Tuesday, March 31, 2020

Micco Spadaro_Painting on Plague_प्लेग पर पेंटिंग_माइको स्पेडेरोमाइको स्पैडरो




यूरोप में 17 वीं सदी के मध्य में प्लेग की महामारी इटली के नेपल्स में कहर ढा रही थी तब के समय में चित्रकार माइको स्पैडरो ने पेंटिंग में प्लेग की विभीषिका को चित्रित किया। इस पेंटिंग में प्लेग के कारण मरे व्यक्तियों के ताबूत लेकर जाते, लाशों का उठाते और मरते हुए लोगों का चित्रण है।

Saturday, March 28, 2020

Water discourse of Indian Society_Anupam Mishra_साफ़ माथे के समाज का पानी अभी बचा है_अनुपम मिश्र

साफ़ माथे के समाज का पानी_अनुपम मिश्र



आप पायेंगे कि ये अलग-अलग चेहरे हैं लेकिन उनकी जुबान एक हो गयी और इसलिए अगर मूल साहित्य भी दिखेगा तो मूल पर भी अंग्रेजी विचार का इतना असर है कि वो मौलिक नहीं बचता।
(पर्यावरण के पाठ, पेज 14)







History of diseases and hospitals in British Delhi_अंग्रेज़ों की दिल्ली में रोग और निदान का इतिहास

28032020, दैनिक जागरण 





वर्ष 1803 में दिल्ली जीतने के बाद से ही अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में जन स्वास्थ्य के विषय पर बहुधा चर्चा होती थी। ऐसा अंग्रेजों के लिए दिल्ली का एक महत्वपूर्ण सैनिक ठिकाना होने और उसके उत्तर पश्चिमी सूबे की राजधानी बनने की संभावना के कारण भी था।


19वीं शताब्दी के आरंभ में अंग्रेजों में भारतीय रोगों और जन स्वास्थ्य की समस्याओं को लेकर अधिक समझ नहीं विकसित हुई थी। पर इन रोगों के मूल कारणों की तह तक पहुंचने और उनके उपायों को खोजने के प्रयास होने लगे थे, चाहे उसमें विदेशी हुकुमरानों की अपनी गरज़ थी।


किसी बीमारी का अचानक ही बृहत् रूप में किसी आबादी को प्रभावित करना महामारी कहलाता है। महामारी के अंग्रेजी रूपान्तरण एपिडेमिक का शाब्दिक अर्थ लोगों पर है। पहले महामारी का प्रयोग संक्रामक रोग के लिए किया जाता था। जैसे मलेरिया, बड़ी माता, चेचक और हैजा। अंग्रेज़ों की दिल्ली में प्रचलित रोगों जैसे हैजा, मलेरिया और दिल्ली सोर के लिए यही माना गया कि ये सभी रोग जल जनित छूत के कारण होते हैं। और इन रोगों का फैलाव बहते पानी, कुंए के खारे पानी और तालाबों के ठहरे पानी के कारण होता है। वर्ष 1817 में नजफगढ़ झील के पानी की निकासी की एक योजना बनाई गई थी। पर शायद इसके निर्माण पर होने वाली खर्च की राशि को देखते हुए इस योजना का श्रीगणेश ही नहीं हुआ।


दिल्ली शहर में सफाई के इंतजाम आरंभ से ही भीतर के क्षेत्र में पानी की आपूर्ति से जुड़े हुए थे। अली मर्दन नहर सूख चुकी थी। वर्ष 1852 में शहर के गंदे पानी की निकासी व्यवस्था को लेकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने पर गंभीरता से विचार किया गया। यहां तक कि अत्याधिक तापमान वाले उजाड़ रिज को भी सैनिकों के स्वास्थ्य के लिए खतरा माना गया। जहां पर तब दो साल से अधिक समय से (1857 के बाद) अंग्रेज फौज की टुकड़ियां टिकी हुई थी । उल्लेखनीय है कि अंग्रेज सेनापति बर्नार्ड 5 जुलाई 1857 को हैजे से ही मरा था।
इसी वजह से तत्कालीन शीर्ष अंग्रेज सैनिक अधिकारी चार्ल्स नेपियर को हैरानी थी कि अगर दिल्ली अस्वास्थप्रद है तो फिर यह इतना भव्य नगर कैसे बना? वह इस बात को जानना चाहता था। शहर को साफ रखने के लिए कठोरता से नियम पालन करवाने वाली पुलिस, नहर से सिंचाई के बारे में सफाई के उपयुक्त नियम, नहरों के साफ किनारे, क्योंकि वहीं से मलेरिया बहुत तेजी से फैलता है, इस तरह ही दिल्ली भारत के किसी भी दूसरे भाग की तरह स्वस्थ होगी।
"औपनिवेशिक पंजाब में महामारी का सामाजिक इतिहास" के अनुसार, वर्ष 1842, 1846 और 1849 में दिल्ली में चेचक की महामारी फैली थी। जैसोर के सिविल सर्जन डाक्टर टाइटलर ने अपनी एक रिपोर्ट में वर्ष 1817 में जैसोर में एक बड़ी महामारी के होने और उसके दिल्ली, बरेली, इलाहाबाद और शाहजहांपुर तक फैलने का उल्लेख किया है। "भारत में रोग और दवाः एक ऐतिहासिक परिदृश्य" पुस्तक में वर्ष 1826 की पहली तिमाही में हैजे के बंगाल के निचले भाग से शुरू होकर गंगा के किनारे-किनारे बनारस, कानपुर, आगरा और मथुरा से होते हुए दिल्ली तक फैलने का पता चलता है।


19वीं शताब्दी के आरम्भ में स्वास्थ्य का स्तर बहुत निम्न था क्योंकि पश्चिमी यमुना नहर के दोषपूर्ण तरीके से जुड़े होने और उनके फलस्वरूप पानी जमा होने के कारण दिल्ली में और इस शहर के चारों ओर बुखार मुख्य बीमारी के रूप में फैलता था। अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1847 में स्वास्थ्य की स्थिति की मांग के लिए एक समिति बनाई और चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि 75 प्रतिशत से भी अधिक लोगों को प्लीहा (स्पलीन) की बीमारी है। वर्ष 1867 में भारत सरकार ने दूसरी जांच समिति बनाई। तब दिल्ली पंजाब सरकार का एक जिला थी और चिकित्सा व जन स्वास्थ्य व्यवस्था पंजारा सरकार के सिविल सर्जन के अधीन थी। सिविल सर्जन दिल्ली ने प्लीहा की बीमारी बहुत अधिक होने की और दल-दल से जल निकासी की व्यवस्था की कमी से इसका निकट सम्बन्ध होने की रिपोर्ट दी। सन् 1898 में शहर को नया रूप देने से स्थानीय जनता के स्वास्थ्य की संतोषजनक स्थिति सामने आई और प्लीहा की बीमारी के मामले घटने आरंभ हो गए।


मुगल दरबार के व्यक्तियों, बैंकरों और बनियों ने खुले हाथ से दिल्ली में एक शाही शहर के लायक एक प्रस्तावित डिस्पेंसरी के लिए अंशदान किया। जहां स्थानीय स्तर पर जमा चंदे से इस काम के लिए करीब दस हजार रूपए जुटे वहीं अंग्रेज सरकार ने केवल 2500 रूपए धनराशि ही स्वीकृत की। वर्ष 1850 में अंग्रेज भारत के शहरों में जन स्वास्थ्य के लिए जनता से कर उगाही के लिए कमेटियों के गठन को लेकर एक अधिनियम बना। वर्ष 1857 के छह वर्ष बाद वर्ष 1863 में दिल्ली नगर निगम की बुनियाद पड़ी। उसकी पहली सभा 1 जून 1863 के दिन हुई। सन् 1881 में इसे प्रथम दर्जे की म्युनिसिपल कमेटी बना दिया गया। उस वक्त इसके 21 सदस्य थे जो सब नामजद थे।


वर्ष 1898 में प्लेग के डर की वजह से अंग्रेजों ने यूरोपीय क्लब चांदनी चौक के टाउन हाल से लुडलो कैसल स्थानांतरित किया। अंग्रेजों ने सिविल लाइन को अपनी दिल्ली बना लिया था और शहर की ओर वे कहर की दृष्टि से देखते थे। सिविल लाइन में उनके बड़े-बड़े आलीशान बंगले थे, उनकी अपनी क्लब थी, जिसमें हिन्दुस्तानी शरीक नहीं हो सकते थे, सब प्रकार की सुविधा और साधन वहां मौजूद थे और दिल्ली बेकसी की हालत में थी। शहर की सफाई और सेहत की हालत यह थी कि मलेरिया और मौसमी बुखार तो फैला ही रहता था, प्लेग का भी हमला हो जाता था।

वर्ष 1911 में जब अंग्रेज़ राजा शाह जार्ज पंचम का दिल्ली में दरबार हुआ तो उसने कलकत्ते से राजधानी को हटा कर दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। लाचार अंग्रेजों को भी दिल्ली की दुरुस्ती की ओर ध्यान देना पड़ा। यह कोई हिन्दुस्तानियों पर इनायत करने के लिए न था, बल्कि खुद अपने को खतरे से बचाने के लिए था क्योंकि दिल्ली की सेहत खराब रहने से उनको अपने लिए खतरा था।
पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि दिल्ली काफी हद तक मलेरिया से प्रभावित रही है। यह रोग विशेषकर नदी के निकटवर्ती क्षेत्र में और नजफगढ़ झील के चारों ओर फैलता था। अंग्रेजों के समय लाल किले में रहने वाले सैनिकों की विशेष देखभाल आवश्यक होती थी क्योंकि लाल किले के अंदर और उसके चारों ओर मलेरिया का भारी प्रकोप होता था।


दिल्ली में वर्ष 1912 के बाद जन्म-मृत्यु के आंकड़े अलग-अलग पंजीकृत करने की शुरूआत हुई। राजधानी में 1914-1941 के बीच मृत्यु दर का आंकड़ा दोहरे अंक में था जो कि आजादी के बाद एकल अंक में आया।
1930 और 1940 की दशक में दिल्ली में सबसे अधिक व्यक्तियों की मृत्यु श्वास संबंधी बीमारियों से (4538 और 6151), ज्वर (6879 और 3906), चेचक (398 और 152) से हुई। जबकि कुल मिलाकर, 1930 के दशक में 16117 और 1940 के दशक में 19399 रोगियों की मौत हुई। जबकि दिल्ली में शहरी क्षेत्रों में मलेरिया से सम्बन्धित कार्य वर्ष वर्ष 1936 से आरंभ हुआ था।

अंग्रेजों के ज़माने के अस्पताल


जामा मस्जिद के पास जो डफरिन अस्पताल था, 1885-93 में लार्ड डफरिन ने उसका शिलान्यास किया था। यह 1892-93 में बन कर तैयार हुआ। दिल्ली में यह पहला अंग्रेजी अस्पताल था। इसकी एक मंजिल जमीनदोज थी, एक ऊपर। जब इरविन अस्पताल बना तो यह अस्पताल वहां चला गया और यहां डिस्पेंसरी रह गई। 1857 की आजादी की लड़ाई से पहले लाल किले के पास लाल डिग्गी में एक छोटा सा अस्पताल आठ बिस्तरों का हुआ करता था, जो कि 1857 के बाद खत्म हो गया।


सेंट स्टीफेंस अस्पताल वर्ष 1884 को चांदनी चौक में जहां अब सेंट्रल बैंक है, अंग्रेज महिला विंटर की याद में वर्ष 1884 में औरतों के लिए बनाया गया था। डचेच ऑफ़ कनाट ने 8 जनवरी को इसका शिलान्यास किया था और वर्ष 1885 में लेडी डफरिन ने इसका उद्घाटन किया था। यह इमारत लाल पत्थर की बनाई गई थी, जो दो मंजिला थी। कुछ ही वर्ष में इसकी इमारत छोटी पड़ गई, तब तीस हजारी में फूंस की सराय के सामने वर्ष 1906 में लेडी मिंटो ने एक दूसरे अस्पताल का शिलान्यास किया। जनवरी 1909 में लेडी लेन ने उसका उद्घाटन किया। अब जीपीएस और केम्ब्रिज मिशन इस अस्पताल को चलाते हैं।


वर्ष 1904 में दिल्ली में औरतों के विक्टोरिया जनाना अस्पताल का शिलान्यास 19 फरवरी 1904 को लेडी रिवाज द्वारा जामा मस्जिद के मछलीवालां में किया गया था। अब तो यह बहुत बढ़ गया है। दिल्ली में तब औरतों के तीन अस्पताल थे। एक यह, दूसरा फूंस की सराय पर मिशनरियों का, जो पहले चांदनी चौक में हुआ करता था और तीसरा लेडी हार्डिंग अस्पताल।


लेडी हार्डिंग अस्पताल की स्थापना वर्ष 1912 में लेडी हार्डिंग ने की। उसी के नाम पर इसे चलाया गया, करीब तीस लाख रूपया इसके लिए हिंदुस्तानी राजाओं तथा अन्य लोगों से जमा किया गया। कालेज के साथ इसमें दो सौ मरीजों को रखने के लिए अस्पताल भी खोला गया। साथ ही एक नर्सिंग स्कूल और सौ छात्रों के लिए छात्रावास भी खोला गया। इस पर कुल लागत 3391301 रूपए आई। इरविन अस्पताल का शिलान्यास वर्ष 1930 में लार्ड इरविन द्वारा हुआ था मगर यह बनना शुरू हुआ वर्ष 1934 में और अप्रैल 1935 में बन कर तैयार हुआ। करीब छब्बीस लाख रूपया इस पर खर्च आया। इसमें 320 मरीजों की गुंजाइश रखी गई थी। 20 पारिवारिक वार्ड बनाए गए और दस विशेष वार्ड। लार्ड इरविन के बाद वर्ष 1932 में लार्ड विलिंगडन आया, जो वर्ष 1936 तक दिल्ली में रहा। इसके जमाने की यादगार विलिंगडन अस्पताल है। यह नई दिल्ली के गोल डाकखाने के पास स्थित है। अब यह राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहलाता है।


Friday, March 27, 2020

Full Name of Anand K Coomaraswamy_आनन्द कुमार स्वामी



प्रसिद्ध प्राच्यविद् और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चोटी के कला इतिहासकारों में गिने जाने वाले आनन्द कुमार स्वामी का पूरा नाम आनन्द केंटिश कुमारस्वामी है।

centenary postal stamps on 1857_Sapling and Leaping Flames_Maharani Lakshmi Bai_

A commemorative postage stamp on  CENTENARY OF FIRST FREEDOM STRUGGLE - SAPLING AND LEAPING FLAMES 1857-1957

A commemorative postage stamp on  CENTENARY OF FIRST FREEDOM STRUGGLE - RANI LAKSHMIBAI 1857-1957 






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Wednesday, March 25, 2020

Corona Days_writing_कोरोना_विषाणु_लेखनचिंतन_अनुचिंतन




याद आ गया गुजरा जमाना...
फेसबुक पर बचपन में महत्वपूर्ण किताबों को खरीद न पाने की औकात ओर ऐसी किताबों के लाइब्रेरी में उपलब्ध न होने की एक मित्र की पोस्ट से अपना भी गुजरा हुआ बचपन याद आ गया।
पता चलता है कि हम भाग्यवान थे कि पहले ऐसी किताबों का पता नहीं था और जब कालेज में पता चला तो मां के स्नेह के कारण किताब खरीदने में मायूसी नहीं देखनी पड़ी।
इस पोस्ट से याद आया कि मैं भी कालेज के समय में मुहल्ले के मंदिर की लाइब्रेरी में अखबार के साथ आने वाले इश्तहारी पेम्पलेटों के पीछे खाली जगह में नकल उतारता था। ये नकलें कुछ किताबों की तो कुछ अखबारों के लेखों की होती थी। 

सच में वे भी क्या दिन थे। 


अकेले तो सही में भयावह समय है.
ऐसे में परिवार में रहते हुए चाहे आपस में कितनी भी जूतम पैजार है, लाख दर्जे सही है.
कम से कम आपको जीवन के स्पंदन और उसकी रागात्मकता का तो अहसास बना रहता है.
फिर चाहे अरसे बाद परिवार के इतनी देर साथ रहना सजा ही क्यों न लगती हो.
यह सजा भी फलदायी है जो कि आख़िरकार बड़े से लेकर बच्चों के प्रति सम्मान और स्नेह और पत्नी के प्रति प्रेम को विस्तारित ही करेगा.
नहीं तो नौकरी-कैरियर की इस चूहा दौड़ ने पहुँचाया तो कहीं नहीं पर परिवार में भी सबको निपट अकेला कर ही दिया है.
अब परिवार की इस हथिय, राजस्थान में चौपाल का एक नाम, के गुलज़ार होने से दिल के गिले-शिकवे भी दूर हो रहे है और मन के कोने में हुआ अँधियारा भी प्रकाश से दूर हो रहा है.
आखिर हमारे वेदों में अँधेरे से उजाले की तरफ को जाना ही तो जीवन का मर्म माना गया है. 


सभी सरकारों को देश भर में सड़क पर फंसे नागरिकों के लिए गुरुद्वारों को लंगर केंद्रों के रूप में विकसित करने की पहल करनी चाहिए. इसके लिए स्थानीय स्तर पर सिख समाज से बात करके उन्हें भोजन के लिए जरुरी रसद-सामग्री प्रदान करवाने की पहल होनी चाहिए.
सेवा के पर्याय सिख समाज के रूप में मानवीय सहायता और गुरुद्वारों के रूप में भवन और अन्य व्यवस्था पहले से ही मौजूद है. इससे बिना भगदड़ के कम दूरी पर बेसहारा और इस चीनी महामारी के कारण रास्तों में फंसे नागरिकों को बड़ी सहायता मिल सकती है.
मेरा दृढ़ विश्वास है कि भोजन के रूप में गुरु का प्रसाद, हम सबके लिए इस महामारी से मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करेगा.




नापाक चीन का ख़ामियाज़ा भुगतती दुनिया
चीन के वुहान कोरोना विषाणु से उपजी राष्ट्रीय आपदा के समय में भी पड़ोसी महजबी मुल्क़ की गोलबारी जारी है। बाक़ी हमारी लाल रुदाली जमात हिंदुस्तान के इज़रायल से प्रतिरक्षा के हथियार ख़रीद पर छाती पिट रही है। एक जैविक युद्ध, एक प्रत्यक्ष आतंकवाद समर्थक युद्ध और एक देशी बुद्धिजीवियों का पर-राष्ट्र समर्थक युद्ध! कितने मोर्चों पर कितनी बार? वैसे पुँछ में सेना का एक पोर्टर मुहम्मद शौक़त पाक की नापाक हरकत के कारण शहीद हो गया है।


कुछ बुद्धिजीवी इस संकट की घड़ी में देश-समाज का उत्साहवर्धन करने की अपेक्षा अपने कुतर्क को सही बताने के लिए अशालीन ही नहीं अश्लील तक होने में गुरेज़ नहीं कर रहे।


जीवन में चिंता तो सदा चिता समान ही होती है। सो, न करें तो आपके मानस के लिए सबसे बेहतर।


महामुनि थोरो ने कहीं "इरादेपूर्वक" जीने की बात कही है।
जीवन के "ध्येय" के बारे में काफी लोग चिंतन-मंथन करते रहते हैं।
ऐसा चिंतन-मंथन छोड़कर यदि वे जीने लग जाएं तो शायद समझ आ जाए कि जीना ही हमारा जीवन ध्येय है।


शहर में यह सुख है कि यहां भ्रांतियां सुरक्षित रहती हैं शायद इसीलिए गांव टूटते जाते हैं।
सच का गांव नहीं होता, झूठ का पांव नहीं होता।
राजस्थान की इस कहावत को गढ़ने वाले को तो "फेक न्यूज" की कल्पना भी नहीं हो


कामदेव के ताप के सिवा दूसरा ताप नहीं, प्रणय के कलह के सिवा दूसरा कलह नहीं, यौवन के सिवा दूसरी कोई अवस्था नहीं।
-कालिदास


कुछ राज्य सभा के आकांक्षी वहाँ न पहुँच पाने के कारण फ़ेसबुक को ही उच्च सदन मानकर दे-दनादन सुझाव दिए जा रहे हैं। जैसे कई सांसद प्राइवेट मेम्बर बिल लाकर अपने इलाक़े और इलाक़े के लोगों को बताते है कि देखो मैंने कितना भारी सुझाव-सलाह दी। और उसे माना नहीं गया। जैसे सदन की कार्रवाई में होता है, ऐसे बिलों को रिकार्ड के लिए नत्थी कर दिया जाता है। अगर सरकार को सुझाव देने वाले हर व्यक्ति को प्रति सुझाव पर चीन के वुहान विषाणु से ग्रसित रोगी की सेवा करने पर तैनात करने का प्रावधान कर दिया जाए तो Facebook पर पोस्टों की गिनती कम हो जायेगी। आख़िर कहावत, पर उपदेश कुशल बहुतेरे भी तो हिंदुस्तान की ही है न!


आज मासूमों की हत्या करने में अंग्रेज़ों की हुकूमत को भी पीछे छोड़ने वाले इन नकली-लाल नक्सलियों की क्रांति के नाम पर मानव हिंसा को देखकर शहीद भगत सिंह की आत्मा भी रो देती।



Monday, March 23, 2020

Indian Will Maker_at the time of corona_भयादोहन के कालनेमि अवतार


भयादोहन के कालनेमि अवतार

कोरोना के फेर में बाजार में धनपिपासुओं की भी कमी नहीं है. अंग्रेजी में विज्ञापन बनाकर आपकी अंतिम अरदास को बेचने का फार्मूला लेकर आ गए हैं, फेसबुक पर ग्राहकों को लुभाने. देख कर पढ़ लो, फिर कल हो न हो.

फेसबुक भी ऐसो को ब्लॉक नहीं करता, यही बाजार की माया है. कोई जन्म कुंडली बेच रहा है तो कोई अंतिम वसीयत।

लगता है ३००० रुपए में अंतिम अरदास वाली मुंबई की इस कंपनी ने हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर की फिल्म "हिना" का यह गाना कुछ ज्यादा ही दिल से लगा लिया, "देर न हो जाएं, कहीं देर न हो जाएं "

वैसे हमारी घर फूंकने की परंपरा के पुरोधा कबीर ऐसे ही नहीं लिख गए, माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।

First Women Medical Student of India_Reminiscences_Mary Scharlieb_मैरी शार्लीब_मद्रास मेडिकल कॉलेज



भारत के चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में वर्ष 1875 एक मील का पत्थर है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस साल मद्रास मेडिकल कॉलेज में चार महिलाओं को पहली बार तीन वर्षीय सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम में भर्ती किया गया। 


देश के चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में पहली चार महिलाओं में से एक मैरी शार्लीब भी थी। यह एक अंग्रेज वकील की पत्नी शार्लीब की पैरवी का ही परिणाम था कि मद्रास मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों ने महिला छात्राओं की पढ़ाई के लिए अपने काॅलेज के दरवाजे खोले। यहां से पढ़ाई करने के बाद शार्लीब लंदन में स्त्री रोग विशेषज्ञ बनी। 


भारत से लौटने के बाद शार्लीब ने अपने संस्मरणों को एक पुस्तक का स्वरुप दिया। "रेमनिसन्स" शीर्षक से प्रकाशित इस किताब को 1924 में लंदन के प्रकाशक विलियम्स एंड नाॅरगेट ने छापा। शार्लीब ने दो अन्य पुस्तकें भी लिखी जो कि "स्ट्रेट टाॅक्स टू वूमैन" और "हाॅऊ टू इनलाइटन अवर चिल्ड्रन" के नाम से प्रकाशित हुई।







Sunday, March 22, 2020

Sannate ka chand_Agheya_सन्नाटे का छन्द_अज्ञेय




मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन-सा, वन-सा अपने में बन्द हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।

Saturday, March 21, 2020

Place of India in Spice World Trade_मसाला व्यापार में भारत



संसार के मसाला व्यापार में भारत पहली पांत के देशों में से एक है। इसका कारण यह है कि भारत में अनेक प्रकार के मसालों का उत्पादन होता है।

हिंदुस्तान की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति होने के कारण यहां विभिन्न प्रकार की जलवायु, उष्णकटिबंध क्षेत्र से लेकर उपोष्ण कटिबंध तथा शीतोष्ण क्षेत्र तक, पाई जाती हैं। 


इसी वजह से यहां लगभग सभी तरह के मसालों का बढ़िया उत्पादन होता है। ऐसा देखा जाएं तो भारत के लगभग सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों क्षेत्रों में कोई-न-कोई विशिष्ट मसाला पाया है।


केंन्द्रीय वाणिज्य मंत्रालय के अंर्तगत वर्ष 26 फरवरी 1987को गठित मसाला (स्पाइसेस) बोर्ड के अधिकार क्षेत्र में कुल 52 मसाले आते हैं, जिनके विकास, प्रचार और निर्यात की जिम्मेदारी मसाला बोर्ड की है। मसाला बोर्ड का मुख्यालय केरल के कोच्चि शहर में स्थित है।

इन 52 मसालों में शामिल हैं, इलायची, कालीमिर्च, मिर्च, अदरक, हल्दी, धनिया, जीरा, बड़ी सौंफ, मेथी, सेलरी, सौंफ, अजोवन (मसाले का पौधा), काला जीरा, सोआ, दालचीनी, अमलतास (केसिया), लहसुन, करी पत्ता, कोकम, पुदीना, सरसों, अजमोद, अनारदाना, केसर, वेनिला, तेजपात, पीपला, स्टार एनीज, घोड बच (स्वीट फ्लैग), महा गलेंजा, होर्सरैडिश, केपर, लौंग, हींग, केंबोज, हिस्सप, जूनियर बेरी, बेपत्ता, लूवेज, मजोरम, जायफल, जावित्री (मेस), तुलसी, खसखस, आलस्पाइस, रोजमेरी, सेज, सेवरी, थाइम, ओरगेनो, टेरागन, इमली।

उल्लेखनीय है कि करी पाउडर, मसाले तेल, तैैलीराल एवं अन्य मिश्रण सहित किसी भी रूप में हो, जहां मसाला घटक प्रमुख है। जबकि आई एस ओ की सूची में 109 मसालों के नाम शामिल हैं।


Solitary Life_Home_Kitchen_घर_रासो_रसोई_रस




रासो से रसोई के रस तक

घर में है. सो रसोई का मोर्चा भी संभाल लिया है.
अब रासो का अध्ययन से विश्राम तो रसोई के रस में ध्यान.
अब तड़का लगेगा तो शब्द तो चटकेंगे ही.
ऐसे में शब्दों का विस्फोट और मर्म का निकलेगा ही.

पुराने संदर्भ, नए अर्थ!

Devanand_Kishor Kumar_Debut Film_Jiddhi_1948_जिद्दी_देव आनंद_किशोर कुमार





उर्दू की नामचीन कहानीकार इस्मत चुग़ताई के पति और लेखक निर्देशक शाहिद लतीफ़ की 'जिद्दी’ फिल्म से देव आनंद और किशोर कुमार का करियर (वर्ष 1948) शुरू हुआ था।


इस फिल्म में सहयोगी भूमिकाओं में अभिनेत्री कामिनी कौशल और अभिनेता प्राण भी थे।

WHO_launch_message_service_coronavirus_whatsapp_Facebook_विश्व स्वास्थ्य संगठन__कोरोना वायरस_मैसेजिंग_संदेश_सेवा



विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ) ने दुनिया भर में व्यक्तियों को कोरोना वायरस से सुरक्षित रखने के उद्देश्य से सोशल प्लेटफॉर्मों, व्हाट्सएप और फेसबुक, के साथ मिलकर एक मैसेजिंग (संदेश) सेवा शुरू की है।


२० मार्च से शुरू की गयी इस संदेश सेवा का सहजता से उपयोग किया जा सकता है।  इस संदेश सेवा की से 200 करोड़ लोगों तक पहुंचने की क्षमता है। इस प्रकार, विश्व स्वास्थ्य संगठन वांछित सूचना की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों तक सीधे पहुंचाने में सक्षम होगा। 

यह संदेश सेवा सरकारी नेताओं से लेकर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, परिवार और दोस्तों तक को कोरोना वायरस के बारे में ताजातरीन समाचार और तत्क्षण सूचना देगी। जिसमें कोरोना के लक्षणों के विवरण सहित लोगों को स्वयं अपने को और दूसरों को सुरक्षित रखने के उपायों की गहन जानकारी होगी। यह सेवा सरकार के नीतिगत निर्णयकर्ताओं को अपनी-अपनी देश की आबादी के स्वास्थ्य की चिंता और रक्षा करने में मदद देने के लिए वास्तविक समय में ताजा स्थिति की रिपोर्ट और संख्या उपलब्ध करवाएंगी। 


इस सेवा तक व्हाट्सएप पर एक लिंक के माध्यम से पहुंचा जा सकता है, जहां आपसी संपर्क के लिए वार्तालाप की सुविधा है। इस सेवा का उपयोग करने वालों को केवल "हाॅय" कहकर बातचीत शुरू करनी है। ऐसा करने पर उनकी मदद के लिए विकल्पों का एक मेनू खुलेगा, जिसके बाद उपयोगकर्ता कोविद-19 के बारे में अपने सवालों के हिसाब से जवाब हासिल कर सकते हैं। 


विश्व स्वास्थ्य संगठन का हेल्थ अलर्ट प्रेकेल्ट.ऑर्ग (Praekelt.Org) के सहयोग से विकसित किया गया है, जिसमें टर्न मशीन तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। 


Trees_Ancient Indian Literature_Varahpuran_वृक्ष_वराह अवतार_महाबलिपुरम

वराह अवतार_महाबलिपुरम 




वृक्षों के पांच उपकार उनके दैनिक जीवन पांच महायज्ञ हैं। वे गृहस्थों को ईधन देकर, पथिकों के छाया व विश्राम स्थल होकर, पक्षियों के नीड़ बनकर तथा पत्तों, जड़ों व छालों से समस्त जीवों को औषध देकर उपकार करते हैं।

स्त्रोतः वराहपुराण अ 162-41-42



Nadir shah invasion Delhi_दिल्ली पर खूनी नादिरशाही हमला

21032020, दैनिक जागरण 




मुगल बादशाह मुहम्मद शाह के दौर और मुगलों के इतिहास की सबसे बड़ी दुखद घटना है-दिल्ली पर नादिरशाह का हमला। 1738-1739 में फारस (आज का ईरान) के शाह नादिरशाह ने मुगल साम्राज्य पर आक्रमण किया, जिसमें उसे पूरी सफलता मिली। उसने लाहौर और दिल्ली को जीतकर पूरी तरह तबाह-बर्बाद कर दिया।  


वर्ष 1739 तक मुगलिया सल्तनत की गिनती, एशिया की सबसे अमीर सल्तनतों में होती थी। तब मुगल साम्राज्य में आज का पूरा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान आता था। इस पूरे इलाके पर मुगल दरबार, जो कि आपसी गुटबाजी, भीतरघात और रंजिशों का शिकार था, में तख्त-ए-ताऊस पर बैठने वाले अशक्त बादशाह मुहम्मद शाह की हुकूमत थी। मुहम्मद शाह उसके रसिक मिजाज और वारांगनाओं की संगति के कारण ‘रंगीला’ बादशाह भी कहा जाता था। ऐसे में, उसमें योद्धा के गुण को छोड़कर सब गुण थे।


यह मुहम्मदशाह के वक्त का दुर्भाग्य था कि तब हिंदुस्तान की उत्तर-पश्चिम सीमा पर फारस में एक जंगबाज नादिर शाह बादशाह बना। एक गरीब चरवाहे का बेटा नादिर शाह फौज में एक सिपाही के रूप में अपनी जिंदगी का आगाज किया था। नादिरशाह का मूल नाम नादिरकुली था जो कि 'अफ्शार' कबीले का था। नादिर कुली वर्ष 1736 में नादिरशाह के नाम से फारस का सुल्तान बना।


10 मई 1738 को नादिर शाह ने अफगानिस्तान पर हमला किया। अफगानिस्तान को जीतने के बाद 6 नवंबर, 1738 को नादिर शाह ने हिंदुस्तान की तरफ कूच किया। 13 फरवरी 1739 को नादिरशाह ने दिल्ली से पचहत्तर मील उत्तर स्थित करनाल (आज के हरियाणा में) में अपनी बंदूकधारी हथियारबंद डेढ़ लाख सिपाहियों की फौज के दम पर मुगलों की 10 लाख की सेना को हरा दिया। इस संयुक्त मुगल फौज, जिसमें दिल्ली के मुगल बादशाह, अवध के सआदत खान और दक्कन के निजामउल-मुल्क के सैनिक थे, की पराजय से यह बात तय हो गई कि मुगलों की यह भारी भरकम फौज एक अनुशासनहीन भीड़ के अलावा कुछ भी नहीं थी।


जवाहर लाल नेहरू ने "हिंदुस्तान की कहानी" पुस्तक में लिखा है कि उसके (नादिरशाह) लिए यह धावा कोई मुश्किल काम न था, क्योंकि दिल्ली के हाकिम कमजोर और नामर्द हो चुके थे और लड़ाई के आदी न रह गए थे और मराठों से नादिरशाह का सामना नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम ने मुगलों को सहायता देने के इरादे से एक सैन्य अभियान शुरू किया था।


करनाल की लड़ाई में हारने के एक सप्ताह बाद मुहम्मद शाह ईरानी हमलावर नादिर शाह के साथ दिल्ली आया। नादिरशाह का काफिला शालीमार बाग में ही रूका रहा जबकि मुहम्मदशाह 20 मार्च को लालकिले में खामोशी से पहुंचकर गद्दी पर बैठ गया। तो वहीं विजेता ईरानी बादशाह नादिर शाह 21 मार्च यानी नौरोज के दिन जीत के जश्न की शानोशौकत के साथ किले में दाखिल हुआ। लालकिले में नादिर शाह शाहजहां के महल में ठहरा जबकि मुहम्मद शाह को जनानखाने में जगह मिली।


खून से चुकानी पड़ी, अफवाह की कीमत

शामत-ए-अमल मा सूरत-ए-नादिर गिरफ्त
शहर में हुक्म-ए-नादिरी से कत्ल-ए-आम हुआ।
इसका अगला दिन (22 मार्च) मुगलिया राजधानी दिल्ली के इतिहास का सबसे काला दिन था। नादिर शाह की फौज ने दिल्ली शहर में डेरा डाल दिया। नतीजन शहर में अनाज महंगा हो गया। ऐसे में, ईरानी सैनिकों और पहाड़गंज के व्यापारियों में अनाज का दाम कम करने को लेकर झगड़ा हो गया। इसी बीच एक अफवाह उड़ गई कि नादिर शाह को उसके हरम के एक रक्षक ने मार दिया है। इस अफवाह फैलते ही स्थानीय जनता ने गुस्से में ईरानी सिपाहियों पर हमला कर दिया। इस अफरातफरी में करीब एक हजार ईरानी सिपाही मारे गए।


इसके जवाब में नादिर शाह ने दिल्ली की आम जनता के कत्लेआम का हुक्म दिया। नादिर अपने आदेश की निगरानी के लिए लाल किले से निकलकर चांदनी चौक स्थित रोशन-उद-दौला की सुनहरी मस्जिद पर पहुंच गया। उस दिन सुबह से कत्लेआम शुरू हो गया। चांदनी चौक, दरीबा और जामा मस्जिद के आसपास के इलाके में सबसे अधिक आबादी मारी गई। अकेले एक दिन में दिल्ली में करीब करीब 30 हजार नागरिक नादिरशाही हुकुम की वजह से बेरहमी से मारे गए।


मशहूर पाकिस्तानी कहानीकार इंतिजार हुसैन ने अपने उपन्यास "दिल्ली था जिसका नाम में" लिखा है कि आदमियों के गले खीरे ककड़ियों की तरह कटने लगे। जब एक लाख से ऊपर कट गए और लाशों के अम्बार लग गए तब नादिर शाह ने सांस लिया और उसके सिपाहियों ने हाथ रोका। नादिर शाह तो लूट-मार करके चला गया। मगर अब ये शहर जिसे शाहजहां ने इतने चाव से आबाद किया था बेहाल हो चुका था और बर्बादी ने घर देख लिया था। नादिर शाह ने निजामउल-मुल्क के अनुरोध पर अपने सिपाहियों को लूटपाट-हत्या बंद करने का आदेश तो दिया पर उसने निजाम के सामने उसे 100 करोड़ रुपए देने की शर्त रखी। इस बारे में तब के लाहौर के नाजिम के वकील आनंद राम मुखलिस ने लिखा है, ‘348 साल की अर्जित संपत्ति का मालिक कुछ क्षणों में ही बदल गया था।’


दो महीने तक कोहराम मचाने के बाद छोड़ी थी, दिल्ली
मुहम्मद शाह को जलील करने के इरादे से नादिर शाह ने भी अपने को दिल्ली में बादशाह घोषित किया और अपने लड़के नसरुल्लाह का निकाह औरंगजेब के पौत्र अजीजुद्दीन की बेटी से किया। जबकि मुहम्मद शाह ने अपनी जान और सल्तनत बचाने के इरादे से कोहिनूर हीरे और तख्ते-ताउस समेत अथाह खजाने को नादिरशाह को नजर कर दिया। मुहम्मदशाह एक कमजोर ढांचे का आदमी था। उसे अकसर बुखार रहता था। एक दिन पालकी में किले के अन्दर की मस्जिद में वह बेहोश हो गया। वह कुछ ठीक हुआ पर उसे लकवा मार गया। उसकी आवाज चली गयी। रात भर वह बेहोश रहा। 15 अप्रैल, 1748 को सुबह उसकी मृत्यु हो गयी।


दिल्ली के नादिरशाही सिक्के

20 मार्च, 1739 को नादिर शाह दिल्ली पहुंचा। यहां नादिर के नाम पर खुत्बा पढ़ा गया और सिक्के जारी किए गए। नादिरशाह ने मुगलशैली नुमा अपने सिक्कों पर सुल्तान नादिर अंकित करवाया। "उत्तर मुगलकालीन भारत का इतिहास" में सतीश चंद्र लिखते हैं कि सन्देह नहीं कि नादिरशाह ने मुगल बादशाह तथा उसके प्रमुख अमीरों को बन्दी बनाया, उसने कुछ समय तक दिल्ली में अपने को बादशाह घोषित करके अपना सिक्का चलाया। दिल्ली में नादिरशाह की हुकूमत का आतंक भारत के दूसरे भागों में भी तेजी से फैला। इसी आतंक का नतीजा था कि दिल्ली से दूर अहमदबाद, मुर्शिदाबाद और बनारस जैसे स्थानों पर नादिरशाह के नाम से सिक्के ढाले गए।


नादिर शाही दरबार के इतिहासकार मिर्जा महदीअस्तराबादी ने लिखा है कि ‘जब्त किए गए सामान में तख्त-ए-ताऊस के शाही रत्नों का कोई मुकाबला ही नहीं है। इस राजगद्दी पर दो करोड़ के मूल्य के रत्न जड़े हैं। पुखराज, माणिक्य और सबसे शानदार हीरे जिनका अतीत या वर्तमान में किसी भी खजाने में जोड़ दिखता ही नहीं। ऐसे रत्न जड़े तख्त-ए-ताऊस को तुरंत नादिर शाह के राजकोष में जमा करा दिया गया। दिल्ली में खौफनाक 57 दिन रहने के बाद 16 मई को नादिर शाह दिल्ली से विदा हुआ। और उसके साथ विदाई हुई मुगल सल्तनत की आठ पीढ़ियों की अथाह संपत्ति और खजाने की। लूट का पूरा साजो-सामान ‘700 हाथियों, 4000 ऊंटों और 12000 घोड़ों की मदद से अनेक गाड़ियां, जो कि सोने-चांदी और कीमती रत्नों से भरी थी, पर लादा गया।’


फारस का नामचीन शाह था, नादिर शाह    

नादिर ने दूसरी दिशाओं में भी अपना परचम लहराया। उसने बुखारा को जीतकर ईरान की सीमाओं को सासानी दौर के समय तक फैला दिया। वर्ष 1743 से 1746 तक वह तुर्कों के साथ संघर्ष में लिप्त रहा। नादिर के जीवन का आखिरी दौर अत्याचार, संदेह और लालच में ही बीते। वह अपने मौत के डर से इस कदर भयाक्रांत था कि वर्ष 1747 में विद्रोही कुर्दों के खिलाफ एक अभियान में उसने अपने बेटे को ही अंधा कर दिया। नादिर शाह की हत्या उसके अपने ही अंगरक्षकों ने की। वैसे उसने जिस अफ्सार वंश (1736-49) की नींव रखी, वह अधिक समय तक सत्ता में नहीं रहा। वह बात अलग है कि आज भी ईरान में नादिरशाह की गिनती फारस के महान शासकों में होती है।


Friday, March 20, 2020

corona virus in India_Narendra Modi_Prime Minister of India_कोरोना महामारी_प्रधानमंत्री_हिंदुस्तान




देश और देशवासियों की सेहत की चिंता को लेकर चौबीसों घंटे तीमारदारी में लगे डॉक्टरों सहित सहायक स्वास्थ्य कर्मियों की मेहनत के सुफल को समाज के सार्वजनिक अभिवादन के विचार का अभिनन्दन।

भला हिंदुस्तान में पृथ्वी पर नवजात शिशु के जन्म पर स्वागत-सत्कार के रूप में थाली बजाने की बरसों पुरानी परंपरा से भला कौन अनजान है?

सुर-असुर संग्राम में देवताओं की जय के लिए स्वेच्छा से अपनी देह-दान करने वाले ऋषि दधीचि की कुल-परंपरा के असंख्य-अनाम स्वास्थ्य योद्धाओं के अप्रतिम साहस और संसार में संपूर्ण मनुष्यता को ग्रसने के लिए तत्पर कोरोना महामारी के समक्ष दुर्दम्य इच्छाशक्ति से डटे व्यक्तियों के लिए तो शंखनाद से देश-विदेश क्या अखिल ब्रह्मांड गूंजना चाहिए।

आखिर हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक परंपरा "कृतज्ञता" की है, "कृतघ्न" राष्ट्र की नहीं।

सो, राष्ट्र के प्रधान के स्वर में समवेत ही है सबका भास्वर।
राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम
अर्थात यह मेरा नही है, कुछ भी मेरा नहीं है यही भारतीय दर्शन है।



Thursday, March 19, 2020

History of Tea in India and World_भारत में चाय के पौधे की खोज_ 1823





इसमें कोई दो मत नहीं कि चाय का मूल स्थान चीन है। दुनिया भर में चाय के लिए प्रयोग किए जाने वाले सामान्य शब्द "टेह" और "चा" मूल रूप चीनी भाषा के हैं। इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि चाय के जंगली पौधे भारत के पूर्वोत्तर विशेषकर असम में उगते थे। 


अनेक लोकप्रिय जनश्रुतियों में से एक के अनुसार, चाय की खोज छठीं शताब्दी के बौद्ध भिक्षु सिद्धार्थ से जुड़ी हुई है। जिनके बारे में माना जाता है कि गौतम बुद्ध की शिक्षा के प्रसार के लिए जब वे चीन से जापान प्रवास के गए, तो उस दौरान अपने साथ चाय की पत्तियां और बीज ले गए थे। 


चाय पीने के सामान्य समारोह को बाद में जापान में एक विस्तृत जापानी चायपान समारोह "चानोऊ" का रूप दे दिया गया। चाय का लिखित इतिहास सातवीं शताब्दी में मिलता है जहां एक चीनी लेखक ने चाय पर एक पूरी पुस्तक ही लिख डाली। 


माना जाता है कि भारत के असम राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले वनवासी समाज को चाय के पौधे के बारे में काफी पहले समय से पता था। 


ऐसे में वर्ष 1823 में अंग्रेजी सेना के एक अफसर मेजर राॅबर्ट ब्रूस ने असम के जंगलों में उगने वाली चाय के पौधे की खोज की थी। 19 शताब्दी में विशेष रूप से पूर्वोत्तर भारत में व्यापक स्तर पर चाय उगाने की शुरूआत हुई। जबकि दक्षिण भारत में वर्ष 1859 में तमिलनाडु के नीलगिरी इलाके में व्यावसायिक रूप से चाय को उगाने का आरंभ हुआ।


जबकि दुनिया में चाय के इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि चीन के सम्राट शेन नुंग को 2737 वर्ष ईसापूर्व चाय की खोज का श्रेय दिया जाता है। जिसने उबलते पानी में खुशबूदार पत्तों के संयोगवश गिरने से यह बात पहचानी थी। जब इन पत्तों के बारे में खोजबीन की गई तो इनकी पहचान जंगल में उगने वाली चाय की पत्तियों के रूप में हुई। 


वैसे चाय शब्द के सर्वप्रथम उल्लेख के बारे में माना जाता है कि 350 वर्ष ईसापूर्व की एक चीनी भाषा के शब्दकोश में इसका विवरण मिलता है। जबकि चाय के बारे में विधिवत लिखित साक्ष्य काफी बाद के समय करीब 700 ईस्वी के हैं। 12 वीं शताब्दी तक चीन दुनिया में चाय का अकेला आपूर्तिकर्ता देश था। फिर, जापान ने चीन से चाय के पौधों को लेकर उगाना आरंभ किया। उसके बाद, वर्ष 1600 में इंडोनेशिया में चाय के पौधों को लगाया गया। तब धीरे-धीरे दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी चाय का व्यावयासियक स्तर पर उत्पादन होने लगा। आज इसी चाय का स्वाद पूरे विश्व के लोगों की जुबान पर छाया हुआ है। दुनिया भर में करीब चालीस देशों में व्यावसायिक स्तर पर चाय पैदा की जा रही है।



स्त्रोतः पर्सपेकट्व्सि, अंक दो, नवंबर 2011, हिंदुस्तान लीवर

Wednesday, March 18, 2020

Dard Language_Punjab_Pamir_दरद भाषाएं_पंजाब_पामीर


'दरद' का अर्थ होता है पर्वत। 

यही कारण है कि भारत के सीमान्त पर्वत प्रदेशों में बोली जाने वाली भाषाओं के समूह को दरद भाषाएं कहा जाता है। 

पंजाब के पश्चिमोत्तर में और पामीर के पूर्व-दक्षिण में जो पर्वत प्रदेश हैं, वह इनका क्षेत्र माना जाता है।


Sunday, March 15, 2020

An early English translation of a supposed will of Aurangzib_औरंगजेब की वसीयत का आरंभिक अंग्रेजी अनुवाद




मुग़ल बादशाह औरंगजेब की एक कथित वसीयत का आरंभिक अंग्रेजी अनुवाद जेम्स फ्रेजर लिखित "द हिस्ट्री ऑफ नादिर शाह" पुस्तक में है। 

उल्लेखनीय है कि फारस के बादशाह बने नादिरशाह का एक नाम कुली खान भी था।

Story based on attack of Nadirshah on Delhi_Vajrapat_Premchand_वज्रपात_प्रेमचंद



हिंदी के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद ने दिल्ली पर नादिर शाह के हमले को लेकर "वज्रपात" नामक एक कहानी लिखी थी। 

वर्ष 1943 में हिंदी साहित्य के मशहूर आलोचक नामवर सिंह ने नौंवी कक्षा में इसी कहानी पर आधारित एक नाटक में नादिरशाह की भूमिका अदा की थी। 

इस नाटक में नामवर सिंह ने अमीर खुसरो का यह फारसी का शेर पढ़ा था। यह शेर उन्हें मरते दम तक याद रहा।
कैसे नमाज के दौर में तेगे खुशी।
अगर कि जिंदा तुनी खल्का बारे बाज सुशी।।


स्त्रोत पुस्तकः नामवर सिंहः आलोचना की दूसरी परंपरा

Foreign Mughal Rulers of India_lack of scientific temperament




यह जानना रोचक है कि हिंदुस्तान में बाहर से आकर स्थापित हुए मुगल (जो कि मंगोल शब्द का ही बिगड़ा नाम है) बादशाहों के पूरे शासन काल के लिपिबद्ध इतिहास में, विश्व में होने वाली किसी भी वैज्ञानिक खोज या उपलब्धि का कोई जिक्र नहीं है। 

ये मुगल बादशाह अपने-अपने कुंओं में कैद हो कर जी रहे थे। 


Saturday, March 14, 2020

Ancient Name of Afghanistan_आर्याना_अफगानिस्तान





आर्याना अफगानिस्तान का प्राचीन नाम है।
उल्लेखनीय है कि 1960 के दशक में अफगानिस्तान की चलने वाली नागरिक उड्डयन सेवा का नाम "आर्याना" था।

Footsteps of Scindia Royal Family in Delhi_सिंधिया घराने का दिल्ली से नाता

14032020, दैनिक जागरण 





हाल में ही देश में हुई राजनीतिक गतिविधियों के कारण सिंधिया परिवार दिल्ली के अखबारों की सुर्खियों में है। अगर इतिहास में झांके तो पता चलता है कि अंग्रेज कंपनी बहादुर ने वर्ष 1803 में पटपड़गंज की लड़ाई में सिंधिया राजवंश की सेना को हराकर की दिल्ली पर कब्जा जमाया था। इस तरह, सिंधिया घराने और दिल्ली का इतिहास एक-दूसरे से गुंथा हुआ है। जहां दिल्ली के विभिन्न हिस्सों पर सिंधिया परिवार की उपस्थिति आज भी है।
दिल्ली में सिरेमिक (मिट्टी के बर्तन) उद्योग का आंरभ वर्ष 1914 में दिल्ली पॉटरी वर्क्स की स्थापना के साथ हुआ। फिर वर्ष 1923 में सिंधिया या ग्वालियर पॉटरी वर्क्स की शुरूआत हुई। दूसरे विश्व युद्ध में इस उद्योग की इकाइयों की संख्या में इजाफा हुआ और उत्पादन में विविधता बढ़ने के साथ वृद्धि हुई। उल्लेखनीय है कि महाराज माधो राव (1877-1925) ने ग्वालियर रियासत में सिंचाई के लिए नहरों के निर्माण और व्यापक स्तर पर औद्योगीकरण की शुरुआत करके परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ाया।



1957 में पहली बार कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा सांसद के रूप में संसद पहुंचने वाली विजयाराजे सिंधिया ने इस विषय पर अपनी आत्मकथा में लिखा है कि माधोराव सिंधिया ने ग्वालियर पाॅटरी शुरू करके स्वयं के उद्योग स्थापित न करने के अपने नियम को तोड़ा। उन्होंने ऐसा निर्णय इसलिए किया क्योंकि वे भारत के गांवों के पारंपरिक कारीगरों को उनके उत्पाद की बिक्री के लिए एक नया स्थान उपलब्ध करवाना चाहते थे। यह रियासत के राजा की दूरदर्शिता और मानवीय पक्ष को दर्शाता है जो कि उस समय में अपने राज्य के कारीगरों को एक बड़ा बाजार उपलब्ध करवाना चाहता था।  उन दिनों तीस एकड़ के भूखंड वाली यह फैक्ट्री, नई दिल्ली के दक्षिण में लगभग दस मील की दूरी पर स्थित थी। आज भी सरोजिनी नगर के लेखा विहार में सिंधिया पॉटरिज कम्पाउंड है। जिसके बांए ओर सरोजिनी नगर बाजार है तो दाएं ओर अफ्रीका एवेन्यू की सड़क है। जबकि इसका प्रवेश द्वार रिंग रोड की तरफ है। सिंधिया पॉटरी के नाम से मशहूर और करीब 40 एकड़ में फैले सिंधिया परिवार की यह जमीन बेशकीमती है। इसे लेकर अब न्यायालय में पारिवारिक संपत्ति विवाद चल रहा है।



आधुनिक दिल्ली में बस सेवा का प्रारम्भ बहुत साधारण रूप में छोटे दशक के अंत में हुआ। उस समय कुछ निजी वाहन-संचालकों ने कुछ रास्तों पर बसें चलाना शुरू किया। वर्ष 1940 में "ग्वालियर एंड नार्दन इंडिया ट्रांसपोर्ट कंपनी" को दिल्ली में बसें चलाने का परमिट दिया गया। 14 मई 1948 को भारत सरकार ने सिंधिया की कंपनी से ही दिल्ली की शहरी बस सेवाओं को अपने अधिकार में ले लिया और परिवहन मंत्रालय के सीधे नियंत्रण में लेकर दिल्ली ट्रांसपोर्ट सर्विसेज के तहत उसे दो वर्ष चलाया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1921 में, ग्वालियर एंड नादर्न इंडिया ट्रांसपोर्ट कंपनी का 19 लाख रूपए की पूंजी निवेश के साथ से शुरू की गई थी। जबकि वर्ष 1925 के बाद ग्वालियर दरबार ने राज्य में मोटर-लॉरी सेवाओं के बेहतर प्रबंधन के लिए कंपनी का कामकाज अपने हाथ में ले लिया था। तब यह कंपनी ग्वालियर रियासत के साथ-साथ कुछ पड़ोसी राज्यों की परिवहन जरूरतों को भी पूरा करती थी।



दिल्ली परिवहन निगम का कनाट प्लेस में स्थित कार्यालय आज भी सिंधिया हाउस ही कहलाता है। प्रसिद्व पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके ठेकेदार पिता सुजान सिंह ने अपने लिए वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनॉट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लॉक बनवाया। उन दिनों यह सुजान सिंह (खुशवंत सिंह के दादा) ब्लॉक कहलाता था। इतना ही नहीं, उन्होंने ही रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं। अंग्रेजी लेखक रस्किन बांड अपनी पुस्तक “सीन्स फ्रॉम ए राइटर्स लाइफ“ 40 के दशक की दिल्ली के बारे में लिखते हैं कि उन्होंने कनाट सर्कस के सामने एक अपार्टमेंट वाली इमारत सिंधिया हाउस में एक फ्लैट ले लिया था। यह मुझे पूरी तरह से माफिक था क्योंकि यहां से कुछ ही मिनटों की दूरी पर सिनेमा घर, किताबों की दुकानें और रेस्तरां थे।
महाराज माधव राव ने दिल्ली के सिविल लाइन क्षेत्र में अपना तीसरा घर ग्वालियर हाउस, 37 राजपुर रोड पर बनवाया। इसके मूल में वर्ष 1911 में अंग्रेजों के दिल्ली दरबार में कलकत्ता से राजधानी के दिल्ली स्थानांतरण की घोशणा थी। जिसके बाद अंग्रेज सरकार ने सभी राजा-रजवाड़ों को दिल्ली में अचल संपत्ति लेने का आदेश दिया था। उसमें भी दिल्ली से करीब “विशेषकर राजपूताना और मध्य भारत के राज-प्रमुखों“ से यह बात कही गई थी। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों के राज में ग्वालियर रियासत को हैदराबाद, मैसूर, कश्मीर और बड़ौदा को सबसे अधिक 21 तोपों की सलामी की पात्रता मिली हुई थी।उस दौर में इंडिया गेट से हटकर सिविल लाइंस इलाके में, ग्वालियर, जामनगर, कोल्हापुर, नाभा, सिरोही और उदयपुर रियासतों ने अपने भवन निर्मित किए। 25 अगस्त 1948 को संविधान सभा में तारांकित प्रश्न संख्या 470 के उत्तर में नरहर विष्णु गाडगिल ने बताया था कि दिल्ली में रियासतों के कुल 27 भवन हैं, जिसमें से भारत सरकार ने 11 इमारतों का सरकारी कार्यालय या आवास के रूप में उपयोग के लिए अधिग्रहण किया है। इन 27 भवनों में ग्वालियर हाउस भी शामिल था। 



वरिष्ठ अंग्रेजी पत्रकार कूमी कपूर ने अपनी पुस्तक "द इमरजेंसीः ए पर्सनल हिस्ट्री बाॅय" में तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौर से जुड़ी इस भवन की कहानी लिखी है। पुस्तक के अनुसार, सरकार ने उनके (विजयराजे सिंधिया) बैंक खातों को फ्रीज कर दिया। आयकर अधिकारियों ने ग्वालियर रियासत की दिल्ली, पुणे, मुंबई और ग्वालियर में सभी संपत्तियों पर छापा मारा। आयकर अधिकरियों ने दिल्ली में 37 राजपुर रोड के बंगले, जहां पर राज परिवार रहता था, को अधिग्रहित कर लिया था। इतना ही नहीं, तब इस इमारत को बीस सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन की निगरानी से जुड़े अधिकारियों को आवंटित कर दिया गया। तब विजयाराजे सिंधिया तिहाड़ जेल में भी कैद रहीं। उल्लेखनीय है कि आधुनिक भारतीय संसदीय इतिहास में विजयाराजे सिंधिया अपने राजनीतिक जीवन में सात बार लोकसभा की और दो बार राज्यसभा की सदस्य रही। जो कि एक महिला नेता के नाते रिकॉर्ड है।

Sunday, March 8, 2020

Holi festival in Muslim era_बीते दौर की दिल्ली वाली होली




किसी भी समाज के उत्सव का उत्स स्थानीयता में निहित होता है। आखिर जीवन पद्वति का लोकपक्ष गढ़ने में स्थानीय कारक ही महत्वपूर्ण होता है। ऐसे में अगर बीते दौर की  बात करें तो मशहूर यात्री अल बेरुनी ले किताब-अल-हिन्द (भारत के दिन) में होलिकोत्सव का विवरण दिया है। जबकि "पद्मावत" लिखने वाले दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार होली के समय गांवों में इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे। खिलजी दरबार के प्रमुख दरबारी अमीर खुसरो ने अपनी आंखों देखी होली का बखान किया है, दैय्या रे मोहे भिजोया री, 
शाह निजाम के रंग में, 
कपड़े रंग के कुछ न होत है, 
या रंग में तन को डुबोया री।

मुगलिया दौर में बारिश के मौसम के आते के साथ ही होली की तर्ज पर उत्सव होता था, जिसे जहांगीर ने ”आब-ए-पश्म“ और अब्दुल हमीद लाहोरी ने ”ईद-ए-गुलाबी“ कहा है, इसमें सरदार-मनसबदार एक-दूसरे पर गुलाबजल छिड़कते थे। मुगल बादशाह शाहजहाँ के दौर में राजधानी के आगरा से बदलकर शाहजहाँनाबाद होने के साथ होली मनाने का ढंग भी बदला। खुदाबक्श लाइब्रेरी में मौजूद एक चित्र से यह बात साबित होती है। उस समय होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार कहा जाता था। तब दिल्ली में होली के मौके पर लाल किले के पीछे बहने वाली यमुना के किनारे लगे आम के बागों में होली के मेले होते थे।

हिन्दुओं पर दोबारा जजिया लगाने वाले बादशाह औरंगजेब के दौर में मुगलिया दरबार में होली, दीपावली और बसन्त के आयोजनों पर रोक लगी। पर दिल्ली के आम जीवन में होली बदस्तूर जारी रही। औरंगजेब के समकालीन शायर फायज देहलवी ने दिल्ली की होली का बयान करते हुए लिखा है, 
ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल, 
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल, 
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार, 
दौड़ती हैं नारियाँ बिजली की सार।

यहां तक कि औरंगजेब के मामा शाइस्ता खां का मुगल शैली में होली खेलते हुए एक चित्र मौजूद है। जो उस दौर में खास से लेकर आम तक की होली में भागीदारी को साबित करता है। दिल्ली के एक और नामचीन शायर मीर तकी मीर ने लिखा है कि 
आओ साकी, 
शराब नोश करें शोर-सा है, 
जहाँ में गोश करें, 
आओ साकी बहार फिर आई, 
होली में कितनी शादियाँ लाई।

अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर अपनी रियाया के साथ बड़े शौक-जोश से होली मनाते थे। ”जफर“ की कही हुई ”होरियां“ बहुत चाव से गाई जातीं। उनका यह होली का गीत उनकी भावनाओं को व्यक्त करता थाः क्यों मों पे मारी रंग की पिचकारी, 
देखो कुंवरजी दूँगी गारी, 
भाज सकूँ मैं कैसे मोसों भाजा नहीं जात, 
ठारे अब देखूँ मैं कौन जू दिन रात, 
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी, 
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।

‘सिराज-उल-अखबार’ के तीसवें खंड में भी होली के उत्सव का बड़ा अच्छा वर्णन है। उसके अनुसार, बादशाह खुद भी हिंदू-मुस्लिम अमीरों के साथ झरोखों में बैठते और शहर में जितने भी स्वांग भरे जाते सब झरोखे के नीचे से होकर गुजरते और इनाम पाते। बादशाही नाच-गान मंडलियों के लोग भी होली खेलते। बादशाह के हुजूर में पूरी होली खेली जाती थी और तख्त के कहारों को इस मौके पर एक-एक अशर्फी इनाम के तौर पर मिलती थी।

दो चित्रकारों निधा मल और चित्रामन ने जफर के पौत्र मोहम्मद शाह रंगीला के होली खेलते हुए चित्र बनाए थे। आज ये चित्र एक ऐतिहासिक धरोहर हैं। 18वीं शताब्दी के बाद भारतीय मुस्लिमों पर भी होली का रंग चढ़ने लगा। तात्कालिक लेखक मिर्जा मोहम्मद हसन खत्री (मुस्लिम बनने से पहले दीवान सिंह खत्री) अपनी एक अरबी पुस्तक “हफ्त तमाशा” में लिखा है कि भारत में अफगानी और कुछ कट्टर मुस्लिमों को छोड़कर सभी भारतीय मुस्लिम होली खेलने लगे थे। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता बदलती गई, वैसे-वैसे उन्होंने होली खेलना भी बंद कर दिया।




Saturday, March 7, 2020

Delhi 6_Single point for Indigenous Food_देसी भोजन के ठाट का ठिकाना_दिल्ली छह

07032020, दैनिक जागरण 



रंगो का त्यौहार हो और रंग-बिरंगे रसभरे मीठे पकवानों की बात न हो, कैसे संभव है। एक प्रसिद्ध सूक्त भी है-रसौ वै सरू। अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। हिन्दू भोजन पद्वति में रस छह माने गए हैं-कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। जबकि महाकवि कालिदास ने स्वाद, रूचि और इच्छा के अर्थ में भी रस शब्द का प्रयोग किया है। आयुर्वेद में शरीर के संघटक तत्वों के लिए रस शब्द प्रयुक्त हुआ है।


पुरानी दिल्ली की अस्सी साल से पुरानी मोटेलाला की खोया-दूध वाली पलंग तोड़ बर्फी और चैनाराम मिष्ठान का प्रसिद्ध सोहन हलवा भी थे। उल्लेखनीय है कि अब चैनाराम के मालिकों की तीसरी पीढ़ी दुकान का काम संभाल रही है जबकि वहां दूसरी पीढ़ी में काम करने वाले एक अनाम कारीगर ने सोहन हलवा के व्यंजन को तैयार किया था। जैसे इतिहास में होता है कि सेठ का नाम तो सब जानते है पर कारीगर का कोई नहीं।


अब भला होली के अवसर पर देसी स्वाद के लिए पुरानी दिल्ली से बेहतर क्या ठिकाना हो सकता है। पिछले सप्ताह ही ओखला स्थित क्राउन प्लाजा होटल में हुए दिल्ली छह फूड फेस्टिवल आयोजन में कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। उल्लेखनीय है कि क्राउन प्लाजा पिछले दस वर्षों से पुरानी दिल्ली के निरामिष-सामिष भोजन की उत्सवधर्मिता को अपने वार्षिक आयोजन में उपलब्ध करवा रहा है। पुरानी दिल्ली से दूर पर उसके खाने को प्यार करने वालों के लिए यह आयोजन किसी वरदान से कम नहीं है। जहां बिना किसी भीड़-भाड़ और धूल से दूर विश्वसनीय ढंग से बनाया गए भोजन का स्वाद संभव हो पाया है।


यहां पुरानी दिल्ली के विविधतापूर्ण भोजन की सर्वव्यापी उपस्थिति थी। इतना ही नहीं, यहां आने वाले मेहमानों को स्थानीय भूगोल की वास्तविकता की अनूभति करवाने के लिए चांदनी चौक की खाने-पीने की दुकानों सहित परिवहन के परंपरागत साधनों जैसे बैलगाड़ी, साइकिल रिक्शा और मेट्रो रेल को आउटडोर कटआउटों से सजाया गया था। पुरानी दिल्ली के सामिष-निरामिष भोजन से लेकर मसालों और मिष्ठान तक को एक छत के तले परोसने की व्यवस्था के पीछे होटल के शेफ देवराज शर्मा के अथक प्रयास और बरसों का अनुभव था। इतिहास में देखे तो पता चलता है कि प्राचीन काल में राजे-रजवाड़ों और वणिकों के यहां रसोई का प्रबंध ब्राहाणों के हाथ में होता था, जिन्हें "महाराज" के नाम से पुकारा जाता था। मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के हम्मीरपुर जिले के रहने वाले क्राउन प्लाजा के महाराज देवराज शर्मा ने विशेष रूप कच्चे पपीते को कद्दूकस करके केसरी पपीता हलवा बनाया था, बाकी मूंग का सदाबहार हलवा तो था ही। इसी तरह, फतेहपुरी इलाके का मशहूर हब्शी हलवा भी था जो कि शुद्ध दूध में मध्य प्रदेश के लाल गेहूं के उम्दा दानों के मिश्रण से बनाया गया था।


ऐसे ही, खाने का जायका बढ़ाने के लिए तरह-तरह के अचार-मुरब्बे थे। खास था, डायबिटिज वालों के लिए भिंडी का अचार। बाकी मूली, कटहल और भरवा मिर्ची के अचार तो थे ही। अब बिना दही भल्ले और चाट का स्वाद लिए पुरानी दिल्ली का खाना अधूरा ही कहा जाएगा। सो, उनके साथ खस्ता कचौड़ी (आलू की सब्जी के साथ), मखाने की चाट और गोलगप्पों की भी संगत थी।


इतना ही नहीं, चांदनी चौक से चंदन पाउडर, साबुत लालमिर्च, राई, मुलेठी, सिक्किम की कबाब चीनी, सोपोर के बादाम, खस और पान की जड़ों को पुराने दौर के चीनी-कांच के मर्तबानों भी साक्षात देखा जा सकता था। आज प्लॉस्टिक पैकेट बंद मसाला पाउडरों के समय में इन ताज़ा दम कूटे हुए मसालों को देखना-सूंघना भी खाने के स्वाद की दिव्य अनुभूति से कमतर नहीं था।


आखिर दाल मक्खनी-शाही पनीर और राजमा-चावल के बिना दिल्ली के खाना का सफर अधूरा ही है। सो, शाकाहारियों के लिए विविध विकल्प थे। ऐसे में, निरामिष भोजन के स्वादुओं के लिए मटन स्टयू, चिकन कोरमा, मटन हलीम और जहांगीर मटन कोरमा उपलब्ध थे। कबाब में जायके के लिए डाली जाने वाली खस की जड़ भी अलग से रखी गई थी। ताकि खाने वाले को उसके स्वाद का कारण नज़र भी आए।


आखिर मांसाहारी भोजन में खड़े मसालों की ही स्वाद है, जिसमें विभिन्न प्राकृतिक जड़ों के प्रयोग से एक अलग तरह का ही स्वाद आता है। इसको भिन्न रंग-स्वाद देने के लिए पान की जड़, खस की जड़ और चंदन की जड़ का विशेष उपयोग किया गया था। निरामिष भोजन का साथ देने के लिए तंदूरी रोटी, लहसूनी नाॅन के साथ खोया, रबड़ी, नींबू के पराठें भी थे, जिनको खाकर बरबस पराठें वाली गली का ध्यान हो आया। आखिर ढ़हती मुग़लिया सल्तनत के दौर वाले एक मशहूर शायर ने यूहीं नहीं कहा था,


कौन जाए जौक, दिल्ली की गलियां छोड़कर।





Friday, March 6, 2020

Pushkar_Water_Mountain_Desert_पुष्कर _राजस्थान




राजस्थान के पुष्कर में पहाड़, पानी और मरुस्थल का एक साथ होना इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति में हर स्थिति संभव है.

प्रकृति का ऐसा वरदान शायद ही धरती में और कहीं हो.

Thursday, March 5, 2020

Surti_Surat_portuguese_connection



गुजरात के बंदरगाह सूरत शहर से आने वाली तम्बाकू ‘सुर्ती’ कहलायी क्योंकि पुर्तगाली जहाज़ उन दिनों सूरत, जहां पुर्तगाली कम्पनी की फ़ैक्टरी थी, में ही माल बेचा करते थे।

Wednesday, March 4, 2020

Morning Positive Thought_दिन का अर्थपूर्ण विचार

दिन का अर्थपूर्ण विचार_Positive Thought


पीछे जो बीत गया, उसका कोई उपाय नहीं। भविष्य में जो होगा उसका पता नहीं। फिर तो जो आज है, वही बरता जा सकता है, उसका पता भी है। आज ही अपना है बाक़ी सब सपना है। 09032020

जीवन में विद्वानों का सानिध्य हमेशा दुर्लभ है।
वैसे विद्वानों के समूह में भी अपने वजूद को भी बनाये रखना चाहिए क्योंकि किसी दूसरे से अपनी तुलना, जो आप कर सकते हैं कोई दूसरा नहीं कर सकता न ही सोच सकता है, बेमानी होता है।
कबीर संगत साधु की, नित प्रति कीजै जाय |
दुरमति दूर बहावासी, देशी सुमति बताय || 06032020

जीवन में धैर्य और मौन ऐसे साधन हैं, जिनसे किसी भी चुनौती से पार पाया जा सकता है। बस कार्य में निरंतरता और एकाग्रता को बनाए रखने की ज़रूरत है। इसके बाद, परिणाम मनोवांछित ही प्राप्त होता है। 05032020

जीवन में भय का काल्पनिक अमूर्त रूप ही दुख का कारक होता है। ऐसे में, भय रूपी दुख के वास्तविकता के मूर्त रूप में आते ही, उसका नष्ट होना निश्चित हो जाता है। सो, भय-दुख को समाप्त करने का सबसे अच्छा उपाय असली जीवन में उसका आमना-सामना करने में निहित है। आखिर कल्पना को हक़ीक़त में बदलना ही असली पुरुषार्थ है। इसी बात को रेखांकित करते हुए हिन्दी के रोमानी कविगिरिजा कुमार माथुर ने लिखा है, छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन। 04032020







Monday, March 2, 2020

History of Indian Civil Service_Hard Fact


In 1854, the British rulers introduced the principle of open competitive examination for entry into the Indian Civil Service (ICS). Although Indians had a right to sit for it, the only examination centre was in London and the system operated as a bar to those who could not afford to travel so far.

The Indianisation of the ICS started only in 1922, when the entrance examination was held simultaneously in Allahabad. However, the ICS continued to be dominated by the British, and it was often denigrated as ‘neither Indian, nor Civil, nor Service’.

Sunday, March 1, 2020

Hard Fact 1_Women Civil Officers_1955_Government of India_नागरिक प्रशासन में महिला अधिकारियों की उपस्थिति





Hard to Believe

Today when Indian women are ready to done the role of combat in Indian Armed Forces one would hardly  believe that in the initial years of independent India, the total strength of women civil officers was minuscule. 

In year 1955, 25 women officers were working in Central Government. Ten women officers were in Central Secretariat Service, nine in All India Services and six in Indian Foreign Services.

Out of these women officers, ten were married and five had children. The length of their service ranged from less than one year to more than seven years.
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सांच को आंच नहीं

आज जब देश की महिलाएं भारतीय सेना की युद्धक इकाइयों में भी अहम भूमिका निभाने को तत्पर हैं, ऐसे में इस बात पर यकीन करना कठिन होगा कि स्वतंत्र भारत के आंरभिक वर्षों में, सेना तो क्या नागरिक प्रशासन में महिला अधिकारियों की उपस्थिति नगण्य थी।

वर्ष 1955 में, भारत सरकार में 25 महिला अधिकारी कार्यरत थीं। इनमें से दस महिला अधिकारी केंद्रीय सचिवालय सेवा में, नौ महिला अधिकारी अखिल भारतीय सेवाओं में और छह महिला अधिकारी भारतीय विदेश सेवा में नियुक्त थीं।

इन महिला अधिकारियों में से दस विवाहित थीं और पांच महिला अधिकारियों के बच्चे थे। इन महिला अधिकारियों की सेवा का कार्यकाल एक वर्ष से कम से लेकर अधिकतम सात वर्ष तक का था।


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...