Saturday, September 30, 2017

Looking Back_अरे यायावर रहेगा याद!



जीवन में कभी मेरी असीमित इच्छाएं थीं पर तुम्हें जानने की आकांक्षा में शेष सभी तिरोहित हो गई। (३०/०९/२०१७)

Rajendra Prasad_Mahtma Gandhi_राजेन्द्र प्रसाद के गांधी




आजादी के बाद लोकप्रिय अर्थ में बेशक जवाहर लाल नेेहरू को महात्मा गांधी को उत्तराधिकारी माना गया हो पर सच्चाई यही है कि देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद सरकार में गांधी के आचरण-व्यवहार के जीवंत प्रतीक थे। 


इसी जुड़ाव के बारे में 17 अप्रैल 1950 को भंगी काॅलोनी, नई दिल्ली में अखिल भारतीय हरिजन कार्यकर्ताओं की सभा में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि महात्मा गांधी जी के साथ जब से रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ तब से उनकी आज्ञा के मुताबिक उनके बताये हुये रास्ते पर चल कर आप लोगों की जो थोड़ी बहुत सेवा करने का मौका मिला उसे मैंने किया। 


महात्मा गांधी जी ने हमें यह सिखाया था कि यह काम सबसे महत्व का है। यह स्थान भी जो आप के सम्मेलन के लिए चुना गया है वह भी एक महत्व का स्थान है। महात्मा गांधी जी ने यहां बहुत दिन बिताये थे और वे भी ऐसे समय में बिताये थे जब कि देश के भाग्य का फैसला होने वाला था। यहां बहुत से ऐसे फैसले किये गये जिन से देश के भाग्य का निर्णय हुआ। मैं कोशिश करूंगा कि यहां एक ऐसा स्मारक बने जो केवल ईट पत्थर का स्मारक न रहे बल्कि ऐसा स्मारक, एक शिक्षा संस्था, हो जो यहां के लोगों के दिलों में वह चीज पैदा करे जिस से आप की सच्ची सेवा हो।

इतना ही नहीं, गांधी के राम से जुड़ाव को लेकर राजघाट पर बलिदान दिवस (30/01/1951) पर राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि महात्मा जी ने देश को बहुत कुछ बताया, देश को बड़ी शक्ति दी। पर महात्मा जी ने स्वयं वह शक्ति कहां से पायी जिसको उन्होंने सारे देश में और सारे संसार में इस तरह से वितरित किया? वह मानते थे कि और बार बार कहते थे और लिखते थे कि उनकी सारी शक्ति ईश्वर की दी गई है; राम नाम की शक्ति है और उसी राम नाम के बल से उन्होंने जो कुछ किया वह किया और अन्तिम शब्द भी जो उनके मुंह से निकला वह था-हे राम। महात्मा गांधी जी ने अपनी सारी जिन्दगी में जो तपस्या की थी जो काम किया था उसे उन्होंने संसार के लिये दे दिया और साथ ही साथ अन्त में उनके सामने ईश्वर का नाम लेेते हुए वह इस शरीर को छोड़ कर जो इसी स्थान पर अग्नि में जल कर भस्म हो गया फिर ईश्वर में जाकर मिल गये।

वहीं एक विश्वविद्यालय के समारोह में उन्होंने कहा था कि भारत वर्ष ने विजय प्राप्त की है क्योंकि साम्राज्य के विरोध में भी अपने आन्दोलन में महात्मा गांधी ने अहिंसा के उस सिद्वांत का पालन किया जिसका प्रचार वह अपने सारे जीवन में करते रहे थे। उनका इसके लिए जैसा आग्रह था वैसी अहिंसा में श्रद्वा आज किसी व्यक्ति की नहीं है जो इस आदर्श को उसी बल और श्रद्वा से संसार के सामने रख सके। जब तक यह उस श्रद्वा और विश्वास के साथ नहीं रखा जाता है तब तक उसका वह प्रभाव नहीं होगा जो महात्मा गांधी के शब्दों का हुआ करता था।


Monday, September 25, 2017

film newton to secret ballet_'न्यूटन'-'सीक्रेट बैलेट'

फिल्म न्यूटन का एक पोस्टर





यहाँ भी (चीनी) माल नकली!

जुझारू कामरेड की कहानी, यहाँ भी फर्जी निकली.

'न्यूटन'-'सीक्रेट बैलेट' भी मनमोहन देसाईं की फिल्मों की तरह कुंभ मेले में बिछड़े हुई बहनें निकली, एक हिन्दुस्तानी, एक ईरानी!


मतलब दास कैपिटल, पुराणों के आगे फेल?
सही में अब तो रायता, ऑस्कर तक फैल गया!

Life_gut feeling_जीवन_आस




कितनी बार,
मन से लिखा हुआ मिट जाता है,
जुटाई पुस्तकें खो जाती हैं,
पकड़ा हाथ-चुना साथी छूट जाता है,
फिर भी एक मन है
जो आस के साथ
जीवन में
अकेले आगे बढ़ता रहता है!

Sunday, September 24, 2017

Durga_prostitute_दुर्गा_वेश्या



ऐसी दोगली बौद्धिकता को नमन!


शरीर के पोलियो का तो ईलाज है पर मानसिक पोलियो के शिकार के विकार का वमन...

देवी दुर्गा को रक्षा मंत्री बताने पर उपराष्ट्रपति की कुल परंपरा पूछी जा रही है जबकि दुर्गा को वेश्या बताने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक 'मंडल' को पिछड़ा वर्ग का बताकर बचाव किया जा रहा है.

समाज के वन्दनीय प्रतीकों की अवमानना करना कौन-सी परंपरा और कुल वंश का गुण है, भला इसका परिचय तो समूचे विश्व को मिलना चाहिए.




Saturday, September 23, 2017

पगले सरदार की "नई दिल्ली"_Delhi of Khushwant Singh



प्रसिद्व अंग्रेजी पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह का दिल्ली से चोली-दामन का साथ रहा है। जिंदगी को बिंदास तरीके से जीने के हिमायती खुशवंत ने अपनी आखिरी सांस भी नई दिल्ली में ही ली। उनका सोचना था कि “यही पर मैंने जिदंगी का अधिकांश हिस्सा बिताया और यही पर मैं मरूंगा।” इस तरह दिल्ली की मौजूदगी न केवल उनके व्यक्तित्व में बल्कि कृतित्व में भी दिखती है। 


"दिल्ली" नाम का उनका उपन्यास इस महानगर की ऐतिहासिक यात्रा को आधुनिक दौर तक की झांकी पेश करता है। इस फंतासी की किताब में एक किन्नर (हिजड़े) के जरिए दिल्ली की दास्तान कही गई है।

अपने बचपन में 6 साल की उम्र से दिल्ली के माॅडर्न स्कूल में पढ़ाई शुरू करने वाले खुशवंत सिंह के अनुसार, मैं 1920 में अपने पिता के साथ दिल्ली आया तब तक तो नई दिल्ली को बनाने का काम जोरों पर चल रहा था। नई दिल्ली के अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी बनने की कहानी बताते हुए वे कहते हैं कि सन् 1911 में दिल्ली में बर्तानिया के किंग जाॅर्ज और क्वीन मेरी का ऐतिहासिक दरबार लगा था, जिसमें हिंदुस्तान की राजधानी कोलकता से बदलकर दिल्ली में करने की घोषणा की गई थी। उस दरबार में शिरकत करने उनके मेरे पिता (सुजान सिंह) और दादा भी आए थे। वे दोनों ठेकेदारी के धंधे में थे और तब तक कालका शिमला रेलवे लाइन बिछा चुके थे। उन्होंने सोचा कि दिल्ली राजधानी बनेगी तो इमारतें बनाने के लिए बहुत सारे काम मिल जाएंगे, इसलिए वे सन् 1912 में यहां आ गए और निर्माण में जुट गए।


नई दिल्ली में आबादी की बसावट का उल्लेख करते हुए खुशवंत कहते है कि उन दिनों हम जहां रहते थे, उसे आजकल ओल्ड हिल कहते हैं, जहां आज का रफी मार्ग है। एक कतार में वहां ठेकेदारों के अपने अपने झोंपड़ीनुमा घर थे। घरों के सामने से एक नैरो गैज रेलवे लाइन जाती थी, जिस पर इम्पीरियल दिल्ली रेलवेज नाम की रेलगाड़ी चला करती थी, जो बदरपुर से कनाट प्लेस तक पत्थर-रोड़ी-बालू भरकर लाया करती थी। यह रेल बहुत ही धीमी गति से हमारे घरों के सामने से गुजरती थी। हम बच्चे हर दिन इसमें मुफ्त सैर किया करते।गार्ड हमें भगाता रहता, पर हम कहां मानने वाले। यही हमारा मनोरंजन का साधन था।


आज की संसद के बारे में वे बताते है कि जहां आज संसद भवन की एनेक्सी है, वहां इन दिनों बड़ी-बड़ी आरा मशीनें चलती थीं जिसमें पत्थरों की कटाई होती। सुबह-सुबह ही पत्थर काटने की ठक-ठक की आवाजों से हमारी नींद खुल जाती। लगभग साठ हजार मजदूर नई दिल्ली की इमारतों को बनाने में लगे थे। ज्यादातर तो राजस्थानी थे, उन्हें दिहाड़ी के हिसाब से मेहनताना मिला करता था, मर्दों को आठ आठ आना और औरतों को छह आना दिहाड़ी मिला करती थी।


उनके अनुसार, राजधानी में पहले सचिवालय बने। साथ ही साथ सड़के बिछानी शुरू की गई। सरकार चाहती थी कि लोग आगे आएं और जमीनें खरीदकर वहां इमारतें बनाएं, पर लोग अनिच्छुक थे। लोग काम करने नई दिल्ली के दफ्तरों में आते और पुरानी दिल्ली के अपने घरों को लौट जाते। यहां तो जंगल ही था सब-रायसीना, पहाड़गंज, मालचा-सब कहीं। गुर्जर ही रहते थे बस यहां। सारी जगह कीकर के जंगल थे, कहीं कहीं तो जंगली जानवर भी।


वे अपने परिवार और पैतृक व्यवसाय के नई दिल्ली के निर्माण से जुड़े रहने के बारे में बताते है कि मेरे दादा से अधिक मेरे पिता ही दरअसल वास्तविक रूप से निर्माण कार्य में लगे थे। उनके पिता व्यवसाय की ऊपरी देखरेख करते थे। उन्होंने नई दिल्ली की अनेक इमारतें बनाईं, जिनमें प्रमुख थीं-सचिवालयों का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट (जिसे तब आल इंडिया वाॅर मेमोरियल आर्च कहा जाता था), आॅल इंडिया रेडियो बिल्डिंग (आकाशवाणी भवन), नेशनल म्यूजियम, बड़ौदा हाउस एवं अनगिनत सरकारी बंगले। साथ ही उन्होंने (सुजान सिंह) अपनी खुद की भी कई इमारतें बनाई, जैसे-वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनाॅट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लाॅक। उन दिनों यह सुजान सिंह ब्लाॅक कहलाता था। रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस भी उन्होंने ही बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं। अजमेरी गेट के पास भी कई इमारतें उनकी थीं।


सुजान सिंह ने दूसरे ठेकेदारों के साथ मिलकर विजय चौक, संसद भवन का भी कुछ हिस्सा बनाया। नार्थ ब्लाॅक को सरदार बसाखा सिंह और साउथ ब्लाॅक को सुजान सिंह ने बनाया। उनकी पत्नी के पिता सर तेजा सिंह सेंट्रल पी‐डब्ल्यू‐डी में चीफ इंजीनियर थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें चीफ इंजीनियर का दर्जा प्राप्त था, वरना तो सिर्फ अंग्रेजों को ही यह पद दिया जाता था। सचिवालयों के शिलापट्टों पर खुशवंत सिंह के पिता और ससुर दोनों के नाम खुदे हुए हैं। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर जाने पर नार्थ और साउथ ब्लाॅकों के मेहराबदार ताखों में शिलापट्टों पर एक तरफ नई दिल्ली
को बनाने वाले ठेकेदारों के नाम हैं और दूसरी तरफ आर्किटेक्टों और इंजीनियरों का नाम हैं।



Saturday, September 16, 2017

Metro Rail changes Delhi Character_सूरत से सीरत तक बदली मेट्रो ने




देश में मेट्रो का सामाजिक परिवर्तन के वाहक के रूप में मूल्यांकन किया जाता है। इस मूल्यांकन का आधार दिल्ली के समाज को लोकतांत्रिक बनाने, मेट्रो की महिला यात्रियों को अलग स्थान देकर सशक्त बनाने और रोजमर्रा की जिंदगी में आवाजाही के लिए उसका का प्रयोग करने वाली जनसंख्या के व्यवहार को सभ्य बनाने सरीखे कदम हैं। इन सभी बातों का दिल्ली के भौतिक वातावरण पर प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में असरकारी प्रभाव पड़ा है। कुछ समय बाद दिल्ली मेट्रो से पहले की राजधानी की कल्पना करना सहज नहीं होगा।


कैब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस से छपी पुस्तक "ट्रैक्स आॅफ चेंजः रेलवेज एंड एवरीडे लाइफ इन कोलोनियल इंडिया" पुस्तक में रितिका प्रसाद ने दिल्ली मेट्रो के बनने से राजधानी के भूगोल, इतिहास, समाज में आए परिवर्तन और भारतीय रेल से अंर्तसंबंध को रेखांकित किया है।

पुस्तक के अनुसार, राजधानी में मेट्रो रेलवे पटरियों, स्टेशनों, तटबंधों, पुलों, सिगनलों और क्रॉसिंगों के बढ़ते नेटवर्क ने औपनिवेशिक भारत के परिदृश्य को स्थायी रूप से बदल दिया है। यही कारण है कि दिल्ली मेट्रो स्टेशन पहचान के नए निशान हैं तो मेट्रो के खंभे ठिकाने तक पहुंचने का नया जरिया बन चुके हैं। जबकि इस प्रक्रिया में मेट्रो के जमीन से ऊंचाई पर बने पुलों के रास्तों ने महानगर के क्षितिज को परिवर्तित कर दिया है। कुतुब मीनार के करीब से गुजरती मेट्रो लाइन के रास्ते को दोबारा केवल इसलिए बनाना पड़ा क्योंकि उससे जनता के शहर के इतिहास का अभिन्न भाग वाले ऐतिहासिक स्मारक को देखने के दृश्य के बाधित होने का खतरा था।

रितिका प्रसाद रेल और जमीन के सौदे की बात पर लिखती है कि भारतीय रेल की तरह, मेट्रो सीधे जमीन की खरीद नहीं करता है। दरअसल, असली फर्क यह है कि दिल्ली मेट्रो को अपने लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण का भुगतान करना होता है। जबकि इसके विपरीत, ब्रिटिश भारत में रेलवे की मालिकान अंग्रेज कंपनियों के लिए शासन सीधे हस्तक्षेप करके इंपीरियल हुकूमत से निशुल्क भूमि मुहैया करवाता था। इस कदम से अंग्रेज रेल कंपनियों की बुनियादी ढांचा खड़ा करने की लागत में कमी आती थी और उनके मुनाफे की संभावना बढ़ती थी।

किताब बताती है कि दिल्ली मेट्रो के कुछ मामलों में, असली सवाल मूल्यांकन या मुआवजा न होकर विरासत है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां भूमिगत लाइनों के लिए खुदाई करनी होती है। रेल निर्माण को कई मामलों में जैसे पुरातात्विक अवशेषों या 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के ठीक बाद की महत्वपूर्ण धार्मिक इमारते, जो कि सचमुच मेट्रो के रास्ते में आई, उससे दिल्ली मेट्रो को कोई दिक्कत नहीं हुई। इसका कारण यह था कि मेट्रो के निर्माण में ऐतिहासिक इमारतों की तुलना में विरासत वाले स्मारकों को प्राथमिकता दी गई। कुल मिलाकर धार्मिक तीर्थस्थानों की बजाय ऐतिहासिक इमारतों की चिंता की गई है। विडंबना यह है कि मेट्रो की हेरिटेज लाइन को लेकर अधिक सवाल खड़े हुए हैं, जिसका उद्देश्य दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों को सुलभ बनाना है। विडंबना यह है कि दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों को सुलभ बनाने के उद्देश्य वाली मेट्रो की हेरिटेज लाइन को लेकर अधिक सवाल खड़े हुए हैं।

रितिका प्रसाद के अनुसार, कुछ भिन्न करने की इच्छा से पूर्ववर्ती प्रौद्योगिकियों के संबंध में नई तकनीक के आयात की जरूरत समझने की बात सामने आई। रेलवे के प्रभाव का पता लगाने की दिशा में एक सूत्र मिला और वह था दिल्ली में एक सदी से अधिक की अवधि के अंतर वाले दो परिवहन क्रांतियों के बीच सादृश्य खोजने का। यह प्रयास फलदायी सिद्व हुआ, जिससे रोजमर्रा के उपयोग में नई तकनीक के ऐतिहासिक अर्थ के उपयोग की बात सामने आई।


Wednesday, September 13, 2017

Hindi connection of Delhi_दिल्ली और हिंदी की नातेदारी






दिल्ली का भारत की सबसे पुरानी और सबसे नयी राजधानी के रूप में न केवल यहीं समस्त भारतीय दर्शन की सार-रूप श्रीमद्भगवद्गीता से युक्त महाभारत नामक काव्य का प्रणयन महर्षि वेदव्यास (इंद्रप्रस्थ में) ने किया। प्राचीन प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में यह (दिल्ली) नाम ढिल्ली अथवा ढिल्लिका के नाम से उल्लिखित है।


श्रीनिवासपुरी के निकट मिले सम्राट अशोक का प्राकृत शिलालेख और पूर्व एवं मध्यकाल में रचित विपुल जैन काव्य तथा नाथपंथी काव्य के अतिरिक्त इस (दिल्ली) का मध्ययुगीन नाम योगिनीपुर भी इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है।


यहीं, हिंदी के आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध चंदरबरदाई ने पृथ्वीराज रासो की ओजस्वी वाणी उच्चरित की और अमीर खुसरो ने लोकरंजक गीतों की सरस धारा प्रवाहित की। परवर्ती अपभ्रंश से विकसित पुरानी हिंदी (चंद्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा दिया गया नाम) तथा ब्रज, बांगरू, राजस्थानी, कौरवी आदि जनपदीय बोलियों को क्रमशः लोक साहित्य तथा ललित साहित्य और ज्ञानपरक साहित्य का माध्यम बनाते हुए इसी महानगर ने देहलवी के नाम से उस केंद्रीय हिंदी के उद्भव और विकास का श्रेय प्राप्त किया जो आज मानक खड़ी बोली के रूप में भारत की राष्ट्रभाषा तथा राजभाषा का पद प्राप्त करने के बाद क्रमशः एक अंतरराष्ट्रीय भाषा बनने की ओर अग्रसर है।


दिल्ली की प्रादेशिक भाषा हिंदी है जिसे देसी भासा का शहरी संस्करण कहा जा सकता है। इसका उद्भव-ंस्त्रोत शौरसेनी, प्राकृत अथवा अपभ्रंश है। शूरसेन प्रदेश (मथुरा) किसी समय राज्यशक्ति और व्यापार का मुख्य केंद्र था। शौरसेनी, प्राकृत अथवा अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी की अनेक बोलियों का विकास हुआ है। इन्हीं बोलियों के पुंजीभूत सम्मिश्रण का यत्किंचित परिष्कृत रूप हिंदी है। 


हिन्दी भाषा का आरंभिक रूप चंदरबरदाई के पृथ्वीराज रासो में मिलता है। ग्वालियर के तोमर राजदरबार में सम्मानित एक जैन कवि महाचंद ने अपने एक काव्यग्रंथ में लिखा है कि वह हरियाणा देश के दिल्ली नामक स्थान पर यह रचना कर रहा है। 


बारहवीं शताब्दी के अंत में अमीर खुसरो ने हिंदी के विकसित रूप का प्रयोग किया है। उसकी पहेलियां, दो सुखने, मुकरियां इत्यादि इसके उदाहरण है। आगे इसी परंपरा में रहीम, रसखान, घनानंद आदि हिंदी के मूर्धन्य कवि हुए जिनका अधिकांशतः संबंध दिल्ली से ही रहा। गोपीचंद नारंग ने लिखा है कि कि खुसरो के प्रामाणिक या लगभग प्रामाणिक हिंदवी काव्य के अंशों की चर्चा करके हम प्रथम भूमिका में स्पष्ट कर चुके हैं कि उसमें प्राचीन ब्रजभाषा के तत्व भी हैं और प्राचीन खड़ी बोली के भी, और प्रायः हिंदी का वह मिलाजुला रूप सामने आता है जिसमें खड़ी बोली की अपेक्षा ब्रजभाषा का प्रधानता है। इस तरह तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली में जिस भाषा का प्रयोग साहित्य रचना के लिए किया जा रहा था वह व्याकरण की दृष्टि से ब्रजभाषा और खड़ी बोली का मिश्रित रूप थी जिसमें एक ओर अपभ्रंश की शब्दावली के अवशेष थे तो दूसरी ओर अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द प्रवेश करने लगे थे। 


धीरेंद्र वर्मा तथा बाबूराम सक्सेना ने भी यह माना है कि संपूर्ण मध्य देश और विशेषकर दिल्ली के जनसामान्य की भाषा हिंदवी ही थी। दिल्ली का भारत की सबसे पुरानी और सबसे नयी राजधानी के रूप में न केवल राजनीतिक बल्कि एक सांस्कृतिक और साहित्यिक महानगर के नाते भी देश के पटल पर एक अलग स्थान है। ऐसा मान्यता है कि आदि ज्ञान स्त्रोत वेदों की रचनाएं सबसे पहले यहीं, यमुना के तट (निगम बोध घाट) पर उच्चारित हुईं।

Saturday, September 2, 2017

Traders of Delhi_Railway connection_दिल्ली के कारोबारियों का रेल कनेक्शन

आज यह बात जानकर हर किसी को अचरज होगा कि अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली में रेलवे लाइन को लाने में शहर के व्यापारियों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज की राजधानी में रेलवे लाइन बिछाने की बात पर सबसे पहली बार 1852 में विचार किया गया था। जबकि 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली की बजाय मेरठ से रेलवे लाइन बिछाने का मन बना लिया था। जिससे ब्रिटेन और दिल्ली में निराशा का माहौल बना।

1863 में व्यापारियों की एक बैठक हुई, जिसमें अंग्रेज सरकार से दिल्ली को रेलवे लाइन से वंचित नहीं किए जाने का अनुरोध किया गया। इस बैठक में अनेक अधिकारियों सहित सम्मानित नागरिकों ने हिस्सा लिया। आजादी की पहली लड़ाई के पांच साल बाद राजधानी में जुटी यह एक बड़ी संख्या थी। इनमें हिंदू और जैन साहूकार, हिंदू, मुस्लिम और एक पारसी व्यापारी और पांच मुस्लिम कुलीन शामिल थे। उन्होंने सेक्रेटरी आॅफ स्टेट को सौंपी एक याचिका में कहा कि रेलवे लाइन को हटाने से न केवल दिल्ली का कारोबार प्रभावित होगा बल्कि यह रेलवे के शेयर खरीदने वालों के साथ अन्याय होगा। यह एक महत्वपूर्ण बात थी क्योंकि आमतौर पर चुनींदा भारतीयों ने ही ब्रिटिश भारतीय रेलवे कंपनियों के उद्यमों में निवेश किया था लेकिन यह 1863 की बात थी जब यह कहा गया था कि दिल्ली के कुछ पूंजीपतियों ने शेयर खरीदे हैं।

इन व्यापारियों और पंजाब रेलवे कंपनी (जो कि ईस्ट इंडिया रेलवे के साथ दिल्ली में एक जंक्शन बनाना चाहती थी क्योंकि मेरठ अधिक दूरी पर था) के
दबाव के नतीजन चार्ल्स वुड ने वाइसराय के फैसले को पलट दिया। 1867 में नए साल की पूर्व संध्या की अर्धरात्रि को रेल की सीटी बजी और दिल्ली में पहली रेल दाखिल हुई। गालिब की "जिज्ञासा का सबब" इस "लोहे की सड़क" से शहर की जिंदगी बदलने वाली थी।

Butterfly world in Delhi_राजधानी का तितली संसार





भारत के अधिकांश तितलियां दक्षिण, पश्चिमी घाट और उत्तर-पूर्व में पाई जाती है पर ऐसे में दिल्ली भी पीछे नहीं है। दुनिया में पाई जाने वाली तितलियों की 17000 प्रजातियों में से देश में 1600 और दिल्ली में करीब 90 प्रजातियां हैं। गौर करने वाली बात यह है कि राजधानी में बारिश के बाद तितलियों की उपस्थिति न केवल संख्या में बल्कि विविधता में भी बढ़ जाती है और ऐसे में मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्तूबर के दौरान तितलियों की अच्छी संख्या दिखती है।


डेनमार्क के कीट विज्ञानी टॉरबेन बी लार्सन ने 1986 में दिल्ली की तितलियों पर काम करते हुए तितलियों की 86 प्रजातियों की उपस्थिति दर्ज की थी। उनका यह शोध पत्र 2002 में ही प्रकाशित हुआ था। इससे पहले राजधानी में तितलियों पर 1943, 1967 और 1971 में शोध कार्य हुए हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी में भारतीय तितलियों पर प्रथम संदर्भ पुस्तक "भारत की तितलियां" भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के डॉ आर.के. वार्ष्णेय ने लिखी।


पिछले दशक के अध्ययन में राजधानी में तितलियों की छह नई प्रजातियां देखी गई हैं। जेएनयू के जीव विज्ञानी तितलियों और पतंगों में विशेषज्ञ डॉ सूर्य प्रकाश ने अपनी दस साल (2003-2013) के शोध के बाद इस बात का खुलासा किया कि रेड पियरोट, काॅमन जे, कॉमन बैरन, इंडियन टोर्टोसेसेल्ल,
कॉंनजोइन्ड स्विफ्ट और कॉमन ब्लूबॉटल नामक प्रजातियाँ अब आधिकारिक रूप से दिल्ली के तितली संसार का अभिन्न हिस्सा है।


2013 में अरावली जैव विविधता पार्क में तितलियों की 95 प्रजातियां और यमुना जैव विविधता उद्यान में 70 प्रजातियों की उपस्थिति दर्ज की गई थी। जबकि आसोला भाटी वन्यजीव अभयारण्य में तितलियों की 80 से अधिक प्रजातियां है। नई दिल्ली नगर पालिका परिषद ने 2009 में लोदी गार्डन में तितलियों के लिए विशेष रूप से एक संरक्षक क्षेत्र बनाया।


यह एक आम धारणा है कि तितलियां अपने भोजन के लिए केवल फूलों पर निर्भर है। जबकि सच यह है कि तितलियों गली हुई लकड़ी, मृत पशु और यहां तक कि गोबर से भी अपना खाना पाती है। उदाहरण के लिए, दिल्ली के सब्जी मंडियों में आम तौर पर दिखने वाली काॅमन बैरोन तितली आम से अपना भोजन प्राप्त कर रही थी। जबकि दिल्ली में लाल पिएरॉट तितली के आगमन का कारण दिल्ली में उगाया जा रहा "कलंचो पिननाटा" नामक एक विदेशी सजावटी पौधा है, जिससे यह तितली अपना भोजन लेती
है। इसी तरह काॅमन जय तितली का राजधानी में दक्षिण भारत से करी पत्ता के औषधीय पौधे के साथ आगमन माना जाता है।


पर दिल्ली के तितली संसार में हालात इतने अच्छे भी नहीं है। 1986 में लार्सन की तितलियों की गणना के बाद से राजधानी में तितलियों की कुछ विशेष
प्रजातियों की संख्या में कमी आई है या वे पूरी तरह से लुप्त प्रायः हो गई है। इनमें प्रमुख हैं ब्लैक राजा, कॉमन सैलर, जेंट रेडये, इंडियन फ्र्रिटलरी, कॉमन प्योरॉट, कॉमन रोज, क्रिमसन रोज, टैवनी कॉस्टर और इंडियन ईजेबल। जबकि महत्वपूर्ण बात यह है कि लार्सन ने अपनी पुस्तक "द हैजर्ड्स ऑफ बटरफ्लाई कलेक्टिंग" में इस बात का उल्लेख किया है कि उन्होंने इंडियन ईजेबल की सुंदरता से प्रेरित होकर ही तितलियों का अध्ययन
आरंभ किया था।


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...