Monday, January 28, 2019

Nature_Sri Aurobindo_महर्षि अरविन्द_प्रकृति






पश्चिम का नारा है कि “प्रकृति के अनुसार जीना चाहिए".
लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि कौन सी प्रकृति?
शरीर की प्रकृति या शरीर से इतर पायी जाने वाली प्रकृति?
हमें पहले इस बात को निर्धारित करना चाहिए!


-महर्षि अरविन्द

Saturday, January 26, 2019

Raisina_from village to President House_रायसीना गाँव_जागीर से राष्ट्रपति भवन तक

26012019_दैनिक जागरण  



आज यह बात जानकार हर किसी को हैरानी होगी कि आधुनिक भारतीय गणतंत्र का प्रतीक राष्ट्रपति भवन जिस रॉयसीना पहाड़ी पर शान से खड़ा है, कभी वहां पर रॉयसीना गांव हुआ करता था जो कि मारवाड़ के राजपूत शासकों की पैतृक जागीर था।


इतिहास के पन्नों में झांकने पर पता चलता है कि मुगल बादशाह शाह आलम दूसरा (1728-1806) ने अपने शासन के 17 वें साल के नौंवे जमादी-उल-आखिर में मारवाड़ के महाराजा बिजय सिंह (1752-1793) के पक्ष में इस जागीर के लिए एक सनद जारी की थी। बादशाह शाह आलम दूसरा  का असली नाम अली गौहर था जो कि आलमगीर दूसरा का पुत्र था। उसने 24 दिसंबर 1750 ईस्वी से अपनी बादशाहत का साल शुरु किया था। इस सनद में दर्ज तारीख सात अगस्त 1775 की है।


इस सनद में अरबी लिपि में एक शाही तुगरा और शाही मोहर के अलावा ठप्पा अंकित हैं। वजीर की मोहर पर अंकित है शाह आलम बादशाह गाजी. इसमें 1190 का हिजरी संवत और ताजपोशी का 17 वां साल भी है। इससे पता चलता है कि यह मोहर आसफउदुल्लाह के समय की है। यह मोहर सनद के पीछे बाई ओर नीचे की तरफ लगी है।
सनद बताती है-
शाही दफ्तर की पंजी के अनुसार मामले का विवरण दर्ज किया जा सकता है। आदेश जारी किए गए।
गाँव रायसीना राजधानी शाहजहाँनाबाद के हवाली (उपनगर) जिले में स्थित है।


महाराजा बख्त सिंह की पुरानी जागीर, जो कि पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए मुहम्मद मुराद ख़ान को दे दी गई, दूसरी बार साल 1760 में महाराजा बिजय सिंह को बहाल की गई। पर उसके बाद हाल में ही उसे खालसा में शामिल कर लिया गया। इसी रायसीना के उनकी पैतृक जागीर होने के कारण खालसा से महाराजा बिजय सिंह बहादुर और उनके वंशजों को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए बतौर ईनाम दी जाती है। दर्ज तारीख 24 अगस्त 1775.


सनद के अनुसार, इस शुभ मुहूर्त में यह आदेश जारी किया जाता है कि राजधानी शाहजहांनाबाद (दिल्ली) के हवाली (उपनगर) परगना में 700 रूपए के किराए की कीमत वाले रायसीना गाँव को महाराजाधिराज बिजय बहादुर और उनकी पीढ़ियों को उनकी पुरानी जागीर, जिसे खालसा में मिला लिया गया, के बदले ईनाम में दी जाती है।
यह (जागीर) भविष्य में होने परिवर्तन से सुरक्षित और संरक्षित होगी। इससे किसी तरह की वसूली भी नहीं की जाएंगी तथा यह जागीर सभी तरह के नागरिक और शाही वसूली से मुक्त होगी। दर्ज तारीख 7 अगस्त 1775.


इस सनद से यह बात साफ होती है कि रायसीना गांव, जिस पर आज की नई दिल्ली बसी है, मुगल काल में मारवाड़ के शासकों की पैतृक जागीर था। जो कि महाराजा बख्त सिंह के शासनकाल (1751-52) तक नियमित रूप से उनके स्वामित्व में रहा। पर जोधपुर राजवंश में आपसी कलह होने के कारण मुगल बादशाह ने विरोधी दल के उकसाने पर उसे महाराजा बिजय सिंह से जब्त करके मुहम्मद मुराद खान को सौंप दिया। जब बाद में जोधपुर राजवंश का आपसी विवाद समाप्त हो गया तो रायसीना गांव को दोबारा 1760 में महाराजा बिजय सिंह को दे दिया गया। पर उसके कुछ समय उपरांत जब बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ मराठों की नजदीकियां बढ़ी और दरबार में मारवाड़ का प्रभाव कम हुआ तो गांव को एक बार फिर जोधपुर महाराजा से छीन लिया गया।


ऐसा प्रतीत होता है कि आखिरकार मारवाड़ में सभी प्रकार के प्रमुख विद्रोहों को दबाने के बाद महाराजा बिजय सिंह ने बादशाह के दरबार (जिसकी सनद के पिछले हिस्से में केंद्रीय सत्ता की मुहर से पुष्टि होती है) में इस गांव (जो कि उनकी पैतृक जागीर था) के लिए अपना दावा पेष किया था। मुग़ल बादशाह ने इस गांव को मारवाड़ के महाराजाओं की पैतृक जागीर होने के बतौर सबूत देखा होगा क्योंकि इसका और कोई दूसरा सही दावेदार भी नहीं था। यही कारण होगा कि बादशाह ने महाराजा बिजय सिंह के नाम पर यह सनद 1775 में जारी की। वैसे इस बात का अनुमान लगाना कठिन है कि कब और किन परिस्थितियों में यह जागीर मारवाड़ के षासकों के स्वामित्व से निकली। पर इस सनद से तो तथ्य तो साफ निकलते हैं। पहला यह कि रायसीना मारवाड़ के महाराजाओं की पैतृक जागीर था और दूसरा कि जुब्दाह-राजा-ऐ-हिन्दुस्तान-राज-राजेश्वर-महाराजाधिराज की पदवी मुगल सल्तनत के अंत तक मारवाड़ के महाराजाओं के नाम से साथ प्रयोग होती रही।


Sunday, January 20, 2019

Story of Karol Bagh_करोलबाग के बसने की कहानी

19012019_Dainik Jagran
 

अंग्रेज सरकार ने दिल्ली की तेजी से बढ़ती आबादी को समायोजित करने के हिसाब से दिल्ली इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट योजना के तहत 1937 में करोलबाग की स्थापना की थी। तब अंग्रेजों की नई राजधानी नई दिल्ली के निर्माण के लिए लगे मजदूरों के परिवारों को बसाने के उद्देश्य से करोलबाग में वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया नामक एक योजना बनाई गई थी। वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया में करोलबाग, सिदीपुरा, नाईवालान और बस्ती रैगरान आता था।

 जबकि इससे पहले लाॅर्ड इरविन (1926-31) ने अपने कार्यकाल में वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया में जल आपूर्ति, जल निकासी, पुराने शहर से सहज परिवहन की समुचित व्यवस्था की थी। तब करोल बाग इलाके को लोकप्रिय बनाने के हिसाब से बाड़ा हिंदू राव से अजमेरी गेट तक वाया करोलबाग एक बस सेवा शुरू करने की भी योजना बनाई गई थी। इरविन का मानना था कि केंद्रीय अंग्रेज सरकार के दिल्ली पर काबिज होने के कारण यहां पर जनसंख्या में वृद्वि हुई है इसलिए इस जनसंख्या घनत्व को कम करने की जिम्मेदारी भी उसकी ही है। इस कारण ही इरविन ने दिल्ली म्युनिसिपालिटी को जल आपूर्ति सुधारने और झुग्गी हटाने के लिए अनुदान भी दिया। 


"दिल्ली बिटीवीन टू एंपायर्स" पुस्तक में नारायणी गुप्ता लिखती है कि यह इलाका शहर की बढ़ती आबादी के सेफ्टी वाल्व के रूप में माना गया था। गौरतलब है कि करोल बाग, वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया और पहाड़गंज में भारतीय बसने लगे थे। उस दौर में बसी करोलबाग और जंगपुरा कॉलोनियों में एक महत्वपूर्ण साम्यता थी। अंग्रेज सरकार ने इन दोनों काॅलोनियों के लिए चयनित क्षेत्र में समकोणकार सड़कों का जाल बिछाया। जहां बसने वाले हर भारतीय को मकान बनाने के लिए तयशुदा आकार के भूखंड देेने का निर्णय किया। पर उन मकानों के संभावित विकास का दायित्व मालिक के विवेक पर ही छोड़ दिया गया। 


अंग्रेजों के दौर में सार्वजनिक निर्माण विभाग और दिल्ली इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट दो मुख्य सरकारी विभाग थे जो कि काॅलोनियों के ले आउट (आकल्पन) और निर्माण के लिए जिम्मेदार थे। अंग्रेज सरकार इन काॅलोनियों की बसावट के लिए स्थान निश्चित करती थी जबकि सभी घर वास्तुकारों की योजना के हिसाब से नहीं बनाए जाते थे। अंग्रेजों की नई दिल्ली में जगह न मिलने के कारण कनिष्ठ स्तर के भारतीय कर्मचारियों ने करोलबाग के देवनगर में अपने मकान बनाए। यहां देश के दूसरे भागों से अपने परिवार सहित आए पेशेवरों को भी जगह मिली।


"ट्रेंड्स ऑफ प्लाॅनिंग एंड डिजाइन ऑफ  अर्बन प्लानिंग" पुस्तक के अनुसार, नई दिल्ली के के निर्माण के समय ही अंग्रेज वास्तुकारों लुटियन और बेकर ने क्लर्कों के लिए बसावट को दो हिस्सों में बांट दिया था। एक विशेष श्रेणी के बाबूओं के लिए गोल डाकखाना (नई दिल्ली पोस्ट ऑफिस) के इलाके को विकसित किया गया। दूसरे विश्व युद्व तक सरकारी आवासन के क्षेत्र में यही नीति लागू रही। अंग्रेज सरकार ने नई दिल्ली में सरकारी आवासीय काॅलोनियों के पदानुक्रम (पद पर आधारित) व्यवस्था को अपनाया गया था और सत्ता सुविधाओं के पिरामिड सिद्धांत के आधार पर बड़े अफसरों को अधिक सुविधाएं और उसके नीचे के बाबूओं को कमतर सुविधाएं प्रदान की गई थी।


1947 में दिल्ली देश की आजादी के साथ विभाजन की पीड़ा की भी गवाह थी। पाकिस्तान से आए हजारों हिंदू-सिख शरणार्थियों की साज-संभाल के लिए नवगठित केंद्रीय पुर्नवास मंत्रालय ने करोल बाग के तिब्बिया काॅलेज इलाके में शरणार्थियों के लिए शिविर लगाए। इसके परिणामस्वरूप यहां पर आबादी में यकायक काफी इजाफा हुआ।

Tuesday, January 8, 2019

love_oscar wilde_प्यार_ऑस्कर वाइल्ड




आप किसी से उसकी सुंदरता, उसके कपड़ों या उसकी पसंदीदा कार के लिए प्यार नहीं करते बल्कि उसके गाए एक गीत के लिए करते हैं, जिसे केवल आप ही सुन सकते हैं।


-ऑस्कर वाइल्ड

Albert Camus_अल्बर्ट कामू



सर्दी की इन्तहां में ही आख़िरकार मुझे इस बात का अहसास हुआ कि मेरे भीतर बेपनाह गर्मी है.

-अल्बर्ट कामू

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...