Sunday, October 16, 2011

चार कौए उर्फ चार हौए / भवानीप्रसाद मिश्र


बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।

lines

शब्द केवल कहे हुए को न हीं, किए हुए को भी चरितार्थ करते हैं यही होती है शब्द की प्राण प्रतिष्ठा ।
पुरानी शराब को पीने जैसा ही है, पुरानी पुस्तक को खोज कर अपने संग्रह में जोड़ना................

कठपुतली / भवानी प्रसाद मिश्र


कठपुतली

गुस्‍से से उबली

बोली- यह धागे

क्‍यों हैं मेरे पीछे-आगे?

इन्‍हें तोड़ दो;

मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो।

सुनकर बोलीं और-और

कठपुतलियाँ

कि हाँ,

बहुत दिन हुए

हमें अपने मन के छंद छुए।

मगर...

पहली कठपुतली सोचने लगी-

यह कैसी इच्‍छा

मेरे मन में जगी?

Poem-Bhavani prasad mishra

जाहिल के बाने / भवानीप्रसाद मिश्र

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ
मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूँ

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर
आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी
आप सभ्य हैं क्योंकि ज़ोर से पढ़ पाते हैं पोथी
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने
धोती-कुरता बहुत ज़ोर से लिपटाये हूँ याने !

Sunday, October 9, 2011

साथ और साझा

बोझ को बोझ मत मानो, दर्द को कमतर जानो तो जिन्दगी का सफर आराम से कट जाएगा, राह आसान हो जाएगी। इसलिए जब कोई बात मन में घर जाती है तो उसे कागज की बजाय अब कंप्यूटर पर उतार देता हूं ।

साहित्य साथ होने और साझा करने का ही दूसरा नाम है । पढ़ना,लिखने को संभव करता है जैसे बात करना मन को हल्का करता है ।

अच्छा है जो भी लिखो जमा करो फिर जमा चाहे इस्तेमाल करो या नहीं तुम्हारी मर्जी । गुल्लक में कोशिश करके रोज कुछ शब्द जमा कर लेने चाहिए । फिर गुल्लक एक दुनिया रच ही देती है ।

कांटे से कील

बात मन में थी सो कह दी नहीं तो कांटे से कील बन जाती । सो उम्र भर दुख देती । भूल मान लेना मन में कांटे को कील न होने देना है । हम अपने दिल के गुब्बारे में कई कीलें जानभूझकर लगाते जाते हैं और फिर चाहते हैं कि दिल घायल न हो ।

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...