Saturday, December 5, 2015

Delhi connection of Prithviraj Kapoor_पृथ्वी के राज का दिल्ली सूत्र



“हम बेशक आसमान में उड़ रहे हो पर हमारा जमीन से नाता नहीं टूटना चाहिए। पर अगर हम अर्थशास्त्र और राजनीति की जरूरत से ज्यादा पढ़ाई करते हैं तो जमीन से हमारा नाता टूटने लग जाता है-हमारी आत्मा प्यासी होकर तन्हां हो जाती है। हमारे राजनीतिक मित्रों को उसी प्यासी आत्मा की स्थिति से सुरक्षित रखने और बचाने की जरूरत है और इस उद्देश्य के लिए शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, कवियों, लेखकों और कलाकारों के रूप में नामित सदस्य यहाँ (राज्यसभा) उपस्थित हैं।’’इस शब्दों के साथ, पृथ्वीराज कपूर ने देश की राजधानी दिल्ली में संसद के उच्च सदन में एक कलाकार की ओर से नामित सदस्यों की भूमिका के बारे में दी गई बेहतरीन दार्शनिक व्याख्या न केवल अपने नामांकन बल्कि इस विषय में हमारे गणराज्य के संस्थापक सदस्यों के दृष्टिकोण को भी न्यायसंगत साबित कर दिया।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पृथ्वीराज के बड़े प्रशंसकों में से एक थे। नेहरू के समय में ही पृथ्वीराज को पहली बार राज्यसभा के लिए नामित किया। वे दो बार, वर्ष 1952 में दो साल के लिए और फिर वर्ष 1954 में पूर्ण काल के लिए राज्यसभा के सदस्य रहे। “पुस्तक थिएटर के सरताज पृथ्वीराज’’ (प्रकाशक: राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) में योगराज लिखते है कि जब पृथ्वीराज राज्यसभा में अपने नामांकन को लेकर दो-मन थे। बकौल पृथ्वीराज, “थिएटर की भलाई और राज्यसभा की व्यस्तताएं, पर क्या किया जाए!
मुझे इन परिस्थितियों का मुकाबला तो करना होगा। थिएटर को भी जिंदा रखना है और सरकार के इस सम्मान को भी निभाना है। दूसरा कोई चारा नहीं है चलो थिएटर की सलामती के लिए और बेहतर लड़ाई लड़नी होगी।’’

उनके साथ कंस्टीट्यूशन हाउस में रहे वी एन कक्कड़ अपने संस्मरणों वाली पुस्तक “ओवर ए कप ऑफ काफी’’ में बताते हैं, पृथ्वीराज ने उन्हें एक बार कहा कि, “मुझे वास्तव में नहीं पता कि मुझे राज्यसभा में क्या करना चाहिए। मेरे लिए मुगल-ए-आजम फिल्म में अभिनय करना राज्यसभा में एक सांसद की भूमिका निभाने से आसान था। भगवान जाने पंडित जी ने मुझमें क्या देखा। लेकिन जब भी मैं दिल्ली में रहूंगा और राज्यसभा का सत्र होगा तो मैं निश्चय ही उसमें भाग लूंगा।’’ 60 के दशक के आरंभ में कंस्टीट्यूशन हाउस कस्तूरबा गांधी मार्ग पर होता था, जहां पृथ्वीराज शुरू में बतौर राज्यसभा सांसद रहें। वैसे बाद में वे अपने कार्यकाल के अधिकतर समय में इंडिया गेट के पास प्रिंसेस पार्क में रहे।

“राज्य सभा के नामांकित सदस्य पुस्तिका’’ (प्रकाशक: राज्यसभा सचिवालय) के अनुसार, एक थिएटर कलाकार और सिने अभिनेता के रूप में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित पृथ्वीराज कपूर ने सदन के पटल पर नामजद सदस्यों (जिसका संदर्भ मैथिलीशरण गुप्त का था) के अपने आकाओं के विचारों को व्यक्त करने के आरोप का खंडन करते हुए कहा, “जब यहां अंग्रेजों का राज था और जनता पर दमिश्क की तलवार लटक रही थी तब मैथिलीशरण गुप्त जैसे क्रांतिकारी थे, जिनमें भारत भारती लिखने का साहस था। ऐसे में, उस समय हिम्मत करने वाले निश्चित रूप से आज अपने मालिकों के समक्ष नहीं नत मस्तक होंगे। वे (नामजद सदस्य) तर्क और प्रेम के सामने झुकेंगे और न कि किसी और के सामने।” पृथ्वीराज कपूर ने देश की सांस्कृतिक एकता के अनिवार्य तत्व को रेखांकित करते हुए 15 जुलाई 1952 को राज्यसभा में एक राष्ट्रीय थिएटर के गठन का सुझाव दिया था। जिसके माध्यम से विभिन्न संप्रदायों और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले व्यक्तियों को एक साथ लाने और एक समान मंच साझा करने तथा उचित व्यवहार सीखने के अवसर प्रदान किए जा सकें।

वर्ष 1954 में संगीत नाटक अकादमी के 'रत्न सदस्यता सम्मान' से सम्मानित होने के बावजूद उन्होंने पृथ्वी थिएटर के लिए किसी भी तरह की सरकारी सहायता लेने से इंकार कर दिया। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें कई सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडलों में विदेश भेजा। पृथ्वीराज कपूर और बलराज साहनी वर्ष 1956 में चीन की यात्रा पर गए एक भारतीय सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे।

रंगमंच का कलाकार होने और सिनेमा के फ़र्श से अर्श तक पहुँचने के कारण वे रंगमंच-सिने जगत की चुनौतियों और कलाकारों को रोजमर्रा के जीवन में होने समस्याओं से अच्छी तरह से परिचित थे। उन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मंचीय कलाकारों के कामकाज की स्थिति को सुधारने के लिए कड़ी मेहनत की। इसी का नतीजा था कि वे मंचीय कलाकारों के लिए रेल किराए में 75 प्रतिशत की रियायत प्राप्त करने में सफल रहे। उनकी पोती और पृथ्वी थिएटर को दोबारा सँभालने वाली संजना कपूर के अनुसार, “मेरे दादा के कारण ही आज हम 25 प्रतिशत रेल किराए में पूरे देश भर में यात्रा करने में सक्षम हैं अन्यथा हम अपना अस्तित्व ही नहीं बचा पाते।“ इतना ही नहीं, पृथ्वीराज ने देश के अनेक शहरों में रवींद्र नाट्य मंदिरों की भी स्थापना की।


शशिकपूर के शब्दों में, पृथ्वीराज कपूर अपनी थिएटर कंपनी, जिसने लगातार 16 साल 150 स्थायी व्यक्तियों के साथ नाटक किए, को अपना नशा कहते थे। वे मुंबई के सबसे पेशेवर अभिनेता प्रबंधक के रूप में जाने जाते थे। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी थिएटर ने भारत में अनेक शौकिया समूहों के लिए मानक निर्धारित किए। इतना ही नहीं, पृथ्वीराज कपूर आल इंडिया रेलवे यूनियन के अध्यक्ष रहे और विश्व शांति कमेटी के भारतीय चेयरमैन भी।

थिएटर में रूझान के कारण कानून की अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर पेशावर से मुंबई अपनी किस्मत आजमाने पहुंचे और पृथ्वीराज इंपीरियल फिल्म कंपनी से जुड़े। वर्ष 1931 में प्रदर्शित पहली भारतीय बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ में पृथ्वीराज ने बतौर सहायक अभिनेता काम करते हुए चौबीस वर्ष की आयु में ही अलग-अलग आठ दाढि़यां लगाकर जवानी से बुढ़ापे तक की भूमिका निभाई। फिर राज रानी (1933), सीता (1934), मंजिल (1936), प्रेसिडेंट, विद्यापति (1937), पागल (1940) के बाद पृथ्वीराज फिल्म सिकंदर (1941) की सफलता के बाद कामयाबी के शिखर पर पहुंच गए। उनकी अंतिम फिल्मों में राज कपूर की ‘आवारा’ (1951), ‘कल आज और कल’, जिसमें कपूर परिवार की तीन पीढियों ने अभिनय किया था और ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘आसमान महल’ थी। उन्होंने कुल नौ मूक और 43 बोलती फिल्मों में काम किया।

हिंदी सिनेमा के सितारे पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस के सिनेमाघरों में कई नाटकों का प्रदर्शन किया। पुस्तक थिएटर के सरताज पृथ्वीराज के अनुसार, “इसी बीच पृथ्वीराज कपूर अपना थिएटर लेकर दिल्ली आए। उन दिनों उनके तीन नाटक बहुत चर्चित थे-“शकुन्तला”, “दीवार” और “पठान”। ये तीनों नाटक अपनी-अपनी जगह लोगों की खूब वाह-वाही ले रहे थे। संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम् उर्दू में बिलकुल पारसी थिएटर की शैली में नाटकीय रूपांतर था। दूसरा नाटक “दीवार” था जो राष्ट्रीय एकता पर देश के विभाजन के विरोध में था। इसी तरह पृथ्वी थिएटर के तीसरे नाटक “पठान” को लिखने में भी पृथ्वीराज का बड़ा हाथ था।

‘आई गो साउथ विथ पृथ्वीराज एंड हिज पृथ्वी थिएटर्स’ पुस्तक (प्रकाशक:पृथ्वी थिएटर्स) में प्रोफेसर जय दयाल लिखते हैं, ‘पृथ्वी ने हर तरह के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए निर्भीकता के साथ ‘दीवार’ का मंचन किया। एक लम्बे अंतराल के बाद इस नाटक को आला स्तर के नेताओं से एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति के रूप में मान्यता मिली। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और सूचना एवं प्रसारण मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नाटक को अंत तक बैठकर देखा जबकि वह केवल मात्र एक सरकारी उपस्थिति की खानापूर्ति के लिए आए थे।
'दीवार' ने उन्हें गुदगुदाने के साथ उनकी आँखे भी नम कर दी और इसका नतीजा पृथ्वी थिएटर को मनोरंजन कर से मिली छूट के रूप में सामने आया।

गौरतलब है कि पहले कनाट प्लेस के रीगल सिनेमा में रूसी बैले, उर्दू नाटक और मूक फिल्में दिखाई जाती थीं। पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस के कई थिएटरों में मंचित अनेक नाटकों में अभिनय किया था। आज़ादी से पूर्व उस दौर में, यहां समाज के उच्च वर्ग का तबका, जिनमें अंग्रेज़ अधिकारी और भारतीय रजवाड़ों के परिवार हुआ करते थे, नाट्य प्रस्तुति देखने आया करता था।

उस समय जब दिल्ली में पृथ्वी थिएटर के नाटक रीगल सिनेमा हाल में हो रहे थे। सारे शो हाउसफुल थे। लोग टूटे पड़ते थे। हो सकता है, लोगों की इस भीड़ का कारण बहुत हद तक ये हो कि स्टेज पर उनके सामने एक बहुत बड़ा नामवर फिल्मी अभिनेता चलता-फिरता नजर आएगा। इसके अतिरिक्त लोग देखेंगे तो नाटक ही न। योगराज के शब्दों में, जहां तक मुझे याद है, दो या तीन सप्ताह पृथ्वी थिएटर अपने इन तीनों नाटकों को बार-बार खेलते रहे और लोग इसी तरह भीड़ की शक्ल में आते रहे।”

आज यह बात जानकर सबको हैरानी होगी कि थिएटर की मशहूर अदाकारा जोहरा सहगल ने पृथ्वी थिएटर में अपनी पारी की शुरूआत बतौर एक नृतकी के रूप में की थी। प्रसिद्व रामपुर राजघराने से संबंधित जोहरा भारत के मशहूर और अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नर्तक उदयशंकर के बेले ग्रुप में थीं और इस ग्रुप में महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। पृथ्वीराज के बारे में जोहरा कहती है, “उन्होंने मुझे विनम्रता का पाठ पढ़ाया और मेरे व्यक्तित्व में से घमंड को पूरी तरह निकाल बाहर किया। मैंने हमारी नाट्य मंडलियों के साथ रेल के तीसरे दर्जे में पूरे भारत का दौरा करने के कारण ऐसी चीजें सीखीं जिन्हें करना पहले मैं अपनी हेठी समझती थी। जोहरा के लिए, पृथ्वीजी देवता थे।

पृथ्वीराज कपूर ने वर्ष 1944 में तत्कालीन फारसी और परंपरागत थिएटरों से अलग आधुनिक शहरी थिएटर की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए पृथ्वी थिएटर शुरूआत की। पृथ्वी थिएटर ने सोलह वर्ष में 2662 नाट्य प्रस्तुतियां दी, उसके बहुचर्चित नाटकों में दीवार, पठान, 1947, गद्दार, 1948 और पैसा थे। उल्लेखनीय है कि टेलीविजन सीरियल के निर्माता रामानंद सागर और प्रसिद्व संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन जैसे कलाकार पृथ्वी थिएटर से ही फिल्मी दुनिया में आए।

हिंदी फिल्मों में सम्मोहित अभिनय और रंगमंच को नई दिशा देने वाले पृथ्वीराज का 29 मई, 1972 को निधन हुआ। उन्हें मरणोपरांत सिनेमा जगत के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के (वर्ष 1971) से सम्मानित किया गया था।





Monday, October 12, 2015

Collective Memory of the country_देश और मीडिया की लोक स्मृति


काली-करतूतों वाले सफेदपोश चेहरे। 

देश और मीडिया की लोक स्मृति के लिए!

वर्ष 1999 में भारत पर जिहादी भावना को लेकर पीठ-पीछे छुरा भोंकने वाले कुकृत्य यानि पाकिस्तानी सेना आक्रमण के कुटिल योजनाकार जनरल परवेज़ मुशर्रफ के विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी थे। इतना ही नहीं, मुशर्रफ-कसूरी की जुगलबंदी की निगहबानी में ही वर्ष 2008 में 26/11 को मुंबई में बम विस्फोट के रूप में पाकिस्तानी जिहादी हमले को अंजाम दिया गया था।



Sunday, October 11, 2015

Return of Sahitya Academy Prize_साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापसी

देश में सांप्रदायिक हिंसा की हालिया घटनाओं पर अपना विरोध जताते हुए नाता तोड़ने की घोषणा करने वाले मलयालम के कवि के. सच्चिदानंदन और साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस करने वाली उपन्यासकार सारा जोसेफ़ इस तथ्यात्मक सच्चाई से तो अवगत ही होंगे कि पिछले चार वर्षों में केरल में 131 सांप्रदायिक घटनाएँ हुई। 

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, दक्षिण भारत में जनवरी 2011 से जून 2015 की अवधि में सर्वाधिक सांप्रदायिक घटनाएँ दो राज्यों-कर्नाटक और केरल में हुई हैं। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 10.54 प्रतिशत कर्नाटक का था, जहाँ कुल 222 सांप्रदायिक घटनाएँ घटी, जबकि उसके बाद सबसे ज्यादा सांप्रदायिक घटनाएँ 131 केरल में दर्ज की गईं।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि हर लेखक करता हैं, अपनी भाषा-अपने प्रदेश से प्यार तो फिर ऐसे में मलयालम के लेखक भी कैसे कर सकते हैं, साक्षात सत्य से इंकार?

अब "अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो" (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी) वाले कथन से ये लेखक भ्रम की सृष्टि करते हुए अर्द्धसत्य से राष्ट्र-भाव को खोखला करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं।

अगर विशुद्ध रूप से केरल के ही साहित्यिक परिदृश्य की बात करें तो एम टी वासुदेवन नायर का कहना है कि स्वीकार किए जा चुके पुरस्कारों को नहीं लौटाऊँगा तो यू ए खादर का कहना है कि प्रतिरोध के लिए पुरस्कारों की वापसी का कोई अर्थ नहीं। वहीं सुगता कुमारी के शब्दों में पुरस्कार वापस करके प्रतिरोध जताने से कोई फायदा होगा यह नहीं लगता तो पी वलसला का मानना है कि पुरस्कार लिए हुए तथा मिले हुए दोनों तरह के होते है। वापस किए जा रहे पुरस्कार लिए गए हैं यह याद रहना चाहिए।

लाख टके का सवाल यह है कि आखिर ये लेखक केरल में हुई पिछले चार वर्षों में हुई सांप्रदायिक घटनाओं से उद्वेलित क्यों नहीं हुए और उनका मन क्यों नहीं पसीजा?

लगता है कि उन्हें 'घर' में लगी आग की कोई फिक्र नहीं बस चिंता है तो दूसरे के जलते से अपनी रोटी सेंकने की। सो, सब अपनी सीमा में सुरक्षित खेल रहे हैं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि अभी तक किसी साहित्यकार ने पद्म पुरस्कार नहीं लौटाया है, जो कि सरकार देती है, साहित्य अकादेमी नहीं।

पते की बात यह है कि सरकार न तो साहित्य अकादेमी के पुरस्कार पर निर्णय करती है और न ही उनकी प्रक्रिया को प्रभावित-नियंत्रित करती है तो ऐसे में साहित्य अकादेमी पुरस्कार को वापिस करना बेमानी है।

ऐसे में केरल सरकार से इस्तीफा मांगने की बजाए साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापिस करना अंगुली कटा कर शहीद होने का हल्ला दोगले चरित्र-चिंतन से अधिक कुछ नहीं।


Wednesday, October 7, 2015

Govindballabh pant_christian missionary गोविन्द वल्लभ पंत_विदेशी मिशनरी:नागालैंड




1950 के दशक के मध्य वर्षों तक नागा प्रदेश का प्रशासन नेहरू के अधीन विदेश मंत्रालय के हाथ में था। 
गोविन्द वल्लभ पंत के गृहमंत्री बनने के बाद इसका प्रशासन गृह मंत्रालय को सौंप दिया गया। पंत का कहना था कि नागालैंड की समस्या मिशनरियों द्वारा पैदा की गई थी। 
उन्होंने गृह मंत्रालय को विदेशी मिशनरियों के वीजे की अवधि न बढ़ाने का निर्देश दिया। 
विदेशी चर्चों द्वारा खूब हंगामा मचाने के बावजूद उनमें से कइयों को वापसी का रास्ता दिखा गया।

(एक जिंदगी काफी नहींः कुलदीप नैयर)

Friday, October 2, 2015

Delhi_Film connection_दिल्ली और हिन्दी फिल्मों का संबंध


देश में आरंभ से ही हिंदी फिल्मों का दूसरा मतलब बंबई और अब मुंबई रहा है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण हाॅलीवुड की नकल पर बालीवुड का नाम रहा है। ऐतिहासिक कारणों से हिंदी फिल्मों के निर्माण से लेकर कथानक तक में बंबई का वर्चस्व रहा। सन् 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनने की वजह से फिल्मकारों का ध्यान दिल्ली की ओर खींचा।
1950 के दशक के उत्तरार्ध से फिल्म निर्माताओं ने मुंबई के विकल्प के रूप में दिल्ली की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था और समय के साथ यह संबंध और मजबूत हुआ है और तब से लेकर अब तक छह दशकों में व्यावहारिक रूप से दिल्ली एक वैकल्पिक स्थान के रूप में उभरकर सामने आई है। तब से आकर्षण का यह सिलसिला आज तक न केवल कायम है बल्कि पहले से मजबूत हुआ है।
50 के दशक में लोकप्रिय हिंदी सिनेमा ने बंबई की स्थानीयता की छाया से निकलते हुए अब दिल्ली दूर नहीं (1957), जौहर महमूद इन गोवा (1965), लव इन टोक्यो (1966) और एन इवनिंग इन पेरिस (1967) जैसी फिल्में बनाईं।
सन् 1957 में बनी विजय आनंद की ”नौ दो ग्यारह“, दिल्ली से जुड़ी शुरूआती फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म में किशोर कुमार का गाया और देवानंद पर फिल्माया गाना ”हम है राही प्यार के“ में राजधानी के पुराना किला रोड, राजपथ और इंडिया गेट दिखता है। इस गाने को मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था और संगीत दिया था सचिन देव बर्मन ने।
इसी साल राज कपूर की बनाई फिल्म ”अब दिल्ली दूर नहीं“ रिलीज हुई, जिसकी कहानी भी दिल्ली शहर से जुड़ी हुई थी। इस फिल्म में एक नौजवान दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलकर हत्या के आरोपी अपने निर्दोष पिता को छुड़वाने के लिए हस्तक्षेप का आग्रह करने का इरादा करता है। सन् 1963 में विजय आनंद ने ”तेरे घर के सामने“ फिल्म बनाई। इस फिल्म में देवानंद एक भवन वास्तुकार की भूमिका में थे, जिसे अनजाने में अपने पिता के कट्टर प्रतिद्वंद्वी की बेटी (नूतन) से प्यार हो जाता है। पूरी तरह दिल्ली में फिल्माई गई इस फिल्म का गाना ”एक घर बनाऊंगा, तेरे घर के सामने“ में राजधानी के आरंभिक फैलाव की झलक देखने को मिलती है, जब दक्षिणी दिल्ली में डिफेंस काॅलोनी बस रही थी। इसी फिल्म का एक और मशहूर गाने दिल का भंवर करें पुकार का तो फिल्मांकन ही दिल्ली की प्रसिद्व कुतुब मीनार के परिसर में हुआ था। इस फिल्म से राजधानी में हिंदी फिल्मों के गानोें के फिल्मांकन ने मानो गति पकड़ ली और शायद इसी का नतीजा था कि यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों ”वक्त“ (1965) और बाद में ”त्रिशूल“ (1977) के गानों को दिल्ली में फिल्माया।
”तेरे घर के सामने“ की तरह नासिर हुसैन की फिल्म ”फिर वही दिल लाया हूं“ (1963) का कुछ हिस्सा भी दिल्ली में फिल्माया गया था। इस समय तक फिल्म निर्माताओं को दिल्ली भाने लगी थी और फिल्म के कुछ हिस्से या गाने के लिए एक विकल्प से अधिक राजधानी पूरी एक कहानी के लिए मुफीद बनने लगी थी। ऐसे ही 1970 के दशक में आई फिल्म ”रोटी, कपड़ा और मकान“ (1974) में दिल्ली का मुखर उपस्थिति स्पष्ट थी।
दिलचस्प बात यह है कि हिंदी फिल्मों में शूटिंग के लिए एक लोकप्रिय स्थान के रूप में दिल्ली को नए सिरे से स्थापित करने का काम अपने बड़े बजट की फिल्मों विदेशी स्थानों में शूटिंग करने के लिए मशहूर यश चोपड़ा ने किया। यश चोपड़ा की निर्देशित त्रिशूल में फिल्म में भूमि-भवन निर्माता आर के गुप्ता (संजीव कुमार) और उसके परित्यक्त-नाजायज बेटे विजय (अमिताभ बच्चन) की कहानी में राजधानी का फैलता शहरी जनजीवन और सटे हुए उपनगरों जैसे फरीदाबाद और गुड़गांव के उभरने की बात पृष्ठभूमि में साफ झलकती है। फिल्म की बाप-बेटों के आपसी और पारिवारिक संघर्ष की कहानी के साथ लोधी गार्डन, गोल्फ क्लब, जिमखाना, सरकारी कार्यालयों, प्रगति मैदान और अशोक होटल का जुड़ाव सहज रूप से स्थानिकता को एक प्रमाणिकता प्रदान करता है। इसी तरह, यश चोपड़ा की एक और यादगार फिल्म ”सिलसिला“ (1980) में अमिताभ बच्चन, रेखा जया भादुड़ी और जया भादुड़ी के प्रेम-विवाह के त्रिकोण की झंझावात वाली कहानी में तब के सरकारी कुतुब होटल और लोधी गार्डन की दृश्यों में दिल्ली की उपस्थिति साफ नजर आती है।
सईं परांजपे की फिल्म ”चश्मे बद्दूर“ (1981) में दिल्ली की बुनावट की छाप ऐसी थी कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों (फारुख शेख, राकेश बेदी, रवि बासवानी), बरसाती की जिंदगी, पड़ोस में रहने वाली लड़की मिस चमको यानी दीप्ति नवल सहित दिल अजीज लल्लन मियां पान वाले सईद जाफरी से लेकर राजधानी की तब की सड़कों पर मोटर साइकिल सवारी का दौड़ाना हो या पुराना किला की झील में नौका विहार सब उसमे गहरे से रंगे नजर आते हैं। इन सबमें महत्वपूर्ण बात यह है कि इस फिल्म में पहली बार दिल्ली के सिनेमाई चित्रण के हस्ताक्षर माने जाने वाले इंडिया गेट से राजपथ के रास्ते से इतर का जीवन दिखता है। इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी फिल्मांकन और सहज पटकथा लेखन वाली यह फिल्म आज भी बेजोड़ है।
80 के दशक में आई ”नई दिल्ली टाइम्स“ जैसी फिल्म (1986) देश की राजधानी में एक हत्या के मामले में कुछ नेताओं और पत्रकारों की मिलीभगत की पेचीदगी को उजागर करती थी।
पिछले डेढ़ दशक में दिल्ली पर आधारित फिल्मों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है और सबसे बड़ी बात यह है कि इन फिल्मों में से अधिकतर न केवल दिल्ली से जुड़ी हुई है बल्कि अपनी कहानी में शहर की बुनावट को एक अभिन्न अंग के रूप में उपयोग करती हुई आगे बढ़ती है, जिससे दिल्ली का सम्मोहन और अधिक मारक हो जाता है। दिल्ली ने फिल्मों के लिए भू-आकृतियों में परिवर्तन के साथ उसके दृश्यात्मक विवेचना का भी स्वरूप बदला है।
90 के दशक के बाद से ही फिल्म की शूटिंग के लिए एक स्थान के रूप में दिल्ली का महत्व साफ तौर पर बढ़ा है। यह बात दिल्ली को केवल फिल्म की शूटिंग के लिए एक स्थान से बढ़कर कथानक में पिरोने का काम करने वाली चंद फिल्मों 1947-अर्थ (1998), दिल से (1998), सरफरोश (1999), मानसून वेडिंग (2001), यादें (2001), मुझे कुछ कहना है (2001), फना (2006), खोसला का घोसला (2006), ओए लकी! लकी ओए! (2008), देव डी (2009), लव आज कल (2009), दिल्ली-6 (2009), पीपली लाइव, (2010), बैंड बाजा बारात (2010), दो दूनी चार (2010), आयशा (2010 ), रॉकस्टार (2011), नो वन कील्ड जेसिका (2011), विकी डोनर (2012), रांझणा (2013) और तनु वेड्स मनु रिटर्नंस (2015) से साफ होता है। इतना ही नहीं फिल्म लक्ष्य (2004) में कहानी के पात्रों का पुरानी दिल्ली, यमुना पार की दिल्ली या लुटियंस दिल्ली के पुराने और घिसे पिटे दृश्यों से इतर जाकर अपनी संवाद अदायगी में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का नाम लेना और फिल्म का दिल्ली छावनी के सैन्य अस्पताल में खत्म होने के दृश्य के फिल्मांकन से लेकर डेल्ही बेली (2011) और फुकरे (2013) की प्रति संस्कृति को विषय बनाया गया है।

फिल्म निर्माताओं की नई पीढ़ी में भी दिल्ली का सदाबहार आकर्षण बरकरार है। अतुल सभरवाल की फिल्म औरंगजेब (2013) में कहानी गुड़गांव और भू-माफिया पर केंद्रित है तो नवदीप सिंह की एनएच-10 (2015) एक सनसनीखेज थ्रिलर है जो कि गुड़गांव से सटे क्षेत्रों में प्रचलित कथित जातिवादी सम्मान-इज्जत को बचाने के लिए की जाने वाली हत्याओं, जिसमें खाप पंचायतों के वर्चस्व की लड़ाई की अपनी भूमिका है, के अपराध की जड़ों को खंगालने का काम करती है। जबकि वर्ष 2008 में नोएडा में हुए आरूषि-हेमराज के दोहरी हत्याकांड की पड़ताल पर आधारित मेघना गुलजार की प्रस्तावित फिल्म नोएडा जिसका नाम अब बदलकर तलवार रख दिया गया है, अब सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिए तैयार है।


Saturday, September 5, 2015

कृष्ण_राममनोहर लोहिया



प्रेमिकाओं का प्रश्‍न जरा उलझा हुआ है। किसकी तुलना की जाए, रुक्मिणी और सत्‍यभामा की, राधा और रुक्मिणी की या राधा और द्रौपदी की। प्रेमिका शब्‍द का अर्थ संकुचित न कर सखा-सखी भाव को ले के चलना होगा। अब तो मीरा ने भी होड़ लगानी शुरू की है। जो हो, अभी तो राधा ही बड़भागिनी है कि तीन लोक का स्‍वामी उसके चरणों का दास है। समय का फेर और महाकाल शायद द्रौपदी या मीरा को राधा की जगह तक पहुंचाए, लेकिन इतना संभव नहीं लगता। हर हालत में, रुक्मिणी राधा से टक्‍कर कभी नहीं ले सकेगी।
मनुष्‍य की शारीरिक सीमा उसका चमड़ा और नख हैं। यह शारीरिक सीमा, उसे अपना एक दोस्‍त, एक मां, एक बाप, एक दर्शन वगैरह देती रहती है। किंतु समय हमेशा इस सीमा से बाहर उछलने की कोशिश करता रहता है, मन ही के द्वारा उछल सकता है। कृष्‍ण उसी तत्‍व और महान प्रेम का नाम है जो मन को प्रदत्‍त सीमाओं से उलांघता-उलांघता सबमें मिला देता है, किसी से भी अलग नहीं रखता। क्‍योंकि कृष्‍ण तो घटनाक्रमों वाली मनुष्‍य-लीला है, केवल सिद्धांतों और तत्‍वों का विवेचन नहीं, इसलिए उसकी सभी चीजें अपनी और एक की सीमा में न रहकर दो और निरापनी हो गई हैं। यों दोनों में ही कृष्‍ण का तो निरापना है, किंतु लीला के तौर पर अपनी मां, बीवी और नगरी से पराई बढ़ गई है। पराई को अपनी से बढ़ने देना भी तो एक मानी में अपनेपन को खत्‍म करना है। मथुरा का एकाधिपत्‍य खत्‍म करती है द्वारिका, लेकिन उस क्रम में द्वारिका अपना श्रेष्‍ठतत्‍व जैसा कायम कर लेती है।

-राममनोहर लोहिया (कृष्ण)

यादों के झरोखे में, शाहजहानाबाद की हवेलियां_Havelis of Shahjahanabad

वर्ष 1639 में मुगल बादशाह शाहजहां ने मुगलिया सल्तनत की राजधानी को आगरा से स्थानांतरित करके दिल्ली लाने का निर्णय किया। आगरा की भयंकर गर्मी से परेशान शाहजहां को अपनी नई राजधानी के शहर शाहजहानाबाद और लालकिले के निर्माण में करीब नौ बरस का समय लगा और सन् 1648 में जाकर फारसी मिश्रित वास्तुकला पर आधारित शाहजहानाबाद का काम पूरा हुआ।
नए शहर की फसील के दरवाजों के नाम उन स्थानों पर रखे गए जहां के लिए उन दरवाजों से रास्ते जाते थे। कुल मिलाकर 13 दरवाजे बनवाए गएः कश्मीरी दरवाजा, अजमेरी दरवाजा, लाहौरी दरवाजा, काबुली दरवाजा, दिल्ली दरवाजा आदि। दिल्ली के नाम पर दिल्ली दरवाजे का नाम कोई हैरत की बात नहीं है क्योंकि शाहजहां ने जो शहर बनवाया था वह दिल्ली नहीं शाहजहाबाद था, दिल्ली उसके दक्षिण में थी।
शाहजहां ने कुछ खास इमारतों जैसे जामा मस्जिद, फतेहपुरी मस्जिद और अकबर बादी मस्जिद (अब यहां सुभाष पार्क है), बेेगम का बाग (वर्तमान गांधी ग्राउंड), तीस हजारी बाग (अब यहां कचहरी और कार्यालय है) सहित महल और शानदार हवेलियां बनवाईं।
सन् 1857 की पहली जंगे-आजादी के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली में मुगलिया तख्त को पलटने के साथ दिल्ली की काया पलट थी। शाहजहां के दौर की बहुत-सी इमारतें, बाजार और मस्जिदें ढहा दी गई। जो कुछ बच रहा उन इमारतों का आकार और रूप बदल गया।
जामा मस्जिद के आस पास के महल और चांदनी चौक की हवेलियां बहुत शानदार बनाई गई थीं। कलाॅं महल शाहजहां के काल की इमारत थी, किला बनने से पहले शाहजहां आगरा से आकर यहां ठहरा करते थे। अब यहां स्कूल की इमारत है। रंग महल, चांदनी महल, शीश महल, इमली महल मुगल काल की इमारतें थीं। रंग महल मिर्जा जमशेदबख्त ने बनवाया था।
चांदनी महल और शीश महल मुहम्मद शाह रंगीले के जमाने में बना था। इमली महल भी एक शानदार इमारत थी। सन् 1857 के बाद अंग्रेजों ने इसे नीलाम कर दिया और लाला सुल्तान सिंह ने खरीद कर इसे एक नए ढंग से बनवाया।
जामा मस्जिद के दक्षिणी दरवाजे के सामने सड़क मटिया महल का बाजार कहलाती है। यहां दाई ओर एक बड़ा महल था। शाहजहां ने यह महल भी लाल किला बनने से पहले हरम की औरतों के ठहरने के लिए बनवाया था। इस बाजार की सबसे पुरानी हवेली लाल किले के लाहौरी दरवाजे के पास नहर के किनारे स्थित थी। यह नवाब शाइस्ता खां की बारहदरी कहलाती थी। शाइस्ता खां शाहजहां के ससुर और उनके मंत्री आसफ खां के बेटे थे। मुगल शासन के अंतिम दौर में यह हवेली टूट-टाटकर बराबर हो गई थी।
लाल किले से थोड़ी दूर आगे चांदनी चौक में दाएं हाथ को कुमार टाकीज के पीछे आज से दो सौ बरस पुरानी एक शानदार ऐतिहासिक इमारत है जिसे आजकल तो भागीरथ पैलेस कहते हैं लेकिन आज से कुछ साल पहले तक यह बेगम समरू की कोठी कहलाती थी।

शाह आलम द्वितीय ने बेगम समरू की बहादुरी और वफादारी से खुश होकर बेगम के बाग (शाही बाग) का एक हिस्सा उसे इनाम में दे दिया था। शाहजादी जहांआरा बेगम के लगवाए हुए इस बाग में इससे पहले किसी मुगल बादशाह ने कभी कोई इमारत नहीं बनाई थी। बेगम समरू की कोठी विदेशी वास्तुकला का नमूना है (बेगम समरू की पुरानी हवेली जो जरनैल बीबी की हवेली कहलाती थी, कोडि़या पुल के पास उस जगह थी जहां आजकल रेलवे का गोदाम है। जब अंग्रेजों ने 1857 के बाद कलकत्ता दरवाजे से लेकर काबुली दरवाजे तक सड़क निकाली और रेल की पटरी बिछाई तो यह हवेली भी ढहा दी गई)।
वर्ष 1857 में बेगम समरू की कोठी में दिल्ली बैंक था। यहां हिन्दुस्तानी सेनाओं ने दिल्ली वालों से मिलकर बड़ा जबरदस्त हमला किया था। तीन घंटे की लगातार लड़ाई में बैंक का अंग्रेज मैनेजर ब्रेसफोर्ड मार डाला गया और सिपाहियों ने बैंक को लूट लिया। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में बेगम समरू की कोठी को दिल्ली के प्रसिद्व वकील शिवनारायण ने खरीद लिया था लेकिन आजकल यहां बैंक भी है, होटल भी है और बहुत सी दुकानें भी हैं और यह कोठी भगीरथ पैलेस कहलाती है।
भगीरथ पैलेस के पास एक बहुत बड़ा बिजली के सामान का बाजार है। यहां बिजली के सामान की सैकड़ों दुकानें हैं और पास ही कटरा लच्छू सिंह है जिसका मुख्य रास्ता चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फव्वारे से थोड़ाा आगे चलकर है। मुगल शासन काल में यह बेगम साहब का कटरा कहलाता था लेकिन वर्ष 1857 के बाद इसे अंग्रेजों ने लछमन सिंह (लच्छू सिंह) की संपत्ति बना दिया था। बलदेव सिंह ने जो लछमन सिंह का भाई था सन् 57 के संघर्ष में अंग्रेजों की बड़ी मदद की थी। मुईनुद्दीन हसन ने ‘खदंग-ए-गदर‘ में बलदेव सिंह की गद्दारी और कत्ल का वर्णन किया है।
इसी तरह, चांदनी चौक की कोतवाली भी एक ऐतिहासिक इमारत थी। यह शाहजहां के काल में बनवाई गई थी। कोतवाली के अहाते में एक चबूतरा था जहां मुलजिमों को लाकर खड़ा किया जाता था। काजी सजा सुनाता और कोतवाल सजा देता था। कोतवाली के सामने बीच बाजार में एक ऊंचा लक्कड़ जमीन में गड़ा था जो लाल खां लक्कड़ कहलाता था। चोर डाकुओं और बदमाशों को इस लक्कड़ से बांधकर कोड़े लगाए जाते थे। कोतवाली के पीछे के अहाते में फांसी घर था। दिल्ली के मशहूर शायर मिर्जा गालिब को भी इस कोतवाली की एक कोठरी में बंद किया गया था। कुछ साल पहले कोतवाली का एक हिस्सा गुरूद्वारा सीसगंज की कमेटी को दे दिया गया है।

कोतवाली से कुछ आगे चलकर घंटेवाले हलवाई, जिसकी दुकान अब बंद हो चुकी है, के पास राजा जुगल किशोर की हवेली है। राजा जुगल किशोर मुहम्मद शाह रंगीले के समय में वकील-ए-बंगाला थे और बड़ी शान-शौकत से जिंदगी गुजर करते थे। अहमद शाह के काल में सफदर जंग ने राजा जुगल किशोर को अपना वकील नियुक्त दिया था। आजकल इस हवेली का नक्शा बदल गया है। यहां रियाइशी मकान भी हैं और कपड़े का बाजार भी है।
सन् 1837 में बने शाहजहानाबाद के एक नक्शे के अनुसार, कोतवाली के पास उस जगह जहां अंग्रेजों के समय में सीसगंज गुरूद्वारा बनाया गया, रोेशनुद्दोला की हवेली थी। कोतवाली के दूसरी तरफ सुनहरी मस्जिद है। इस मस्जिद को भी रोेशनुद्दोला ने बनवाया था। इस मस्जिद की छत से नादिरशाह ने सन् 1739 में मुहम्मद शाह रंगीले के शासनकाल में दिल्ली वालों का कत्ल का तमाशा देखा था।
चांदनी चौक में कूचा खानचंद एक मशहूर जगह है। शाहजहां के शासनकाल में इस कूचे में बल्ख के एक शहजादे ने बड़ी शानदार हवेली बनवाई थी। मीरजा संगी बेग ने “सेर-उल-मनाजिल” में लिखा है, “इस हवेली में कूचा खान चंद है जिसे अब्दुर्रहमान खां बिन नज्र मुहम्मद खां ने उस समय बनवाया जब शाहजहां ने बल्ख पर विजय प्राप्त की थी और इस शहर के लोग बल्ख के राजकुमार को शहंशाह के सामने बंदी बनाकर लाए।”

नील के कटरे में दिल्ली के नामी साहूकार लाला छुन्नामल की हवेली है। इस हवेली के बालाखाने का रास्ता चांदनी चौक की तरफ से भी है। लाला छुन्नामल वल्द मुतसद्दीलाल शाल-दुशाले के व्यापारी थे। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की खबरें और शाही दरबार की खबरें पहाड़ी पर अंग्रेजों के पास पहुंचाते थे और जब तक दिल्ली फतह नहीं हुई अंग्रेजों की हिमायत करने में उन्होंने कोई कसर उठा न रखी थी। इसके बाद अंग्रेजों की जीत के बाद उन्हें देश और दिल्लीवासियों से गद्दारी के ईनाम में सोने का तमगा और रायबहादुर का खिताब मिला। सन् 1862 में उनको दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी का पहला म्युनिसिपल कमिश्नर और फिर 1864 में आॅनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया गया।
पंडित घासीराम के कूचे में एक हवेली है जो नमक हराम हवेली कहलाती थी। शाह आलम द्वितीय के शासनकाल में इस हवेली में मुंशी भवानी शंकर रहते थे। यह दिल्ली वाले थे लेकिन रोजगार की तलाश में दिल्ली से बाहर चले गए और यशवंत राव होलकर के नौकर और दाएं बाजू बनकर बड़ा नाम कमाया। लेकिन 1803 में उनकी मराठों से अनबन हो गई। उसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की नौकर कर ली और दिल्ली वापस आ गए।
दिल्ली वालों को मुंशीजी से नफरत हो गई थी और वे उन्हें नमकहराम कहकर पुकारने लगे। जब मुंशीजी अपनेी हवेली से फतेहपुरी की मस्जिद के पास अपनी कचहरी में जाते तो लोग उन्हें नमक हराम है बे, नमक हराम है बे कहकर छेड़ते। मुंशीजी ने इसकी शिकायत अंग्रेजों से की। अंग्रेजों ने शहर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कोेई मुंशीजी को नमक हराम न कहे। लेकिन इसका असर उलटा हुआ। जो लोग यह बात नहीं भी जानते थे वे भी मुंशीजी का असली नाम भूल गए और उन्हें नमक हराम कहकर याद करने लगे।
दिल्ली के न थे कूचे, औराके मुसव्विर थे
जो शक्ल नजर आयी तस्वीर नजर आयी



Monday, August 24, 2015

Delhi and Tram_दिल्ली में ट्राम की कहानी

हाल में ही दिल्ली सरकार ने पुरानी दिल्ली की विरासत को पुनर्जीवित करने की कोशिश की कड़ी में लाल किला, जामा मस्जिद, दिगंबर जैन मंदिर, शीशगंज गुरुद्वारा, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जैसे पुरानी दिल्ली के अनेक स्थानों को जोड़ने के लिए ट्राम चलाने का फैसला लिया है। शाहजहांनाबाद रीडेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के जरिए इस क्षेत्र में अनेक विकास कार्य करवाने की योजना बनाई गई है।

अगर दुनिया की बात करें तो लंदन में ट्राम सेवा का विकास हुआ और वर्ष 1901 में घोड़ों के बजाय बिजली से ट्रामें चलनी शुरू हुईं। अंग्रेजों ने भारत के सभी बड़े शहरों में शहरी परिवहन के लिए ट्राम सेवा का चयन किया गया था और दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, मद्रास, कानपुर और नासिक में भी ट्राम चलाई गईं।

सन् 1903 में शहर के दिल्ली दरबार के लिए हो रही साफ सफाई के दौरान राजधानी में बिजली आई और उसके साथ ही दिल्ली में बिजली से चलने वाली ट्राम का आगमन हुआ। भले ही आज पुरानी दिल्ली इलाके के चांदनी चौक, चावड़ी बाजार की जमीन के नीचे मेट्रो और सड़कों के ऊपर चमचमाती गाडि़यां और रिक्शों का रेला नजर आता हो, लेकिन एक समय इसी जगह कभी ट्राम भी चला करती थी।

दिल्ली में बिजली, ट्राॅम और रेलवे लाइनों ने कई एकड़ जमीन को एक बस्ती में बदल दिया जो कि सन् 1903 क्षेत्रफल में ग्रेटर लंदन के समान और सन् 1911 में उससे भी कई गुना बड़ा था। गवर्नर-जनरल हैनरी हार्डिंग ने इस विस्मयकारी परिवर्तन के विषय में लिखा, जिसके परिणामस्वरूप ”जहां कभी मक्के के खेत हो थे वहां अब दस प्लेटफार्मों वाला एक बड़ा रेलवे स्टेशन, पोलो के दो मैदान और धंसी हुई जमीन पर बने छत वाले मकान थे।

सन् 1907 तक ट्राम ने अजमेरी गेट, पहाड़ गंज, सदर और सब्जी मंडी को चांदनी चौक और जामा मस्जिद से जोड़ दिया। दिल्ली शहर में ट्राम का फैलाव करीब 14 मील (24 किलोमीटर) तक हो गया और इससे तीस हजारी और सब्जी मंडी क्षेत्र वाया चांदनी चौक, जामा मस्जिद, चावड़ी, लाल कुआं, कटरा बादियान और फतेहपुरी से जुड़ गया।

सन् 1908 में बनी "दिल्ली इलेक्ट्रिक ट्रामवेज लाइटिंग कंपनी" ने राजधानी में ट्राम की शुरुआत की थी जो कि सन् 1930 सिविल लाइंस, पुरानी दिल्ली, करोलबाग जैसे कुछ इलाकों में फैल गई। यह ट्राम बिजली संचालित थी। सन् 1921 में दिल्ली में 15 किलोमीटर के सर्किट में कुल 24 ट्राम संचालित की जा रही थी। 30 के दशक में ही दिल्ली में बस सेवा शुरु हुई, जिसे ट्राम सहित दिल्ली सड़क परिवहन प्राधिकरण के अधीन कर दिया गया था।

सन् 1916 में 4 फरवरी को वसंत पंचमी के दिन जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने जवाहरलाल नेहरू और कमला कौल की शादी पुरानी दिल्ली के बाजार सीताराम इलाके में हुई और उसमें शामिल अनेक बाराती ट्राम में सफर करके विवाह स्थल पर पहुंचे थे। यहां तक कि उस दौर के दिल्ली के मशहूर हकीम अजमल खान भी बल्लीमरान में मौजूद अपने घर जाने के लिए ट्राम का इस्तेमाल करते थे।

50 के दशक में ट्राम का डिपो श्रद्धानंद बाजार के पीछे हुआ करता था। उस समय ट्राम श्रद्धानंद डिपो से निकलकर खारी बावली होकर पूरे चांदनी चौक का चक्कर लगाया करती थी। तब ट्राम जामा मस्जिद, काजी हॉल, फराशखाना, फतेहपुरी जाया करती थी। इसी तरह, ट्राम लाहौरी गेट को पार करके अजमेरी गेट और बाड़ा हिंदूराव तक जाती थी। दूसरी लाइन पर ट्राम सेंट स्टीफेंस हॉस्पिटल से चला करती थी। सदर बाजार, जामा मस्जिद, फव्वारा मार्ग पर ट्राम का ट्रैक था। एस्प्लानेड रोड, क्वीन्स वे, मिंटो रोड, कनाट सर्कस, फतेहपुरी, चांदनी चैक, कटरा नील, खारी बावली, बाड़ा हिंदूराव जैसे इलाके से गुजरती थी ट्राम। सदर बाजार, फव्वारा, हौजकाजी, लालकुआं जैसे इलाके ट्राम सेवा से जुड़े हुए थे।

इस ट्राम के सफर का किराया आधा आना (तीन पैसा) एक आना (छह पैसा) और दो आना (12 पैसे) और 4 आना का हुआ करता था। ट्राम की गति इतनी धीमी हुआ करती थी कि मुसाफिर चलते-चलते उसमें चढ़ जाया करते थे, हालांकि उस जमाने में भी कम भीड़ नहीं हुआ करती थी। तब ट्राम के अलावा 2-3 ट्राली बसें चला करती थीं, जो कि वहां से गुड़ मंडी यानी आज के आजादपुर आया-जाया करती थीं। बिजली से चलने वाली ट्राम में तीन तरह के डिब्बे हुआ करते थे। लोअर, मिड्ल और अपर क्लास। पर ज्यादातर मुसाफिर चलते थे लोअर क्लास में।

लेखक अहमद अली ने अपनी पुस्तक "ट्विलाइट्स ऑफ दिल्ली" में ट्राम को लुटियन दिल्ली और शाहजहाँनाबाद की शान बताया है। दिल्ली में लगभग 50 वर्षों से रहने वाले गीतकार संतोष आनन्द के अनुसार, जुबली, मैजेस्टिक या कुमार सिनेमा हॉल में फिल्म देखकर तांगे से ही कुतुब मीनार तक पिकनिक मनाने चला जाना, फिर ट्राम पर चांदनी चौक से सदर बाजार चला जाना, वह अद्भुत आनन्द वाला समय था। आज की मेट्रो में रफ्तार हो सकती है, वह आनन्द कहां! 
प्रसिद्व लेखिका निर्मला जैन अपनी पुस्तक दिल्ली शहर दर शहर में लिखा है कि स्वाधीनता के कई वर्ष बाद तक भी चांदनी चौक के दोनों सिरों को जोड़ने के लिए धीमी गति वाली एक ट्राम चलती थी।

प्रसिद्ध सरोद वादक अमजद अली खान के शब्दों में, “सन् 1957 में जब मैं पहली बार अपने पिता और गुरु हाफिज अली खान के साथ दिल्ली रहने के लिए आया था तो आज की तुलना में जनसंख्या कमतर थी । उन दिनों पुरानी दिल्ली में ट्राम चला करती थी और प्रमुख पड़ावों में चांदनी चौक, घन्टा घर और जामा मस्जिद हुआ करते थे।”

यह ट्राम देश आजाद होने समय भी पुरानी दिल्ली के लोगों के लिए परिवहन का प्रमुख साधन थी। उस समय दिल्ली की मुख्य आबादी इसी क्षेत्र में सिमटी हुई थी। तब दिल्ली शहर का इतना विस्तार नहीं हुआ था। देश की आजादी के बाद परिवहन के दूसरे आधुनिक साधनों के आने के बाद सन् 1960 में दिल्ली में ट्राम बंद हुई जबकि मुंबई में वर्ष 1964 में ट्राम सेवा खत्म की गई।

कवि ज्ञानेंद्र पति की कलकत्ता के अनुभव पर ‘ट्राम में एक याद’ शीर्षक की एक चर्चित कविता है, जिसका प्रकाशन नौवें दशक में हुआ था। केदारनाथ सिंह के संपादन में हिंदी अकादेमी, दिल्ली से नौवें दशक की प्रतिनिधि कविताओं के संचयन में भी इस कविता को स्थान मिला।

हिंदी के जनकवि नागार्जुन अपनी "ट्राम पर घिन तो नहीं आती है" शीर्षक कविता में ट्राम जनपक्षधरता को कुछ यूँ कहते हैं

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

Wednesday, July 29, 2015

कुछ शब्द अनबूझे_some words without meaning





चित्र: सिन्धु सभ्यता लिपि का चित्र 



हर शब्द का एक अर्थ है, माना फिर भी वह व्यर्थ है.


खारेपन से गीली थीं आंखें
दिल की रुकी हुई थी सांसे

समय की सेज पर थे सिर्फ कांटे
वक्त ने एक जिस्म-दो जान थे बांटे

अकेलेपन को तेरे साथ ने था किया था दूर
तेरे जाने के बाद पता लगा कितना था मैं मजबूर

Sunday, July 19, 2015

फिराक गोरखपुरी







तुझे मंजिलें भी हैं रहगुजर
मुझे रहगुजर भी मंजिलें।
यहीं फर्क है मेरे हमसफर
वह तेरा चलन, यह मेरा चलन।
-फिराक गोरखपुरी (बज्मे जिंदगी)

Saturday, July 18, 2015

kumbh nirmal verma_कुंभ-निर्मल वर्मा




सबके हाथों में गीली धोतियां, तौलिए हैं, गगरियों और लोटों में गंगाजल भरा है। मैं इन्हें फिर कभी नहीं देखूंगा। कुछ दिनों में वे सब हिंदुस्तान के सुदूर कोनों में खो जाएंगे, लेकिन एक दिन हम फिर मिलेंगे, मृत्यु की घड़ी में आज का गंगाजल, उसकी कुछ बूंदें, उनके चेहरों पर छिड़की जाएगी! ऊन के गोले की तरह खुलते सूरज से लेकर मेले में फहरती पताकाओं, शिविरों, बुझी आवाजो में गाते कीर्तनियों, ऋगवेद की ऋचाओं के शुद्ध उच्चारण में पगी सुर लहरियों, नंगे निरंजनी साधुओं, खुली धूप में पसरे हिप्पियों, युद्ध की छोटी-मोटी छावनियों से तने तंबुओं के इस वातावरण से बावस्ता निर्मल वर्मा ने यहां अपने भीतर के निर्माल्य का खुला परिचय दिया है। 
मैं वहीं बैठ जाना चाहता था, भीगी रेत पर। असंख्य पदचिह्नों के बीच अपनी भाग्यरेखा को बांधता हुआ। पर यह असंभव था। मेरे आगे-पीछे अंतहीन यात्रियों की कतार थी। शताब्दियों से चलती हुई, थकी, उद्भ्रांत, मलिन, फिर भी सतत प्रवाहमान। पता नहीं, वे कहां जा रहे हैं, किस दिशा में, किस दिशा को खोज रहे हैं, एक शती से दूसरी शती की सीढि़यां चढ़ते हुए? कहां है वह कुंभ घट जिसे देवताओं ने यहीं कहीं बालू के भीतर दबा कर रखा था? न जाने कैसा स्वाद होगा उस सत्य का, अमृत की कुछ तलछटी बूंदों का, जिसकी तलाश में यह लंबी यातना भरी धूलधूसरित यात्रा शुरु हुई हैं। हजारों वर्षो की लॉन्ग मार्च, तीर्थ अभियान, सूखे कंठ की अपार तृष्णा, जिसे इतिहासकार भारतीय संस्कृति कहते हैं!

Saturday, July 11, 2015

वन की प्राकृतिक वनस्पति और हाथी_elephant and forest greenery



जंगलों में पेड़-पौधों की वनस्पति के पनपने में हाथियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हाथी जानवरों की दूसरी प्रजातियों के विपरीत बीज को बिना तोड़े पूरी तरह से निगल जाते हैं.
जंगल में पेड़ों की लगभग 30 प्रजातियों दोबारा उगने के लिए पूरी तरह से हाथियों पर निर्भर हैं।

Friday, July 10, 2015

गज़ल_ghazal_तन्हाई




मिला नहीं था जब तक कोई, कितना सुकून से था
          अकेला बेशक था पर परेशान कतई नहीं था                      
खुद से ही करता था कई बातें, तन्हाई में
कोई दोस्त जो नहीं था, मेरी जिंदगी में

रब ने मुझे अकेला ही रखा था
फिर भी कोई गम तो नहीं था

मिलकर तुझसे ऐसा लगा, जिंदगी में
बहार आ गयी हो, मानो चमन में

बिछुड़ने की बात तो कभी ज़ेहन में नहीं आई
पर अलग होकर, अब कितनी काटती है तन्हाई

पता लगा है कि बसा ली है, उसने दुनिया जुदा होकर
हम तो आसरे में थे, सो आँसू भी नहीं निकले रोकर 

अब जहां हो आबाद रहो, जिंदगी में खुश होकर
हमने तो कभी हिसाब नहीं रखा, अलग होकर 








Saturday, July 4, 2015

शब्द अपने, भाव पराए




"राष्ट्रवाद केवल मात्र एक राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है; राष्ट्रवाद ईश्वर प्रदत्त धर्म है; राष्ट्रवाद एक पंथ है, जिसमें तुम जीना होगा। क्या तुमने इस बात को अनुभूत किया है कि तुम केवल ईश्वर के उपकरण हो और तुम्हारे शरीर भी तुम्हारे स्वयं के नहीं हैं? अगर तुमने इस बात को अनुभूत किया है, तभी तुम अकेले इस महान राष्ट्र को बनाए रखने में सक्षम होंगे। "

-महर्षि अरविन्द घोष 
अगर मुझे विस्मृत ही करना होता तो यह ऐसे ही होता मानो ऐसा कुछ कभी हुआ ही नहीं था। संसार से हमेशा के लिए स्मृतियों का लोप हो जाता। लेकिन क्या वास्तव में यह सच है? शायद स्मृतियां कहीं होती हैं, तुम्हारे अपने स्वयं के अस्तित्व के परे।
-मीको कावाकामी: अबाउट हर एंड द मेमोरिज दैट बिलाॅग टू हर-न्यू राइटिंग (अनुवाद हितोमो योशियो)

Monday, June 22, 2015

अशोक स्तंभ_Ashoka pillar on coin






स्वतंत्र भारत में अगस्त 1950 में भारतीय सिक्कों से ब्रिटिश राजाओं की मूर्तियाँ हटा कर अशोक स्तंभ अंकित किया गया।

International Day of Yoga_अंतरराष्ट्रीय योग दिवस







Sunday, June 21, 2015

ब्लॉग पर ढाई लाख हिट पार_more than 2.5 lakh hits on blog



आज मेरे ब्लॉग (http://nalin-jharoka.blogspot.in) पर आने वाले मेहमानों की संख्या ढाई लाख का आंकड़ा पार कर गयी तो लगा सभी बड़ों और दोस्तों से बात साझा करनी चाहिए. 
मजेदार बात यह है कि इसमें से आधे से अधिक अमेरिका से है, उसके आधे भारत से और बाकि दुनिया से. 
इससे लगता है दुनिया कितनी पास है, दूर होते हुए भी. मानो दसों दिशाएं और दूरियाँ बेमानी हो गयी हो. पर यह तो आभासी दुनिया का सच है, वास्तविक जीवन में तो बिना रगड़ खाए और मजबूती से कदम बढाए बिना कुछ भी पाना संभव नहीं.
जिंदगी में दो जमा दो चार नहीं तीन भी हो जाता है वैसे हम तो पांच के लिए भी तैयार होते है, सहर्ष. 

Thursday, June 18, 2015

मुनादी_धर्मवीर भारती Munadi_Dharamvir Bharti

 
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है
शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाये
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं

Thursday, June 11, 2015

Birsa Munda_K S Singh



एक ओर अंगरेज सरकार झारखंडियों की जमीन नीलाम कर रही थी मालगुजारी न देने पर, दूसरी ओर अंगरेजी सरकार की मशीनरी मिशन उनकी जमीन वापसी करा कर धर्मातरित कर रही थी.
(कुमार सुरेश सिंह-बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन-पृ.39) 

Wednesday, June 10, 2015

तुम्हारे बिना_Life without you





बिस्तर पर सलवटें 
वैसे ही हैं 
जैसी तुम छोड़ गयी थी

रसोई के बर्तन भी 
तुम्हारे बिना चुपचाप हैं 
सब उदास हैं 

भगवान के मंदिर में
दिया तो जलता है 
पर लौ खामोश है 

घर तो कामवाली 
साफ़ कर जाती है 
कमरों के कोने इंतजार में हैं

पड़ोस वाले भी 
पूछ लेते हैं 
तुमको कब आना है 

बिस्तर, बर्तन, दिया, कमरे 
आस-पास वाले 
कितना तुम्हें याद करते हैं 

इन सबके मन-के धागे में पिरोकर 
फेरता हूँ माला तुम्हारी 
अबोल-अकेले-अपने से 


Monday, June 8, 2015

पृथ्वीराज चौहान का 870 वें जन्मदिवस_Prithviraj Chauhan 870th Birthday



-दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के 870 वें जन्मदिवस पर समारोह का आयोजन
-सम्राट पृथ्वीराज चौहान के स्वर्णिम अतीत का स्मरण, युवाओं को प्रेरणा लेने की अपील



दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के 870 वें जन्मदिवस पर यहां की राजस्थान रावत राजपूत सभा एवं अखिल भारतीय रावत महासभा की राजधानी सर्किल सभाओं एवं राजधानी में प्रवासी राजस्थानियों के तत्वाधान में संरक्षक श्री देवी सिंह चौहान एवं अध्यक्ष श्री लक्ष्मण सिंह चौहान के नेतृत्व में साकेत स्थित राय पिथौरा के प्रांगण में स्थापित सम्राट पृथ्वीराज चौहान की प्रतिमास्थल पर पूरे विधि विधान से पूजा-अर्चना एवं माल्यार्पण करके पूरे उत्साह एवं हर्षोल्लास के साथ उनके जन्मदिवस का कार्यक्रम आयोजित किया गया। 
इस कार्यक्रम के प्रारंभ में महासभा के संरक्षक श्री देवी सिंह चौहान ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के स्वर्णिम अतीत का स्मरण करते हुए उनके जीवन चरित्र एवं ऐतिहासिक उपलब्धियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। महासभा के अध्यक्ष श्री लक्ष्मण सिंह चौहान ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बाल्यकाल से अंतिम दिनों तक के जीवन के बारे में अवगत करवाया। श्री इंद्रसिंह चौहान, श्री शंकरसिंह चौहान, श्री प्रेमसिंह चौहान एवं श्री नारायण सिंह चौहान ने भी उनके जीवन और शासन पर प्रकाश डालते हुए युवा पीढ़ी को उनके देश प्रेम के आदर्श से सीखने और उससे प्रेरणा लेने की बात कही। 

महासभा प्रकोष्ठ से श्रीमती अल्पना चौहान, डा गरिमा चौहान, श्रीमती मंजुला ठाकुर, श्रीमती अर्चना पुंडीर एवं अन्य उपस्थित महिलाओं, विशिष्टजनों ने भी अपने-अपने विचार रखते हुए उनके जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उनकी प्रतिमा पर श्रद्वा सुमन अर्पित किए। 
उल्लेखनीय है कि राजस्थान रावत राजपूत महासभा एवं अखिल भारतीय रावत महासभा की दिल्ली स्थित राजधानी शाखा प्रति वर्ष लाडो सराय, पिथौरागढ़ प्रांगण में स्थित सम्राट पृथ्वीराज चौहान की प्रतिमा स्थल पर उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में सात जून को भव्य समारोह का आयोजन करती है। इस आयोजन में समस्त समाज के व्यक्ति अपने परिवारजनों के साथ सम्मिलित होते हैं।

Thursday, June 4, 2015

मीडिया विमर्श_media discourse









परउपदेश कुशल बहुतेरे

डिजिटल दुनिया में प्रगतिशीलता और स्त्रीवादी विमर्श विषयों पर धारधार लिखने वाली पत्रकारों की असाध्य वीणा अपने स्वजातीय बंधुओं के जड़तावादी विचार और महिला विरोधी सोच के अमकर्म पर मौन हो जाती है। अब ऐसा सायास होता है या अनायास राम जाने!
आखिर स्वमोह से कौन बच सका भला?

 

हिंदी के बुद्धिजीवी जितना विदेशी व्यक्तित्वों और घटनाओं के बारे में लिखते-बोलते हैं, अगर उसका कुछ प्रतिशत भी देश के महापुरुषों और स्थानों- घटनाओं के बारे में जानकर लिखते तो हिंदुस्तान में जनता प्रगतिशील होकर अपने से ही क्रांति कर देती!

आखिर यौन शोषण (मीटू) के कथित आरोपियों के भी तो मानवाधिकार होते हैं!
सेटरडे क्लब और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से अनजान कैटल क्लास को यह बात वैसे भी समझ नहीं आने वाली।
कैटल क्लास को अभी लुटियन जोन के चाल, चरित्र और चिन्तन को समझने के लिए बहुत ज्ञान हासिल करने की जरूरत है।

हमारे महानगर का मीडिया तो लुटियन जोन और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से ही चलता है। आखिर कैटल क्लास की खबर कहां सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनती है, दक्षिण दिल्ली में कुत्ते की मौत भी खबर है जबकि सारे दुखिया यमुना पार पुराना जुमला है। हिन्दी और अंग्रेजी के मीडिया में वर्ग का यह अंतर साफ है।

दिल्ली के मीडिया समूहों से पत्रकारों को पैदल करने की खबरें आ रही हैं। भगवान करें कि बेदखलों की सूची में साथी पत्रकारों के नाम न हो। फिर चाहे दोस्त, ईश्वर को न मानते हो। अगर ऐसा हुआ तो फिर न घिसू की कहानी को दोहराने के लिए कोई रहेगा, न ही प्रेमचंद को पढ़ने वाला। स्क्रीन रंगीन हो या काली पर होनी ज़रूरी है। अब इस शहर के लाला की मार का कोई बचाव नहीं, दुनिया का रोना रोने वालों के लिए रोने वाला कोई नहीं। कभी कभी भरम में होने की अधिक चाहना होती है। काश दुनिया के मज़दूरों के एक होने के नारे की तरह देश के मेहनतकश पत्रकारों के एक होने का भी कोई नारा होता!

एंकर केवल दूसरों की लिखी हुई स्क्रिप्ट पढ़ता है।
लिखने वाला चैनल हेड के अनुरूप लिखता है।
चैनल हेड मालिक के अनुसार लिखवाता है।
मालिक अपने हित और ज़रूरत के हिसाब से निर्णय करता है।
सो, केवल प्रस्तोता को ही दोषी मानना उपयुक्त नहीं। एचएमवी का सिद्धांत है, कभी कोई बड़का पत्रकार अपने मालिक के ख़िलाफ़ नहीं होता क्योंकि ऐसा करने पर वही बड़ा नहीं रहेगा।
मीडिया मालिक ने चिप निकाली तो पूरा प्रोग्राम यानी खेल ख़त्म।
शहर में यह सुख है कि यहां भ्रांतियां सुरक्षित रहती हैं शायद इसीलिए गांव टूटते जाते हैं।
सच का गांव नहीं होता, झूठ का पांव नहीं होता।
राजस्थान की इस कहावत को गढ़ने वाले को तो "फेक न्यूज" की कल्पना भी नहीं होगी।

"छपास" का रोग
हिंदी साहित्य की दुनिया में तो लिखने वाले की सूरत, विचार और ताकत को देखकर ही उसकी कृति का मूल्यांकन किया जाता है. स्वयं को साहित्यकार मानने वाले पत्रकार-अफसर-अध्यापक की त्रयी के रचे को भी साहित्य में शामिल करने पर विवश है.
"छपास" का रोग जो न कराए कम है.
आखिर हिंदी के सार्वजानिक जगत की धुरी इस समूह के ऊपर ही टिकी है.
ऐसे में फिल्म बहिष्कार की बात को विषयवस्तु और संवेदनशीलता से मापने की बात बेमानी है.
बाजार में वही दिखेगा, जो बिकने योग्य है.
बिकने वाले की अपनी मर्जी कहाँ होती है?
अब बिकने-बिकवाने के प्रपंच में सब "ब्रांडिंग" और "मार्केटिंग" का खेला है.
कबीर ने ऐसे ही नहीं कहा था, जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।
आखिर हिंदी फिल्म की बजाए बॉलीवुड का नाम, बाजार के तयशुदा शर्त पर चलने की ही बात को चरितार्थ करता है.
दिल्ली से छपने वाले अंग्रेजी अख़बारों के विदेशी डिग्री से लैस लेखकों के देशी विषयों पर लेखन में "कुछ छूटा" हुआ सा लगता है. अब यह जमीन से जुड़ाव की कमी के कारण है या हिंदी राज्यों के समाज से जुड़े विषयों को न समझने के कारण? शायद कुछ-कुछ दोनों भी हो सकता है.
वे पश्चिम के समाजशास्त्र-इतिहास के व्याकरण से भारत की समाज की संबंधों के गणित को सुलझाते हुए दिखते हैं. अब ऐसे में वे समस्या के प्रमेय से अधिक स्वयं प्रमाद का शिकार है.
चुनाव घोषणा से आज सुबह चुनाव परिणाम आने तक नेहरू की वैज्ञानिकता का दम भरने वाले और सोशल इंजीनियरिंग का पाठ पढ़ाने वाले अचानक शाम होते-होते केंद्रीय मंत्री को अपनी फोटो सहित चुनाव जीतने की बधाई दे रहे हैं.
सत्त्ता के साथ खड़ा होना और दिखना शायद जरुरी है.
शायद आज के दौर की टीवी पत्रकारिता की मजबूरी है, भले ही असल में मन में कितनी ही दूरी हो, जो कि बड़का पत्रकार की लखटकिया नौकरी से लेकर मालिक के करोड़ों के प्रसारण निवेश के संकट के बरअक्स होती है.
आखिर लिखने वाले की कसौटी पाठक ही होता है, आलोचक नहीं.
अगर पाठक को कुबूल है तो लिखने वाले ने गढ़ जीत लिया.
वैसे भी हिंदी में प्रगतिशीलता के नाम पर पाठक कटे ज्यादा है, जुड़े कम है. उसमें भी इतिहास तो मानो हिंदी के लिए बना ही नहीं है.
सब विमर्श के नाम पर पठनीयता समाप्त कर दी है, जिससे पाठक भी छिटका है.
सो, अपने राम तो हिंदी ने जो दिया है, उसे हिंदी और उसके बृहतर समाज को वापिस लौटने की छोटी सी कोशिश है.
बाकि सबहिं नचावत राम गोसाईं!
कुछ कलमघसीट पंजाब ट्रेन हादसे पर भी "सीन-दर-सीन" लिखकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं.
भाई, मृतक तो आपकी बौद्धिकता से प्रभावित होकर आपकी किताब खरीदने से रहे!
कम से कम अपने पशुत्व से दूसरों को मानवीयता का अपमान तो मत करो.
नहीं तो धिक्कार है, ऐसी विचारधारा और ज्ञान पर!
वैसे भी रुदालियाँ भाड़े पर रोने गाने का काम तो करती ही है!
जब से जर्नलिज्म, मीडिया हुआ तभी से उसमें "filmi" लक्षण आ गए!
जब पत्रकारिता से निष्क्रिय हो गए या कर दिए पेशेवर, अध्यापन की तरफ मुड़ते हैं तब वे अनुभव बेशक साझा कर ले, भरोसा नहीं जगा पाते!
बाकि अपने चुकने की कहानी तो कोई नहीं बताते जबकि नयों के लिए असली सबक तो यही होता है!
जब जवानी काम नहीं आई तो बुढ़ापे की दुहाई दोगलेपन से ज्यादा कुछ नहीं.
अब इससे अधिक क्या कहे, राम दुहाई!

विडम्बना है, मीडिया की लाला कंपनियों में क्रांति करने वाली कलम कदमताल सही न होने पर तोड़ दी जाती है! न कोई वेज बोर्ड की बात करता है न लाल झंडे की बस पिंक स्लिप थमा दी जाती है. और संस्थान के बाहर तो छोड़िये, भीतर से भी कोई आवाज़ नहीं उठाता!
टीवी में पत्रकारिता कम और एक्शन, ड्रामा और सस्पेंस ज्यादा हो गया है. उसी के अनुरूप एडिटर की जगह डायरेक्टर ने ले ली है. बुद्धू बक्सा से मदारी का तमाशा.

बकौल एनडीटीवी ट्विट,
चंद घंटों का ही रहा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर का आतंकी करियर का सफ़र!
मानो जाना तो था हिजरत को बॉर्डर पार, प्रोफेसर लम्बे ही निकल गए.
अब इधर वालों की मुश्किल है, पापी से प्यार तो फिर पाप से कैसे हो इंकार.
ऐसे में अब कौन पापी, कैसा पाप?
यह तो तय हो यार!
तभी तो विमर्श का विस्तार होगा.
नहीं तो वैसे ही यूनिवर्सिटी के "देशद्रोही" होने का 'काल' है.

अपने ही देश में बेगाने...
कुछ ज्यादा पढ़े लिखे हिन्दू मात्र विरोध के विरोध की तर्ज पर हिंदुस्तान के बंटवारे और हिन्दुओं के सफाए के लिए "डायरेक्ट एक्शन" के डायरेक्टर जिन्ना को भी जिम्मेदार बता रहे है!
१९८४ से लेकर १९९२ के लिए बात बात पर माफ़ी की दरकार लगाने वाले विभाजन के समय नरसंहार में नाहक मारे गए हिन्दू समाज का कोई "धणी-वारिस" नहीं है.

गांधीजी को सदा मिस्टर गाँधी कहने वाले जिन्ना प्रासंगिक-सामायिक तो कुछ के लिए वैचारिकी के अधिष्ठान हो रहे है!

छह मरे, दस घायल.
चार मरे, आठ घायल.
टीवी पर एंकर ऐसी खबर यूँ देता है मानो मरने वाले आदमी न होकर केवल एक संख्या हो!
फिर बदलाव की हालत में पहली वाली खबर सही थी या दूसरी इसकी भी कोई सफाई नहीं होती. 
मानो यह दर्शक की समझदारी पर है, किसे सही माने या किसे गलत!
ऐसे लगता है की मानो एंकर के लिए जिंदगी-मौत के कोई मायने ही नहीं. 
वह अजर-अमर-अविनाशी 'मोड' में है पर साधारण आदमी-दर्शक क्या करें?
अब यह तो मौजूं सवाल है कि टीवी एंकर को मौत से डर क्यों नहीं लगता?
मालूम चले तो हम भी संवेदनहीन बन जाएँ, मौत की खबर सुनने, देखने और कुछ महसूस न करें. 

पत्रकार महज "फ्लाइट" की टिकट के मारे
"संवादी" हो जाते है!
यह बात तो आज ही पता चली.
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएँगी....
हमारी बिरादरी का आकलन सटीक है या आधारहीन यह तो प्रगति की भाई लोग ही बता सकते हैं!


'सैटेनिक वर्सेज' को प्रतिबंधित करने वाले और उसके हिमायती तब से लेकर अब तक तो मुंह पर मक्खन लगाए हुए हैं जबकि अब 'पद्मावत' फ़िल्म के विषय में अचानक "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का राग अलापने लगे है!
बाकि अल्लाह झूठ न बुलवाएँ, बोलने को तो बहुत कुछ है.

अवार्ड वापसी का रुदाली गान हुआ अब बीते समय की बात.
एक "राष्ट्रवादी" के हाथों 'शेख़ुलर' 'Presstitute' को अवार्ड!
कुछ तो मजबूरियां रही होगी!
नहीं तो टीवी चैनल से पत्रकारों की छटाई पर भी स्क्रीन काली होती चाहे गलती से ही सही.
"बड़ी बहस" में अब देखेंगे "हम लोग"...


आखिर फेस बुक पर धार्मिक त्यौहार न बनाने की घोषणा की क्या मायने?
मतलब दीपावली का भी विरोध!
प्रत्यक्ष न सही तो परोक्ष ही...
कुछ टिप्पणियां देखी...
तो मन में सहज जिज्ञासा हुई क्या कोई अधार्मिक त्यौहार क्या होता है?
आखिर जब अंध विरोध तो आँखों के तमस से अधिक मन के कलुष को निकालने की जरुरत होती है!
तथागत बुद्ध ने भी तो "अप्पो दीपो भव" की बात कही थी.

फिर तो न राम के हुए न बुद्ध के...
मन के अँधेरे न जाने कब छटेंगे?

एक प्रस्तावित चैनल की टैग लाइन "यहाँ हर जन पत्रकार है" पर अनायास यह विचार आया कि ऐसे में तो 'कंट्री' के लोगों की बारे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि "यहाँ हर जन राजनीति का जानकार है".
अब 'कंट्री' मतबल क्या यह मत पूछियेगा, हम बता नहीं पाएंगे जी...

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री से बनने से पहले की रोहतक की सैनिक रैली को दिल्ली के एक अंग्रेजी दैनिक ने 'ब्लैक आउट' किया था. 
यह पत्रकारिता के किस सिद्धांत के अनुरूप था, यह तो उसके तत्कालीन 'काबिल' संपादक ही जाने! 
वह बात दीगर है कि उसे बाद में वहां से भी बड़े बेआबरू होकर निकलना पड़ा!
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएँगी...


चंदा करने के बजाय अपने शेयर दर्शकों को बेचने का विकल्प भी जनवादी है।
आखिर खाली-पीली रोने वाली रुदालियों और खीसे से कुछ खर्च न करने वालों की पहचान तो होगी!
हिंदी में एक कविता की किताब भले ही "तीन सौ" में बेस्ट सेलर न बने पर एक "काव्यात्मक स्वप्न" को तो फेसबुकिया सेक्युलर हिन्दू नहीं हिंदी समाज साकार कर ही सकता है.

चैनल_बेक चैनल_मनी_ब्लैक मनी
अगर प्रगतिशील चैनल के लिए, "चार बड़े चिंता करने वाले" अपना लखटकिया 'अंशदान' दे तो एक शुरूआत हो सकती है!
नहीं तो "चारे का पैसा" ही सही, सेकुलरिज्म के नाम पर इतना तो बनता है.
परिवार न सही किसी के तो काम आएँगी, लक्ष्मी मैय्या भले ही काली सही!
आखिर "बेचारा चैनल" तो बाजार में बे-भाव बिकने से बचेगा?
गंगा-जमुनी तहजीब की कसम, इतने बेगैरत तो हम न समझे थे, तुमको.
विडम्बना है कि आज समाज का पढ़ा लिखा तबका, नेताओं को 'गुंडा' बता रहा है तो राजनीति पुरुष पत्रकार को 'दलाल' और महिला पत्रकार को 'वारांगना' जैसे विशेषणों से नवाज रही है. कुछ-एक के ख़राब होने से सभी पर एक ही ठप्पे को चस्पां देना सर्वथा अनुचित है.


फ़ेसबुक पर हिन्दू धर्म की मुखर आलोचना करने वाले अहिंदू आलोचक अपने स्वयं के संप्रदाय के विरूद्ध कुछ भी कहने से कतराते हैं!
यहाँ तक कुछ तो अपनी अहिंदू पहचान छिपाते भी हैं।
अब ऐसा आदतन है या जानबूझकर यह तो वे ही जाने।


दरबारी रुदाली का रोना...
कुछ 'खोना; कितना खोटा होता है।


बुद्ध की शिक्षा वालों को 'प्रतिकार का पाठ' स्मरण रहा, गीता के उदघोषक कृष्ण के वंशज 'सेक्युलर स्मृति लोप' से ग्रसित हो गए!



इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के ज़माने में लेखक-पत्रकार 'सच' लिखकर 'जेल' जाना पसंद करते थे और अब...इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के ज़माने में लेखक-पत्रकार 'सच' लिखकर 'जेल' जाना पसंद करते थे और अब...


रतौंदी के शिकार लोग रे-बैन का चश्मा भी लगा ले तो दिखने थोड़ी लग जाएँगा!


भोपाल गैस कांड में बच्चों के असमय काल-कलवित होने पर देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री इतने द्रवित हुए थे कि उन्होंने अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को भारत से सुरक्षित उसके देश भेजने की जिम्मेदारी भी प्रदेश में अपनी दल की सरकार ही मुख्यमंत्री को ही सौप दी थी.
इस बात को अधिक गहराई से जानने के इच्छुक कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह की आत्मकथा की किताब पढ़ सकते हैं....




७० साल की आजादी का सिला!
कश्मीर का कीटाणु केरल में?
अब कामरेड बहादुर सरकार को केरल के पलक्कड़ एक स्कूल में भी "तिरंगा" फहराने पर भी आपत्ति!
संविधान की कौन से धारा है, लाल आतंकी नहीं तो उनके समर्थक कथित बुद्धिजीवी ही बता पाएंगे.
अब लगता है कि जवाहर लाल नेहरु का केरल का निर्णय 'गलत' नहीं था.
कहीं इतिहास स्वयं को दोहरा तो नहीं रहा है...


क्या किसी टीवी चैनल के प्रमुख ने अपने टीवी चैनल की टीआरपी रेटिंग के गिरने पर कभी इस्तीफा दिया है?
वैसे इस्तीफा देने की बजाए मांगने वाला ही "बड़का" होता है,
है न!


1965 में 'वक्त' फिल्म में अभिनेता राजकुमार का मशहूर संवाद था, “चिनॉय सेठ, जिनके मकान शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते !"
इस संवाद की याद एक बड़का पत्रकार के ट्विट को देखकर आई.
दिल्ली की पॉश इलाके पंचशील में कोठी खरीद कर रहने वाले और डेसू के ज़माने में किराये के मकान में बिजली का बकाया किराया माफ़ करवाने वाले बड़का पत्रकार करोड़ों रुपए "कहाँ से आने की बात" का सवाल उठा रहे हैं!
सच में नंगा ही चंगा है.
अब आप मत पूछना कि दिल्ली के पंचशील में मकान कितने में आता है!
पर्दे के पीछे छिपकर नेताओं के फेसबुक-ट्विटर चलाने वाले पत्रकार भविष्य भी बांचने लगे हैं. अँधेरे में छिपकर रहने वाले आने वाले समय का भी अँधेरा ही बता रहे हैं. सही है, आखिर मन की भीरुता व्यवहार में तो झलकेगी ही. समय भी कितना प्रबल है सबके नकाब उघाड़ देता है चाहे पढ़ा लिखा हो या अनपढ़!

कितने डग!
चाय वाले प्रधानमंत्री से झुग्गी वाले राष्ट्रपति तक|

हिंदुस्तान टाइम्स के सामने हड़ताल पर बैठे हिंदी पत्रकारों की खबर टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस में कभी नहीं छपी तो नोएडा के टीवी चैनलों से पत्रकारों को बोरी भर कर निकालने की बात किसी अंग्रेजी चैनल ने नहीं दिखाई.
सबसे तेज़ चैनल से लेकर मशाल जलाने वाले अंग्रेजी अखबार, इस हम्माम में सब नंगे हैं.
अब सब सहूलियत पसंद साथ है, बस आपको यह तय करना है, किसको 'यूज़' करेंगे, किसके लिए 'यूज़' होंगे.
लाला-मालिक के आगे सारी कलम-माइक "मौनी" हैं. (17072017)

बॉलीवुड, बोल्ड, बिंदास!
क्या हम कभी बॉडी के मोह से निकलेंगे!
बॉडी की रक्षा-चिंता ही कहीं इस आरोपित भाषा-विमर्श की ही देन तो नहीं! (23032017)

साधू की जाति-धर्म खोज निकालने वाले भारत में वास्को-डी-गामा और कोलंबस के वंशज बस आंतकी का धर्म ही नहीं देख पाएं! (22032017)

जीवन में अपनी पत्नी को तलाक देकर मझधार में छोड़ने वाले को अचानक "स्त्री अस्मिता" और "गरिमा" की याद आने लगी है. (19032017)

उत्तरप्रदेश के राजतिलक के परिणामस्वरूप जातिवादी चाह रखने वाले, अब अचानक अनुपम खैर की खैरियत के लिए फिक्रमंद हो गए हैं!
अचानक साइकिल से लेकर हाथी सब अकेले !
हंसिया का तो हत्था ही उखड़ गया, कन्हैया की मुरली भी काम नहीं आई!
सही है, मुश्किल वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है. फिर यह तो पढ़े-लिखे कॉलेज के टीचरों का क्या कसूर! (19032017)


सांप्रदायिक-जातिवादी दलों को वोट देने वाले, इनसे इतर सरकार बनने से सदमे में हैं, मानो बीज तो बबूल का रोपा था और आम कहाँ से आ गया!
(18032017)

जो से-पत्रकार अपने संस्थान में संपादक बनने के नाम पर भी चुप रहते हैं, वे सरकार और मुख्यमंत्री के बनने पर कैकयी जैसे रूठकर कोप भवन में जाने और मुखर होने का का भ्रम फैलाने का प्रपंच कर रहे हैं....(18032017)

सुर की तरह शब्दों को भी साध कर लिखा जा सकता है...(18032017)

बड़का पत्रकार की अपने परिवार-मालिक की "कारगुजारी" पर चुप्पी उसके चाहने वालों को नागवार लगती है.
घर से लेकर नौकरी की "गुज़र" की चुप्पी हम सब पर भारी है.
बाकि सबकी मजबूरियां होती हैं, सो सहूलियत पसंद साथ की यारी है.
घर-नौकरी के बिना दर-दर का भिखारी बनने से अच्छा तो "चुप्पा" होना ही है.
आखिर बड़का पत्रकार भी तो हाड-मांस का पुतला है, कोई दूसरी दुनिया का प्राणी नहीं! (07032017)

एक गैर-रियासत (पाकिस्तान) और एक महजबी-सियासत (विभाजन) को जोड़ने वाली उर्दू की मंथरा भूमिका की स्मृति राष्ट्र के मानस पटल से मिटाए नहीं मिटती हैं! (26022017)

रतौंदी-स्मृति लोप-सहूलियत पसंद पत्रकारिता!
दिल्ली में सभ्यता से लेकर छात्र आन्दोलन की परिभाषा का विमर्श करने और वाले पत्रकार, जो बिहार से लेकर मध्य प्रदेश से अपनी रोजी-रोटी के लिए राजधानी आये हैं, अपने मूल प्रदेश को बिसराए हुए हैं.
यह रतौंदी है या स्मृति लोप अथवा सहूलियत पसंद पत्रकारिता जो अपने घर, राज्य, लोगों को छोड़कर सबके लिए प्रश्नाकुल हैं. (24022017)
संसद में भाषा की गरिमा के सवाल पर चिंतित प्रगतिशील पत्रकार-कॉलेज शिक्षक ही उनकी भाषा में अधिक वाचाल होते दिख रहे हैं. आखिर "पर-उपदेश कुशल बहुतरे" का सीधा उदाहरण तो यही दिखा रहा है. (15022017)

एकाकी होने का भाव कायरता को जन्म देता है जो
अकर्मण्य बनाता है. (09022017)

खोह में जाने से अच्छा है कि खोल से बाहर आकर मोर्चा बांधे...  (09022017)

"द हिंदुस्तान टाइम्स" के बाद जौहर की ज्वाला में एबीपी समूह के "द टेलीग्राफ" "आनंद बाज़ार पत्रिका" की कलम भी सती!
शायद इसीलिए साथी-कामरेड अमीर खुसरो की तरह मौन है!
पत्रकारिता की आने वाली पीढ़ी तो यही पढ़ेगी कि किसी ने कुछ नहीं लिखा था.
सो "पद्मिनी" की तरह कलमकारों की रोजी-रोटी "हत्या" मनगढ़ंत-मिथ्या प्रचार ही माना जाएंगा, जायसी के "पदमावत" की तरह!
आखिर दूसरों के लिए मशाल जलाने वालों के खुद के घर के चूल्हे जलना बंद हो गए और सब ओर घनीभूत पीड़ा वाली ख़ामोशी. (05022017)

कलकत्ता के "द टेलीग्राफ" के थोक के भाव प्रगतिशील पत्रकारों को रोजी-रोटी से मरहूम करने और नौकरी से निकल बाहर करने के फैसले पर हर मुद्दे पर ट्विटर का इस्तेमाल करने वाले उसी संस्थान के एक बड़का पत्रकार अपने घर में लगी आग पर चुप्पी साधे हुए हैं.
यहाँ तक की चीन-पाक का नापाक सुर गाने वाले जेएनयू के कुछ "देश विरोधी" मास्टर भी मौन हैं, सही में बहुत असहिष्णुता हैं. (04022017)

अख़बार को नोट आना बंद हो गए सो उन्होंने पत्रकारों के लिए रास्ता बंद कर दिया. (03022017)

क्रिकेट का कमाल
गोलंदाज का "छक्का"! (02022017)

ढोल (ओपिनियन पोल) की ही पोल खुलती है.
                                                         (11012017)
ये कैसा विमर्श है?
आत्म-हत्या करने वाले शहीद,
हत्या करने वाले क्रांतिकारी! (18012017)
वोट वाली जनता याद नहीं रखती पर लोक-स्मृति कुछ विस्मृत नहीं करती.  (27122016)

चुनाव के दिन सैर-सपाटे को निकल जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग का ही रवैया लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी सरकार को लेकर सबसे अधिक अलोकतान्त्रिक दिखाई देता है।
कोई मर्सिया पढ़ रहा है, कोई चित्रगुप्त बनकर शेष दिन बता रहा है तो कोई उसके वजूद पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा है!
इससे तो लाल(जेएनयू )किले के क्षेत्र की नगर निगम की सीट तक लाल पार्टी को जिताने में असफल बुद्धिजीवी वर्ग की बेचारगी ही झलकती है।
लोकतन्त्र में जनता-जनार्दन के अभिमत का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना ही समय की मांग है नहीं तो कार्ड धारी बनकर पोलित ब्यूरो की पोलियो ग्रस्त चाल से पस्त ही होंगे।  (11122016)



क्या विकासपरक सरकार के बिना विकासशील पत्रकारिता संभव है? (04122016)

पहले किराए की मकान में रहने वाले एक बड़का टीवी पत्रकार ने बिजली का अदा न किया बिल कम करवाए।
मकान मालिक भी सरकार के आर्थिक मामलों के सलाहकार का।
सो बिल का न देना तो बनता ही है न।
फिर दक्षिणी दिल्ली के पॉश इलाके में घर खरीदा।
कितने की पक्के में रजिस्ट्री हुई और कितने कच्चे?
अब यह सवाल कैसे?
आखिर वह पूछे तो "डाइरैक्ट दिल से" और दूसरा पूछे तो पूंछ हिलाएं।
दुनिया बहुत छोटी है बाबू फिर आमने सामने ला खड़ा कर देती है।
सो चुप रहना सुना है अँग्रेजी में "सोना" माना जाता है सो हम भी सोते हैं।  (03122016)

आप जहाँ हैं, वही प्रामाणिकता से अपने को काम से सिद्ध करें ताकि वहां प्रामाणिकता की कसौटी आप और आपका काम हो। सो, ऐसे में पदवी और सम्मान दोनों आपके सहचर होंगे न कि आप उसके तलबगार। (03122016)

अगर हम एक वाक्य में ही शुद्ध भाषा /वर्तनी नहीं लिख सकते तो बेहतर है कि हम न लिखे।(03122016) 

नए साल में जनवरी के बाद कितने अखबार-टीवी मालिकों के 'इतर' हवा-ला कारोबार पर बिजली गिरेगी और कितनी 'रिपोर्ट' होगी?
देश के सबसे बड़े अँग्रेजी अखबार के बड़े वाले तो ईडी के केस में ही निकल गए थे तो यूपी वाले गन्ना पिराई में पेरे गए थे!
मुझे आईआईएमसी से निकलने के बाद मिली मीडिया की पहली नौकरी में मजदूरी 'पिंक स्लिप' में मिली थी जिसमें 'चावल' कम दर पर खरीदने की सुविधा थी।
कहीं सच में ऐसा हुआ तो अभी दूसरों के लिए चौबीस घंटे मशाल जलाने वालों को अपनी दिया-बाती के लिए तेल खोजना पड़ सकता है।  (13112016) 

पाँच सौ के नोट के छुट्टे न होने की वजह से गरीब दिन भर भूखा रहा!
अब दिन में पाँच सौ कमाने वाला कौन गरीब भयो!  (11112016) 

बस लिखने के लिए लिखते हैं, यह भाषा-वर्तनी-अर्थ क्या निरर्थक रट है! सो, जब खुद शर्म न आएं या फिर कोई न शरमाएं तो फिर भला बच्चों को काहे भरमाए।                            (08112016) 

बागों में बहार "स्थगित" हो गयी है!
                                                                   (07112016) 


नीरा रादिया वर्ल्ड दिस वीक मामले में अथॉरिटी कौन?
सवाल पूछा नहीं या पूछा नहीं गया?
ताकत चुक गयी?
जुबान चुक गयी?
नज़र चूक गयी?
नीर है,
बरखा है,
रतौंदी है!
तो झाल बजाए! (05112016) 

बिलकुल मार्के के बात।
यह कुछ ऐसे ही है जैसे कोई पूंजीवादी चैनल मालिक किसी प्रगतिशील वरिष्ठ पत्रकार को मोटा पैसे देकर रख लेते हैं और वह अपने नीचे बाकी पत्रकारों को न्यूनतम मजदूरी पर ठेलकर गुलामी करवाता है। यह सिलसिला चैनल दर चैनल चलता रहता है, वरिष्ठ पत्रकार गति से हर बदलते चैनल से प्रगति करता हुआ ऊपर चढ़ता जाता है और मजदूर पत्रकार दिन प्रतिदिन गरीबी रेखा के नीचे जाते हैं। दो बड़ों की समझदारी से खेले ताकत के खेल में असली पत्रकार गरीब-गुरबा महामूर्ख मोहरा बनकर अपनी जिंदगी गुज़र कर देता है। (16102016) 

टीवी पत्रकारिता में अपने से नीचे काम करने वाले कनिष्ठ पत्रकारों का खून चूसकर उन्हें गुलामी का नश्तर एहसास चुभोने वाले करवाने वाले अब अचानक "मीडिया के झुकने और रेंगने की मुद्रा" की बात बता रहे हैं।
क्यों भाई, जब खुद नहुष बनकर सबको जोते हुए थे तब क्या जीवित स्वर्ग जाने की तैयारी थी?
अब जीवित ऊपर जाने का उपक्रम तो विफल होना ही था, सो अब तो सुधार कर लो।
कर्म-विचार और व्यवहार में। (10102016) 



अल्लाह के बंदे!
अपनों पर करम औरों पर सितम।
कुछ कार्टूनिस्ट, अपने महजब को छोड़कर बाकी सभी पर "तिरछी नज़र" रखते हैं!
सो सारा वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशीलता काले पर्दे में छिप जाती है!
अगर वैसी ही आलोचक नज़र अपने महजब पर डाले तो शायद "भस्म" हो जाएँ।
खैर, अपनी जान की सलामती कौन नहीं चाहता?
बिना मूठ की तलवार से भला कोई जंगबाज़ बना है! (10102016) 

पी वी नरसिंह राव के बाद की काँग्रेस में ब्राह्मण नेताओं की अनदेखी और ईसाई नेताओं को तरजीह का नतीजा ऐसे प्रतीकों खासकर हिन्दू प्रतीकों के महत्व को समझने और जन संवाद के लिए उन्हें प्रयोग में न ला पाने की असमर्थता के रूप में देखने को मिला है। (09102016) 


कुछ हिंदुस्तानियों को भारत में आकर आतंक फैलाने वाले आतंकियों और सीमा पार से उन्हें भेजने वाली पाकिस्तानी फौज में फर्क लगता है?
यानि एक मरा को कोई नहीं पर दूसरे का मरना ठीक नहीं।
वैसे मरना तो मारीच और रावण दोनों को पड़ा था!
अब ऐसा सोचने वाले मासूम या शातिर हैं यह तो उनका खुदा ही जाने! (09102016) 

भांड पत्रकारिता या पत्रकारिता के भांड!
(रविश के ताजा लेख के शीर्षक को पढ़कर अनायास मन में कौंधा!) (07102016) 


"जैसे तो तैसा". चीन के भारत का "पानी रोकने" का जवाब चीन में बना सामान न खरीदकर उसका "दानापानी" बंद करने के रूप में देना ही उपयुक्त है.  (03102016)

पंत प्रधान की जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि!
कोझिकोड से कश्मीर तक               (24092016)


गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता से पीड़ित पाकिस्तान की अवाम के बिरादर यहाँ भी हैं, सारे गए नहीं!
अब यहाँ वालों के लिए तो पंत प्रधान का भाषण था नहीं सो ऐसा होने में अचरज कैसा?
(महाराष्ट्र के थाणे में उत्तर प्रदेश के विजय यादव ने सुफिया मंसूरी से प्रेम विवाह किया था. विवाह के बाद सुफिया नेअपना नाम प्रिया रख लिया था. प्रिय गर्भवती थी. दोनों दंपत्ति की चाकू से गोद कर ह्त्या कर दी गए. उन्हें इतने निर्मम तरीके से गोदा गया कि प्रिया के पेट में पल रहे बच्चे के पांव बाहर निकल गए.)  (24092016)
हिन्दी साहित्य की उम्र दराज रुदालियाँ जब रोती हैं तो मजेदार है कि आंसू एक नहीं गिरता है। (14092016)

हम हिन्दी से बने हैं सो अपनी भाषा के उपकार को स्वीकार करके कुछ करने के लिए आभार कैसा? (09092016)

आंबेडकर की संविधान की सर्वोच्चता के पैरोकार बुद्धिजीवी, मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के तीन तलाक वाले कुतर्क पर मुंह में दही क्यों जमाए बैठे हैं! आखिर दही-हांडी का त्यौहार तो बीत गया है। (04092016)

समाज-क्रांति वीर पत्रकार जब पत्रिका-चैनलों के लाला-मालिक का नाम जपते हुए अपने नौकरी में चाकरी करते हुए कलम और जुबान दोनों से बंजर होते हुए गूंगी गुडिया बन जाते हैं.
जब उन्हें मीडिया संस्थान से विदा कर दिया जाता है तो फिर उन्हें वही पत्रिका-चैनल, उसके लाला-मालिक सब दोगले-मतलबी लगने लग जाते हैं.
सो, हो भी क्यों न?
मतलब की दुनिया है तो फिर मीडिया और उसके लोग अछूते कैसे होंगे भला? (03082016)

गाय को पालने के दंभ से ही शायद उसका चारा भी चटकर जाने का दुस्साहस जागता है! शायद तभी बाड़ (पालक) ही खेत (चारा) खा जाती है।
आखिर दुनिया में मोल तो हर चीज का चुकाना पड़ता है। (29072016)
(दलित युवक के मुंह में पेशाब मामले में विपक्षी नेताओं का नीतीश पर हमला)
मगध में दलितों के साथ मत्स्य न्याय!
गुर्जर प्रदेश में शोर और मगध पर मौन, दलितों के द्रोणाचार्य को नमक जो चुकाना है! आखिर तब द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य का अंगूठा लिया था अब राज के लिए मौन धर लिया है। (23072016)

नौकरी के लिए लिखकर चाकरी करने वाला नामालूम चीजों पर ज्यादा जोर से लिखता-बोलता है। मीडिया के नाम पर अजेंडा लाला का और उसके लिए मुद्दे ला-ला कर देता हैं, लिखने वाला। लाला के विज्ञापन खतरे में पड़ने पर लेट भी जाता है। खैर पेट-लेट में ज्यादा अंतर नहीं है सो कैसा गम! (19072016)
कश्मीर में देश विरोधी मौतों पर दिल्ली की  काले दिल वाली ''रूदालियां" बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर देती है जबकि मजेदार है कि आँसू एक नहीं गिरता आँख से!
वह बात दीगर है कि मीडिया का एक तबका "गंगा-जमुना" बहने का दावा करने लगता है! (18072016)

जीवन के आगे टीवी की रंगीन स्क्रीन छोटी ही रहेगी, मीडिया की रतौंदी को मन का मैल नहीं बनने देना ही असली चुनौती है। (11072016)

कुछ काबिल लोग "एक्सक्लूसिव" के नाम पर "जगत मामा" बन जाते हैं!
जबकि सबको पता होता है कि "मामा" की बहन की शादी ही नहीं हुई! (06072016)

गैर महजबी (मुस्लिम) ही तो "काफिर" है। वह बात दीगर है, काफिर की सूची हिन्दू से शुरू होती है, खत्म मनमर्जी के अनुसार होती है। पाकिस्तान में अहमदिया जमात के लोग काफिर है, अगर ईरान की सीमा नहीं लगी होती तो सारे शिया भी पाकिस्तान में काफिर होते। जैसे जिन्ना के लिए गांधी हिन्दू नेता और हिन्दू काफिर थे।(04072016)
"हम तो सिर्फ हिन्दू उत्पीड़न की ख़बरों पर राष्ट्रवादी हो लेते हैं।"
एक टीवी संपादक संगी की वाल पर पढ़ा!
अचरज तो हुआ फिर लगा कि ढाका के धमाके और काफिरों के मरने का असर है।
सो अब इस्लामी देशों में हिन्दू होने के नाम होने वाला व्यवहार "उत्पीड़न" और "खबर" लगने लगा है।
और तो और "हम" भी "राष्ट्रवादी" होने लगे हैं।
कोई शक नहीं कि बौद्धिक टीवी के "संघ विचारकों" (अगर होते हैं तो) का सही में काफी असर है। (03072016)

धमाका ढाका में, असर हिंदुस्तान में!
हिन्दू आतंकवाद का परचम लहराने वाले अब कह रहे हैं, "धर्मान्धता चाहे किसी भी मजहब, पंथ, मान्यताओं के भीतर हो, वो हर हाल में मनुष्य के विरुद्ध है."
ठीक तो है, हिन्दू तो धर्म है, महजब तो एक किताब, एक पैगंबर, एक रास्ते को ही अंतिम मानने वाले सामी लोगों के लिए हैं। आखिर अपनी जमात या समूह से ही जुड़े रहने की बजाय सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।) का जीवन दर्शन निश्चित रूप से ही अनुकरणीय है।

शुक्र है पेशावर हत्याकांड के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने वाले पाकिस्तानी टीवी चैनलों का बांग्लादेश में असर नहीं है। (03072016)


आतंक का महजब या महजब का आतंक?  (02072016)

हमें समाज और मीडिया के बिना भी अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ने का अभ्यास करना होगा।
यह अभ्यास ही लंबे समय में सहायक होगा क्योंकि अगर हम अपनी आवाज़ खुद नहीं बुलंद करेंगे तो फिर समाज और मीडिया से ऐसी उम्मीद बेमानी है।  (30062016)

राबड़ी के होते हुए भी बिहार में रेप!
बिहार को कितनी उम्मीदें हैं, उसे तोड़े नहीं।
बहन-बेटी की आबरू तो जाति से परे हैं।
मुख्यमंत्री न सही एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री से इतनी आशा तो निराशा में नहीं नहीं बदलेगी, ऐसा मन कहता है।
वैसे अब मन की होती कहाँ है?  (25062016)

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति से भेदभाव की खबर!
हिन्दू समाज की पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति से मुसलमान बना व्यक्ति आज भी मुस्लिम व्यवस्था में तिरस्कृत ही है।
शेख, सैयद, मुग़ल और पठान में उपरोक्त किसी भी 'मुसलमान' का निकाह नहीं होता।
सो जब समाज ही दोगला है तो फिर वही दोगलापन चहुंओर दिखेगा। (24062016)


इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते! (24062016)



आज मीडिया यह याद नहीं दिलाएगा या उसे खुद को ही याद नहीं है!
आखिर इसी दिन के लिए तो स्वप्नदर्शी नेहरू के 'इंडिया' ने 'कामरेड' चीन का सयुंक्त राष्ट्र की 'स्थायी सदस्यता' के लिए अंध-समर्थन किया था। (24062016)

चिठिया हो तो हर कोई बाँचे...

जो 'पाती' किसी के पास नहीं होती वह कैसे किसी 'एक' के पास होती है!
अब ऐसे में भगवान या फिर आज के कलियुग में 'पीआर' के पास सब कुछ होता है।
अब मीडिया को गरियाने से भी बात बनेगी नहीं, ब्राह्मण के नीचे काम कर लिए पर ब्राह्मणवादी मीडिया को गरियाना नहीं छोड़े। हाथी के दाँत खाने के और और खिलाने के और।
एक टीवी के ब्राह्मण बाबाजी है पर गैर-ब्राह्मण है कि प्रगतिशीलता के नाम पर दलित-ओबीसी, मुसलमानों के पैरोकार और न जाने क्या-क्या बनाने में लगे हैं। एक बाबाजी है कि भाई को अदद 'माननीय विधायक' नहीं बनवा सकें।
अब प्रदेश अध्यक्ष बनवाने के फेर में है।
अब मीडिया ब्राह्मणवादी या मनुवादी यह तो मुखौटा पहनने वाले ही जाने! (24062016)

जब कलमकार ज्योतिषी होने लगते हैं तो तोता बाबू के कार्टून की याद आ जाती है। (23062016)

कराची में अमजद साबरी की दिनदहाड़े हुई हत्या पर क़व्वाल बदर निज़ामी का कहना था कि "क्या खुदा, उसके पैग़ंबर और पवित्र इस्लामी शख़्सियतों की बंदगी एक गुनाह है?" कश्मीर से लेकर कराची तक आज के समय का सच तो इसके विपरीत ही दिखता है, जहाँ "ईश्वर" की आराधना ही जान-जोखिम का काम साबित हो रही है। (23062016)

कुछ टीवी चैनल हिन्दी को बेच रहे हैं, कुछ उसके नाम पर गुजर कर रहे हैं!  (19062016)


विशाल भारद्वाज-गुलजार ने मिलकर लिखी-बनाई थी, एक फिल्म ओमकारा ।
इस फिल्म का यह संवाद देखे, "बेवकूफ और चूतिये में धागे भर का फर्क होता है।"
अब गुलजार-विशाल भारद्वाज लिखे तो भाषा की जय हो नहीं तो भय हो। (19062016)


कुछ चैनल हिन्दी को बेच रहे हैं, कुछ उससे गुजर कर रहे हैं।                                            (18062016)


विदेशी धन के बिना देश की सेवा?
बहुत नाइंसाफी है! फिर अपनी सेवा कैसी होगी?
नहीं तो मेरी बीवी और मेरा टीवी, कमरा बंद।(16062016)

मंत्र से तंत्र तक
पशुओं का चारा चरने का तंत्र देशव्यापी हो तो कहीं कोई अनाचार ही नहीं होगा! न ही किसी को चारा-कागज़ चोरी होने का रपट करना होगा।  (12062016)


खुदा का शुक्र है, अयोध्या मामले के कागज़ चारे की तरह नहीं गायब हुए नहीं तो धर्मनिरपेक्षता विधवा हो जाती ।
और मीडिया की रूदालियाँ बिना मरने वाले का नाम जाने मातम मनाने लग जाती। (09062016)

आज के प्रगतिशील पत्रकार, खास कर टीवी की दुनिया के, चाहे स्त्री हो या पुरुष, अपनी पहली शादी/निकाह/मैरिज को छुपाता क्यों हैं, दुनिया भर पर चर्चा करने वाले अपनी बीती जिंदगी पर बात क्यों नहीं करना चाहते!
यह बात समझ कर भी नहीं समझ नहीं आई?
टीवी पर दूसरों के इतर संबंध पर सार्वजनिक चर्चा करने वाले अपने पहले संबंध पर भी मौन साध जाते हैं, है न हैरानी की बात! (06062016)


सोचने की बात यह है कि कठमुल्ला से लेकर फादर-मिशनरी का निशाना ब्राह्मण ही क्यों है?
यह अनायास है या सुनियोजित प्रयास!
जबकि स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी के सम्पूर्ण वांगमय में ऐसा कुछ नहीं मिलता। (05062016)


आँख वाले अंधों की गाथा!
लो अब कर लो बात, इंद्रप्रस्थ की पत्रकारिता के भीष्म-द्रोण कह रहे हैं कि परिवार की मिल्कियत में शहजादे की तख्तनशीनी जम्हूरियत की कद्रदानी होगी!
सही में अब समझ में आया कि जन्मांध धृतराष्ट्र की राजसभा में सभी राजसद दुर्योधन को सुयोधन क्यों कहते थे।
अंधा राजा नहीं, दरबारी थे।
इतिहास अपने को दोहराता है पढ़ा था, आज देख भी लिया। (02062016)


आईएएस के बराबर वेतनमान लेने और गैर-बराबर काम करने वाले विश्वविद्यालय के शिक्षक "मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग" से संबंध रखते हैं!
यह बात कुछ समझ नहीं आई!
वेतन-कार्य की अवधि (समय) का अनुपात शायद सब कुछ कह देता है।
मेरे ही दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में हमारे हिन्दी के ही प्रोफेसर जब दो महीने तक पढ़ाने नहीं आयें तो हम सब प्रिन्सिपल के पास समस्या को लेकर गए।
वहाँ तो कुछ मिला नहीं पर बाहर आने पर प्रिन्सिपल के चपरासी ने बताया की प्रोफेसर और कोई नहीं खुद प्रिन्सिपल ही है।
सो जब आज से 15 साल पहले भी कुएं में भांग पड़ी थी, तो आज क्या हालत होगी इसकी सहज कल्पना लगाई जा सकती है।
वह बात अलग है, कुछ पढ़ाने वाले भी थे, खैर हर नियम का अपवाद जो होता है।
अगर पढे-लिखे तबके में सही में कोई "मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग" है तो वह है पत्रकार और उसमें भी हिन्दी पत्रकार।
हिन्दी मीडिया संस्थानों में नए वेतनमान तो छोड़िए, पिछले तक नहीं मिले। इसमें एक का तो मैं खुद भुक्तभोगी हूँ।
भरोसा न हो तो बहादुर शाह मार्ग से लेकर नोएडा के मीडिया दफ्तरों तक एक चक्कर लगा ले, सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
फिर आज विश्वविद्यालय शिक्षक बुद्धिजीवी है, बौद्धिक नहीं।
सो ऐसे अनर्गल मत न प्रकट हो यही बेहतर होगा। (28052016)


बात निकलेगी तो दूर तलाक जाएंगी...
नसीरुद्दीन शाह की माने तो गुजरात और बिहार के बारे में 'दिल्ली' के निवासियों को सोचना-बोलना बंद कर देना चाहिए! और दिल्ली से बाहर वालों को यहाँ की चिंता में दुख दुबला नहीं होना चाहिए!
न जाने कितने लाल किले पर झण्डा फहराने की हसरत लिए ही अल्लाह-मियां को प्यारे हो जाएंगे?
मैंने सोच रहा हूँ कि दिल्ली में बैठकर हर-बात पर नुक्ता-चीनी करने वाले वाले टीवी के पत्रकार मित्रों का क्या होगा?
कौन से जमाने की दुश्मनी निकली है, नासिर साहब आपने टीवी पत्रकारों से! (28052016)


सरकारी पीआर विषय पर पुस्तकों का अकाल है, लिखने वाले या तो शिक्षक हैं अथवा पत्रकार। दोनों को ही सरकारी पीआर का क, ख, ग नहीं पता। बाकी गूगल बाबा के दौर में हर कोई स्वनाम धन्य लेखक है। (23052016)


कांग्रेस की वेबसाइट पर 2002 के गुजरात दंगों का ज़िक्र तो है पर 1984 के सिख विरोधी दंगों और आपातकाल की कोई स्लाइड नहीं है। मजेदार है कि गुजरात में भी वर्ष 2002 से पहले हुए सांप्रदायिक दंगों का कोई उल्लेख नहीं है।
मानो तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का आपातकाल और सिख विरोधी दंगों से कोई संबंध ही नहीं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इन्दिरा गांधी के विरुद्ध निर्णय देने और आपातकाल का कारण बनने वाले न्यायधीश, उच्चतम न्यायालय में न्यायधीश नहीं बन पाएँ तो पंजाब में अकालियों को मात देने के चक्कर में पैदा हुए भस्मासुर भिंडरवाले ने अपने दावानल में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री को भी लपेट दिया।
स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास का एकतरफा विमर्श ही सब समस्याओं की जड़ है। आखिर गलतियों का सामना और स्वीकार से से ही भविष्य की संभावना का रास्ता खुलता है पर इतनी से बात कोई समझे तो न! (23052016)


सही कहें, ये बुद्धि से जीविका कमाने वाले एक और वीर पुरुष आशीष नंदी भी गुजरात के बारे में लिखकर अब अदालत में माफीनामा लिए पहुँच गए हैं। 
इनसे अच्छे तो देह बेचने वाली हैं, कम से कम ईमान तो नहीं बेचती। इन बुद्धि की बलिहारी पुरुषों का क्या है, जब कमान में होते हैं तो नीचे वालों को पेट भर खाना क्या कपड़े भी पहनने से मोहताज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। 
जब खुद बेताज हो जाते हैं और अपनी रोटी कमानी पड़ती है तब सर्वहारा की बात करने लग जाते हैं। 
हिन्दी पत्रकारिता में तो ऐसे कई राम रत्न हैं जो कंठी-माला, लाला की जपते हैं पर नाम मार्क्स का लेते हैं। (22052016)

केरल में बुजुर्ग कामरेड वी एस अच्युतानंदन को "वृद्ध निकाला"।
मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा को "आयु" के लाल सत्ता के मापदंड की नाम पर अस्वीकृत कर दिया गया।
अभी तक तो यही पता था कि सर्प अपने बच्चे की अंडों को भी नहीं छोड़ता पर
लाल क्रांति भी जीत के बाद सबसे पहले अपने ही वरिष्ठतम अनुयायी को शिकार बनाती है, आज देख भी लिया।
केंद्र में भाजपा सरकार के गठन में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मुरली मनोहर जोशी को मंत्रिमंडल में न लिए जाने के मामले में गला फाड़-फाड़ कर "रुदाली" बने लाल कलम वाले क्रांतिवीर अब मौन जड़वत हो जाएंगे मानो अहिल्या हो। 
अचानक खुशवंत सिंह के उपन्यास "दिल्ली" का एक कथन याद हो आया कि दोगलों से तो हिजड़ा भला! गौरतलब है कि इस उपन्यास में सरदारजी ने एक हिजड़े के माध्यम से दिल्ली-दिल्लीवालों के दोहरे चरित्र को उजागर किया है। (22052016)

कैसा प्रगतिशील समाज?
इस मामले (केरल में राजनीतिक विरोधियों की हत्या) को लेकर बात-बात में खुला पत्र लिखने वाले हिंदी के वीर साहित्यिक चारणों की चुप्पी सही में हैरतअंगेज़ है इस पर न कोई बोला और न ही किसी को कोई खतरा लगा, क्यों न हो आखिर मौन भी तो एक तरह की स्वीकृति ही है ।
लाख टके का सवाल है कि आखिर हम विचारों की अभिव्यक्ति, कला-साहित्य के प्रति सम्मान, और स्वतंत्रता किसी भी तरह की सम्भावना से रहित कैसा प्रगतिशील समाज गढ़ रहे है ?(22052016)

वैसे अचरज कि बात यह है कि जो जितना बड़ा मार्क्सवादी बुद्धिजीवी होने का दावा करता है, वह उतने ही बड़े पूंजीवादी घराने का कलम का सिपाही है। आखिर देह से बुद्धि तक जीविका का उपार्जन हैं तो पराश्रित ही।(22052016)

सही है, केरल में "मार्क्स" के वाद को नहीं मानने वालों की हत्या हो रही है तो बोर्ड परीक्षा में "मार्क" नहीं लाने वाले वाले आत्महत्या कर रहे हैं। कुल जमा मतलब यही है कि विचार और परीक्षा के नाम पर नाहक ही बेगुनाह मनुष्य बलिवेदी पर चढ़ाएँ जा रहे हैं।
मजेदार यह है कि सनसनीखेज टीआरपी की अंधी दौड़ वाले टीवी चैनलों ये दोनों ही घटनाएँ नहीं दिखती।                      (22052016)

साजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है....

मजेदार है कि खुद सिफ़ारिश से गद्दी हथियाने वाले परिवार के नाम पर गद्दी पर काबिज होने की खिलाफत कर रहे हैं।
इसे कहते हैं खुद गुड़ खाएं और दूसरों को गुलगुलों से परहेज बताएं।
                                                                                          (21052016)

यह कहाँ आ गए हम?
पहले सड़क पर एक कार चालक फिर ऑफिस में पत्रकार और अब खुद पुलिस वाला!
मौत मानो छाँट-छाँटकर चुन रही हो।
अब कहने वाले कहेंगे कि बिहार में हो रहा है सो सब ज्ञान बाँट रहे हैं क्या दिल्ली-हरियाणा या राजस्थान कोई अछूते हैं।
सोलह आने सही बात।
पर दिल्ली के मीडिया में बिहार के दबदबे को देखकर ऐसा क्यों लगता है कि अपने प्रदेश को लेकर बौद्धिक टीवी बाबा तक दब जाते हैं!
अब यह दबाब भीतर का है या बाहर का यह तो वही जाने।
अपना कंट्री छोड़कर बिदेस में रोज टीवी पर खबर ऊँटाने वाले और खबर गिराने वाले अपने देस के धरातल से रसातल की ओर जाते देख बस भीष्म की मजबूरी से भला क्यों निहार रहे हैं?
इस पर न कोई बड़ी बहस है और न कोई प्राइम टाइम!
मानो मागधों ने मान लिया है
"कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?"
                                                  (रामदास-रघुवीर सहाय) (14052016)


हिंदुओं के मृतक शरीर को दाह संस्कार के बाद 'फूलों' (अस्थियों) को जल में प्रवाहित/विसर्जित किया जाता है।
अन्य किसी मतालम्बियों में भी ऐसा होता हो या होने की संभावना होती हो तो ज्ञानवर्धन करें।
मैं तो बड़े ही भ्रम में हूँ!
सही में, भावना में व्यक्ति क्या से क्या कह जाता है?
जैसे माना जाता है कि यीशु ने सलीब पर चढ़ाते समय कहा था, "ईश्वर इन्हें क्षमा करना, यह नहीं जानते कि क्या कर रहे है।" (09052016)

"बिना खड़ग-बिना ढाल" के "आज़ादी" के गीत में कितने "क्रांतिकारी" फांसी के फंदे को चूमकर "भारत माता" के जैकारे के साथ झूल गए, इसका पता ही नहीं चलता!
अब इतिहास में देशभक्तों इस धारा के साथ सरस्वती नदी सरीखा व्यवहार यह अनजाने हुआ या जानबूझकर पता नहीं?
वैसे रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता 'समर शेष है' में लिखा है,
समर शेष है,
नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं,
समय लिखेगा उनका भी अपराध। (09052016)

कविता कोई खबर नहीं है कि टीवी पर मुंह उठाकर पढ़ दिया।
कविता को बाँचने से अधिक सली खुशी तो उस भाषा को जानने की होती है। (08052016)

बौद्धिक टीवी के बाबा दिल्ली में तो साइड लेने पर "असहिष्णुता" का राग आलाप रहे थे अब बिहार की गर्मी में सड़क पर साइड न देने पर आदमी को आम की तरह "टपकाने" पर गम के मारे गला रुद्ध गया है।
सही में गर्मी भी कमाल है!
एक इंसान से शैतान बनकर दूसरे आदमी को मार देता है मानो सड़क पर कोई आखेट चल रहा हो।
वही दूसरा सब कुछ कहने के नाम पर कुछ भी कहने से बचता है मानो टीवी पर खबर नहीं खेला (नाटक) चल रहा हो।
बिहार से याद आया कि उसी प्रदेश के रहने वाले और हिन्दी के बड़े कवि नागार्जुन ने इंग्लैंड की रानी के भारत आगमन पर लिखी कविता 'आओ रानी हम ढोएंगे पालकी हो' नामक एक कविता लिखी थी, जिसकी पंक्तियाँ थी,
"आओ रानी हम ढोएँगे तुम्हारी पालकी,
यही राय बनी है वीर जवाहरलाल की।"
वे आजादी के बाद एक ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के ज़माने से अपने समय तक भी अँग्रेजी साम्राज्यवाद की खुली आलोचना की।
यही कारण है कि नागार्जुन को हिन्दी की बजाए मैथिली पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था। वह बात अलग है कि नेहरू की काँग्रेस के राज में तब "असहिष्णुता" के राग का सिक्का मीडिया के बाज़ार में चला नहीं था। (08052016)

सुशासन की सड़क पर बहा खून!
मगध में "रोडरेज़" जातिवादी वर्चस्व का पैमाना है और उसमें होने वाली निर्दोष नागरिक की 'हत्या' सुशासन की प्रगति का बैरोमीटर!
विडम्बना है कि सड़क के विकास में आदमी अविकसित ही रह गया।
इस पर रायसीना का प्रगतिशील मीडिया क्लब और आभासी दुनिया में दलित-वंचित समाज का ठेकेदार गैंग बुर्का पहने रहेगा क्योंकि बोलने से 'तलाक' मिल जाएंगा। 
केरल से लेकर बिहार तक यही अंधी चुप्पी पसरी हुई है। 
न केरल की दलित लड़की की तार-तार हुई अस्मिता दिखेगी और न उसकी हत्या का लाल लहू! 
रायसीना का प्रगतिशील मीडिया क्लब में शामिल बिहारी भी बिहार के बारे में बुद्ध का बीच का मार्ग ही अपनाए रहता है। 
राजस्थान की भंवरी देवी से दिल्ली की निर्भया पर सामाजिक न्याय की तूती बजने वाले नीरा राडिया के टेप में उजागर टीवी की महिला पत्रकार से लेकर कन्हैया की चरण-वंदना पर मुखर बोल लड़खड़ा जाते हैं। 
लगता है कि रघुवीर सहाय ने आज के मगध की सड़क की सच को बहुत पहले जान लिया था। शायद इसीलिए उन्होने अपनी कविता "रामदास" में लिखा था, 

चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था, उसकी हत्या होगी

धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह, उस दिन उसकी हत्या होगी

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख कर के आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको, जिसकी तय था हत्या होगी

निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?

आज के बिहार में "सड़क और एक निर्दोष नागरिक" की स्थिति पर इस से सटीक टिप्पणी नहीं हो सकती। (08052016)

प्रगतिशील बिहारी पहेली या प्रश्न!
बिहार का ब्राह्मण और दलित के घर विवाह?
सही में, ऐसा मनमोहक स्वर्ण-मृग सरीखा सवाल (या जाल) कोई कुलीन ही कर सकता है। (05052016)

एक तस्वीर कितना कुछ कह देती है, अबोल रहकर भी।
अब पैर पड़ने और पैरों गिरने का फर्क समझ आया!
अनायास ही हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि की कविता याद आ गयी,
"छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन।" लाल सलाम वालों की "लाल किताब" में पैर छूना कहाँ लिखा है, किसी पढ़ाकू को पता हो तो ज्ञानवर्धन करें!  (01052016)

सायनोरा तो सुना था, यह सिगनोरा-सिगनोरा क्या है?
एक जापानी तो दूसरा इतालवी शब्द।
एक सिनेमाई विमर्श था और अब दूसरा नए भारतीय राजनीतिक विमर्श का केंद्र! (28042016)

घर पर अपना नाम-नंबर, शादी के निमंत्रण पत्र-लिफाफे से लेकर हस्ताक्षर तक अँग्रेजी में डूबे 'हिन्दी समाज' का हिस्सा ही है, ग़ालिब और उनकी हवेली! सो, अचरज कैसा?  (24042016)

"पनवाड़ी हो न"!
पत्रकारिता में सुपारी लेकर दूसरे को मारने का ठेका लेने वालों की निष्ठा हमेशा से संदिग्ध रही है, इसलिए वे संपादक बनकर नाचें या बिना संपादकी के उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सानू की?
लेकिन बौद्धिकता का दावा करने वालों से इतनी उम्मीद तो बनती है कि लिखा हुआ तो ठीक से पढ़ें!
उनसे इतना भी नहीं हो पाता.
सही में सुपारी लेने से कोई पनवाड़ी नहीं जाता!
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ने ऐसे ही एक बड़का पत्रकार के निर्लज्ज सवाल पर कहा था, "पनवाड़ी हो न"! (24042016)

प्रभु तुम चन्दन हम पानी...
फ़ेसबुक पर कुछ बुद्धिजीवी अपने लिए नहीं आलोचकों के लिए लिखते हैं, जैसे देह से जीविका अर्जित करने वाली समाज के हित में अपना बलिदान करती है। कितने महान हैं ऐसे फ़ेस-बुखिया बुद्धिजीवी!
उनको कोटि- कोटि नमन। (24042016)

आज के समय में वैचारिक प्रतिबध्दता की वजह से किसी दूसरे के चयन पर सवाल खड़े करने वालों की अपनी ईमानदारी संदिग्ध है ! व्यक्ति से लेकर मीडिया तक इस हमाम में सब नंगे हैं। (15042016)

अपना देस छोड़कर परदेश में घरौंदा बनाने में 'बिहारी' सबसे आगे हैं! पंजाब से लेकर केरल इसके साक्षात उदाहरण है।
देस तो दर्द में ही छूटता है, खुशी से भला कौन अपना बसा-बसाया घर-द्वार छोड़ता है।
राजस्थान की भक्त कवि मीरा बाई का प्रसिद्ध भजन है, "मेरा दर्द न जाना कोय"। (13042016)

ऐसे दोहरी जिंदगी जीने वाले असली की पात्र मीडिया में भी कम नहीं। 
छोटे पर्दे के काले सच की परछाई से एनडीटीवी भी अछूता नहीं। 
बस जो उजागर हो जाए वही टीवी पर चर्चा का विषय बन जाता है, नहीं तो वेज बोर्ड की खबर तो "हम लोग" से लेकर "सुर्खियों में" कहीं भी जगह नहीं पाती है। 
आज के मीडिया के महाभारत में एक नहीं, अनेक शिखंडी हैं। (01042016)

नाखुदा वालों को भी खुदा याद आया!
प्रगतिशील बुद्धिजीवी सत्ता तंत्र से खुद को जुदा बता रहा है। 
उसी सत्ता तंत्र के सांसद के जिसके हाथों बुर्का पहने निर्लज्ज प्रगतिशील बुद्धिजीवी ने गोरखपुर में पुरस्कार लिया था। 
अहंकारी सत्ता की अंकशायनी बना था साहित्य! 
इतना कड़वा सच तो मूर्ति क्या, धरती के रसातल में भी समा जाएँ तो गनीमत। हर पाप का प्रायश्चित है, अगर वह सच्चे मन से हैं।
"छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन"। (01042016)

आधुनिक जीवन में परिवार और बच्चों के बीच की दूरी और उससे उपजा अकेलापन निराशा को जन्म देता है।
यह निराशा ही बच्चों को आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम की ओर धकेलती है।
आज के स्कूल प्रणाली में नंबरों की चूहा दौड़ में प्रत्यूषा हों या नौवीं में गणित के पर्चे में फ़ेल हुई बच्ची, दोनों की जिंदगी का त्रासद अंत का निचोड़ यही है।
मीडिया की नज़र नुक्ते से ही हटी है, सो दुर्घटना घटी है। (01042016)

पश्चिम बंगाल में लाल दौर में शुरू हुआ फ्लाईओवर बमुश्किल बना ही था कि तृणमूल के बोझ तले आज अधूरा ही गिर गया!
लाल क्रांति का उत्तर-काल सही में कलकत्ता पर भारी है।
असमय काल-कालवित सभी आत्माओं को श्र्द्धांजलि!
वैसे संस्कृत का एक पुराना श्लोक की स्मृति हो आई, "राजा कालस्य कारणम्"!
पूरा श्लोक है,
कालो वा कारणं राज्ञो, राजा वा काल कारणम् ।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम् ।
(काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का कारण है, इसमें संशय नहीं करना चाहिए, वस्तुतः राजा ही काल का कारण है, क्योंकि राजा की उत्तम प्रशासन से ही प्रजा और राज्य सुखी हो सकते हैं और राजा के कुशासन से सब ओर दुख ही दुख फैल जाता है।) (31032016)

शून्य में समाया विराट!
नो बोल का कमाल, वेस्ट इंडीज को कर दिया न्याल!
(राजस्थानी में न्याल शब्द का अर्थ भरा-पूरा होता है) (31032016)

क्रिकेट में भारत की हार की कामना रखने वाले को "आशीष नंदी" कहते हैं!
जीत की कामना रखने वाला आम भारतीय का पता करना हो तो अभी के सोशल मीडिया पर उनका स्टेटस देख ले।
फिर यह न कहना की यह भी राष्ट्रवादियों का प्रपंच है।
वैसे 'खेल भावना' का रुदाली गायन और वेस्ट इंडीज के इतिहास की महानता का बखान भी होगा सो निराश न हो।
वैसे ये वही हैं, जो छत्तीसगढ़ में माओवादी आतंक के शिकार सुरक्षाबलों के मातम में गूंगे हो जाते हैं। (31032016)

आनंदित करने वाली आस्था अंधविश्वास नहीं होती! 
पर मीडिया अपनी टीआरपी की अंधता में आस्था को अंधविश्वास बनाकर बेचता है।
अंधा खुद राह दिखाने का दावा करता है। 
हाथी और अंधों की कहानी याद है, न! (28032016)

ध्यान से देखें, पाकिस्तान के गम में 'रुदाली' गान में शामिल लोग और मीडिया, क्या मुंबई धमाकों से लेकर संसद और पठानकोट हमले में पाकिस्तान समर्थित आतंक के शिकार तक बेकसूर भारतीयों के लहू बहने पर इतना ही गमहीन और मुखर था!
आखिर समय रहते इस 'शल्य ग्रंथि' का ईलाज जरूरी है, नहीं तो महाभारत में स्वजन के विरुद्ध हथियार उठाने की हिन्दू परंपरा तो जग-जाहिर है।(28032016)

दबाब में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला खिलाड़ी ही महान होता है।
पूरा मैच ही खत्म करते हैं, कोहली।
आज एक रोल मॉडल है, विराट कोहली।
ताकत से ज्यादा टाइमिंग का खेल है, (विराट) कोहली का।
दस मैच में वन मैन आर्मी की तरह खेले हैं, कोहली।
-वीवीएस लक्ष्मण, ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ विराट कोहली की बेहतरीन बल्लेबाजी पर (28032016)

वाम के नाम पर अपनी वामांगी को सत्ता पुरुष की अंकशायनी बनाने वाला अब विचार (या अपने व्याभिचार) की दुहाई दे रहा है।
सच में वाम के डीएनए में ही दोगलापन है।
हिन्दी साहित्य से लेकर हिन्दी पत्रकारिता के झंडाबदारों के सार्वजनिक आचरण से तो यही पता चलता है।
इन कुल-कलंकों के नाम तो वामी ही बात देंगे! (28032016)

कब आओगे?
'जाति' पूछने वाले मेरे टीवी के क़द्रदान, 'महजब' कब पूछोगे?
'हम लोग' कुछ 'बड़ी बहस' भी करेंगे? 
(दिल्ली की विकासपुरी डॉक्टर नारंग की निर्दोष हत्या के बाद मन में सहज सवाल कौंधा!)  (27032016)

90 के दशक में मदर टेरेसा गोल मार्केट (नयी दिल्ली) में हिन्दू दलितों को ईसाइयत में धर्मांतरित होने पर 'आरक्षण' से वंचित रहने के विरोध में धरने पर बैठी थी। यहाँ तक की कैथॉलिक बिशप चर्च ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) ने टेरेसा के 'समर्थन' में अपने सभी संचालित स्कूलों को भी बंद कर दिया था।
संविधान में आरक्षण हिन्दू जाति व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता के शिकार समाज के बंधुओं को दिया गया था न कि ईसाई धर्मांतरित व्यक्तियों के लिए।
वैसे भी वैश्विक चर्च "जाति" को स्वीकृति देता ही कहाँ है?
अगर हिन्दू से ईसाई बनने के बाद भी "जाति" ही कायम है तो फिर जिम्मेदार कौन?
अब इस सवाल का जवाब तो "चर्च" ही दे सकता है!
देश में ईसाई पंथ की फादर-बिशप वाली पंथिक व्यवस्था में "दलितों" के प्रतिनिधित्व का "आंकड़ा" क्या है, यह जानना मीडिया के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय-समरसता के लिए जरूरी भी है।  (17032016)

एक भारत में 'ज़्यादा प्यार' तो दूसरे को भारत माता के जय से 'इंकार' पर तीखी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
दोनों में मामलों में समानता यह है कि दोनों 'मुसलमान' है और उनकी 'देशभक्ति' पर सवालिया निशान है।
टीआरपी के लिए अनुकूल जानकार तीखा मिर्च-मसाला लगाकर मीडिया ने भी इनके मामलों को पूरा तूल दे दिया है। (15032016)


स्त्री को दूसरे की दासी मानने वाले!

इस्लामिक स्टेट की बलात बंदी और यौन अत्याचार की शिकार यज़ीदी महिलाओं को "यौन दासी" (सेक्स स्लेव) बताना एकेश्वरवादी महजबों की स्त्री स्वातंत्र विरोधी (महिला को संपत्ति मानने की अवधारणा) मानसिकता का पर्याय है।

'न्यूयॉर्क टाइम्स' और 'बीबीसी' जैसे 'आधुनिक' पश्चिमी संचार साधन भी स्त्री के प्रति सोच में आईएस के समान ही नज़र आते हैं।
'न्यूयॉर्क टाइम्स' और 'बीबीसी' की यज़ीदी महिलाओं से संबंधित समाचार तो इसी सोच को उजागर करते हैं।
अचरज नहीं कि बाइबिल में स्त्री के उत्पन होने की अवधारणा को पढ़ने पर इस दृष्टि का ऐतिहासिक-पंथिक पक्ष स्वयं ही प्रकट होता है।(14032016)


प्रसिद्ध हिन्दी लेखक अमृत लाल नागर ने जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक "भारत एक खोज" की समीक्षा में लिखा था, "यह भारत एक खोज नहीं बल्कि नेहरू की भारत की खोज है।"(14032016)

अभी हाल में ही बिहार में 115 महादलित के घर फूँक दिए गए लेकिन कामरेडों के कन्हैया की बांसुरी चुप है और फ़ेसबुक पर दिन-भर दलितों का मार्गदर्शन करने वाले और पीछे से पिछड़े नेता की आभासी दुनिया चलाने वाले गांधीजी के तीन बंदरों में बदल चुके हैं मानो बिहार देश का हिस्सा ही नहीं। यही सब अपने-अपने समाज के 'शल्य' हैं जो उसे 'हीन भावना' से ऊपर उठने नहीं देते और अपना उल्लू-सीधा करने के लिए किसी भी गैर-जात नेता-संपादक के आगे लेट भी जाते हैं और लोट भी जाते हैं।  (14032016)


मन-वचन-कर्म का अंतर ही तो कथित ऊंचे लोगों को भरमाए हुए हैं, नहीं "ऊंचे लोग-ऊंची पसंद" तो मीडिया में पान मसाला के विज्ञापन की टैगलाइन तक ही सीमित हो गया है। (14032016)


सबके अप टू डेट की रिपोर्टिग करने वाला मीडिया, चारा चोरी का नियमित अपडेट क्यों नहीं देता है ? (13032016)


अनुपम मुक़ाबला 

गुजरी सरकारों, चाहे केंद्र की हो या राज्य की, से तमगा, मकान-अस्पताल की जमीन और उच्च शिक्षा की दुकानों में चौकीदारी पाने वाले 'खेर' पर खीज़ उतार रहे हैं।
स्वाभाविक है, मुक़ाबला किसे अच्छा लगता है?
अभिनेता-पत्रकार का मुक़ाबला वैसे तो बराबर का नहीं है।
पर अच्छा है कि यहाँ भी 'मोनोपोली' खत्म हो गई सो मुखौटे-लंगोट दोनों उतरेंगे।
नंगे होने का दौर है, दूसरे को नंगा करने की होड़ में खुद नंगा होने को नहीं देख रहा है। (13032016)


संस्कृति, मजहब, राष्ट्रवाद का वामपंथ से क्या नाता? आखिर मीडिया में यह सवाल कोई पूछता क्यों नहीं? (12032016)

खुले में लघु शंका करने वाला सेना पर शंका पैदा कर रहा है! आखिर सतीत्व पर सवालिया निशान तो वेश्या ही लगाती है? (11032016)


आईने को अपनी ही तस्वीर नहीं दिखती है, अब यह उसकी किस्मत है या बदकिस्मती यह तो राम जाने! (07032016)


देश को जेहादी मुस्लिम उग्रवाद से लेकर लाल गलियारे के आतंक से कब "आजादी" मिलेगी?
लाख टके का सवाल है कि भारत की एकता-अखंडता के विरोधी और देशद्रोही मानसिकता वाली समूची जमात "संविधान", "मानवाधिकार", "सामाजिक न्याय" की आड़ में अखिल भारतीय भाव को नष्ट करने के लिए सक्रिय है।
इस जमात में कैसे-कैसे लोग हैं!
एक हिन्दी के कथित बड़े साहित्यकार हैं, जिन्होने साहित्य के मुख्यधारा में आने के लिए घर की लक्ष्मी को ही प्रगतिशीलता के फेर में अफसर-साहित्यकार की अंकशायनी बना दिया।
एक भाषणवीर है, जिसके अपने ही प्रदेश में उसकी जाति वालों ने पिछड़ी जाति को को दुनिया से मुक्त करने के लिए रण छेड़ दिया और इसके लिए बाकायदा एक सेना बना ली।पहले जो मुसलमान का नहीं हुआ तो फिर वह पिछड़ा-दलित का कैसे होगा, यह सोचने का सवाल है?

पर सवाल करेगा कौन?

बात-बात में दूसरे की "जात" पूछने वाले हम लोग के बड़का पत्रकार ने कभी इनकी जाति नहीं पूछी और न ही इनके जातिवालों के "छह इंच छोटा करने के इंसाफ" का बखान किया। (05032016)


आखिर एक ही 'कंट्री' का होने के कारण इतनी "भाईबंदी" तो बनती है।(05032016)

जेल यात्रा के बाद बदले-बदले सरकार नज़र आते हैं! 

जेहादी मुस्लिम आतंकी से लेकर आजाद कश्मीर तक बदले सुर मन से हैं या मुखौटे के, यह तो आने वाला समय ही खुलासा करेगा। इस मौके पर अँग्रेजी में पढ़ी एक बात याद आ गई, "शैतान भी कुरान की आयतें पढ़ता है।"

अब यह शैतान की चालाकी है या कुरान का असर आप बताओ? (05032016)

श्रवण कुमार की परंपरा वाले इस देश में बूढ़े अशक्त पिता और नौकरीपेशा माँ का सहारा बनने की बजाए उनकी बैसाखियों पर टिके नौजवान से देश-समाज को भरमाने का सपना कितना बेमानी है?
लाल झंडे के परचम और क्रांति के नाम पर परिवार के दायित्व से भागने वाले जेहादी भगोड़े की नायक के रूप में प्रतिष्ठित करने की छिछली कोशिश मीडिया, खास कर टीवी में वाम-बौद्धिक अतिरेकता का एक अनुपम उदाहरण है।
यह भारतीय समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक उपयुक्त विषय हो सकता है। (05032016)

फ़ेस बुक पर दूसरे की वाल से उठाकर टीपने की बीमारी छूत के रोग की तरह है, बौद्धिक उठाईगीरी! (24022016)

सरकारी पद-प्रभाव से हिन्दी साहित्य संसार में सत्ता-सुरा-सुंदरी के उपासक रहे अब नैतिकता-शुचिता-स्वतन्त्रता की नई परिभाषा समझा रहे हैं।

यह हिन्दी से ज्यादा यह उसके साहित्यकारों, कुछ अपवादों को छोड़कर, की विडंबना है कि तब भी वे सरकारी सत्ता के सम्मुख नतमस्तक थे और आज भी अहसानों के बोझ तले दबे सो अब भी झेल रहे हैं।
वैसे भी राज-दरबार में भांड-मीरासी को गाने पर ही खाना मिलता है, सिर्फ खाएँगे और गाएँगे नहीं तो कोई भी राजा कहाँ आश्रय देता है।
यह तो देश की आजादी के बाद से ही काबिज रही सत्ताओं-दरबारियों के इतिहास को देखने से साफ ही पता चलता है।(21022016)

ये भी कोई देश है, महाराज!

सही में जलवायु परिवर्तन का ही कमाल है।
टीवी स्टुडियो में अपने मातहत पत्रकार को गुलाम मानकर 'माँ-बहन' को याद करने वाले सौम्यता की बात कह रहे हैं।
आज तक कभी किसी टीवी चैनल-प्रमुख ने कभी भी अपने साथी-पत्रकारों के वेतन-आयोग के अनुरूप वेतन न देने के सवाल पर ब्लैक-आउट नहीं किया।
बिना बताए लिव-इन में रहने वाले, परिवार-संस्कार की दुहाई दे रहे हैं।
इतना ही नहीं, प्रगतिशीलता के तमगे के साथ ससुर के प्रभाव से अपना रंग जमाने वाले भी अपने को अब हिन्दू बता रहे हैं। सही में सहूलियत पसंद साथ शायद इसी को कहते है।

अपने भाई-भतीजों को 'पार्टी' से चुनाव लड़वाकर 'निष्पक्षता' का हिजाब ओढ़ने वाले अब घूँघट की अच्छाई पर बोलने लगे हैं। पहले की सरकारों की ओर से बेवजह विश्व विद्यालयों की विद्वत-परिषद और प्रोफेसर बनाए जाने वाले अब विश्व विद्यालयों की हर नियुक्ति में वजह ढूंढने लगे हैं।

दिल्ली के प्रैस क्लब में ब्रह्मोस (ब्रह्मपुत्र-मॉस्को दोनदियों के नाम पर) की मिसाइल की प्रतिकृति को राष्ट्रवाद का राक्षस मानकर तोड़ने वाले न केवल अपनी देशभक्ति का प्रमाण दे रहे हैं बल्कि दूसरों की देशभक्ति की भी जांच में जुट गए हैं। और तो और इस चक्कर में वहाँ तो टीवी स्क्रीन से पहले ही ब्लैक आउट किया गया। फिर न महफिल जमी, न जाम टकराएँ!

और तो और लाल झंडे वाले अपने को हनुमानजी का लाल लंगोटधारी बता रहे हैं, लगता है वे भी अमेरिका से प्रेरित है, जहां अमेरिकी नागरिक अपने झंडे का ही अंगवस्त्र पहनते है।(21022016)


बाहरी ताकतों का षडयंत्र ही लगता है, नहीं तो भारत की भक्ति तो मानो बीते समय की बात होने लगी थी। (21022016)


पत्रकारिता खासकर खबरिया टीवी चैनलों के एंकर अक्सर नेताओं को पछाड़ने के लिए उनकी निजी जिंदगी को सवाल बनाकर सार्वजनिक करते हैं, मानो कोई बहुत बड़ी खोजी पत्रकारिता कर रही हो ! वह तो हमारे नेताओं की शराफत है या अनजानापन कि उनमें से किसी ने भी कभी पलट कर शादीशुदा होकर कुँवारा कहलाने या अपनी शादी की गिनती को छुपाने वाले टीवी स्क्रीन के चमकदार सितारों से उनके वैवाहिक स्थिति के विषय में प्रति-प्रश्न नहीं किया! (20022016)

लो, अब खुद को भी किन्तु-परंतु और तुलनात्मक रूप से "देशद्रोही" बताना नया शगल हो गया !
वैसे किताब बेचने के लिए 'भक्त' भी हो जाते है, लोग।
जाने कैसे-कैसे नकाब चेहरे पर लगा लेते हैं, लोग। (20022016)

देश के प्रति स्नेह-भाव, भावना न होकर बिजली का वोल्टेज हो गया, जब मर्जी सुविधा के हिसाब से ऊपर-नीचे करते रहो। (20022016)

दिल्ली का (लाल) सच ! 

लोकसभा चुनाव, 2014 में कामरेड पार्टी को दिल्ली में कुल 4475 (0.05 प्रतिशत) मत मिले थे। इसके उलट, स्वतंत्र उम्मीदवारों ने अकेले अपने-अपने दम पर कुल 261664 (3.18 प्रतिशत) मत हासिल कर लिए थे। (20022016)


अब पत्रकारिता का प्रस्थान बिन्दु नीरा राडिया प्रकरण है। उस समय एक इस पर घोर अंधेरे में मुंह सिले हुए थे तो कुछ मुखर थे! आज स्थिति में परिवर्तन है, सिले ओंठ वाचाल है और आवाज वालों को अंधेरे में ठेलने का प्रपंच है। (20022016)

हर रंग कुछ कहता है।
रतौंदी के शिकार 'रंग' देखने लगे हैं, चलो फिर 'काला' ही सही।
वैसे भी रंग शास्त्र में 'काला' तो मूल रंग है। (19022016)

इतना अंधेरा क्यों है भाई!
राडिया पत्रकारिता की कालिमा के चाँद चैनल की अमावस्या तो होनी ही थी। अँधेरा दूसरों के लिए ही नहीं बल्कि खुद को भी अँधा कर देता है, कुछ आँख के अंधे होते हैं तो कुछ अक्ल के। (19022016)


लो, अब खुद को भी किन्तु-परंतु और तुलनात्मक रूप से "देशद्रोही" बताना नया शगल हो गया !
वैसे किताब बेचने के लिए 'भक्त' भी हो जाते है, लोग।
जाने कैसे-कैसे नकाब चेहरे पर लगा लेते हैं, लोग।
देश के प्रति स्नेह-भाव, भावना न होकर बिजली का वोल्टेज हो गया, जब मर्जी सुविधा के हिसाब से ऊपर-नीचे करते रहो। (19022016)

लाल रंग की बदलती दुनिया !

"जान से प्यारा पाकिस्तान" से जान से प्यारा जे एन यू तक! (18022016)

निर्जीव से ज्यादा सजीव का मोह होता है!

घर की माँ-बहन-बेटी का सम्मान हमें देश यानि भारत माता के अपमान जितना नहीं प्यारा होता!

आज आईआईएमसी के अपने बैच के एक साथी के टीवी कार्यक्रम को देखकर यही आभास हुआ।
हम सब अपने में कितना आत्म केन्द्रित या कहें तो सिमट गए हैं!
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में लिखा है कि उनकी सभाओं में जब भी नारा लगता है, ‘भारत माता की जय’, वह लोगों से पूछते हैं कि ‘कौन है यह भारत माता, जिसकी जय का नारा लगा रहे हैं, जिसकी जय हम सब चाहते हैं?’ और फिर नेहरू लिखते हैं कि वह लोगों को बताते थे, ‘आप सब लोग स्वयं है भारत माता, हिन्दुस्तान का एक-एक इंसान है भारत माता, भारत माता की जय का असली मतलब यही है कि साधारण हिन्दुस्तानियों की जय हो’। (18022016)

आर-पार
नंगों के साथ लंगोट पहनकर लड़ाई नहीं जीती जा सकती! (17022016)

"नीरा राडिया स्कूल ऑफ जर्नलिज़्म के छात्र" और 'नैतिकता' की दुहाई!
यह तो अभिमन्यु को घेर कर मारने में शामिल कर्ण के अपने रथ के पहिए के फंस जाने पर दुहाई के समान है।
द्रौपदी के अपमान और अभिमन्यु की हत्या का मूल्य तो चुकाना होता है, महाभारत की कथा यही बताती है। (17022016)

अनलॉफुल असेंबली मतलब गैरकानूनी जमावड़ा !
सो इसमें देश के प्रति प्रेम की आवाज़ की उम्मीद रखना नाउम्मीदी से ज्यादा कुछ नहीं!
गेंहू के साथ घुन पीसने की कहावत तो बरसों पुरानी है।
'नरों वा कुंजरो वा'
नीरा राडिया पत्रकारिता के पैरोकार और शुचिता की बात !(17022016)

जाति के जमात का जाहिलपना
सच्ची घटना-आंकड़ों पर आधारित पोस्टों से 'जमात' के झंडाबदार गुस्से में 'झाग' छोड़ने लग जाते हैं।
फिर ऐसे में, गुस्से में किसी का क्या बुरा मानना!
बेवजह दूसरे को गाली-गलौच 'छोटेपन' को सहज ही उजागर कर देता है।
फिर हम कहते है 'जाति' जाती क्यों नहीं?
आखिर यह जाहिलपना आता कहाँ से है? (15022016)

मीडिया के कुछ मित्र खुद ही सवाल के रूप में "दूर की कौड़ी" ढूंढ लाते हैं और फिर "अपने को ही" चमकाने के लिए पूर्व में बड़े राजनीतिक पद पर रहे सजायाफ्ता का चेहरा लगाकर "सवाल" पूछने लग जाते हैं!
और तो और आभारी भी हो जाते हैं!
यह देखकर मन में अनायास याद हो आया, मशहूर शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर की गाई प्रसिद्ध कबीर भजन की कुछ पंक्तियाँ,
" घट-घट पंछी बोलता,
आप ही डंडी,
आप तराजू,
आप ही बैठा तोलता...
अब ऐसा आचरण स्वभावगत है, जातिगत है या रणनीतिगत, यह तो व्यक्ति स्वयं ही बेहतर बता सकता है।
प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में कहें तो
ना निरापद कोई नहीं है
न तुम, न मैं, न वे
न वे, न मैं, न तुम
सबके पीछे बंधी है दुम आसक्ति की!
आसक्ति के आनन्द का छंद ऐसा ही है
इसकी दुम पर
पैसा है! (निरापद कोई नहीं है) (14022016)

जेएनयू परिसर में भारत से कश्मीर को 'आजाद' करवाने वाला नारा लगाने वालों की जुबान, पाक 'गुलाम' कश्मीर पर हकलाने क्यों लग जाती है?
पश्चिम बंगाल से लेकर केरल में लाल का हरा प्रेम तो जाहिर था, अब देश के प्रति 'द्रोह' पर पर ' निष्ठा' भी जगजाहिर हो गई।
प्रसिद्ध पत्रकार-संपादक प्रभाष जोशी के शब्दों में कहा जाएँ तो "हमें भूलना नहीं चाहिए कि धर्म के आधार पर इस देश का विभाजन उन मुसलमानों ने नहीं करवाया जो मुस्लिम बहुल प्रदेशों में रहते थे। यह विभाजन उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की सांप्रदायिकता के कारण हुआ जहां गंगा-जमनी संस्कृति की सबसे ज्यादा बातें होती थीं।" (13022016)

"भारत की बरबादी तक जंग जारी रहेगी" वाले प्रगतिशील बौद्धिक 'पाक-जियारत' पर निकल जाएँ तो नापाकों से यह धरती भी पाक हो।
देश की माटी की ही न होने वाले लाल-हरा-नीला कोई भी भेस धरे, जन्नत तो आसमान में भी नसीब नहीं होगी।
जो अपनी धरती का ही नहीं हुआ, किसी का क्या होगा! (13022016)

लोकतन्त्र में आलोचना का अधिकार तो सर्वमान्य है पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर राष्ट्र को खंडित करने के विचार-व्यवहार की अनुमति तो संविधान में भी निहित नहीं है। राष्ट्र की अखंडता को खंडित करने का विचार-व्यवहार 'राष्ट्र द्रोह' ही कहलाता है। इसमें को रत्ती-भर भी संशय नहीं है। किसी को है तो बताएं। (13022016)

डीएनए में ही"राष्ट्र से द्रोह"
गांधी से लेकर सुभाष तक,
पाकिस्तान निर्माण से लेकर चीन आक्रमण तक !
इतिहास हमें यह सिखाता है कि हम उससे कुछ नहीं सीखते। (13022016)

अपना 'महजब' छिपाने वाले भला क्योंकर दूसरों की 'डिग्री' जानने की अजब चाहत रखते हैं?
सच में 'चाहना' बड़ी 'मोहना' है, चाहत का मोह सही में अपने सही-गलत को भी नहीं देखने देता।
मानो 'महजब' बुर्का हो गया और 'डिग्री' घूँघट!
एक हट नहीं सकता और दूसरा करना पाप।
मीडिया को एक दिखता नहीं और दूसरे से ध्यान हटता नहीं।
गिरिजा कुमार माथुर के शब्दों में, "छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन"।
सही में, इतना 'अंधेरा' क्यों है। 'दीया' कोई क्यों जलाता नहीं (30012016)

भगत सिंह पर गांधीजी के रूप में काँग्रेस का शीर्ष नेतृत्व मौन था और आजाद हिन्द फौज का मुकदमा भूला भाई देसाई की अगुवाई में लड़ा गया था। 1942 में कम्यूनिस्ट पार्टी की अंग्रेज़ परस्त दोगली भूमिका जगजाहिर है। इसके लिए शीर्ष कम्यूनिस्ट नेता "मोहित सेन की आत्मकथा" और ज्यादा के लिए अरुण शौरी की "द ओन्ली फादरलैंड" ही पर्याप्त है। इतना ही नहीं पाकिस्तान के विचार को बौद्धिक खुराक-खाद देने वाले कॉमरेडों को वहाँ इस्लाम और अल्लाह विरोधी होने के नाम पर सबसे पहले निपटाया गया। ऐसे में, जिनका दामन खुद दागदार हो, उन्हें दूसरों की कमीज के दाग नहीं गिनाने चाहिए। (25012016)

कोई बड़ा पत्रकार अपवाद नहीं है। जब टीवी स्टुडियो में बुलाया जाता है तो कोई कुछ नहीं कहता और जब बुलावा बंद हो जाता है तो फिर वही 'खटराग'। दूसरे की तरह अंगुली करने वाला बड़का पत्रकार, अपनी तरह मुड़ी तीन अंगुलियाँ नहीं देखता या देखना ही नहीं चाहता? इन दोनों स्थितियों से पत्रकार के मानस का आभास हो जाता है। ऐसे में, 'रतौंदी' रोगी से रंग की पहचान करने की उम्मीद रखना ही निरर्थक है। (25012016)

जब देश के बड़े मीडिया संस्थानों के ब्राह्मण यानि की सिरमौर 'संपादकों' को मीडिया-मालिक लात मारकर निकाल बाहर करते हैं तो ऐसे में वे असहिष्णुता का राग नहीं अलापते। बोरी बंदर से लेकर मद्रास के शीर्ष अँग्रेजी अखबारों के शीर्ष प्रबंधन ने जितने स्वानामधन्य असहिष्णुता-विरोधी 'संपादकों' को लतियाया किसी ने भी अपनी रोजी-रोटी के छीनने पर विरोध की आवाज़ बुलंद नहीं की। न ही संपादकों के संस्था को इसमें कुछ गलत नज़र आया, न ही उसके लिए बयान जारी हुआ। ऐसे में निर्मल वर्मा की आपातकाल के दौरान अपने अनुभव पर कही बात याद आती है, "प्रेस के कायरतापूर्ण व्यवहार से मुझे बहुत हैरानी हुई, आघात पहुंचा । हमें जरा भी उम्मीद नहीं थी कि वह ऐसे भीगी बिल्ली बनकर सेंसर व्यवस्था और अन्य अपमानजक शर्तों के समक्ष समर्पण कर देगा।"(2301016)

इतिहास में से किस्से-कहानी बनते हैं और किस्से-कहानियों का अपना इतिहास होता है। वेद-पुराणों का संबंध कुछ ऐसा ही है। अगर आज के संदर्भ में देखे तो सुबह के अखबारों में जो छपता है, वह दिन भर टीवी चैनलों पर रात तक चलता है। (2301016)

पिछली सरकारों ने कौन सा आलोचकों को विभूषित किया था, और किसने पदम पहनकर पैर नहीं दबाएँ थे! मगध में विचारों की कमी शुरू से है, सो अब कुछ नया होगा ऐसा सोचना बेमानी है।
सरकार का सरोकार और सहमति से कब संबंध रहा है, तो फिर आप काहे आत्म मोह से ग्रसित है ?
परंपरा स्वस्थ होती है, रुढ़ि व्याधि होती है, जिसका शमन जरूरी है।
हम ऐसे भ्रम में न रहे तो ही बेहतर है, बाकी आत्मश्लाघा भाव के लिए हर कोई स्वतंत्र है! संकोच स्वभाव हो सकता है, चुनाव नहीं। गुसलखाने में आप ही फिसलेंगे और मैं नहीं, मेरी ऐसी सोच नहीं। साँप को केसर युक्त-मीठा दूध पिलाने पर भी मिलेगा विषैला जहर ही। सो सत्ता से सहजता की उम्मीद न करना ही बेहतर है। बाकी पदम्-पुरस्कार तो 'राय बहादुर' की अंग्रेज़ उपाधि का ही गांधी-नेहरू संस्करण है तो फिर ऐसे में कोई भी आशा रखना निरर्थक है।(2301016)

एक कथित बौद्धिक खबरिया चैनल की वेबसाईट पर नयनतारा सहगल से लेकर नन्द भारद्वाज के साहित्य अकादेमी सम्मान लौटने का समाचार, अभी तक कोई समाचार नहीं है!
चहुंओर मौन है, एंकर से लेकर वैबसाइट तक।
क्या "हम लोग" किसी "प्राइम टाइम" पर किसी "बड़ी बहस" का इंतज़ार करें!
कोई ट्वीट भी नहीं है!
एक शादी को लेकर सवाल खड़े करने वाले को अपनी बिरादरी में "बिन फेरे हम तेरे" वालों से सवाल पूछना भी गंवारा नहीं। (2201016)

नीरा राडिया से लेकर चैनल की कर चोरी के मामले में 'चुप्पी' वाले ही 'मौन' पर सवाल खड़ा कर रहे हैं, कुछ समझ नहीं आया?
पर उपदेश बहुतरे! (2201016)

बीबीसी हिन्दी में 'एयरलिफ़्ट' की फिल्म समीक्षा में समीक्षक ने "मुझे खेद है कि एक यथार्थवादी फ़िल्म में ऐसा खराब शोध महज़ आपको उन बॉलीवुड फ़िल्मों की ही याद दिलाता है, जिनमें एक दूसरे दर्ज़े का इंस्पेक्टर पूरे शहर का बॉस होता है" की बात लिखी है।
पर "कोहली साहब विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव हैं (जो आईएएस श्रेणी में काफ़ी ऊंचा पद होता है)" लिखकर यह साबित कर दिया है कि वह भी ऐसी श्रेणी का ही फिल्मी-पत्रकार है। वह इसलिए की विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव आईएएस नहीं आईएफएस यानि भारतीय विदेश सेवा का होता है। अब ऐसे में फिल्मी पत्रकार और फिल्म के पत्रकार का अंतर समझ में आता है। (2201016)

धर्म हो साहित्य या बुद्धिजीवी बिक तो सभी रहे है, मेले में ! जिसके पास टका है, मोल करके खरीद रहा है, सो इसमें इतराना कैसा और बताना क्या? (1701016)

जब इंटरनेट के माध्यम से संवाद के सार्वजनिक मंच पर खुद को गाली और आलोचनाओं के डर से चुप बैठ जाने वाले लोगों की परंपरा से विलग मानने वाले जब स्वयं ही दूसरों की आलोचना की बजाय गाली देने का काम करने लगे तो फिर ऐसे क्या कहाँ जाएँ ?
डरपोक, दोगला या मासूम !(1701016)

आज विश्व पुस्तक मेले में "राजस्थान पत्रिका" के पुस्तक स्टाल पर कुछ पुस्तकें खरीदने पर जब उसने पूछा कि "आप राजस्थान से हो"? तो मैंने कहा, हाँ।
तो उसने बातचीत में टिप्पणी की कि उत्तर प्रदेश का होने के कारण उसे जयपुर में रहते हुए इस बात का आभास हुआ कि वहाँ लोग राणा सांगा-राणा प्रताप और मेवाड़ के विषय में कम जानते हैं या कम बात करते हैं। जबकि राजस्थान से बाहर राणा सांगा-राणा प्रताप और मेवाड़ के अलावा कोई और कुछ जानता ही नहीं।
इस पर मेरा कहना था, ऐसा नहीं है। बाकी "घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध" की पुरानी कहावत है। (1701016)

साहित्य में भी पोपवाद (मठाधीश) है, बस रूप बदलता रहता है। किसी राज में सहिष्णु हो जाता है को किसी शासन में असहिष्णु । (1401016)
जीवन से भागे, फ़ेस बुक में जागे। (1201016)

स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, हिन्दू धर्म से मतांतरित व्यक्ति, एक और शत्रु का बढ़ना है। देश के सीमांत प्रदेशों में जहां-जहां हिन्दू जनसंख्या कम हुई है, वहाँ-वहाँ राष्ट्र-भाव कमजोर हुआ है। इससे विवेकानंद की बात व्यवहार रूप में भी सच नजर आती है। सो, इस भरम से निकलने में ही भलाई है। अगर आग के घेरे को आग मानेगे तभी उसका उपाय करेंगे। नहीं तो आग अपना काम तो कर ही देगी। (1201016)

नाचने वाला तो नचिनया ही कहलाएगा !
सरकारी विज्ञापन 'मुफ्त' में करना कब से 'देश सेवा' हो गया !
'सरकार' से उठाया 'फायदा' किस खाते में जाएगा। 'उनकी ही एक फिल्म' का ही संवाद है, जवानों के लिए भांड-मिरासी को थोड़ा ही शहीद किया जाता है। (1001016)

आज एक मीडिया के दिनों की संगी-सखी से अचानक मिलने पर पूछा कि सफल होने के लिए संघर्षरत महिलाएं या सफल हो चुकी महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन, जिससे उन्हे स्वयं व्यक्तिगत स्तर पर कोई खास अंतर नहीं पड़ता, की सफलता या असफलता को क्यों छिपाती है ? यह सवाल मानो उसे लाजवाब कर गया ! उसने मुझे तो कोई जवाब दिया नहीं हाँ, अपने पतियों की गिनती बताते हुए बोली कि तुमने तो कभी पूछा नहीं!
फिर अचानक कुछ सोचकर बोली, "हमारे चैनल में तो कई ऐसे जोड़े हैं जो कब एक हुए और कब अलग इसलिए किसी को पता नहीं चला क्योंकि कम अरसे एक रहे और जल्द ही जुदा हो गए। ऐसे में दोनों ही चिर युवा-चिर कुँवारे हैं, "न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जाने" की तर्ज पर। (0601016)

अगर एक मुस्लिम संत को ईश्वर का दर्जा देने वाले हिन्दू, हिन्दू न होकर मुसलमान होते तो सब कुफ़्र के भागीदार होते और दोजक में जाते ! भला हो हिन्दू है, सो जिंदा है। इस मुस्लिम संत को भी "पब्लिसिटी" के लिए फिल्म निर्माता मनोज कुमार का शुक्रगुजार होना चाहिए। बाकी कहीं हिंदुस्तान की जगह सऊदी अरब में हुए होते तो मंदिर-मजार छोड़ो, बुत भी ज़मींदोज़ होता।(0601016)

मीडिया में पेशावर हमले को पाकिस्तान के आतंकवाद का शिकार देश होने का सर्टिफिकेट देने वाले, वाघा बार्डर पर मोमबत्ती जलाने वाले और दिल्ली से लाहौर तक अमन का कबूतर उड़ाने वाले सब खामोश है।जन्नत जाने वाले फिदायनी हमलवारों के हाथो बहे मासूमों के खून के बाद 'दोनों तरफ की जनता अमन चाहती है' का राग अलापने वाले भी चुप हो गए हैं। पता नहीं यह खामोशी सब इनके 'सहमत' होने का प्रमाण है या फिर दोगलेपन की 'शर्मिंदगी' का। अब इस हमले के विरोध में कोई भी पाकिस्तान से मिले सम्मान को लौटने के बात नहीं करेगा। विचार से लेकर व्यवहार के स्तर पर भारतीय विचार बहुलता और हिन्दू-बहुल भारत का विरोध पाकिस्तान के उत्स में जन्म से था, और है, तथा रहेगा। पाकिस्तान के जन्म में दाई की भूमिका निभाने वाले साम्यवाद से इस्लाम ने 'असहमत' होते हुए उसे 'सहमत' होने लायक ही नहीं छोड़ा। दुनिया के तमाम इस्लामी मुल्कों में साम्यवादी बचे हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता। वहीं दूसरी तरफ, साम्यवादी चीन ने इस्लामी कट्टरता को दबाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी तरह के उपायों का उपयोग किया है, अपने मुस्लिम बहुल-सिंकियांग प्रांत में। उल्लेखनीय है कि भारत के कश्मीर की तरह, वहाँ भी राष्ट्र-विरोधी मुस्लिमों को विदेशी मुसलमानों का खुला समर्थन है (0201016)


गांधी-लोहिया-दीनदयाल की शैली में राजनीति!
संभव है या सिर्फ दिवास्वप्न ? (0201016)

देश में सीएनएन-बीबीसी में काम करने वाले भारतीयों को यह 'अंतर' दिखता नहीं या फिर वे पत्रकार खुद ही इतने लाचार है कि कुछ देख नहीं सकते?
पश्चिमी मीडिया संस्थानों का "टेररिस्ट" भारत सरीखे देश में "गनमैन" भला क्यों कर हो जाता है? (0201016)


हिन्दी सिनेमा के सितारे, रोजी-रोटी हिन्दी से कमाते हैं। फिर अपनी फिल्म के बारे में 'अँग्रेजी' में बतियाते हैं! (0101016)


किताब का अपना सुख है, खासकर अपने लिखे हुए को छपा देखना !
(2712015)

दिल्ली की हस्ती मुनासिर कई हंगामों पर है,
किला, चांदनी चौक, हर रोज मजमा जामा मस्जिद,
हर हफ्ते सैर जमुना के पुल की
और दिल्ली में हर साल मेला फूलवालों का
ये पांच बातें अब नहीं फिर दिल्ली कहां

-मिर्जा गालिब, दिल्ली शहर के बारे में (2612015)

पत्रकारिता के अंत का रूदाली गान आखिर कब तक? आखिर उम्र से बुढ़ाता, मन से थका हर कथित "बड़ा पत्रकार" ऐसा क्यों कहने लगता है!लाख टके का सवाल यह नाउम्मीदी पेशे से है या फिर नवोदित पेशेवरों से(1912015)

रोचक-सत्य
हिन्दी में अपनी तरह के एक अलग किस्सागो-उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने अपना उपन्यास "ये कोठेवालियां" अपनी जीवन संगिनी (प्रतिभा) को समर्पित किया है।
उल्लेखनीय है कि पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि रामविलास शर्मा ने इस किताब में लिखे जाने की बात सुनकर कहा था, “इसे तुम प्रतिभा जी को ही समर्पित करना।”
बात मुझे भी सरस रीति से जंच गई। कोठेवालियों का भेद भला घरवाली को न सौंपू तो किसे सौंपूं!
परम मित्र की इच्छा को मान देते हुए यह पुस्तक मैंने अपनी जीवन-संगिनी को ही समर्पित की है।(1212015)

जाति केवल हिंदुओं का नहीं बल्कि मुसलमानों और ईसाइयों का भी सच है बस फर्क इतना है कि वैश्विक इस्लाम-ईसाइयत से अछूत घोषित होने के भय के कारण दोनों इस जातिगत भारतीय सच्चाई को स्वीकारने से कतराते हैं। नहीं तो सैय्यद, शेख, मुग़ल, पठान के निकाह जुलाहा, कसाई, धोबी, मोची जाति या काम करने वाले मुसलमानों में नहीं होते तो ईसाइयों में तो अस्सी फीसदी भारतीय ईसाई दलित हैं जिनकी चर्च की धार्मिक नौकरशाही में रत्ती भर भी हिस्सेदारी नहीं है। इस बात की ताकीद खुद चर्च के दस्तावेज़ करते हैं, जैसे मिशन मेंडटेट। ईसाइयों में तो दलितों के लिए चर्च-कब्रिस्तान में भी पृथक व्यवस्था है। पर यह सच्चाई मीडिया के सार्वजनिक विमर्श में से गायब है। और अगर कुछ है भी तो शिखंडी भाव से हिन्दू समाज को ही हतोत्साहित करने का भाव है न कि रचनात्मक आलोचना का भाव। यह होगा भी कैसे हिन्दी मीडिया में भी कुछ 'जातियों' का ही कथित वर्चस्व है यानि यहाँ भी "सोशल इंजीनियरिंग" की बहुत दरकार है क्योंकि यह काम सरकार से नहीं हो सकता। (28112015)

हिन्दी से आजीविका अर्जित करने वाला एक अल्पसंख्यक पर वाचाल वर्ग है जो कमाता तो हिन्दी से है पर अपनाना अँग्रेजी-प्रभु वर्ग को चाहता है। इसमें हिंदी अध्यापकों, पत्रकारों, अनुवादकों और हिंदी अधिकारियों को शामिल माना जा सकता है। (26112015)

"रहना नहीं साधो, देश बिराना है"
काम जुबान का और सजा पेट को?
'बदजुबानी' का खामियाजा 'पेट पर लात'!
बहुत नाइंसाफी है। (26112015)

हाथों की कालिख तो मिट भी जाती है पर मन का मैल नहीं जाता है। आखिर रह-रह कर जुबान पर आ ही जाता है जैसे समुंदर का मैल किनारे आ ही लगता है जो दूर से दिखता नहीं। (24112015)

अब दवा मिले या जहर, देश का दर तो छूटने से रहा! वैसे तारीख बताती है कि कई शायर-लेखक देश-विभाजन के बाद जायरीन मुजाहिर बनकर 'पाक' मुल्क गएँ थे और वापिस भी अपना सा मुँह लेकर लौटे थे। सो, नया कुछ नहीं बस इतिहास का चक्र अपने को दोहरा रहा है। (24112015)

पड़ोस में साँप रहता हो तो बांबी में 'दूध' डालने से अमृत नहीं विष भरी फूँकार ही आएंगी। ऐसे में पानी नहीं गरम तेल ही कारगर होता है। (24112015)

यह पत्नियों का डर है या प्रेम !
कोई देश में ही विदेशी दूतावास में तो कोई देश से विदेश का रुख करने की सलाह देती है। इन्हे कौन बताएं कि इसी देश में एक तुलसीदास की पत्नी भी थी, जिसने उन्हें 'ईश्वर' की ओर जाने की सलाह दी थी।
अब यह मत कहना की उनका 'नाम' क्या था !
भाई, मैं तो अपनी पत्नी से काफी 'डर' ता हूँ, विदेश क्या 'मंगल' पर भी जाने तो तैयार हूँ।
पर मुश्किल यह है कि वह नहीं डरती!
मुझसे क्या किसी से भी नहीं। (24112015)

'द हिन्दू' और 'इंडियन एक्सप्रेस' नामी स्तंभकार ब्रिटेन में नाबालिग लड़की को कथित रूप से सेक्स के लिए फुसलाने के कोशिश में धरे गएँ।
गिरीश कर्नार्ड के शब्दों में, "अगर वह हिन्दू होता" तो माफी मांगने का आंदोलन बनता! 'इंडियन' है पर 'हिन्दू' नहीं। अब नाम का बताना, आप खुद ही इन 'अखबारों' में पढ़ लेना। (11112015)

साम-दाम-दंड-भेद! शत्रु को कमतर आंकने की भूल, अपनी प्राण-प्रतिष्ठा के मूल्य के रूप में चुकानी होती है. भूल सुधार-परिमार्जन की कोई संभावना नहीं. अगर चूहे को बिल से बाहर आकर अनाज के गोदाम में उत्पात की अनुमति दी तो फिर अन्न-भंडार के नष्ट होने पर इतना संताप क्यों ? (09112015)

'जातिवाद' अखिल भारतीय हिन्दू ही नहीं अहिंदू तत्व भी है, सो केवल 'बिहार' को कोसने से सच नहीं बदलेगा.
चर्च में बैठने-कब्रिस्तान में दफ़नाने से लेकर पाक-निकाह की रस्म तक 'जाति' की उपस्थिति सर्वकालिक है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास संकाय में एक ही जाति के शिक्षकों का बहुमत संयोग नहीं है, यह भी एक तरह का मार्क्सवादी-जातिवादी-विमर्श है.
अब जातिवाद तो 'जातीयता' से ही काबू होगा.
अब रतौंदी रोग से ग्रसित मीडिया से तो यह होने से रहा. आखिर यह भी बताना होगा कि मीडिया के मठों पर भी 'जाति' की काली घनी प्रेत छाया है.
सो राष्ट्र तत्व के लिए तो महाभाव ही जागृत करना होगा. (08112015)

'प्रतिरोध' भी अंग्रेजी में, हिंदी को तो बस नीचे एक पंक्ति (वह भी अनुवाद में) में सिमटा दिया गया!
वैसे प्रतिरोध और जनता की भाषा तो हिंदी ही रही है, अंग्रेजी तो बस अधिकार और शासकों के भाषा रही हैं और बनी हुई है.
सही में 'अल्प' ही भारी है वर्ना अंग्रेजी बोलने-समझने वालों की तुलना में हिंदीभाषी बहुसंख्यक हैं. (02112015)

आजकल मीडिया 'परिचय' के बावजूद किसी नामचीन से 'पते की बात' करने की 'कोशिश' नहीं करता बल्कि 'इजाजत' लेकर इज्जत से सीधे सवाल करता है।
इस 'मौसम' में 'किताब' के लिए सम्मानित करने वाली साहित्य अकादेमी का पुरस्कार 'अचानक' वापिस देकर सत्ता से 'किनारा' करने का नारा बुलंद करने वालों के लिए इस्तीफा भी खट्टे 'अंगूर' साबित हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे 'विरोध' की 'खुशबू' का 'लिबास' ओढ़े इस कब्बड़ी के खेल में 'हु तू तू' करके अपनी उपस्थिति भर जताना चाहते हैं न की मीरा की तरह खुद विष का प्याला पीने के इच्छुक है!
उनका यह व्यवहार भी गलत नहीं है क्योंकि इसी साहित्य अकादेमी में 'लाल-हरे-सफ़ेद किताब वालों' ने मंच पर ही सरकारी चेक लेने से गुरेज़ नहीं किया। उनका मानना है कि 'साहित्यकारों' को सिनेमा वालों की तरह रेल-हवाई टिकट प्रायोजित तो होती नहीं सो शर्माना कैसा!
मीडिया ने भी सम्पूर्ण सिंह कालरा जी यानि गुलज़ार साहब से 'नमकीन' सवाल नहीं पूछा कि इस पुरस्कार लौटने वाली 'आंधी' में उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००२) और पद्मभूषण (२००४) लौटाया या नहीं !
या बस यूहीं 'भाषणवीर' बने हुए हैं।
खैर, उनका भी कसूर नहीं है, 'माचिस' जलाना उनकी पुरानी अदावत है।
पर लाख टके का सवाल यह है कि आखिर वे 'शल्य' बनकर साहित्यकारों को 'कर्ण' बनाकर 'अर्जुन' से भिड़ने की सलाह क्यों दे रहे हैं ?
आपातकाल के दो वर्षों (जून १९७५-मार्च १९७७) में तत्कालीन केंद्र सरकार की मार से फिल्म उद्योग भी नहीं बचा था. फिल्मकार गुलजार को युवा कांग्रेस के आंदोलन पर एक फिल्म बनाने के लिए कहा गया था। जब उन्होंने पूछा कि क्या संजय गांधी इसके लिए उनके साथ बातचीत करेंगे तो इसके जवाब में सरकार ने 23 सप्ताह पहले से ही देश के सिनेमाघरों में चल रही उनकी फिल्म 'आंधी' पर प्रतिबंध लगा दिया।"
यह अनायास नहीं है कि हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा ने आपातकाल के चित्रण से मुंह चुराया है। अगर हम देश के स्वतंत्रता संग्राम के समय की फिल्मों का विश्लेषण करें तो सीधी कहानी दिखती है जबकि आपातकाल के सच के बारे में फिल्में न के बराबर हैं।
वैसे 'जय हो' देश के एक चुनावी समर में किसका 'जय घोष' बना था, आपको याद है या भूल गए!
और कुछ नहीं तो हाल के लोकसभा चुनाव में बनारस में गुलज़ार के 'डुबकी' लगाने की बात तो जग-जाहिर है।
खैर गुलज़ार के पसंदीदा शायर ग़ालिब ने ही बनारस के लिए कहा था,
त आलल्ला बनारस चश्मे बद दूर
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौसे मामूर
इबातत ख़ानए नाकूसियाँ अस्त
हमाना कावए हिन्दोस्तां अस्त
[हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना क्योंकि यह आनन्दमय स्वर्ग है। यह घंटा बजानेवालों अर्थात हिन्दुओं की पूजा का स्थान है यानी यही हिन्दुस्तान का क़ाबा है।]
सो, ग़ालिब के ही लफ्जों में 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएँगी'। (24102015)

अगर किसी को याद हो तो बताएं कि मुंबई में 26/11 के बम धमाकों के बाद क्या वसीम अकरम और शोएब अख़्तर ने अपने वतन का हाथ होने के बात से इंकार किया था या इकरार किया था!
सो अब मुंबई में होने वाले पाँचवें वन डे की कमेंट्री से इंकार का ढकोसला क्यों? क्या किसी भारतीय मीडिया या पत्रकार ने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाडियों से यह सवाल किया?
निष्पक्ष पत्रकारिता तो हारी लेकिन पाकिस्तान की मेहमाननवाजी और मोहब्बत रखने वालों की शानदार जीत.
आखिर कई नामचीन भारतीय पत्रकारों ने सैयद गुलाम नबी फई की दावतनामे कुबूल फरमाएं थे. (20102015)

भारत-विभाजन से आज तक कश्मीर-पंजाब में जेहादी-देश विरोधी आतंकवाद में मरने वाले "निर्दोष हिन्दुओं" की स्मृति में किसी ने विरोध जताया?
किसी ने निंदा की?
किसी ने मुआवजा बांटा?
पुरस्कार-सम्मान लौटाएं ?
अपने पुरखों के सम्मान में स्मृति-दीप जलाया?
मीडिया ने आवाज उठाई! (13102015)

देश से लेकर गाय तक, सब काटने का ही तो इतिहास है...

देश के विभाजन की सच्चाई को भला कौन झुठला सकता है।

वह बात अलग है कि दूसरों के लिए मशाल जलाने वालों को अब रतौंदी के कारण कुछ 'रंग' सूझते-दिखते नहीं हैं। (10102015)

हिन्दी में डूब कर सिनेमा पर जयप्रकाश चौकसे के अलावा कम ही लिखने वाले नजर आते हैं, दिमाग की बजाए दिल से लिखने से ही बात बनती है नहीं तो निरा-सूखा अनुवाद तो कोई भी कर देगा। (10102015)

सिंधु (वैसे सिंधु से ही हिन्दू शब्द निकला है) घाटी सभ्यता की विरासत को अपना बताने का दावा करने वाले पाकिस्तान ने भारतीय गजल गायक जगजीत सिंह को अपने यहाँ गाने की इजाजत देने से इंकार करते हुए वापिस भारत लौटा दिया था तो भारतीय स्वर कोकिला लता मंगेशकर को यात्रा वीसा देने से ही मना कर दिया था।
अब यह मत कहना कि मीडिया वालों का "इतिहास" से क्या लेना-देना !
इतिहास से न सही पर "पढ़ने-लिखने" से तो हैं।
अगर इससे भी नहीं है तो फिर कुछ भी कहना बेकार है। (09102015)

पश्चिम में पूर्व सोवियत संघ के "भावनाओं के इतिहास" को साहित्य का नोबेल तो स्वदेश में "इतिहास में भावना" को कोई स्थान नहीं! शायद इसीलिए किसी प्रगतिशील पत्रकार तो नोबेल तो क्या पुलिट्ज़र भी नसीब नहीं हुआ! (08102015)

चारा खाने के बाद अब गाय भी, हे गोविन्द बलिहारी आपकी! (03102015)

माधव से मीडिया तक

गोपालकों का नेता, गो-भक्षकों का प्रवक्ता ? (03102015)

माँ परिवार के पालन के लिए आजीविका हेतु बर्तन-झाड़ू बुहारे का काम करें या होटल-रेस्तरां में दारू-बोटी परोसने का, माँ फिर भी माँ है।
माँ और उसकी मेहनत पर सवालिया निशान लगाने का अधिकार किसी को भी नहीं?
माँ किसी से प्रमाण पत्र की मोहताज नहीं, न आदमी, न पार्टी, न मीडिया से। (28092015)

नामचीन एंकर-टीवी पत्रकार, कभी अपनी कंपनी-मालिक की कारगुजारियों के खिलाफ़ क्यों आवाज़ बुलंद नहीं करते? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जगह आवाज़ हकलाने और दिमाग भूलने क्यों लगता है ? ऐसे में अपनी गुलामी और पट्टे से इतना प्यार करने वाले, दूसरों के लिए मशाल जलाने का दावा करें, यह कहाँ तक उचित है। (19092015)

भाषा-संस्कृति का अतिचार, दोगला आचरण-व्यवहार
विश्व हिन्दी सम्मेलन को हिन्दू सम्मेलन बताने वालों को पश्चिम बंगाल में लाल सरकार के बांग्ला अतिप्रेम के आगे हिन्दी की अवहेलना-अपमान कभी नज़र नहीं आया। कभी किसी हिन्दी साहित्यिक पत्रिका को छटांक का भी विज्ञापन न देने वाली लाल सरकार ने तो मानो हिन्दी प्रदेश के कामरेड़ संपादकों के मुंह पर 'मिष्ठी दोई' लगा दिया था। बाकी बंगाल में "हिन्दी अखबारों' का हाल तो कहने की क्या? छत्तीसगढ़ से लेकर मध्य प्रदेश की हिन्दी (हिन्दू) सरकारों के बेझिझक होकर धड़ल्ले से विज्ञापन छापने वाले कामरेड़ संपादकों की शब्द-वीरता पर भला कौन न मर जाए? (14092015)

गीता प्रेस का जन्म तो तालिबान से भी पूर्व का है, मतलब तालिबान का असर उस पर बाद में हुआ। फिर तालिबान ने तो फतवा जारी करके सभी हिंदुओं और सिखों को पीला रंग का कपड़ा पहनने का आदेश जारी किया था। वैसा कुछ गीता प्रैस ने भी किया तो बताए, आखिर गीता प्रेस तालिबान की तरह कोई मदरसा से प्रेरित या उसमें पढ़ें व्यक्तियों का समूह तो है नहीं फिर ऐसी उपमा का क्या अर्थ है यह तो भगवान ही जाने, ओह नहीं अल्लाह ही जाने! कम से कम बीबीसी से तो खबर के शीर्षक "महिलाओं पर गीता प्रेस की तालिबानी सोच" में सनसनी फैलाने की उम्मीद नहीं है, आखिर उसे तो कोई टीआरपी नहीं बढ़ानी है। कथ्य-तथ्य में संतुलन ही सर्वश्रेष्ठ है। (30082015)


नरेन्द्रनाथ दत्त को विवेकानंद का नाम देने वाले राजस्थान के खेतड़ी राजघराने के अमूल्य अवदान को दरकिनार करके विवेकानंद की यशोगाथा लिखने वाले बंगाली लेखकों ने उनके जीवन में खेतड़ी के अति महत्वपूर्ण योगदान को लगतार हरबार बिसराया है. खेतड़ी राजपरिवार में कोई वारिस न होने के कारण समूची सम्पति विवाद में है और मामला न्यायालय में विचाराधीन है. बाकि सरकार से ज्यादा स्थानीय समाज की उदासीनता चिंतनीय है. बाकि कस्बों की कहानी समूचे देश में खासकर हिंदी पट्टी में एक-सरीखी हैं. पहचान किसकी और कौन देगा उसको स्वीकृति, यह यक्ष प्रश्न है? (16082015)

आतंकवाद को कोई महजब हो न हो पर राष्ट्रीयता तो है, पाकिस्तान. (16082015)

कमाल है, पाकिस्तानी आईएसआई के कुख्यात चीफ हामिद गुल के मौत पर हमारे टीवी पत्रकारों के मठाधीशों ने रुदाली-गान नहीं गाया. आखिर गुल उनका सबसे बड़ा चाहने वाला जो था. (16082015)

सोशल मीडिया का खुलासाराधे मां: देह दर्शन से भक्तों के प्रदर्शन तक...(09082015)

अब तक तो भारत में अवैध रूप से घुसपैठ करने वालों को ही भारतीय नागरिकता सहज थी सो अब क्यों न भारत में आकर खून की होली खेलने वालों को भी पहले से ही भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान कर दिया जाए, जिससे न तो मोमबती जलाकर सामूहिक पत्र लिखने वालों को और न ही वाघा बॉर्डर पर मार्च करने वालों सहित मुसलमानों का हमदर्द होने का दावा करने वाले पाकिस्तान को अपने नागरिक को 'अपना' कहने का दावा झुठलाना पड़ेगा. बाकि कबूतर उड़ाने वालों के हाथों के तोते कब उड़ेगे, यह गौर करने वाली बात है, अब मीडिया इसको दिखाएँ या नहीं बहस करें या नहीं वह दीगर बात है. (06082015)

"मैं यहां हिंदुओं को मारने आया हूं। यही मेरा काम है।"
यह बयान है, नावेद उर्फ उस्मान उर्फ कासिम, जम्मू-कश्मीर के उधमपुर में पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी का. अब हमारे टीवी मीडिया कह रहा है कि "आतंकवादी उस्मान का पकडा जाना कोई बडी बात नहीं, पहले भी पकडे जाते रहे हैं." पाकिस्तानी आतंकी कसाब के बाद उस्मान दूसरा पाकिस्तानी आतंकी है जो की हिंदुस्तान की सरजमीं पर जिंदा पकडा गया है, जिसने खुद के पाकिस्तानी होने की बात को कबूल करते हुए यहाँ हिन्दुओं की हत्या करने आया है. दो के आगे भी कोई इस गिनती में तो जानना ज्ञानवर्धक होगा. (05082015)

भारत में निर्दोष व्यक्तियों के हत्यारे आतंकवादियों के प्रति इतने व्यापक समर्थन का होना हैरतअंगेज़ है. इसमें कोई अचरज नहीं लगता कि हम पचास से ज्यादा बरसों से नक्सल आतंकियों के साथ गुज़र कर रहे हैं. एक हमारा मीडिया है, जो इनके कथित 'कारनामों' को महिमामंडित करके स्वयं को तीसरे मार्ग का मार्गदर्शक मानता है. स्वयंभू मानसिकता के मारे, तीनों बेचारे! (30072015)

मैंने अपने जीवन का पहला एक पेज का फीचर "कलाम" पर ही लिखा था, हिंदी वार्ता अखबार के लिए. शायद ९० के दशक का उतरार्ध था. तब इंडिया टुडे में काम करता था और सामग्री जुटाने में जी-तोड़ मेहनत की थी. वह जमाना गूगल का नहीं था बस आज अनायास याद आ गया, नहीं तो मैं तो भूल ही गया था. उस समय वार्ता समाचार पात्र का दफ्तर बंगाली मार्किट में ही हुआ करता था. बड़े व्यक्तित्व का बडप्पन, जिंदगी के छोटी बात भी याद दिला दी. आखिर दीये की ताकत यही होती है कि अंधेरे का विकल्प देता है. जब हिंदी इंडिया टुडे ने अग्नि पुरुष शीर्षक से शीर्ष स्टोरी-कवर स्टोरी-की थी तो मुझे याद है कि मैंने उस स्टोरी का तकनीकी भाग अनुवाद किया था और मैं गर्व से सराबोर हो गया था. वैसे मेरे पिताजी भी डीआरडीओ से रिटायर हुए सो एक 'गर्भनाल' का संबंध तो हो ही गया सो सूतक तो बनता है. (27072015)

घूँघट के पट खोल!
1931 में बनी हिन्दी भाषा और भारत की पहली सवाक (बोलती) फिल्म आलमआरा की अभिनेत्री जुबैदा से लेकर मधुबालाल, जीनत अमान अब कैटरीना कैफ तक बड़े परदे पर नमूदार हुई. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदी सिनेमा के आरंभिक दौर में अधिकतर अभिनेत्रियां नाचने-गाने वाली पृष्ठभूमि से थी. तब से लेकर अब तक मुस्लिम अभिनेत्रियों के बड़े पर्दे पर 'बेपर्दा' होने की बात फ़िल्मी मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में आज तक नहीं उठीं! (26072015)

आरजेडी माने रोजाना जंगल राज!
सही में, यह बात बोली भले ही प्रधानमंत्री ने है पर लगता है आइडिया और कॉपी में योगदान जरूर किसी 'बिहारी' का है. आखिर 'आपबीती' ही तो सच का सामना करवाती है. चारे की चोरी के पैसे से बिहार में कितने स्कूल, कॉलेज और अस्पताल खुलते इसका हिसाब कोई प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्षता का झंडाबदार नहीं बताता ?पता नहीं कौन-से रतौंदी है जो 'सच' को देखने ही नहीं देती. (25072015)

जातिगत आंकड़े उजागर करने में बेचैन पत्रकार, अपनी जाति को काहे छिपाकर रखते हैं? कुमार, प्रसाद और विद्रोही सरीखे विशेषणों के पीछे. सबसे पहले तो स्वयं अपना खुलासा करते हुए ब्राह्मण, भूमिहार, ठाकुर और.....लगाएं तो यकीन हो कि "यह प्यास है बड़ी" नहीं तो खामखा गीली माचिस की तीली से सामाजिक क्रांति की मशाल जलाने का प्रपंच छोड़ दें तो बेहतर. (22072015)

पत्रकार कभी बनता नहीं है, वह तो बस होता है. (15072015)

क्या विडंबना है, दूसरों के अंधेरों के लिए मशाल का काम करने वालों के लिए कोई दिया जलाने के लिए भी राजी नहीं. कही कोई आवाज़ नहीं, कही कोई खबर नहीं. मानो मुख्यधारा के मीडिया में मरघट का सन्नाटा पसरा हुआ है. बाकि को लगता है कि यह अजगर उन्हें नहीं निगलेगा. व्यक्ति कितना अकेला होता है अपनी आत्मकेंद्रित दुनिया में! सहारा के उजड़ने से न जाने कितने बेसहारा होगें. ऐसे नैराश्य और नकारात्मक माहौल में तो वैसे भी काम संभव नहीं और फिर आय का दूसरा साधन न होने के सूरत में तो वैसे भी व्यक्ति अधमरा हो जाता है, दूध से लेकर मकान के भाड़े के सच से कहाँ तक भागा जा सकता है. यह तो जैसे नश्तर में भाले की तरह चुभते हैं और एक साथ इतनी बड़ी संख्या में पत्रकारों के सड़क पर आ जाने से दूसरी जगहों पर भी आप मोल भाव करने के हालात नहीं रह जाते. यानि दो तरफा मार. लगता है मानो आईबीएन का किस्सा दोहराया जा रहा है, बस फर्क है इस बार टाइम बम धीरे धीरे पर फटने की ओर ही बढ़ रहा है..(13072015)

देश में इमरजेंसी के दौरान केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को हटाकर रक्षा राज्यमंत्री से सूचना-प्रसारण मंत्री बनाये गए वीसी शुक्ल के नाम से तब का मीडिया घबराता था क्योकि वे बड़े-बड़े पत्रकारों को घास नहीं डालते थे. प्रख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर ने अपने लेख ‘उन्नीस महीनों के बाद रोशनी’ में लिखा है, "सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल ने आज़ादी का दीया बुझाने में उल्लेखनीय रोल अदा किया." (12072015)
भारत की सानिया मिर्ज़ा और स्विटज़रलैंड की मार्टिना हिंगिस की जोड़ी के विंबलडन में महिलाओं का युगल खिताब जीतने पर बीबीसी इंडिया ने अपने ट्विट "हिंगिस विन्स विंबलडन डबल्स फाइनल" में सानिया का नाम इरादतन छोड़ा.
यह कोई पहली बार नहीं है कि जब बीबीसी ने अपनी नस्लीय विभेदकारी नीति दर्शाई है.
जब नब्बे के दशक में दूरदर्शन ने बीबीसी के साथ करार किया था तो पहली चंद तस्वीरों में दिल्ली में सड़कों पर घुमती गायें और फिर कश्मीर में प्रदर्शन के नाम पर सर्बिया के तस्वीरों को दिखाया गया था.
आखिर एकांगी दृष्टि वाली बीबीसी को युगल में सानिया नज़र भी आएंगी कैसे? नैना तेरे-नैना. (12072015)

मंडल को हथियार बनाकर कमंडल को निपटाने की सुपारी लेने वाले मगध के नाम से दिल्ली के मीडिया में मठाधीश बने वीरों को "ओबीसी" प्रधानमंत्री के नाम से पेट में दर्द होने लगा है.
जातिवादी राजनीति को जातीयता और जाति को वर्ग-वर्ण की चौखट में ज़माने वाले मीडिया के मठाधीश अपने 'तिलक' को छुपाने की वीरता को ही प्रगतिशीलता बताते हैं. जबकि दूसरी तरफ, लोकसभा में अनुसूचित जाति-जनजाति के सबसे ज्यादा प्रतिनिधि भाजपा के हैं और राम मंदिर के दौर में ही सबसे ज्यादा मझौली-पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि राजनीति के नेपथ्य से निकल कर सामने आएं. कल्याणसिंह से लेकर उमा भारती और अब नरेंद्र मोदी इसी सामाजिक प्रक्रिया की देन है.
इसी 'सरप्लस' ने कथित बामन-बनिया पार्टी के 'पिछड़े' के हाथों इन्द्रप्रस्थ के लालकिले की प्राचीर से झंडारोहण करवा दिया.
अब लगता है कि मीडिया के बामनों के मुंह पर लगा जामन चुक गया है सो अपच तो होनी ही है. (12072015)

पत्रकार स्वयं को नेताओं की आलोचना तक क्यों सीमित कर देते हैं, किसी मीडिया हाउस की कारगुजारी क्यों उन्हें नज़र नहीं आती? क्या सिर्फ इसलिए की अपनी नौकरी संकट में आ जाएंगी या चैनल प्रोग्राम में बुलाना बंद कर देगा. सरकार-नेता का दाग, दाग और चैनल तथा उसके मालिक का काला कारनामे पर सफ़ेद बुर्का. हाल में ही एक चैनल के खिलाफ सेबी का फैसले पर मानो सारे प्रगतिशील पत्रकारों की जुबान में छाले पड़ गए और नामचीन एंकरों को स्मृति दोष हो गया. अगर ऐसा होगा तो भला अपने मदारी-मालिक के डमरू पर नाचने वाले बन्दर से जुदा कहाँ हुआ पत्रकार. (05072015)

हिंदी में तो लेखक खुद ही प्रयास करें, छापने से लेकर डिजिटल प्रचार तक, तब कहीं कोई संभावना बनती हैं, एकल प्रयास से सामूहिकता के लिए कोई राह निकलने की गुंजाइश है. किसी को तो हिंदी में भी भगीरथ बनना होगा नहीं तो सब संभावना की आस में ही बीत रहे हैं और समय रीत रहा है. (05072015)

भीख वाली श्रेणी में पत्रकारों कोे विज्ञापन मांगने वाले 'मंगतो' की जमात में ठेलने वाले मीडिया घरानों को भी जोड़ लीजिये. आज हर मीडिया घराना, कोठों की तरह अपनी दुकानें सजाएं बैठा है, मैगी की तरह तुरत-फुरत 'पत्रकार' बनाने का फार्मूला लिए. कोई ज्यादा प्रगतिशील हुआ तो आपको नौकरी के साथ हनीमून का पैकेज भी देगा. बस आपको उनके काले को उजला करना है या करवाना है. और फिर उसी चैनल के नामचीन एंकर अपने यहाँ के दुशासन को दरकिनार करके बाकि समाज में आ रही गिरावट और राजनीति के अवमूल्यन पर ज्ञान वर्षा करेंगे. (03072015)
26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा के बाद दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर जब अख़बार प्रिंट के लिए जा रहे थे, तभी उनकी बिजली काट दी गई. अगले दिन सिर्फ हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेट्समैन ही छप पाए, क्योंकि उनकी प्रिंटिंग प्रेस बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर नहीं थी. (27062015)

खबरों के खुदरा व्यापारी को सबसे ज्यादा खतरा थोक खबर के आसामियों से है, इन दो के मुकाबले में बेचारा 'आम आदमी' की फजीहत होती है क्योंकि सारा गोलमाल तो उसी के नाम पर होता है. (26062015)
बॉबी जिंदल भले ही भारतीय मूल के हो पर वह ईसाई हो चुके हैं क्योकि बिना ईसाई वह भी प्रोटोस्टेंट, अमेरिका में राष्ट्रपति बनना संभव नहीं. भारत में किसी विदेशी को ईसाई से हिन्दू नहीं होना होता.
वह बात दीगर है कि अपने पंथ को सार्वजनिक स्वीकारने का साहस हर किसी में नहीं होता. (26062015)

देश के नामी-गिरामी चैनलों के एंकर अगर अपने एक-दिन का वेतन, जब से उन्होंने वहाँ नौकरी शुरू की, भी अपने ऑफिस की नजदीकी झुग्गी बस्ती में बाँटते होते तो आज वहाँ गरीबी होती ही नहीं। सच में दूसरों को बांटने वाला ज्ञान ही सस्ता है, खुद का पैसा तो मंहगा है।
अपने देस का मरसिया गाएँगे तभी तो दिल्ली में रुदाली होने के पैसे मिलेंगे। (23062015)

हमारे राजस्थान में भी काँग्रेस से उपकृत पत्रकार कोई विश्वविद्यालय का वीसी बन गया तो कोई अकैडमिक काउंसिल में चला गया, शिक्षा के कोटे से। दिल्ली के पत्रकारों ने तो जयपुर में प्लॉट भी लिए, पता नहीं उन्होने भी कोई किताब लिखी या नहीं अथवा बिना किताब ही पा गए। (22062015)

डॉ हेडगेवार के जीवनीकार तो तो एनडीटीवी जैसा बौद्धिक चैनल, संघ विचारक बताकर रोज़ बैठा कर रखता है, अब यह चैनल ने रंग बदल लिया या बिहार का उच्च जातिवादी-प्रेम का चोला ओढ़ लिया, राम जाने। (22062015)

पत्रकारों की पुरानी आदत है, नेताओं से संपादकी से लेकर राज्यसभा तक लेने की। अलग से पूछेगी सो अकेले में सब मान लेंगे, ठीक आदमक़द कोई नहीं, ठीक निरापद कोई नहीं। न तुम, न मैं न वे।
सो नेता ही दोगले है और पत्रकार नहीं तो काँग्रेस से चुनाव लड़ने वाले और अब बीजेपी से झारखंड में राज्यसभा के उम्मीदवार एम जे अकबर और उनसे नौकरी लेने वाले पत्रकारों से ही पूछ ले। उम्मीद है, एक तो सच बोलेगा। (21062015)

आज हिंदी समाचार पत्रों में खासकर राजधानी से निकालने वाले कथित राष्ट्रीय समाचार पत्रों में गरीबी रेखा से जूझते लोग, कुपोषण से त्रस्त लोग और स्त्री-समाज के जुड़े विषयों पर भला कितने समाचारों को प्राथमिकता मिलती है. कुल मिलकर ये सभी राष्ट्रीय अखबार खाते-पीते मध्यवर्ग का खेला लगते हैं न कि अखिल भारतीय समाज के !
और तिस पर भी तुर्रा यह कि राष्ट्रीय समाचार पत्रों से लेकर चैनल के विचारवान संपादक वाममार्ग पर चलकर मध्यमार्ग पर आकर यूनिवर्सिटी की अकादमिक कौंसिल में शिक्षाविदों के कोटे में शामिल होने की बात उनके खुद के रिपोर्टरों को ही नहीं मालूम.
सो जब मलाई काटनी हो तो खुद मध्यम वर्ग वाले बन जाओ नहीं तो अपनी चमकाने के लिए उसी को गरियाओ. (21062015)

आज एनडीटीवी इंडिया में एक और वक्ता के नाम के नीचे पट्टी में 'संघ विचारक' देखने को मिला. लगता है योग दिवस के दिन इस चैनल ने भी "एक का योग" बढ़ा दिया. अच्छा है, विचार जितने रूपों-व्यक्तियों से मिले, संपन्न करते हैं. (21062015)

योग दिवस पर नेताओं की तोंद पर कलम तोड़ने वाले पत्रकारों ने कभी अपने संपादक-मालिक की कमर को नापा है? (21062015)

कितने पत्रकारों, उसमें भी खासकर टीवी वाले पत्रकार, की कुंडली में 'परउपदेश कुशल बहुतरे' को योग हैं? वैसे भी हर तरह के भोग के बाद ही योग की सबसे ज्यादा जरुरत होती है! (21062015)

हिंदी प्रदेश में आज अंग्रेजी डर से ज्यादा हीनता और ग्लानि का प्रतीक है, वह बात अलग है कि कुछ इसे अपने सामाजिक पिछड़ेपन से उबरने और सफल होने का रास्ता मानते हैं. (20062015)

सेबी के एनडीटीवी के घपले पर फैसले की पाती किसी ने बांची? या अभी लिखे जाने की ही बाँट जोह रहे हैं ! (15062015)

भारत का इतिहास भी पश्चिम के उपकरणों से खोजना पड़ रहा है, यहाँ तो बस बकचोदी हो रही है, साहित्य के नाम पर मार्क्स-मदिरा और अब उत्तर -आधुनिकता.
साले, आधुनिक तो हुए नहीं. नथ उतारी नहीं और बाप बन गए, वाह ! ईसा मसीह की औलाद है, सो बिना बाप ही पैदा हो गए.(07062015)

कुछ नहीं लेख पूरा करने में लगा हूँ, देह्लीवाल मुद्रा का, पूरा ही नहीं हो रहा. नयी-नयी जानकारी ने स्वयं को अपने ज्ञान की सीमा बता दी है. सो, हतप्रभ हूँ कि इस पर लेख-लिखने का विचार आया कैसे ? इसी को प्रभु कृपा मानता हूँ, अब तो.
भगवान को जो रास्ता दिखाना होता है, अंधेरे में भी दिखा देता है. न मैं प्रशिक्षित इतिहासकार, न अर्थशास्त्री पर यह विषय सूझा कैसे यही अचरज है. हाँ, अब तो मुझे भी दैवीय प्रेरणा लगने लगी है, ईशवरीय कार्य. हाँ, पहले ऐसा कभी सोचा नहीं था, अब लगने लगा है कि "मैं भी लिखने लगा हूँ" में मेरा कुछ नहीं. मैं तो मात्र निमित्त हूँ, तार हिलाने वाला तो कोई और ही है. इस तरह लेखन तो स्वयं के प्रति प्रतिबद्धता का ही एक रूप है. निर्मल वर्मा के शब्दों में "मूलतः प्रश्नाकुल प्रज्ञा!" (07062015)

आप न चाहो तो भी समय आगे बढता है, आपके न चाहते हुए भी उम्र कम होती जाती है । मन थक भी जाए तन नहीं थकता ।
आज के माहॊल में भौतिक साधनों और सुख की प्यास, मानो पेप्सी के विज्ञापन के स्लोगन "यह प्यास है बड़ी" की तरह शांत होने का मानो नाम ही नहीं लेती । यह देखकर महाभारत के ययाति की कहानी, कहानी न होकर हकीक़त लगने लगी है । (07062015)

महाभारत के अनुसार, श्री कृष्ण ने पाँच ग्राम पांडवों के लिए मांगे थे। ये गाँव थे, बागपत, तिलपत, सोनीपत, इंद्रपत (इन्द्रप्रस्थ) और पानीपत। आज भी ज़्यादातर दिल्ली वाले भी इस बात से बेखबर है, हम अपने ही इतिहास से अनजान है, क्योंकि काँग्रेस-वामपंथी इतिहासकारों ने देश के नागरिक को उसकी धरती से ही नहीं जुड़ने दिया। बाकी अँग्रेजी में होने से एक अलग दीवार-परायापन हो जाता है सो आम आदमी भी गणित की तरह इतिहास से कटता है। इसी का नतीजा है कि दिल्ली के पुराने किले के खनन में मिले महाभारत कालीन पुरातात्विक अवशेषों के रिपोर्ट आज तक प्रकाशित नहीं की गयी है। खैर, उससे मीडिया को क्या फर्क, उसे तो इस तथ्य की भी जानकारी होगी।मीडिया को तो अपनी टीआरपी से ही फुर्सत नहीं तो फिर जन-जमीन से जुड़े या उसकी जड़ें आकाश में जाएँ, यह उसके एजेंडे में है ही नहीं। आखिर इतिहास बोध से रहित व्यक्ति ही तो उसके मनमाफिक है। (05062015)

आखिर लिखने वाले की अंतिम कसौटी तो पढ़ने वाले ही हैं। (05062015)

पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल रहील शरीफ के "कश्मीर 1947 में भारत-पाकिस्तान के बंटवारे का अधूरा अजेंडा है" के बाद सफ़ेद कबूतर उड़ाने वाले और सीमा पर मोमबत्ती जलाने वालों को कुछ समय के लिए स्मृति-लोप हो गया है.
टीवी के प्रगतिशील-पाक प्रेमी प्रस्तोता अपने चैनल में तकनीकी खराबी के कारण इस पर कुछ भी प्रसारित न कर पाने की बेबसी में शर्मिंदा है सो अपना चेहरा काले बुर्के वाले स्क्रीन के पीछे छिपाए हुए हैं. (04062015)

आज अनायास ही हिंदी के प्रगतिशील चैनल के प्राइम टाइम पर कश्मीर के पंडितों की 'पीर' यू टूयब पर तो खोजने से मिली नहीं, हो सकता है मुझे भी 'रतौंदी' हो गयी है ! एक रंग के आगे कुछ दिखता ही नहीं है. शायद अब यह प्रश्न न 'प्राइम' रह गया है और इसका 'टाइम' तो बिसरा हुआ ही लगता है. (03062015)

अब महिला टीवी एंकर, फ़ेसबुक पर बाकायदा पैसे देकर अपने पेज के प्रमोशन करने लगी है। जय हो। (02062015)

आजकल पत्रकार कब घटना-परिघटना का समाचार देते-देते कब "सलाहकार" बन जाते हैं पता ही नहीं चलता, क्यों बन जाते हैं, इसके लिए राज्यसभा में पत्रकारों के संख्या गिननी चाहिए. वैसे भी मन के लड्डू भला फीके क्यों ?(15072015)


जमीनी सच्चाई से अनजान, साधारण जन से जुड़े बिना आंदोलन के टेर गाने वाले, सोशल मीडिया और यू-ट्यूब पर क्रांति का बिगुल फूँक रहे हैं!


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...