं उन्हें नीचे फेंक दूँ। नीचे नदी में। नदी ? कहाँ थी वह ? मैंने पुल के नीचे झाँका, शाम के डूबते आलोक में एक पीली, डबडबायी-सी रेखा चमक रही थी। पता नहीं, वह कौन-सी नदी थी, गंगा, कावेरी या नर्वदा ? मेरी माँ के लिए सब नदियाँ पवित्र थीं।
यह मेरे लिए अपने देश ‘ भारत’ की पहली छवि थी, जो मेरी समृति में टँगी रह गई है....वह शाम, वह पुल के परे रेत के ढूह और डूबता सूरज और एक अनाम नदी...कहीं से कहीं की ओर जाती हुई ! मुझे लगता है, अपने देश के साथ मेरा प्रेम प्रसंग यहीं से शुरू हुआ था...उत्पीड़ित, उन्मादपूर्ण, कभी-कभी बेहद निराशापूर्ण; किंतु आज मुझे लगता है कि अन्य प्रेम-प्रसंगों की तुलना में वह कितनी छोटी-सी घटना से शुरू हुआ था, माँ का मुझे सोते में हिलाना, दिल की धड़कन, नदी में फेंका हुआ पैसा ....बस इतना ही

-निर्मल वर्मा (आदि, अन्त और आरम्भ )

History-Nirmal Verma





इतिहास का अपराध-बोध कितना हास्यास्पद हो सकता है, यह इससे विदित होता है, कि वे लोग जो एक समय में ‘इतिहास की दुहाई’ देते फिरते थे, वे आज उससे मुँह चुराने लगे हैं, मानो वह कोई प्रेत हो जिससे वह जल्द से जल्द अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते हों मार्क्स ने कभी कम्यूनिज़्म को यूरोप का प्रेत कहा था; तब कौन सोचता था कि एक दिन स्वयं कम्यूनिज़्म के लिए इतिहास एक प्रेत बन जाएगा ?

-निर्मल वर्मा (आदि, अन्त और आरम्भ)

Wednesday, May 29, 2013

maharana pratap:kahaniyalal sethia


‘हूं भूखमरूं, हूं प्‍यास मरूं,
मेवाड़ धरा आजाद रहे।
हूं घोर उजाड़ा में भटकूं,
पण मन में मॉ री याद रखे॥

(पातल और पीथल-कन्‍हैयालाल सैठिया)

Tuesday, May 28, 2013

महाराणा प्रताप-पंडित नरेन्द्र मिश्र की कविता


राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
राणा प्रताप आज़ादी का, अपराजित काल विधायक है।।
वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।
राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।
ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।
पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज़ बलिदानी का।
जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।
लासानी वतन परस्ती का, वह वीर धधकता शोला था।
हल्दीघाटी का महासमर, मज़हब से बढकर बोला था।।
राणा प्रताप की कर्मशक्ति, गंगा का पावन नीर हुई।
राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर हुई।
समराँगण में अरियों तक से, इस योद्धा ने छल नहीं किया।
सम्मान बेचकर जीवन का, कोई सपना हल नहीं किया।।
मिट्टी पर मिटने वालों ने, अब तक जिसका अनुगमन किया।
राणा प्रताप के भाले को, हिमगिरि ने झुककर नमन किया।।
प्रण की गरिमा का सूत्रधार, आसिन्धु धरा सत्कार हुआ।
राणा प्रताप का भारत की, धरती पर जयजयकार हुआ।।

USSR: Censorship


In the introduction to The Red Pencil: Artists, Scholars, and Censors in the USSR, Maurice Friedberg and Marianna Tax Choldin wrote: “What is at issue in this age of glasnost is whether the oppressive status quo will remain in place, whether all cultural and intellectual life in the USSR will be continued to be controlled by a faceless censor endowed with unlimited powers or whether some degree, however modest, of procedural legality is to be introduced.” [pp. xvi-xvii]

Urdu-Delhi


“Urdu” first referred to the “royal city” of Delhi, and was not aligned with any language until 1780; meanwhile the language of the Delhi area was being called Hindvi or Hindµ and later, Rekhta. British intervention into this controversy only further obscured the issue by introducing the names Moors and Hindustani into the mix, and, moreover, began to identify Hindustani as a Muslim language and Hindvi as a Hindu language. 
These alliances were only deepened by the post-1857 Hindi/Urdu controversy headed by Bharatendu Harishchandra, and the development of Hindµ and Urdu canons at Fort William College and in Azad and Hali's works.

Silence:Graveyard


शांति वंदनीय है पर मरघट का सन्नाटा, दुनिया के किसी भी कोने में पसंद नहीं किया जाता................

Monday, May 27, 2013

छत्तीसगढ़-माओवाद

'महेंद्र कर्मा को गोलियों से छलनी करने के बाद नक्सली उनके शव को न केवल ठोकर मारते रहे बल्कि काफी देर तक उसके आसपास नाचते-गाते भी रहे। हम यह दृश्य देखकर भयभीत और सन्न थे।' 
- सत्तार अली, सुकमा जिले के कांग्रेस नेता

source: http://www.jagran.com/news/national-body-of-kidnapped-chhattisgarh-congress-chief-found-10426169.html


Tuesday, May 21, 2013

Girl Child:High Court



पिछले एक दशक में भारत में एक करोड़ कन्या भ्रूण हत्या हो चुकी हैं। यह संख्या प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों में मारे गए लोगों से भी अधिक है। अल्ट्रा साउण्ड मशीन के जरिए लिंग का पता लगाने के अपराध के जिम्मेदार भारतीय डॉक्टर हैं।
-इलाहाबाद उच्च न्यायालय

स्रोत:http://zeenews.india.com/hindi/news/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6/%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A4%95-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%A3-%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%88%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9F/169780

Sunday, May 19, 2013

Firaaq-on writing


‘यदि मैं दिल्ली या लखनऊ में रहा होता तो मेरी शायरी वहां नहीं पहुंचती जहां पहुंची है, क्योंकि दोनों जगहों पर परंपराओं का इतना जबर्दस्त बोझ है कि मेरी शायरी मर जाती.
-रघुवीर सहाय फिराक

Source: http://prabhatkhabar.com/node/180124

Media: Harivansh



मीडिया की ताकत क्या है? अगर मीडिया के पास कोई शक्ति है, तो उसका स्रोत क्या है? क्यों लगभग एक सदी पहले कहा गया कि जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो? सरकार को संवैधानिक अधिकार प्राप्त है. न्यायपालिका अधिकारों के कारण ही विशिष्ट है. विधायिका की संवैधानिक भूमिका है, उसे संरक्षण भी है. पर संविधान में अखबारों, टीवी चैनलों या मीडिया को अलग से एक भी अधिकार है? फिर मीडिया का यह महत्व क्यों?

जिसके पीछे सत्ता है, जिसे कानूनी अधिकार मिले हैं, सीमित-असीमित, वह तो समाज में सबसे विशिष्ट या महत्वपूर्ण है ही, पर मीडिया के पास तो न संवैधानिक अधिकार है, न संरक्षण. फिर भी उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. क्यों?

मीडिया के पास महज एक और एक ही शक्ति स्रोत है. वह है उसकी साख. मीडिया का रामबाण भी और लक्ष्मण रेखा भी. छपे पर लोग यकीन करते हैं.

यही और यही एकमात्र मीडिया की ताकत है. शक्ति- स्रोत है. लोग मानते हैं कि जो छपा, वही सही है. टीवी चैनल, रेडियो, इंटरनेट, ब्लाग्स वगैरह सब इसी ‘प्रिंट मीडिया’ (छपे शब्दों) के ‘एक्सटेंशन’ (विस्तार) हैं. इसलिए इनके पास भी वही ताकत या शक्ति-स्रोत है, जो प्रिंट मीडिया के पास थी.

इस तरह, मीडिया के पास लोक साख की अपूर्व ताकत है. यह संविधान से भी ऊपर है. इसलिए संविधान के अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ (जिन्हें संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं) भी मीडिया की इस अघोषित साख के सामने झुकते हैं. न चाहते हुए भी उसकी ताकत-महत्व को मानने-पहचानने के लिए बाध्य हैं.

पर, मीडिया जगत को महज अपनी असीमित ताकत, भूमिका और महत्व का ही एहसास है, लक्ष्मण रेखा का नहीं. और लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन का बार-बार अवसर नहीं मिलता! यह लोक जीवन का यथार्थ है. मीडिया अपनी एकमात्र पूंजी साख को बार-बार दावं पर लगाने लगे, तो क्या होगा? दावं पर लगाने के लिए फिर कोई दूसरी पूंजी नहीं है. ‘91 के उदारीकरण के दोनों असर हुए, अच्छे व बुरे भी. जीवन-देश के हर क्षेत्र में. मीडिया में भी. 1991 से ही शुरू हुई, पेज-थ्री संस्कृति. यह नयी बहस कि मीडिया का काम मनोरंजन करना है और सूचना देना भर है. इसी दौर में मीडिया में बड़ी पूंजी आयी, नौकरी की शर्तें बेहतर हुईं, पर यह सिद्धांत भी आया कि अब यह शुद्ध व्यवसाय है. विज्ञापन का व्यवसाय. खबरों का धंधा. इसका मकसद भी ‘अधिकतम मुनाफा’ (प्राफिट मैक्सिमाइजेशन) है.

1991 के उदारीकरण के बाद नया दर्शन था, हर क्षेत्र में निवेश पर कई गुणा रिटर्न या आमद यानी प्राफिट मैक्सिमाइजेशन. पर, जीवन के यथार्थ कुछ और भी हैं. जैसे रेत से तेल नहीं निकलता. उसी तरह मीडिया व्यवसाय में भी नैतिक ढंग से, वैधानिक ढंग से, स्वस्थ मूल्यों के साथ ‘अधिकतम वैधानिक कमाई’ की सीमा थी. चाहे प्रिंट मीडिया हो या न्यूज चैनल या रेडियो वगैरह.

मुफ्त अखबार (दो-तीन रुपये में) चाहिए और ईमानदार पत्रकारिता, यह संभव नहीं. पाकिस्तान के अखबार आज भारत के अखबारों से काफी महंगे है, पर वे बिकते हैं. यह उल्लेख करना सही होगा कि पाकिस्तान की मीडिया ने वहां के तानाशाहों के खिलाफ जो साहस दिखाया, वह साहस तो भारत में है ही नहीं. वह भी भारतीय लोकतंत्र के अंदर. फिर भी गरीब पाकिस्तानी अधिक कीमत देकर अपनी ईमानदार मीडिया को बचाये हुए है.

(Source: http://prabhatkhabar.com/node/223814)

Promotional (Paid) News in National English Dailies of Delhi


With the top two English dailies, Times of India and Hindustan Times, in the country initiating paid feature content, it remains to be seen whether other dailies, be it English or regional, follow suit.
The Times of India has the Medianet where features are placed in such a way that they neither represent as paid content nor advertisements. For TOI, these sections are distinct from paid advertisements, advertorials and special supplements and are highlighted as sponsored features.
Now Hindustan Times has come up with an initiative called ‘Brand Promotions’ which in nothing but a promotional feature exercise as Hindustan Times’ supplement HT City confirms the initiative with a message that accompanies such features that states: “We would like to inform our readers that some of the coverage of events that appear on the party page is paid for by the concerned brands. We would like to emphasise that no sponsored content does or shall appear in any part of HT without it being declared as such to our valued readers.”

Ghalib on Writing


न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह,
गर नहीं हैं मेरे अशआर में मानी, न सही ।
-मिर्जा गालिब

Saturday, May 18, 2013

Iqbal-War of Independence-1857



गद्दार ए वतन इस को बताते है ब्राह्मण
अँगरेज़ समझता है मुसलमान को गद्दार
-इकबाल

Source: http://www.allamaiqbalpoetry.com/2011/04/zarb-e-kaleem-019-hindi-musalman.html

अंत में-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना



'वह बिना कहे मर गया'
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से --
'कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।'

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (अंत में)

तुम्हारे साथ रहकर:सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुजर सकता है।
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (तुम्हारे साथ रहकर)

sarveshvar dayal saxena-poem

 
“मैं कविता क्यों लिखता हूँ – मैंने कविता क्यों लिखी ? कहूं कि किसी लाचारी से लिखी । आज की परिस्थिति में कविता लिखने से सुखकर एवं प्रीतिकर कई काम हो सकते हैं, और मैं कविता न लिखना यदि हिंदी के आज के प्रतिष्ठित कवियों में एक भी ऐसा होता जिसकी कविता में कवि का व्यापक जीन दर्शन मिलता। अधिकांश पुरे कवि छंद और तुक की बाजीगरी के नशे में काव्य-विषय की एक-एक संकीर्ण परिधि में घिरकर व्यापक जीवन दर्शन के संघर्षों को भूल न गए होते और उन्हें कविता के विषय में से निकाल न देते ।”
-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (वक्तव्य – तीसरा सप्तक – पृष्ठ 200)

Dinkar-Destination


 
यह प्रदीप जो दीख रहा है, झिलमिल दूर नहीं है।
थक कर बैठ गए क्या भाई, मंज़िल दूर नहीं है।
-रामधारी सिंह दिनकर

Iqbal from tarana-e-hind to tarana-e-milli





हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का इशारा
सज्दा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर।
-अल्लामा इक़बाल

इक़बाल को ऐसे ही पाकिस्तान का कौमी शायर नहीं माना जाता!

एक हम है कि अभी तक "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा" से "चीनो अरब हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन के, सारा जहाँ हमारा" वाले इकबाल के 
तराना-ए-हिंदी से तराना-ए-मिल्ली तक के सफ़र की तरफ आँखें मूँदकर बैठे हैं।

शायद इसी रतौंदी में हिंदुस्तान ने इकबाल पर डाक टिकिट तक निकाल दिया।

'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इकबाल के लिए लिखा है ,"इकबाल की कविताओं से, आरम्भ में, भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था , किन्तु, आगे चलकर उन्होंने बहुत सी ऐसी चीजें भी लिखीं जिनसे हमारी एकता को व्याघात पहुंचा.

तराना-ए-हिंदी से तराना-ए-मिल्ली तक का सफ़र

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा, हम बुलबुले हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना, हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा.

चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन के , सारा जहाँ हमारा.
तोहीद की अमानत, सीनों में है हमारे, आसां नहीं मितान, नामों - निशान हमारा.

Middle Class: Struggle of Survival



मध्यम वर्ग में हम सच के साथ क्यों नहीं खड़े हो पाते ? सिर्फ दो जून की रोजी रोटी के चक्कर में और यह बात तो आख्रिर सबके समझ में आती ही है................

Friday, May 17, 2013

Writing-Training


मैं तो खुद अनगढ़ हूं। आज भी लिखने की कोशिश करता हूं और बहुत संकोच के साथ लिखता हूं, वह भी तब जब रहा नहीं जाता । मुझे नहीं लगता पत्रकार और नेता किसी प्रशिक्षण या सिखाकर बनाए जा सकते है। इसके लिए तो व्यक्तियों से बेवजह बात करना, खूब पढ़ना और दूसरे के दुख दर्द को अपना समझना और उससे स्वयं को जोड़ना ही जरूरी लगता है जबकि आज इस बात का ही घोर अभाव हो रहा है ।

Freedom-slave


A free man has the power to think, decide, and act for himself. But the slave loses that power. He always borrows his thinking from others, wavers in his decisions, and more often than not only takes the trodden path.

Thursday, May 16, 2013

balraj sahni-agheya


शांतिनिकेतन में रहते हुए बलराज बल्रराज साहनी (1 मई 1913 – 13 अप्रैल 1973) कलकत्ता में "विशाल भारत" के युवा सम्पादक और अपने ही जैसे पंजाबी मूल के लेखक-बुद्धिजीवी 'अज्ञेय' के संपर्क में आए जिसकी परिणति कुछ वर्षो बाद, जब बलराज युवावस्था में ही विधुर हो गए, 'अज्ञेय' के रहस्यमय तलाक़ और उनकी पत्नी संतोष के बलराज के साथ विवाह में हुई।
Source:  http://feeds.feedburner.com/blogspot/kNrO

Cann Film Festival Amitabh-Hindi


बिग बी ने ट्विटर पर लिखा है कि कान भारतीय सिनेमा के सौ साल का जश्न मना रहा है। मेरे लिए यह बेहद जरूरी था कि मैं अपनी मातृ भाषा में संबोधित करूं। कान के निदेशक हिंदी भाषा की लय को सुनकर खुश हैं। 
अमिताभ बच्चन ने 66वें कान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में हिंदी में बोलकर सबका मन मोह लिया। उन्होंने कहा कि अपनी मातृ भाषा हिंदी में अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को संबोधित करना उनके लिए ‘सर्वाधिक गर्व का क्षण’ था।

http://www.jagran.com/entertainment/bollywood-amitabh-addresses-cannes-audience-in-hindi-10397096.html

ISRO-Jugad-Apple satellite


The country’s first experimental communications satellite called APPLE (Ariane Passenger Payload Experiment) was ferried a short distance on a bullock cart before its launch via a European rocket in 1981.

Saturday, May 11, 2013

Curzon:Delhi Darbar-Maharana Udaipur



सन १९०३ में वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा आहूत दिल्ली दरबार में शामिल होने से रोकने के लिए स्वातंत्र्य सेनानी और क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहट ने उदयपुर के महाराणा फतह सिंह को संबोधित करते हुए " चेतावनी रा चुंगटिया " नामक सौरठे लिखे जो उनकी अंग्रेजो के विरूद्व भावना की स्पष्ट अभिव्यक्ति थी |
उनका संपर्क बंगाल के विप्लव दल से भी था और वे श्री अरविन्द से बहुत पहले १९०३ में ही मिल चुके थे तथा महान क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस व शचीन्द्र नाथ शान्याल,ग़दर पार्टी के लाला हरदयाल और दिल्ली के क्रान्तिकारी मास्टर अमीरचंद व अवध बिहारी से घनिष्ठ सम्बन्ध थे | ब्रिटिश सरकार की गुप्त रिपोर्टों में राजपुताना में विप्लव फैलाने के लिए केसरी सिंह बारहट व अर्जुन लाल सेठी को खास जिम्मेदार माना गया |
केसरी सिंह का नाम उस समय कितना प्रसिद्ध था उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय श्रेष्ठ नेता लोकमान्य तिलक ने अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन में केसरी सिंह को जेल से छुडाने का प्रस्ताव पेश किया था | 
स्रोत: http://www.gyandarpan.com/2009/06/blog-post_05.html
Photo: Lord Curzon, Viceroy of India, enters Delhi in procession at the Coronation Durbar held to celebrate the accession of Edward VII, 29th December 1902. (Photo by Hulton Archive/Getty Images)  

Friday, May 10, 2013

Life:scarcity



बस अभाव को स्थायी भाव नहीं बनने देना चाहिए, जीवन का.....................

Real History Writing




There is general lack of interest in history as it has engulfed in the academics as the most readable historical books from "Discovery of India" to "History of Sikhs" are authored by Pandit Jawaharlal Nehru to Sardar Khushwant Singh who were not historians by training but still they wrote books of history in a style that made the work appealing and popular even among the readers generally not interested in history.

Somnath Temple


On the destruction of Somnath temple in Gujarat, there are versions of local history of gujarati-rajasthani, the national thought of RC Majumdar and KM Munshi to Leftist historian Romila Thapar to Britisher's historical version of Somnath which claimed that they bought the gates of somnath from ghazni.

Thursday, May 9, 2013

Wife: Energy


When you convert wife into your energy you don't need any woman, Aurobindo and Ramkrishan Paramhans are such living examples in great hindu tradition of Sanyas.

Tagore: 1857 First war of Independence


Rabindranath Tagore's great novel Gora was first published in serialised form between 1907 and 1910 and its genesis is the first war of Indian independence in 1857 although the novel is set in 1880s.............

Wednesday, May 8, 2013

Dharamvir Bharati on poem



मैं अपना पथ बना रहा हूँ। जिन्दगी से अलग रहकर नहीं, जिन्दगी के संघर्षों को झेलता हुआ, उसके दुःख-दर्द में एक गम्भीर अर्थ ढूँढ़ता हुआ, और उस अर्थ के सहारे अपने को जनव्यापी सचाई के प्रति अर्पित करने का प्रयास करता हुआ। कवि का जीवन, कवि की वाणी, अर्पित जीवन और अर्पित वाणी होते हैं। आशीर्वाद चाहता हूँ कि धीरे-धीरे मैं और मेरी कलम एक निर्मल और सशक्त माध्यम बन सकें जिससे विराट् जीवन, उसका सुख-दुःख उसकी प्रगति और उसका अर्थ व्यक्त हो सके। यही मेरी कविता की सार्थकता होगी।
-धर्मवीर भारती

Tuesday, May 7, 2013

Dharamvir Bharati: Media and Hindi



मीडिया के किसी पक्ष को लीजिए। मण्डी हाउस के इर्दगिर्द हिन्दी में सीरियल बनाने वालों की भीड़ जमा रहती है। उनका हिन्दी से कितना सरोकार है ? आखिर गुलज़ार ने ग़ालिब के जीवन पर इतना प्रभावशाली सीरियल बनाया पर किसी हिन्दी वाले को यह नहीं सूझा कि भारतेन्दु हरिश्चनद्र के घटनापूर्ण, मार्मिक और अर्थभरे जीवन पर सीरियल बन सकता है। हिन्दी की साहित्यिक कृतियाँ ? एक-दो दूरदर्शन पर आयीं भी तो कैसे अजीब रूप में, ‘राग दरबारी’ की पहली प्रस्तुति वह प्रभाव ही नहीं दे पायी जो मूल कृति में है, ‘कब तक पुकारूँ’ की पहली किस्त देखी। नटों से लोकभाषा बुलवाई गयी है मगर नटों-बनजारों की लोकभाषा में अवधी ? चकित रह गया मैं, क्या पूरी टीम में कोई ऐसा नहीं था जो भरतपुर के ग्रामीण अंचल में जाकर उस राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा के मीठे रूप को डायलाग में गूँथ सकता, जो वहाँ के नट-बनजारे बोलते हैं। लिखित हिन्दी तो समृद्ध है ही पर बोली जाने वाली हिन्दी के कितने रूप हैं और हरेक अपने में कितना समृद्ध। पर दूरदर्शन, फिल्म या रेड़ियो में कभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। पात्र देहाती हैं तो उससे आधी-अधूरी अवधी बुलवा दो क्योंकि शरू-शुरू में कलकत्ते के न्यू थियेर्टस की फिल्मों में देहाती पुरबिया पात्र अवधी बोलते थे। अभी कुछ वर्ष पहले एक फिल्म देखी थी। गोआ और कोंकणी अंचल की एक प्रेम कहानी थी। नौ गजी साड़ियाँ आकर्षक रूप में लपेटे गोआ की मछेरिनें गलत-सलत उच्चारण में धारा-प्रावह अवधी बोल रही थीं। उस क्षेत्र में जाइए। वहाँ के लोग कोंकणी, मराठी मिश्रित हिन्दी बोलते हैं उसका एक अलग ही स्वाद है। पर उसे संवादों में उतारने की मेहनत कौन करे ?
पता नहीं कब तक यह हालत चलेगी ? हिन्दीभाषियों में खुद जब तक अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति चेतना नहीं जागेगी तब तक हालात सुधरना असंभव है।
--धर्मवीर भारती (शब्दिता)

Dialogue is a must


बात जरुरी है, आज के दौर में वर्ना नाम तो सब बेमानी हो चुके है

Bhism-hazari prasad dwvedi



देश की दुर्दशा देखते हुए भी मैं कुछ कह नहीं रहा हूं, अर्थात् इस दुर्दशा के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी भर्त्सना नहीं कर रहा हूं। यह एक भयंकर अपराध है। कौरवों की सभा में भीष्म ने द्रौपदी का भयंकर अपमान देखकर भी जिस प्रकार मौन धारण किया था, वैसे ही कुछ मैं और मेरे जैसे कुछ अन्य साहित्यकार चुप्पी साधे हैं। भविष्य इसे उसी तरह क्षमा नहीं करेगा जिस प्रकार भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया।
’आजकल के लोगों को आप जो चाहे कह लें पुराने इतिहासकार इतने गिरे हुए नहीं होंगे कि पूरा इतिहास ही उलट दं। सो इस कल्पना से भी भीष्म की चुप्पी समझ में नही आती। इतना सच जान पडता है कि भीष्म में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह अचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे, तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक ही हुआ।
- हजारीप्रसाद द्विवेदी (भीष्म पितामह को क्षमा नहीं किया गया, निबंध में )

Time: Creator


समय से बड़ा कोई सृजक नहीं...................

hindi writers on books



रामकुमार [ पेंटर]
मुझे एपिक नॉवेल पढ़ने में विशेष रुचि रही है. 'वार एंड पीस' इसीलिए मेरी सबसे प्रिय पुस्तक है. इसे तीन दफ़ा पढ़ जाने के बावजूद दो-एक बार और पढ़ने की ख्वाहिश मेरे मन में अब भी है. इस क्रम में मैं टॉमस मान की औपन्यासिक कृति 'मैजिक माउंटेन' का भी ज़िक्र करना चाहूँगा. बहुत अरसा पहले पढ़ा था इसे और इसके प्रभाव में वर्षों तक रहा. मुझे एपिक नॉवेलों में भरे-पूरे जीवन का अद्भुत विस्तार भाता है. तथाकथित छोटे नॉवेलों में मैंने अक्सर जीवन कम, दर्शन ज़्यादा पाया है, जो मेरे मुताबिक फिक्शन का एक कमज़ोर पहलू है.
कुंवर नारायण [कवि]
कुछ किताबों के साथ हम बड़े होते हैं और कुछ किताबें हमारी उम्र के साथ बड़ी होती हैं. 'महाभारत' दूसरी तरह की किताबों में से है और इसीलिए मुझे अत्यंत प्रिय है. उम्र के इस मोड़ पर भी मेरा-उसका साथ छूटा नहीं है. आज भी उसके प्रसंगों से मुझे नए अर्थ और अभिप्राय मिलते हैं. उसके चरित्र, घटनाएँ और उसमें गीता जैसी अनेकानेक पुस्तकों का समायोजन बड़े महत्व के हैं. लोग इस प्रक्षेप को दोष मानते हैं लेकिन मुझे यह महाभारत का सबसे बड़ा गुण मालूम पड़ता है. समूची भारतीय मानसिकता की झलक हमें महाभारत में ही मिलती है.
                              ए. रामचंद्रन [पेंटर]
बहुत सारा रूसी साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से दोस्तोवस्की, क्योंकि उनसे मुझे पेंटिंग के लिए ढेरों प्रेरणाएं मिलती रहीं, लेकिन सबसे ज़्यादा पसंद मुझे अपनी ही भाषा मलयालम के वैकम मोहम्मद बशीर प्रिय हैं. बशीर का लगभग सम्पूर्ण लेखन आत्मकथात्मक है. लेकिन उनकी आपबीती में जगबीती गुंथी हुई है. इतना सादा और आमफहम शब्दों में रचा-बसा यह जटिल जीवन मुझे दूसरों में नहीं मिलता.
चंद्रकांत देवताले [कवि ]
मुक्तिबोध की कविता पुस्तक 'चाँद का मुह टेढ़ा है' और डायरी ( एक साहित्यिक की). कवि मुक्तिबोध से मैंने बहुत-कुछ सीखा है, इस नाते स्वाभाविक ही उनकी कविताओं से मेरा मर लम्बा और सघन जुड़ाव है. पर गद्य में भी जिस जीवन-विवेक को उन्होंने काव्य-विवेक में बदलने की बात की और साहित्य से अधिक उम्मीद बाँधने को मूर्खतापूर्ण कहा --यह सब मुझे बहुत प्रेरक और लिखे जाने के इतने बरस बाद भी प्रासंगिक लगता है.
एम. के. रैना [रंगकर्मी ]
किसी एक किताब की सिफारिश मुझसे न की जाएगी. अपने शुरू के पढ़ाकू दिनों में कल्चरल कोलोनियलिज्म के बारे में पढ़ने का बड़ा चाव रहा. असल में मैं उस मानस को खारोलना-परोलना चाहता था जो दुनिया भर में अपना सांस्कृतिक उपनिवेश स्थापित करना चाहता था और ऐसा बहुत हद तक कर पाने में सफल भी रहा. मुझे यह दूसरे देश और उनके निवासियों के मानस पर गहरा आघात करने जैसा प्रतीत हुआ, जिसका पता ऊपरी तौर कई दशकों तक नहीं लगता. बाद में थियेटर करने के दरम्यान जिन लेखकों को मन से पढ़ा उनमें प्रेमचंद, मुक्तिबोध और रेणु का नाम लेना चाहूँगा.
उदय प्रकाश [कवि-कथाकार]
मुझे ज़्यादातर आत्मकथाएं और जीवनियाँ पसंद हैं. मुझे फिल्मकार लुई बुनुएल की आत्मकथा 'मई लास्ट ब्रेथ' सबसे ज़्यादा पसंद है. बुनुएल अपने काम में बहुत प्रोफेशनल नहीं थे. बहुत ठहरकर और इत्मिनान से काम किया करते थे. 'आराम हराम है' की बड़ी खिल्ली उड़ाया करते थे और 'कर्मठता' को अमानवीयता के नजदीक लाकर सोचते थे. उनकी दृढ मान्यता थी कि मनुष्य स्वप्न देखने के लिए पैदा हुआ है, काम करते हुए मर-खप जाने के लिए नहीं. अपनी आत्मकथा में उन्होंने ऐसी अनेक रोचक और बहसतलब बातों का ज़िक्र किया है.
                              रघु राय [फोटोग्राफर ]
इमानदारी से कहूँ तो मैं ज़्यादा पढ़ता नहीं हूँ. इतने बरस कैमरे की आंख से ज़िन्दगी की किताब के अलावा कुछ और दिलचस्पी से पढ़ नहीं पाया. लेकिन दलाईलामा पर पुस्तक तैयार करते हुए जब मैं उनकी किताब 'माई लैंड माई पीपल' पढ़ी तो गहरे उद्वेलित हुआ. इसमें उन्होंने बहुत सादगी और लगाव से तिब्बती लोगों का दुःख-दर्द बयाँ किया है. इसके ज़रिये मैं उनके संघर्ष को समग्रता में समझ सका.
राजी सेठ [कथाकार ]
यूँ तो अपने पसंदीदा रिल्के को मैं बहुत अर्से से पढ़ रही थी, लेकिन जब मुझे उलरिच बेयर द्वारा रिल्के के साहित्य से विषयवार चुने हुए अंशों की सुसंपादित पुस्तक ' ए पोएट'स गाइड टू लाइफ : विजडम ऑफ़ रिल्के' पढ़ने का मौका मिला तो मुझे लगा मैं उस जैसे महान कवि-लेखक की दुनिया को नए सिरे से जान रही हूँ. यह किताब रिल्के को लेकर मेरी समझ बढ़ाने में बहुत मददगार रही. रिल्के जैसी प्रज्ञा का समय-समय पर साथ आपकी रचनात्मकता को स्फूर्ति प्रदान करता है.
मुशीरुल हसन [ इतिहासकार]
निश्चय ही जवाहरलाल नेहरू की 'ऑटोबायोग्रफी' मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है. कई वजह है इसकी. पहली तो यही कि मेरी एक इतिहासपुरुष के रूप में नेहरू में गहरी दिलचस्पी है. दूसरी यह कि नेहरू ने इसे जिस दौर में लिखा था वह हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई के बेहद अहम् साल थे. इस कारण इस किताब में दर्ज घटनाओं और ब्योरों का भी बहुत महत्व है. फिर नेहरू के नेहरू बनने की कथा तो यह है ही. उनके जितने जटिल 'इंटर पर्सनल रिलेशंस' रहे, वे चाहे गाँधी के साथ हों या पिता मोतीलाल और पत्नी कमला नेहरू के साथ, सबके सब इस ऑटोबायोग्रफी में बहुत संवेदनशीलता के साथ दर्ज किए गए हैं. मेरे ख़याल से इस पुस्तक महत्व इसीलिए साहित्य, इतिहास और राजनीति के लोगों के लिए एक सामान है.

अर्पिता सिंह [ पेंटर ]
ओरहन पमुक का उपन्यास 'माई नेम इज रेड'. एक रोचक और अत्यंत पठनीय उपन्यास होने के अलावा यह मुझे चित्र-कला के नज़रिए से भी बहुत पसंद आया. जैसा नाम से पता चलता है, इसमें रंगों की भी एक सामानांतर कथा है. पमुक स्वयं एक विफल पेंटर रहे हैं. पर रंगों के साथ अपने अपनापे, उसके व्यवहार और भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में उसके मायनों को उन्होंने कथा में इस खूबी के साथ गूंथ दिया है कि यह पठन अपूर्व बन जाता है.
विश्वनाथ त्रिपाठी [ आलोचक ]
तुलसीदास की रामचरितमानस. कवि तो बहुत हुए पर गोस्वामी जी जैसा जीवन और उसके सौंदर्य का नानाविध चितेरा कोई और नहीं हुआ. यही वजह है कि वर्णाश्रम आदि विचारों से असहमति के बावजूद उनका काव्य मुझे खींचता है. तुलसी को लोक की बहुत गहरी समझ थी. अपनी कविता में उन्होंने इसे प्रतिष्ठित भी बहुत लगाव से किया है. उनकी तारीफ में चंद शब्द कम पड़ेंगे. फिराक के हवाले से कहूँ तो कविता का उत्तमांश तुलसी के पास है.
के. बिक्रम सिंह [ फिल्म मेकर + लेखक ]
करीब सत्तर के दशक में पढ़ी हुई अरुण जोशी की किताब 'द स्ट्रेंज कॉल ऑफ़ विली विश्वास' मुझे नहीं भूलती. इसे दसियों दफ़ा पढ़ चुका हूँ और आज भी जब इच्छा होती है, शेल्फ से निकालकर इसके कुछ हिस्से पढ़ता हूँ. जिन कारणों से मुझे यह किताब अत्यंत प्रिय है उसमें एक तो यही है कि इसके माध्यम से मैं एक भिन्न अनुभव-क्षेत्र से, जिसे मैं मनुष्यों का आदि-अनुभव कहना चाहूँगा, अपना तादात्म्य स्थापित कर सका. संक्षेप में इस उपन्यास की कथा तो मुझसे कही नहीं जाएगी, क्योंकि ऐसा करना उसके जादू को, उसकी कलात्मकता को, नष्ट करना होगा. इसने मुझे अद्वितीय अनुभव, असीम कल्पना और कला के एक अत्यंत उर्वर प्रदेश की सैर कराई.
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Decisiveness is key


मैदान मारने का काम मन मारकर नहीं हो सकता....................

Monday, May 6, 2013

Maternal Home

 
दादी-नानी-मामा, ये कुछ ऐसे भावनात्मक मोड़ है, जिनसे गुजर कर हम में से हर कोई यहां तक पहुंचा है। जिंदगी के सफर में ये मोड़ अब हमारे लिए मील के पत्थर है ।

Sunday, May 5, 2013

Gulzar on Ghalib



"मिर्जा गालिब को उनकी वर्षगांठ पर याद करके हम कुछ खास नहीं कर रहे हैं। उनका घर एक कोयला गोदाम में तब्दील हो गया था बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने इस स्मारक को सहेजने के लिए कदम उठाए। अब गालिब का घर एक संग्रहालय है और वहां एक मकबरा है, जहां हम हर साल उनकी वर्षगांठ पर पहुंचते हैं।"
-जाने-माने गीतकार गुलजार
 http://hindi.oneindia.in/movies/bollywood/music/2009/12/if-it-wasnt-ghalib-i-wouldnt-be-a-poet-gulzar.html

India-Tibet-China


पूरे चीनी साहित्य में कहीं हिमालय का वर्णन नहीं मिलता जैसा कि हमारे ग्रंथों में, फिर भी वह हिमालय के क्षेत्र को अपना मानता है । तिब्बत पर भी उसका दावा झूठा है । चीन के साथ हमारे संबंध कभी सहज नहीं बन सकते जब तक चीन भारत की भूमि पर काबिज रहता है और तिब्बत पर चीन का आधिपत्य समाप्त नहीं सकता । 

Lohia on China 1962



लोहिया ने कहा था कि चीन, तिब्बत पर अपना आधिपत्य जताने और जमाने के लिए तो अंग्रेजों को गवाह बनाता है, पर उन्हीं अंग्रेजों की ओर से तैयार मैकमोहन रेखा को चीन नहीं मानता।
एक और दिलचस्प प्रकरण लोहिया ने लोकसभा में उठाया था। उन्होंने कहा था कि तिब्बत स्थित मनसर नामक गांव के लोग भारत सरकार को सन 1962 तक राजस्व देते थे। मनसर भारत-तिब्बत सीमा से 200 मील अंदर तिब्बत में है। इस पर कांग्रेस के वामपंथी सदस्य शशि भूषण ने मजाक उड़ाते हुए कहा कि वह राजस्व लोहिया जी को ही   मिलता होगा। लोहिया ने जांच की मांग की। सरकार ने जांच कराई। लोहिया की बात सही पाई गई।
 स्रोत: http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/1-2009-08-27-03-35-27/43601-2013-05-01-03-12-11

self standing


अपनी जड़ों को अपनी ही मिट्टी में धँसे रहना चाहिए.............

Khwaza Ahmed Abbas-Sardarji


कांग्रेसी प्रोपेंगडा मुसलमानों के विरुध्द जोरों से चल रहा है और इस बार कांग्रेसियों ने चाल यह चली कि बजाए कांग्रेस का नाम लेने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और शहीदी दल के नाम से काम कर रहे थे हालांकि दुनिया जानती है कि ये हिन्दू चाहे कांग्रेसी हों या महासभाई सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चाहे दुनिया को दिखाने की खातिर वे बाह्य रूप से गांधी और जवाहरलाल नेहरू को गालियां ही क्यों न देते हों।
(सरदार जी: ख्वाजा अहमद अब्बास )

Delhi:Khwaja Ahmed Abbas


सुनहरी मस्जिद तो दिल्ली में है। सुनहरी मस्जिद ही नहीं जामा मस्जिद, लाल-किला भी। निजामुद्दीन औलिया का मजार, हुमायूं का मकबरा, सफदरजंग का मदरसा...यानी चप्पे-चप्पे पर इस्लामी हुकूमत के निशान जाते हैं। फिर भी आज इसी दिल्ली बल्कि कहना चाहिए कि शाहजहांनाबाद पर हिन्दू साम्राज्य का झंडा फहराया जा रहा था! सोचकर मेरा दिल भर आया कि दिल्ली जो कभी मुसलमानों की राजधानी थी, सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी, हमसे छीन ली गयी और हमें पश्चिमी पंजाब और सिन्ध, बलोचिस्तान वगैरह जैसे उजड्ड और गंवारू इलाकों में जबरदस्ती भेजा जा रहा था, जहां किसी को साफ-सुथरी उर्दू बोलनी भी नहीं आती। जहां सलवारों जैसा जोकराना लिबास पहना जाता है। जहां हल्की-फुल्की पाव भर में बीस चपातियों की बजाय दो-दो सेर की नानें खायी जाती हैं।
(सरदार जी: ख्वाजा अहमद अब्बास )

Manto:pakistan


मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूँढ़ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ।-सआदत हसन मंटो

(मैं क्यों लिखता हूँ : सआदत हसन मंटो)
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1090&pageno=1

khusro-delhi

हनूज दिल्ली दूरअस्त - यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है।
यह कहावत 'अभी दिल्ली दूर है' पहले हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई।

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...