Wednesday, October 30, 2019

Ruskin Bond_Books_रस्किन बांड_किताब




On books and friends I spend my money, for stones and bricks I haven't any.
-Ruskin Bond

मैं किताबों और दोस्तों पर अपना पैसा खर्च करता हूं, मेरे पास पत्थरों और ईंटों (यानि घर) के लिए धन नहीं है।
-रस्किन बांड 


Saturday, October 26, 2019

Story of Yaksh_Yakshini murals at RBI Delhi_रिज़र्व बैंक की लक्ष्मी के रखवाले यक्ष-यक्षिणी

दैनिक जागरण, 26/10/2019



अंग्रेजों से मिली आजादी के बाद देश में बनी पहली भारतीय सरकार ने राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक संस्थानों के गठन के लिए भवनों के निर्माण की योजना बनाई।


तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भव्य और विशाल आकार वाले सार्वजनिक संस्थानों के भवनों को बनाने की योजना में वास्तुशिल्पियोंचित्रकारों और मूर्तिकारों को जोड़ने का सुझाव दिया। इस सुझाव के मूल में नवस्वतंत्र राष्ट्र के सार्वजनिक संस्थानों के भवनों के निर्माण में भारतीय कलाकारों की प्रतिभा का किसी न किसी रूप में उपयोग करने की भावना थी। नेहरू का विचार था कि इन सार्वजनिक संस्थानों के भवनों के निर्माण में आने वाली कुल लागत की तुलना में कला के काम पर अधिक खर्चा नहीं होगा। इससे भारतीय कलाकारों को प्रोत्साहन मिलेगा और जनता ऐसे काम का स्वागत करेगी।


प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को व्यवहार रूप में लागू करने के लिए केंद्रीय वित्त सचिव श्री के.जी. अंबगांवकर ने तत्कालीन गर्वनर बी. रामा राव को इस विषय पर एक नोट भेजा। यह उस समय की बात है, जब भारतीय रिजर्व बैंक नई दिल्ली, मद्रास और नागपुर जैसे स्थानों में नए भवनों के निर्माण को लेकर सोच-विचार कर रहा था। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस प्रस्ताव की जांच और सुझाव देने के लिए एक समिति गठित की। इस समिति के सदस्यों में बंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट के डीन श्री जे.डी. गोंदेलकर, मैसर्स मास्टर, साठे और भूटा कंपनी के श्री जी.एम. भूटा और रिजर्व बैंक के सहायक मुख्य लेखाकार श्री आर.डी. पुलस्कर थे। 


समिति ने नई दिल्ली स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर प्रतिमाएं लगाने की सिफारिश की। इनमें से एक को उद्योग और दूसरी को कृषि से समृद्धि प्राप्त करने के प्रतीक विचार के रूप में लिया गया। तब भारतीय रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड के तत्कालिक निदेशक जे.आर.डी. टाटा के आग्रह पर प्रख्यात आलोचक और कला के पारखी कार्ल खंडालवाला की इस विषय पर सम्मति पूछी गई। उन्होंने ही भारतीय रिजर्व बैंक के मुख्य द्वार के दो तरफ यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाओं को स्थापित करने के विचार का सुझाव दिया था। खंडालवाला की सलाह पर ही रिजर्व बैंक के नई दिल्ली कार्यालय के सामने के अहाते में अलंकरण के कार्य के लिए नौ कलाकारों से निविदाएं आमंत्रित की गई। अलंकरण के कार्य के लिए कुल आमंत्रित नौ कलाकारों में से पाँच ने अपने प्रस्ताव प्रस्तुत किए और उनमें से भी केवल ने एक ही प्रतिमाओं के निर्माण के लिए उपयुक्त मॉडल और रेखाचित्र दिए। 


इस तरह, राम किंकर बैज का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। बैज ने पुरुष यक्ष की कला का प्रतिरूप मथुरा संग्रहालय में परखम यक्ष की प्रतिमा से और महिला यक्षिणी की कला का प्रतिरूप कलकत्ता संग्रहालय में बेसनगर यक्षिणी के आधार पर तैयार किया। श्री खंडालवाला की मान्यता थी कि ये विशाल प्रतिमाएं, नई दिल्ली स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के कार्यालय की स्थापत्य विशेषताओं के साथ बेहद अच्छी लगेगी। एक ओर जहां, किसान-मजदूर की खुशहाली के विषय को नेहरू की वैज्ञानिक सोच से लिया गया तो वहीं दूसरी तरफ यक्ष और यक्षिणी के रूप में उसकी अभिव्यक्ति पारंपरिक दृष्टि रखने वालों की संवेदनाओं को पुष्ट करती थी। 


हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यक्ष अर्ध देवयोनि के एक वर्ग में आते हैं और वे धन के देवता कुबेर के सेवक माने जाते हैं। यक्षों का काम कुबेर के उद्यानों और खजाने की रक्षा करना है। यक्षिणी एक महिला यक्ष है। भारतीय रिजर्व बैंक को नोट जारी करने का एकमेव अधिकार होने और केंद्र तथा राज्य सरकार के बैंक होने के नाते, इसकी तुलना धन के देवता कुबेर के साथ की सकती है। एक तरह से, यक्ष और यक्षिणी की प्रतिमाएं बैंक के खजाने की रक्षा का दायित्व संभाल रही है। 


आधुनिक संदर्भ मेंइन प्रतिमाओं की रूपवादी व्याख्याओं के अनुसार, ये दोनों प्रतिमाएं उद्योग और कृषि का प्रतीक रूप भी मानी जा सकती है। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि स्वतंत्रता के एकदम बाद देश का केंद्रीय बैंक होने के नाते रिजर्व बैंक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप इन क्षेत्रों के विकास को लेकर अत्यंत चिंतित था। इन प्रतिमाओं के निर्माण में लगे एक लंबे कालखंड ने बैंक अधिकारियों के धैर्य की परीक्षा ली। यह लंबा इंतजार, प्रसिद्ध शिल्प-कलाकार राम किंकर के उपयुक्त गुणवत्ता वाले पत्थर को चयनित करने में लिए अपार समय लेने के कारण हुआ। किंकर को इतना समय, सही पत्थर के लिए विभिन्न स्थानों की खोज, पत्थर की गुणवत्ता, पत्थर के उत्खनन में आई समस्याओं और पत्थर को ढोकर दिल्ली लाने के लिए परिवहन की व्यवस्था करने में लगा। 


इस काम में हुई खासी-लेटलतीफी के कारण कई बार तो रिजर्व बैंक को यह बात महसूस हुई कि रामकिंकर भले ही उत्कृष्ट कलाकार होने की योग्यता रखते हो पर शायद उनके पास प्रतिमाओं को बनाने का उद्यम करने का प्रबंधकीय कौशल नहीं है। जब दिसंबर 1966 के आसपास प्रतिमाएं गढ़कर पॉलिश के लिए तैयार हुई तो स्वीकृत लागत की अनुमानित मूल राशि में खासा संशोधन करना पड़ा।

पर किस्सा यही खत्म नहीं हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि आखिरकार जब प्रतिमाएं को स्थापित किया गया तब करीब दस साल से ज्यादा का समय बीत चुका था। जब इन प्रतिमाओं को बनाने का आदेश दिया गया था, तब से लेकर अब तक समय, स्थिति और समाज सभी में काफी परिवर्तन आ चुका था। केवल इतना ही नहीं, देश के नेतृत्व और जनमानस दोनों का दृष्टिकोण काफी बदल चुका था। 


जब नई दिल्ली के संसद मार्ग पर रिजर्व बैंक के कार्यालय में प्रतिमाओं को स्थापित किया गया तो नागरिकों के एक वर्ग की पाखंडी संवेदनशीलता को ठेस लगी। इस वर्ग की उत्तेजना का वास्तविक कारण, अपने प्राकृतिक सौंदर्य के रूप में दर्शायी गई यक्षिणी की प्रतिमा थी। उस समय सांसद प्रोफेसर सत्यव्रत सिद्वांतालंकार ने इन प्रतिमाओं के विषय को राज्यसभा में उठाया था। उन्होंने आवास और आपूर्ति मंत्री से यह सवाल पूछा कि संसद मार्ग स्थित भारतीय रिजर्व बैंक के सामने एक नग्न स्त्री की प्रतिमा स्थापित करने का क्या उद्देश्य है, जबकि वास्तविकता में नग्न स्त्री की प्रतिमा अनिवार्य रूप से एक रूपक व्याख्या थी जो कि कृषि-समृद्वि का प्रतिनिधित्व करती थी। यह बात समझने-समझाने के लिए पर्याप्त थी पर तिस पर भी पूरक प्रश्न पूछे गए। इन प्रश्ननों में प्रतिमाओं के निर्माण की लागत के खर्च का ब्यौरा और इस कला की सिफारिश करने वाली समिति के सवाल थे। संसद के उच्च सदन में बेचैनी का कारण तो यक्षिणी की मूर्ति थी पर तब के लोकप्रिय साप्ताहिक अखबार ब्लिट्ज, जिसका न पाखंडी दृष्टिकोण था और न कला के बारे में अनजान, ने विशेष रूप से प्रतिमाओं को लेकर प्रकाशित समाचार को एक अलग ही कोण दे दिया। ब्लिट्ज ने यक्ष को एक उद्योगपति सदोबा पाटिल के समान बताते हुए यक्ष पाटिल शीर्षक वाले एक समाचार के साथ प्रतिमा की एक तस्वीर छापी। वह बात अलग थी कि राम किंकर के एक आधुनिक यक्ष, जो कि अब रिजर्व बैंक का रक्षक है, की संयोग से तब देश के बड़े व्यवसायियों में से एक सदोबा पाटिल से अद्भुत समानता थी।



ब्लिट्ज के प्रकाशित लेख को ध्यान में रखते हुए देखते हुए यह बात महसूस की गई कि प्रतिमाओं के कारण उपजी गलतफहमियों को रिजर्व बैंक की ओर से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कला-कार्य पर सफाई देनी चाहिए। फिर विज्ञप्ति को जारी करने से एक बार फिर विवादों को हवा मिलने की भी आषंका जताई गई। फिर अंत में रिजर्व बैंक में इस विषय पर चुप्पी ही साधने की बात पर सहमति बनी। पचास के दशक में, जब नेहरू ने देश में कला को प्रोत्साहन देने के विचार की कल्पना की थी, वह आशावादिता का एक युग था। जबकि तुलनात्मक रूप से, साठ के दशक में एक तरह से कला का विचार पृष्ठभूमि में चला गया था। इस तरह, दोनों कालखंडों में विचार के स्तर पर काफी अंतर आ गया था। रिजर्व बैंक के गर्वनर पी.सी. भट्टाचार्य ने समय की गति को पहचानते हुए टिप्पणी की थी कि मुश्किल समय में चुप रहना ही बेहतर होता है। आज के हिसाब से पैसे को खर्च करने का निर्णय और परियोजना के देरी से पूरा होने की बात को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे मेंएक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से रिजर्व बैंक के प्रांगण में लगाई गई प्रतिमाओं के प्रतीकात्मक महत्व को समझाने की बात व्यर्थ ही होगी। हम संसद में पूछे जाने वाले किसी भी सवाल का सीधा या तदर्थ आधार पर जवाब दे सकते हैं। इस तरह, एक अच्छा विचार और कार्य मात्र देरी की वजह से शंका और संदेह का शिकार हुआ।


Saturday, October 19, 2019

Age old Indo_Soviet relationship_समय की धारा पर भारत-सोवियत संबंध

दैनिक जागरण, 19102019








यह एक कम जाना तथ्य है कि हिंदुस्तान ने आजादी मिलने के पहले ही सोवियत संघ के साथ राजनयिक संबंध कायम कर लिए थे। जबकि पहला सोवियत राजनयिक स्वतंत्र भारत में ही दिल्ली पहुंचा था। 13 अप्रैल 1947 को दोनों देशों के मध्य राजनियक संबंध स्थापित हुए थे। जबकि  नंवबर 1947 में दिल्ली पहुंचने वाले पहले सोवियत राजनयिक पावेल येर्जिन (1919-1992) थे। ऐसे मेंयर्जिन के सामने सबसे बड़ी चुनौती तत्कालीन भारत सरकार की सहायता से सोवियत दूतावास के लिए एक उपयुक्त स्थान की तलाश था। यर्जिन के दिल्ली पहुंचने के अगले दिन ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें मिलने के लिए आमंत्रित किया। इस बैठक में नेहरू ने सोवियत राजनयिक को बताया कि भारत सरकार ने सोवियत संघ के दूतावास के लिए त्रावणकोर हाउस का चयन किया।


उसके शीघ्र बाद ही किरील नोविकोव (1905-1983) को भारत में सोवियत राजदूत नियुक्त किया गया। इससे पहलेवर्ष 1939 में नोविकोव को सोवियत विदेश मंत्रालय में नियुक्त थे। वे लंदन स्थित सोवियत दूतावास में डीसीएम बने। जबकि वर्ष 1945 में हुए प्रसिद्ध याल्टा सम्मेलन के वे मुख्य आयोजक थे। लिवाडिया पैलेस (क्रीमिया) में इस आयोजन को समर्पित संग्रहालय में उनकी राजनयिक पोषाक प्रदर्शित है।

दिसंबर 1947 में दिल्ली पहुंचे नोविकोव को यह जानकर बेहद खुशी हुई कि त्रावणकोर हाउस सरीखी शानदार इमारत सोवियत दूतावास होगी। वर्ष 1953 तक नोविकोव भारत में तैनात रहे। वर्ष 1960 में सोवियत संघ दूतावास त्रावणकोर हाउस से स्थानांतरित होकर चाणक्यपुरी में एक नई इमारत में पहुंच गया। जबकि 1960-1964 यानि चार साल की अवधि में त्रावणकोर हाउस में सोवियत सेंटर फॉर साइंस एंड कल्चर बना रहा।

सितंबर 1946 को एक रेडियो प्रसारण में अंतरिम सरकार के उपाध्यक्ष के रूप में नेहरू ने सोवियत नागरिकों को भारत की शुभकामनाएं देते हुए इस बात की घोषणा कि वे एशिया में हमारे पड़ोसी हैं और अनिवार्य रूप से हमें मिलकर अनेक साझा कार्यों का बीड़ा उठाना होगा और एक दूसरे के साथ मिलकर बहुत कुछ करना होगा। सोवियत नेताओं ने भी ऐसी भावनाओं के साथ पूरी तरह अपनी सम्मति जताई। इसका ही परिणाम था कि 13 अप्रैल 1947 को दोनों देशों ने राजनयिक संबंध स्थापित करने के निर्णय की घोषणा की। तब अंग्रेजों से भारतीय नेतृत्व के हाथों में सत्ता हस्तांतरण की वार्ता को लेकर अपनी आशंकाओं के बावजूद सोवियत संघ ने स्वतंत्रता पूर्व भारत के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने का फैसला लिया। एक तरह सेयह भारत में सोवियत संघ की गहरी रूचि का प्रतीक था। जो कि दोनों देशों के भविश्य के द्विपक्षीय संबंधों के विकास के लिए एक शुभंकर साबित हुआ।

15 अगस्त, 1947 को भारत की आजादी के बाद कुछ समय के लिएभारत-सोवियत संबंधों में वह पहले वाली गर्मजोशी नहीं रही। यहां तक कि दोनों देशों में कुछ दूरियां भी बढ़ी। फिर भी उस समय संयुक्त राष्ट्र में भारत और सोवियत संघ उपनिवेशवाद और नस्लवाद के मुद्दों पर एकमत और साथ थे। उदाहरण के लिएसोवियत संघ ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के लोगों की दुर्दशा और इंडोनेशियाई निवासियों के स्वतंत्रता संघर्ष की ओर ध्यान आकर्षित करने के भारत की कोशिशों का पुरजोर समर्थन किया। उसके शीघ्र बाद भारत की पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता और कोरियाई युद्ध की समाप्ति के लिए निरंतर प्रयासों ने सोवियत नेताओं को इस बात का भरोसा हुआ कि भारत पश्चिमी शक्तियों के दबावों को दरकिनार करते हुए वैश्विक मामलों में एक स्वतंत्र मार्ग का पक्षधर है। इससे भारत-सोवियत संबंधों में प्रगाढ़ता बढ़ी।

सोवियत संघ ने अब कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा में सक्रिय रुचि लेना शुरू किया और पूरी मजबूती से भारतीय पक्ष के समर्थन में खड़ा रहा। वर्ष 1952 में सुरक्षा परिषद में सोवियत प्रतिनिधि के भाषणों से यह बात साबित होती है। दिसंबर 1953 में पहले भारत-सोवियत व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर हुए। यह दोनों देशों के बीच व्यापार के विस्तार की एक महत्वाकांक्षीपंचवर्षीय योजना पर आधारित था। जिससे भारत को कुछ ऐसे फायदे थे जो कि आमतौर पर पश्चिमी देशों के साथ होने वाले समान व्यापारिक समझौतों में नहीं होते थे। जैसेदोनों देशों के बीच भारतीय रुपए में व्यापार होने की बात थी। इतना ही नहींआपसी व्यापार को बढ़ाने के अलावा भुगतान संतुलन को भी बनाए रखने के प्रयास किए गए। इस दौरानपरस्पर सांस्कृतिक संपर्क के बढ़ने का परिणाम दोनों देशों में विविध क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों की आपसी यात्राओं के रूप में सामने आया। 



Saturday, October 12, 2019

Pre Independent Delhi in view of a Rajasthani एक राजस्थानी की जुबानी, दिल्ली की कहानी




अंग्रेजों के जमाने में नई दिल्ली के निर्माण में राजस्थान के पत्थर से लेकर राजस्थानियों का अप्रतिम योगदान रहा है। परस्पर सहयोग और आदान-प्रदान के इन संबंधों को लेकर इतिहास में लंबा मौन ही पसरा है। राजस्थान विधानसभा के चार बार सदस्य रहे और मेरवाड़ा क्षेत्र रावत समाज के मूर्धन्य नेता मेजर फतेहसिंह रावत की "मेरा जीवन संघर्ष" शीर्षक वाली आत्मकथा स्वतंत्रता पूर्व दिल्ली और राजपूताने के अनाम पर स्वाभिमानी अप्रवासी राजस्थानियों के कम-जानी पर परस्पर विकास की कहानी बयान करती है।
मेजर फतेहसिंह ने अपने काॅलेज पढ़ाई के दिनों का उल्लेख करते हुए तीस के दशक (1930-40) की दिल्ली का सजीव और सटीक वर्णन किया है।


वे अपने पहली बार राजधानी में आने के कारण के बारे में लिखते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के काॅलेज अगस्त में खुल रहे थे इसलिए पत्र-व्यवहार करके रामजस काॅलेज दिल्ली में दाखिला लेने का निर्णय लिया। मैं अगस्त 1935 के दूसरे सप्ताह में प्रातः 4 डाउन ट्रेन से सराय रोहिल्ला स्टेशन पर उतरा और तांगे से आनन्द पर्वत पर स्थित रामजस काॅलेज पहुंचा। काॅलेज में दाखिला लिया और साथ ही छात्रावास में भी। काॅलेज और छात्रावास में दिल्ली के अन्य समकक्ष शिक्षण संस्थानों की अपेक्षा काफी फीस कम ली जाती थी क्योंकि संस्थापक राय साहब ने देहाती क्षेत्रों के छात्रों की कमजोर आर्थिक स्थिति को समझते हुए ही इस संस्थान की स्थापना की थी।

उल्लेखनीय है कि रामजस काॅलेज की स्थापना राय केदारनाथ ने अपने पिता लाला रामजस की स्मृति में 1917 को दिल्ली में की थी। उनका मूल उदेश्य समाज के असमर्थ और साधनहीन छात्रों को शिक्षा देना था। महात्मा गांधी ने राय केदारनाथ के साथ तांगे पर जाकर रामजस काॅलेज की नींव रखी थी। गांधीजी की दिल्ली डायरी के अनुसार, उसी दिन गांधीजी ने काॅलेज का भी निरीक्षण किया और उपस्थित छात्रों के सामने भाषण दिया और समय महत्ता बताई। पुरानी दिल्ली में दरियागंज से शुरू हुआ यह काॅलेज 1924 में दिल्ली के दूसरे इलाके में स्थानांतरित हुआ, जो आज आनंद पर्वत के नाम से जाना जाता है। तब यह स्थान "काला पर्वत" कहलाता था, जिसे राय केदारनाथ ने अपनी लगन और मेहनत से आनंद पर्वत बना दिया। वे इतने निराभिमानी थे कि भवन बनाते समय मजदूरों के साथ ईंटें उठाने में भी पीछे नहीं रहते थे। वे रामजस काॅलेज के पहले प्राचार्य भी बने थे।


मेजर फतेह सिंह के शब्दों में, काॅलेज में दाखिला लेने के शीघ्र बाद मैं राय साहब से मिला, वे ही काॅलेज के प्रिंसिपल थे। अपनी आर्थिक स्थिति उनसे साफ-साफ बता दी तो ट्यूशन फीस माफ कर दी गई। काॅलेज के छात्रों का रहन-सहन बहुत ही साधारण और ग्रामीण परिवेश का था। अधिकांश छात्र कृषक वर्ग से संबंधित थे और प्रायः धोती-कुर्ता में ही काॅलेज आ जाते, कोई-कोई तो सर्दी में रजाई ओढ़कर भी काॅलेज में आ जाते थे। मैं सदा धोती और कुर्ता या कमीज ही पहना करता था और पांवों में चप्पल। जीरो मशीन से बाल कटवाता था जिससे तेल के खर्च से बच जाता था। सर्दी बहुत पड़ती थी क्योंकि काॅलेज ऊंचे पर्वत पर था। सर्दी के मौसम में मैं रेजे की दोहरी चद्दर (दोवड़) ओढ़कर काॅलेज जाया करता था, गर्म कपड़ा तो था नहीं। इससे दिल्ली में उस समय होने वाली ठंडी और जरूरतमंद छात्रों को आवश्यक कपड़े-लत्तों की उपलब्धता की बात साफ होती है।

तत्कालीन रामजस काॅलेज की पढ़ाई और उसके प्राध्यापकों के पढ़ाने के तरीकों का वर्णन करते हुए मेजर फतेह सिंह लिखते हैं कि मैंने बीए में इतिहास (ऑनर्स) में प्रवेश लिया था। क्लास में अकेला था। इतिहास के प्रोफेसर डाक्टर भंडारी थे, जिन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से बीए (ऑनर्स)  की डिग्री प्राप्त की थी। काॅलेज के अलावा वे मुझे पढ़ाने छात्रावास में मेरे कमरे में भी आते रहते थे। हर छात्र को एक कमरा मिलता था। भंडारी साहब मेरे काम से बहुत प्रसन्न और प्रभावित थे। उन्होंने सब पाठ्यपुस्तकें एवं इतिहास की अन्य उपयोगी पुस्तकें अपने नाम से काॅलेज पुस्तकालय से निकलवाकर मुझे पढ़ने के लिए दे दी। अतः मेरा पुस्तकें खरीदने का खर्चा भी बच गया था। भंडारी साहब भी दिल्ली, पंजाब तथा यूपी की किसी न किसी विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के परीक्षक हुआ करते थे। मुझ पर उनका विशेष स्नेह था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डाक्टर ईश्वरीप्रसाद (प्रसिद्ध इतिहासकार) और लखनऊ विश्वविद्यालय के डाक्टर बैनीप्रसाद एक बार जब दिल्ली आये तो डाक्टर भंडारी साहब उनसे मिलने दिल्ली रेलवे-स्टेशन पर गये, तब मुझे भी साथ ले गये और उनसे मिलाया था। ऐसे गुरू के प्रति आभार प्रकट करने के लिए मेरे पास कोई पर्याप्त शब्द नहीं हैं।

"जीवन संघर्ष" पुस्तक में तब दिल्ली में काॅलेज स्तर पर छात्रों को प्रदान की जाने वाली सैनिक शिक्षा की जानकारी भी मिलती है। इस बारे में मेजर बताते हैं कि मैं यूटीसी में भर्ती हुआ। रामजस काॅलेज की एक प्लाटून यूटीसी की थी उसके प्लाटून कंमाडर प्रोफेसर बी.डी. शर्मा थे। सारे दिल्ली के काॅलेजों की यूटीसी की एक कम्पनी हुआ करती थी जिसके कम्पनी कमांडर रामजस काॅलेज के ही प्रोफेसर कप्तान रामजीलाल होते थे। परेड हफ्ते में दो बार होती थी, अवधि एक-एक घंटा।

परेड ग्राउंड लालकिला था। लालकिला रामजस काॅलेज से लगभग चार मील दूर था। मैं और एक अन्य अहीर छात्र शायद नाम हरिप्रसाद था, दरियागंज चांदनी चैक होते हुए पैदल ही जाते थे और परेड के बाद पैदल ही वापस आते थे। वर्दी (पोशाक) थी-हैट, खाकी कमीज, खाकी हाॅफपेंट, फुल बूट, पट्टी और कमर पेटी। हमें दो साल में वह प्रशिक्षण दिया गया जो कि एक फौजी रिक्रूट को छह माह में दिया जाता है। प्रशिक्षक अंग्रेज अफसर और एनसीओ होते थे।
बीए (ऑनर्स) की अंतिम वर्ष की परीक्षा के बाद घर लौटने से पहले मैं मेरे कम्पनी कमांडर कप्तान रामजीलाल के मार्फत यूटीसी के स्थानीय सीओ, जो कि एक अंग्रेज कप्तान थे, उनसे मिला और उनसे मेरे यूटीसी में भर्ती होने का उदेश्य बताया और सर्टिफिकेट दिया जिसकी भाषा थी, कैडेट सीखने के लिए बेहद उत्सुक है। अगर वह सैन्य कैरियर को अपनाता है तो यह लगनशीलता उसके लिए फलदायी होगी।
उपरोक्त प्रमाण पत्र लिया, उस रात्रि को मैंने दिल्ली में अपने जीवन की पहली सिनेमा फिल्म "अछूत कन्या" देखी थी। पहले तो कभी सिनेमा देखने के लिए समय और पैसे दोनों ही नहीं थे। दूसरे दिन प्रातः प्रोफेसर डाक्टर भंडारी से आशीर्वाद लिया और रात्रि को 11-अप दिल्ली-अहमदाबाद मेल स्टेशन ट्रेन से 12 घंटे के सफर के बाद ब्यावर पहुंचा। दिल्ली विश्वविद्यालय बीए (ऑनर्स) का परीक्षा परिणाम जून 1937 के अंतिम सप्ताह में घोषित हुआ और मैं दूसरी श्रेणी से पास हुआ।


Saturday, October 5, 2019

Initial phase of Indian Revolutionary activities in British Delhi_अंग्रेज दिल्ली में आरंभिक क्रांतिकारी चेतना





१९ वीं शताब्दी के आरम्भ में दिल्ली में भी बंगाल की तर्ज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवी दल नैशनल वालंटियर्स नामक संस्था की स्थापना हुई। उसका नतीजा ही था कि विदेशों से आने वाला क्रांति साहित्य जनता में वितरित होने लगा। यह साहित्य चोरी-छुपे दिल्ली में बाहर से लाया जाता था। हिन्दू कालेज के विद्यार्थियों ने यह साहित्य रेलवे स्टेशन पर सिपाहियों में बांटा। पंजाब और बंगाल से भी साहित्य आ रहा था। एक कड़ी चेतावनी, पंजाबियों को संदेश जैसे टेक्स्ट बांटे गए। इस साहित्य के सृजन में मास्टर अमीरचन्द ने बहुत योगदान दिया था।


वर्ष 1907 में खेत-मजदूरों की समस्याओं को लेकर पंजाब में आंदोलन हुआ। जिसमें सरकार ने लाला लाजपत राय को बन्दी बनाकर माण्डले जेल भेज दिया तो सरदार अजीत सिंह को भी पकड़कर देश निकाला मिला। लालाजी और अजीत सिंह के समर्थन के लिए एक कोश स्थापित हुआ, जिसमें दिल्ली वालों ने चन्दा दिया। चंदे के लिए पंचायतें हुईं। गुरुद्वारा रकाबगंज के ग्रंथी सरदार सावन सिंह ने इस कार्य में विशेष सहयोग दिया। 18 नवम्बर, 1907 को जब लाजपत राय और अजीत सिंह जेल से मुक्त हुए तो दिल्ली वासियों ने उन्हें बधाई के तार भेजे। 20 जनवरी, 1908 को दिल्ली आने पर लाजपत राय का भव्य स्वागत हुआ।




मुजफ्फरपुर केस के अमर शहीद खुदीराम बोस के समर्थन और सहायता के लिए हिन्दू कालेज के प्राध्यापक प्रो डी. एन. चौधरी के निवास पर दिल्ली के बंगाली समाज की सभा 19 जून, 1908 में हुई जिसमें स्थानीय नेताओं के भाषण हुए पांच हजार रूपए का चन्दा जमा किया गया। जब 11 अगस्त, 1908 को खुदीराम बोस को फांसी हुई तो दिल्ली के नागरिकों विशेषतः बंगालियों ने उपवास रखा। शहीदों के लहु नामक भारत का मानचित्र जिस पर लाल रंग से शहीदों से संबंधित स्थान दिखाए गए थे जगह जगह बेचा गया।

क्रांतिदूत मास्टर अमीर चन्द ने दिल्ली के माथे पर अपने खून से टीका किया। उन्हें दिल्ली में अंग्रेज वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के अपराध में 8 मई, 1915 को फांसी दी गई थी। स्वामी रामतीर्थ के शिष्य अमीर चन्द मिशन स्कूल में अध्यापक थे। उन्होंने प्रसिद्व क्रांतिकारियों के लेखों का सरल उर्दू में अनुवाद करके ऐसे पैम्फलेट तैयार किए जो बहुत ही रोचक लघु-पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हुए। ऐसे टेक्स्ट में से कुछ थे, "बन्दर-बांट", "उंगली पकड़ते पोंहचा पकड़ा", "गरीब हिन्दुस्तान", "कौमी जिन्दगी" आदि। मास्टरजी का झुकाव बंगाल के क्रांतिकारियों की तरफ था। उन्होंने एक साप्ताहिक पत्र "आकाश" निकाला जो मुंशी गणेशी लाल के इन्द्रप्रस्थ नैशनल प्रैस में छपता था।

23 दिसंबर 1912 को दिल्ली के फिर से भारत की राजधानी बनने पर अंग्रेज वायसराय लार्ड हार्डिंग का जुलूस निकला। इस अवसर को भारतीय क्रांतिकारियों के लिए चुनौती के रूप में लेते हुए रासबिहारी बोस पहले ही दिल्ली आ चुके थे। जब वायसराय की टाउन हाल की तरफ मुड़कर चांदनी चौक में प्रविष्ट हुई तो मोती बाजार के सामने कटरा धूलिया (पंजाब नेशनल बैंक) के पास पहुंचा तो वायसराय के हौदे की तरफ बम फेंका गया। उसका एक सेवक मारा गया तो दूसरा बुरी तरह घायल हो गया। वायसराय चोटिल तो हुआ पर बच गया। इस घटना पर लाला हरदयाल ने बर्कले कैलीफोर्निया (अमेरिका) में क्रिसमस दिवस की एक सभा में लोगों को बताया था कि यह उनके साथियों का कारनामा है। इन्हीं का लिखा एक पत्रक दिल्ली बम के नाम से भारत में युगान्तर आश्रम की ओर से छाप कर वितरित किया गया था जिसमें इस बम कांड की क्रांतिकारियों द्वारा की गई यह व्याख्या है, "जहां निरंकुश अत्याचारी शासक हैं वहां मैं भी हूँ और यह बम आग के शोलों से हमारे शब्द कह रहा है, यह बम क्रांतिकारी आंदोलन का पुनर्जीवन है।"


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...