Saturday, May 30, 2020

Paid Labor in Ancient India_Ramvilas Sharma_भारत में पगारवाले श्रम की प्रथा_रामविलास शर्मा



भारत में ऐसी व्यवस्था थी और उसका आधार पगार देकर श्रम कराने की प्रथा थी। रोम-यूनान और भारत के आर्थिक विकास में अन्तर यह है कि रोम-यूनान में पगारवाली प्रथा गौण थी, भारत में वह प्रधान थी, रोम-यूनान में दासों का श्रम प्रधान था, भारत में वह गौण था। रोम-यूनान में दासप्रथा का फिर व्यापक चलन न हुआ, इसलिए लगभग हजार साल तक वहां उद्योग-व्यापार-केन्द्र भी कायम न हुए। भारत में कभी पूरी तरह पगारवाले श्रम की प्रथा का नाश नहीं हुआ, इसलिए बार-बार लूटे जाने पर भी ये उद्योग-व्यापार-केन्द्र फिर विकसित हुए। इसके सााि ही इन केन्द्रों के बार-बार तबाह होने से वह सामाजिक शक्ति क्षीण हुई जो विशेषाधिकारी वर्णव्यवस्था की जड़ काटने वाली थी। इसी कारण भारतीय इतिहास में वर्णव्यवस्था बार-बार टूटती और बिखरती दिखाई देती है किन्तु पूरी तरह नष्ट नहीं होती। जब भी वह टूटती दिखाई देगी, विनिमय केन्द्र सक्रिय होंगे, नगर सभ्यता देहात पर हावी होगी। टूटते-टूटते जब वह फिर जुड़ती दिखाई देगी, तब नगर तबाह होंगे और देहाती कृषितंत्र की प्रधानता होगी। जितने बड़े पैमाने पर भारत की उत्पादक शक्तियों का विनाश अंग्रेजी राज में हुआ, उतने बड़े पैमाने पर पहले कभी न हुआ था। इसलिए अंग्रेजी राज में भारत जैसा खेतिहर देश मात्र बनकर रह गया, वैसा वह पहले कभी न था। इस खेतिहर देश में वर्णव्यवस्था को, धार्मिक अन्धविश्वासों को और हर तरह के सामाजिक रूढ़िवाद को नया जीवन मिला। अंग्रेजों के जाने के बाद यह सब कायम है, उसमें इजाफा भी हुआ है, क्योंकि अंग्रेजों के बनाये हुए आर्थिक और राजनीतिक चौखटे को पूरी तरह तोड़ने में यह देश अभी तक असमर्थ सिद्ध हुआ है। 


-रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, पेज 246, 

Friday, May 29, 2020

Division of Hindustan_Making of Pakistan_divisive role of Urdu_Abdul Haq_पाकिस्तान_उर्दू_मौलवी अब्दुल हक



“पाकिस्तान को न जिन्ना ने कायम किया था और न ही इसे इकबाल ने बनाया था; यह तो उर्दू थी, जिसने पाकिस्तान कायम किया।”

-मौलवी अब्दुल हक (1870-1961), की भारत के विभाजन में उर्दू की भूमिका पर की गई एक मशहूर टिप्पणी

Shaji-ki-Dheri_Kanishka stupa_शाहजी-की-ढेरी_कनिष्क कालीन स्तूप




शाहजी-की-ढेरी_कनिष्क कालीन स्तूप

आज के पाकिस्तान में पेशावर से लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर शाहजी-की-ढेरी में एक प्राचीन कनिष्क कालीन स्तूप स्थित है। अविभाजित भारत में वर्ष 1908-09 में अमेरिकी पुरातत्वविद् डेविड ब्रेनार्ड स्पूनर ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लिए यहां पर उत्खनन का कार्य किया था।

इस उत्खनन के कारण यहां दूसरी शताब्दी ईस्वी समय का एक कनिष्क कालीन स्तूप को चिन्हित किया गया था। यहां खोज में एक कनिष्क मंजूषा भी मिली थी। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में कनिष्क के काष्ठ निर्मित बृहत स्तूप के चिन्ह उल्लेखनीय हैं।

इन उत्खनन कार्यों के बाद स्पूनर ने "एक्सक्वेशन एट शाहजी-की-ढेरीः एन्वल रिपोर्ट्स आफ आर्कियोलाॅजिकल सर्वे आफ इंडिया 1908-09" शीर्षक से एक पेपर भी प्रकाशित किया था।

Wednesday, May 20, 2020

World's First_Gupta coins_poetic inscriptions_गुप्तकालीन _कविताबद्ध सिक्के_मुद्रा

समुद्रगुप्त कालीन मुद्रा, ब्राह्मी लिपि में मुद्रा लेख अंकित है




गुप्त वंश के शासकों (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पांचवी ईस्वी तक) समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम, स्कंदगुप्त और बुधगुप्त ने अपने कई एक सिक्कों पर भिन्न भिन्न छंदों में कविताबद्ध लेख अंकित कराए थे। दुनिया भर के इतिहास में यही एक उदाहरण है कि ईसवी सन् की चौथी शताब्दी में भारतवासी ही अपने सिक्कों पर कविता-बद्ध लेख भी लिखवाते थे।

Tuesday, May 19, 2020

Life_Listening_Experiencing_जीवन_सुनने की जिज्ञासा


ग्राम दृश्य_अमृता शेरगिल_1938






























जीवन में सुनने की जिज्ञासा होनी चाहिए। शायद इसीलिए संकेत रूप में, हर मनुष्य के दो बड़े कान हैं।
अपनी बात कहने में ईमानदारी बरतनी चाहिए। चेहरे पर मुंह और मुंह में जिह्वा इसके लिए ही दी गई है।

हर काम में प्रतिबद्वता परिलक्षित होनी चाहिए। पूरा शरीर ही मानो हमारा जीवंत व्यक्तित्व है।

आज डिजिटल युग में संवाद की सबसे बड़ी समस्या बिना समझ के सुनने की है। हम बात को गुनने की बजाय मात्र उत्तर देने के लिए बात सुनते हैं। मानो हम एक एटीएम मशीन है, जिसमें काॅर्ड डलते ही प्रत्युत्तर में नोट आना जरूरी है।

जब हम जिज्ञासु भाव में बात सुनते हैं तब हमारे शरीर की समस्त इन्द्रियां, ग्रहणशीलता के लिए तत्पर होती है। हमारी मनोदशा टेनिस या बैडमिंटन के खेल में सामने वाली की सर्विस का जवाब स्मैश से देने के मनोविकार से ग्रसित नहीं होता है।

तभी हम शब्दो में निहित मूल मर्म को बूझ पाते हैं।

भरने के लिए स्वीकार का भाव ही शिष्यता के गुण को विकसित करता है।
भरा हुआ पात्र ही मौन होता है। यह मौन सबके भीतर है, बस उसे समझने भर का फेर है।

अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता "असाध्य वीणा" के शब्दों में
"वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है।"

Friday, May 15, 2020

Niskha_Oldest Money_India_निष्क_प्राचीनतम धन_भारत







निष्क 
'निष्क' में 'ठक्' जोड़ने से नैष्किक बनता है। पाणिनी के समय में जिस नैष्किक शब्द का प्रयोग होता था उसका अर्थ था एक निष्क से मोल ली हुई वस्तु। 'अष्टाध्यायी' में निष्क सिक्के का उल्लेख हुआ है। द्वित्रिपूर्वात् निष्कात् (5-1-30) सूत्र में दो निष्क और तीन निष्क से मोल ली जानेवाली वस्तु के लिए द्विनैष्किक, त्रिनैष्किक रूप में सिद्ध किए गए हैं। पाणिनी के समय में भी सौ निष्क की हैसियत वाला व्यक्ति 'नैष्कशतिक' और एकसहस्त्र निष्क वाला 'नैष्कसहस्त्रिक' कहलाता था।


व्यापारिक समृद्धि के उस युग में व्यक्ति विशेष के आढ्यभाव या आर्थिक प्रतिष्ठा का निर्देश करने के लिए ये वास्तवित पदवियां थीं। नगर की समृद्धि का अनुमान नागरिकों की अमीरी से लगाया जाता था। पतंजलि ने 'निष्कधन' और 'शतक निष्कधन' शब्दों का उल्लेख किया है।


'ऋगवेद' में निष्क शब्द का चार स्थानों पर उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में निष्क शब्द का प्रयोग आभूषण के रूप में हुआ है, क्योंकि इसी अर्थ में 'निष्कग्रीव' तथा 'निष्ककण्ठ' शब्द प्रयुक्त हुआ है। निष्क पहनने वाले पुरुष को 'निष्की' और स्त्री को 'निष्किनी' कहते थे।


वैदिक युग में सोने के आभूषणों में 'निष्क' मुख्य था। यह सोने का होता था और गले में पहना जाता था और इसे पहनने वाले को 'निष्कग्रीव' कहा जाता था। क्षत्ता (दूत, सारथि) को निष्कग्रीवः कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि पुरुष निष्क पहनते थे। यह एक सुवर्ण आभूषण था। इसे गले में पहना जाता है।


महाभारत के अनुशासन पर्व में, सौ निष्क और सहस्त्र निष्कवाली सम्पत्ति का उल्लेख आया है। 108 सुवर्ण मुद्राओं के साथ एक निष्क महाभारत के समय धन की इकाई मानी जाती थी।


अधिकतर इतिहासकार ऋगवेदीय 'निष्क' को मुद्रा के रूप में स्वीकार किया हैं और इस प्रकार वे भारतीय मुद्रा का आरम्भ ऋगवेदीय काल से ही स्वीकार करते हैं। श्रीपद दामोदर सातवलेकर ने निष्क का अनुवाद, सोने के सिक्के किया है जो सही मालूम होता है। वेदिक इंडेक्स के लेखकों ने क्रय के प्रसंग में सुझाया है कि निष्क संपत्ति का ऐसा रूप था जिसे आदमी आसानी से लेकर इधर उधर चल सकता था और यह संभव है कि वह विनिमय का माध्यम बना हो। फिर निष्क के अंतर्गत उन्होंने लिखा है कि ऋगवेद में इस बात के चिन्ह मिलते हैं कि निष्क एक तरह की मुद्रा था।


अथर्व वेद में सौ सुवर्ण निष्कों का उल्लेख है। स्मृतियों के आधार पर निष्क चार सुवर्ण के बराबर मान का होता था तथा एक सुंवरेंर्ग अस्सी कृष्णल का होता था।यद्द्यपि वैदिक युग से ही निष्क, शतमान आदि धातु खंडों की बहुमूल्यता स्वीकृत हो चुकी थी तथापि विनिमय के माध्यम के रूप में इन धातु खंडों के उपयोग का कोई निश्चित उल्लेख नहीं मिलता है।


जातक, महाभारत और पाणिनी तीनों की सामग्री का एक ही ओर संकेत है। डाक्टर देवदत्त रामकृष्ण भांडारकर के मत से जातकों में जो निष्क का जिक्र है उससे निष्क सोने का सिक्का ही मालूम होता है। जातकों में निष्क का चलन निव खः शब्द द्वारा ज्ञात होता है। बौद्व जातक कथाओं में मुद्रा के उल्लेख तथा पुरातात्त्विक अनुसन्धानों में आहत मुद्राओं की प्राप्ति को दृष्टि में रखते हुए यह मानना युक्तिसंगत लगता है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी में निष्क मुद्रा का ही सूचक है।


समकालीन साक्ष्यों के सम्यक् विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि निष्क बुद्ध के काल में स्वर्ण मुद्रा रहा होगा। मूल्यवान होने के कारण दैनिक जीवन में इसका उपयोग नहीं होता होगा। सम्भवतः इसी कारण अभी तक इसके पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिल सके हैं। साहित्यिक स्त्रोत स्वर्ण, रजत एवं ताम्र के कार्षापणों का उल्लेख करते हैं। स्वर्ण कार्षापण, सुवर्ण एवं निष्क के नाम से भी जाना जाता था, जबकि रजत कार्षापण, पुराण एवं धरण के नाम से विख्यात था।



बाद के युगों में, निष्क नियत सुवर्ण मुद्रा बन गई थी, ऐसा निश्चित ज्ञात होता है। मुद्राशास्त्र की दृष्टि से तथ्य यह था कि निष्क पाणिनीकाल में एक चालू सिक्का था। शतपथ ब्राहाण में स्पष्ट इस बात का उल्लेख है कि निष्क सोने का सिक्का था।



Wednesday, May 13, 2020

Sarnath_Archaeological Excavation_1905_सारनाथ__पुरातात्विक अन्वेषण_1905





सारनाथ, बनारस के समीप, उत्तर प्रदेश में पुरातात्विक अन्वेषण, वर्ष 1905।


सिंह का प्रतीक, यह वर्ष में देश की स्वतन्त्रता के बाद वर्ष 1950 में भारत का राष्ट्रीय प्रतीक घोषित हुआ।


तीसरी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक काल में निर्मित।

Mannarasala Snakes Temple_Kerala_मन्नारसला सर्प मंदिर_केरल






मन्नारसला सर्प मंदिर_ऋषि परशुराम

केरल में प्रसिद्ध नागराजा मंदिर मन्नारसला एक सघन वन क्षेत्र में स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के मार्गों और वृक्षों के मध्य एक हजार से अधिक नाग प्रतिमाएं बनी हुई हैं। यह अपने प्रकार का केरल का अकेला सबसे बड़ा मंदिर है।

इस मंदिर में संतान की इच्छुक महिलाएँ पूजा के लिए आती हैं। जबकि संतान प्राप्ति होने के बाद ये स्त्रियां अपने नवजात शिशुओं के साथ ईश्वर का धन्यवाद देने के लिए यहां अर्चना समारोहों के आयोजन में आती हैं। जहां आभार स्वरूप सर्प की नई प्रतिमाएं मंदिर में अर्पित की जाती हैं। इस मंदिर में उपलब्ध एक विशेष प्रकार की हल्दी का लेप रोगनिवारक माना जाता है।



Gulmarg_Kashmir_Valley of Flowers_कश्मीर_गुलमर्ग_

गुलमर्ग का एक फूलों का बाग़ 



कश्मीरी भाषा मर्ग शब्द का अर्थ होता है 'चरागाह'।

सो, जम्मू और कश्मीर के गुलमर्ग के मायने हुए "फूलों की चरागाह" और सुनमर्ग या सोनमर्ग का मतलब हुआ "सुनहली चरागाह"। 

उल्लेखनीय है कि यहां अनेक प्रकार के अलग-अलग रंगों-बू के वन कुसुम खिलते हैं। इनमें बहुत से फूल ऐसे हैं, जो अन्य पार्वत्य प्रदेशों में बिलकुल नहीं मिलते।



Tuesday, May 12, 2020

Teleprinter_India_1948_टेलीप्रिन्टर_भारत सरकार_1948



देश के आजाद होने के बाद समाचार पत्रों, समाचार एजेंसियों और समाचार संकलन से जुड़े संगठनों के लिए टेलीप्रिन्टर एक महत्वपूर्ण साधन था। उल्लेखनीय है कि तब टेलीप्रिन्टर चैनलों के स्वामित्व पर भारत सरकार का एकाधिकार था। 

वर्ष 1948 में केंद्रीय डाक और तार विभाग के पास टेलीप्रिन्टर चैनलों को लीज का आवंटन करने की जिम्मेदारी थी। इन टेलीप्रिन्टर चैनलों के आवंटन के इच्छुक समाचार पत्रों, समाचार एजेंसियों और समाचार संकलन से जुड़े संगठनों को विभाग के साथ एक अनुबंध करना पड़ता था। 

तब टेलीप्रिन्टर सर्किटों को लीज पर लेने की अलग अलग दरें थीं। पहले 25 मील की दूरी के लिए 60 रूपए प्रति वर्ष, अगले 475 मील की दूरी के लिए 45 रूपए प्रति वर्ष और उसके बाद की दूरी के लिए लिए 30 रूपए प्रति वर्ष की दर वसूली जाती थी। 

Cathedral Church of Redemption_Delhi_कैथेड्रल चर्च ऑफ़ रिडेम्पशन_दिल्ली

कैथेड्रल चर्च ऑफ़ रिडेम्पशन, दिल्ली का स्केच_साभार इंटेक 



दिल्ली के विशालतम गिरजाघरों में से एक कैथेड्रल चर्च ऑफ रिडेम्पशन की गिनती राजधानी की शानदार इमारतों में होती है। इस गिरजाघर का डिजाइन हेनरी अलेक्जेंडर नेस्बिट मेड ने किया था। यह गिरजाघर आज के राष्ट्रपति भवन, जो कि अंग्रेजी राज में वाइसराॅय हाउस कहलाता था, के उत्तर में स्थित है।

इस गिरजाघर के मुख्य भवन का निर्माण वर्ष 1927 से 1931 की अवधि के मध्य किया गया था। लेकिन धन की कमी के कारण इसका बुर्ज वर्ष 1935 में बनकर तैयार हुआ। 

वर्ष 2009 में, दिल्ली सरकार ने नई दिल्ली नगर पालिका परिषद के अधिकार क्षेत्र के तहत गिरजाघर के भवन को पहले ग्रेड (श्रेणी) की विरासत संरचना के रूप में अधिसूचित किया।

Monday, May 11, 2020

PIB_Shastri Bhawan_Delhi_पत्र सूचना कार्यालय




देश के स्वतंत्र होने के पश्चात् भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का दिल्ली स्थित पत्र सूचना कार्यालय एन ब्लाॅक हटमेन्ट्स, रायसीना रोड पर होता था। जबकि आज राजधानी में पत्र सूचना कार्यालय राजेन्द्र प्रसाद रोड पर स्थित शास्त्री भवन में है।

Kashmir_From Down the Ages to Today_कश्मीर_पुरातन से आधुनिक काल तक





कम से कम तेईस सौ वर्ष पुराने विवरणों में 'काश्मीर' नाम का ही प्रयोग हुआ है। संस्कृत के 'कस्मीर' से बदलकर यह नाम फारसी का 'कश्मीर' और हिन्दी का 'काश्मीर' हो गया है। घाटी में इसे स्थानीय लोग 'कशीर' पुकारते हैं, जो कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत के 'कस्मीर' से निकला है। भाषाविदों के अनुसार पूर्ववर्ती ऊष्म के सारूप्य और अन्तिम स्वर के क्रमशः पतन के साथ संस्कृत की बोलियों में मध्य का म, व के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए कशीर के पहले प्राकृत में कभी 'कस्मीर' को 'कस्वीर' भी बोला जाता होगा, जिसे टोलमी ने 'कस्पीर' या 'कस्पीरिया' के रूप में लिखा है। टोलमी (दूसरी शताब्दी का ज्योतिषी) ने ही सबसे पहले अपने भारतवर्ष के भूगोल में काश्मीर का कस्पीरिया के रूप में उल्लेख किया है।

पाणिनी (600 ईसापूर्व) के व्याकरण के गणों में केवल कस्मीरियों के देश 'कस्मीर' का उल्लेख मिलता है और पातंजलि की इस पर टीका है। पुराणों में 'कस्मीरज; की गणना उत्तरी राष्ट्रों में कराई गई है। और वराहमिहिर (500 ईस्वी) ने अपनी पुस्तक 'बृहत्संहिता' में 'काश्मीर' को उत्तर पूर्वी भाग में रखा है।

घाटी के बाहर का प्राचीन संस्कृत साहित्य 'काश्मीर' के बारे में केवल इतनी ही उपयोगी सूचना देता है कि इस देश को 'कस्मीर' या 'कस्मीरज' कहते थे। 'कस्मीरज', 'केसर' का पर्याय भी था। इन पुस्तकों में एक और शब्द 'कुष्ठ' (कुठ) की सूचना मिलती है। 'कुठ' एक बूटी है, जो अनेक औषधियों में प्रयुक्त होती है। इन वस्तुओं का उन दिनों भी 'काश्मीर' से निर्यात होता था।

काश्मीरी तीर्थों के बारे में जो सबसे प्राचीन पुस्तक है उसका नाम 'नीलमत पुराण' है। कल्हण ने भी इस पुस्तक को आधार माना है। एक मान्यता है कि वर्तमान रूप में 'नीलमत पुराण' छठी या सातवीं शताब्दी से पहले की नहीं हैै। फिर भी इतना मान सकते हैं कि माहात्म्यों की तरह 'नीलमत पुराण' एक मनगढन्त रचना नहीं है।


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...