Saturday, June 24, 2017

19 century civil line_delhi_indian family_सिविल लाइंस_भारतीय परिवार

Dainik Jagran_24062017



तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के निजी सलाहकार-सचिव पी.एन. धर की पत्नी शीला धर ने अपनी पुस्तक "रागा एन जोश" में 19 वीं शताब्दी की दिल्ली के सिविल लाइंस में भारतीय परिवारों के बसने का विशद वर्णन किया है। 

इस पुस्तक में शीला धर लिखती है कि 1920 के दशक में मेरे वकील दादा अपने बड़े संयुक्त परिवार के साथ पुराने दिल्ली की चैलपुरी की भीड़भाड़ वाली गलियों से निकलकर सिविल लाइंस गए थे।

पुस्तक के अनुसार, यहां के विशाल और सुरुचिपूर्ण इलाके में बागों के बीच में अंग्रेज शैली के करीब 24 बंगले बने थे, जिनमें अंग्रेज सरकार में उच्च अधिकारी रहते थे। छांवदार लंबे वृक्षों से घिरे ये बंगले घुमावदार गलियों से जुड़े हुए थे। इन घरों में आने वाले पुरानी दिल्ली के रिश्तेदार अंग्रेजियत भरे रहन-सहन को लेकर चकित होते थे और हर किसी के मन में ऐसी जिंदगी जीने की तमन्ना थी।

शीला धर बताती है कि इन घरों में सब्जी की भुजिया और पराठे के नाश्ते की जगह अंडा, टोस्ट और जैम होता था। मेहमानों को चाय के साथ समोसे और बरफी की बजाय केक और सैंडविच परोसे जाते थे तो शाम को बैठकखाने में केवड़ा शर्बत के स्थान पर स्कॉच व्हिस्की और सोडा होता था। पुरुष वर्ग घर के आंगन में शतरंज और गंजिफा (ताश जैसा खेल) खेलने की बजाय क्लबों में टेनिस,बिलियर्ड्स और ब्रिज खेलता था।

शीला धर अनुसार, मेरे दादा को मिली राय बहादुर की पदवी एक सम्मान की प्रतीक थी। मेरे दादा को उनके असली नाम राज नारायण की बजाय राय बहादुर के नाम से ज्यादा जाना जाता था। हमारे बंगले का डिजाइन मेरे दादाजी ने खुद ही बनाया था, जिसमें बड़े कमरों, पूजा घर, रसोईघर, भंडार और भोजन कक्ष था। भोजन कक्ष में घर के सभी साठ सदस्य एक ही समय में बैठकर भोजन कर सकते थे। 


najafgarh drain_from water source to dirt water_नजफगढ़ नाले की व्यथा-कथा

June 24 2017, Dainik Jagran 




दिल्ली में यमुना नदी में मिलने वाले तीन प्रमुख प्राकृतिक जल निकासी बेसिन (नाले) हैं, जिनमें नजफगढ़ बेसिन सबसे बड़ा है। नजफगढ़ नाला दिल्ली में सबसे बड़ा नाला है। यह हरियाणा से दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम भाग में प्रवेश करता है। दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम जिले के अपने प्रारंभिक चरण में यह नाला अपने साथ बाढ़ का पानी, हरियाणा का अपशिष्ट जल और आस-पास के जलग्रहण क्षेत्र का पानी बहाकर लाता है।


दिल्ली की नई पीढ़ी इस बात से अनजान ही है कि राजधानी में यमुना नदी के बाद पानी का सबसे बड़ा जल स्रोत नजफगढ़ झील होती थी। इतना ही नहीं, आज जल प्रदूषण के लिए कुख्यात नजफगढ़ नाला कभी इस झील को नदी से जोड़ने वाला माध्यम था। यह नाला कभी राजस्थान की राजधानी जयपुर के जीतगढ़ से निकलकर अलवर, कोटपुतली से वाया हरियाणा के रेवाड़ी और रोहतक से होते हुए नजफगढ़ झील व वहाँ से राजधानी की यमुना नदी से मिलने वाली साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी। इस नदी के माध्यम से नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना नदी में मिलता था।


वर्ष 1912 में जब राजधानी के ग्रामीण क्षेत्रों में बाढ़ आई तो अंग्रेज सरकार ने आपात स्थिति में नजफगढ़ नाले को गहराकर उससे पानी की निकासी का प्रबंध किया। इस निकासी के कारण ही उसके बाद इसका नाम "नजफगढ़ लेक एस्केप" पड़ा।


यही से नजफगढ़ झील और प्राकृतिक नहर के नाले में बदलने की व्यथा-कथा शुरू हुई। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसे नाला तो दिल्ली के विकास के साथ बना दिया गया है। उसी का नतीजा था कि वर्ष 2005 में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नजफगढ़ नाले को भारत के सबसे अधिक प्रदूषित 12 वेटलैंड में से एक बताया। यहां तक कि हरियाणा की पिछली कांग्रेस सरकार ने तो राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में एक मुकदमे के दौरान दाखिल किए अपने हलफनामे में नजफगढ़ झील के होने को ही इंकार करते हुए उसे बारिश के अतिरिक्त जल के जमा होने का निचला हिस्सा मात्र बताया। जिस पर न्यायाधीश ने सरकार से ही पूछ लिया था कि यदि यह झील नहीं है तो आखिर झील किसे कहेंगे।


आज नजफगढ़ नाला यमुना नदी में मिलने से पहले 57.48 किलोमीटर की कुल दूरी में से 30.94 किमी की दूरी दक्षिण पश्चिम जिले में ढासा से लेकर ककरौला तक तय करता है। ढासा से लेकर ककरौला तक, 28 छोटे नाले और ककरौला के बाद लगभग 74 छोटे-बड़े नाले नजफगढ़ नाले में शामिल होते हैं।




यही कारण है कि अब यह नाला अब बरसाती पानी की निकासी की बजाए शहर की गंदगी को बहाने का माध्यम बन चुका है। यह नाला अपने आस-पास रहने वालों के लिए बीमारियों और सड़ांध का एक प्रमुख कारण है। यमुना नदी को मैली करने का यह सबसे बड़ा कारण है। नजफगढ़ नाले के माध्यम से झील का अतिरिक्त पानी बहकर यमुना में जाता था। इस झील में भर जाने वाले बरसाती पानी की निकासी के लिए यह नाला पर्याप्त साबित नहीं हो रहा है। पानी की निकासी की यह व्यवस्था होने के बाद भी इस झील के आस-पास के इलाके में पानी भरा रह जाता है।

Sunday, June 18, 2017

On the name of Cricket_Left hallowness



क्रिकेट के नाम रुदाली-गान

बारिश के मौसम में जैसे लाल कीड़े न जाने जमीन से, इधर-उधर से निकल आते हैं, कुछ ऐसे ही क्रिकेट के चैंपियंस ट्राफी मुकाबले में भारत-पाकिस्तान के मैच से पहले फेसबुक पर लाल रुदालियों ने क्रिकेट को लेकर विधवा विलाप शुरू कर दिया है.


इस एकतरफा विमर्श में भी मजदूर, किसान आ गए हैं, बांग्लादेश क्रिकेट टीम के कप्तान भी.

मान न मान मैं तेरा मेहमान.
मुहम्मद अली की वियतनाम युद्ध से जगी अंतरात्मा की आवाज़ लगता है बांग्लादेश क्रिकेट टीम के कप्तान को सुनाई नहीं डी.
नहीं तो बांग्लादेश में १९४७ से इस्लामी जिहाद के नाम पर जारी हिन्दू उत्पीड़न-संहार से मशरफ़ मुर्तजा की आत्मा जरुर जगती.

पश्चिम बंगाल की जिलों में बांग्लादेश से हुई घुसपैठ से हुआ जनसँख्या के चरित्र में परिवर्तन पर लाल रुदालियों के आंसू दिखाने के लिए भी नहीं निकलेंगे. 

देश विरोध से विरोधी देश के प्रच्छन्न समर्थन से अधिक त्रासदी क्या हो सकती है. ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न हो तो ही बेहतर!



Books_Books lover_पुस्तक


यह प्यास है बड़ी!

अच्छी खासी संख्या में पुस्तकों को सहेजकर रखने वालों में एक बात विचित्र रूप से समान होती है कि वे हमेशा और अधिक पुस्तकों की चाह रखते हैं।
-पैट्रीसिया ए मैककिल्लिप

Saturday, June 17, 2017

Sahir_Tajmahal_साहिर लुधियानवी_ताजमहल



इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़


मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!

-साहिर लुधियानवी (ताजमहल)

Rajo ki bain_राजो की बैन_water body

दैनिक जागरण_17062017



महरौली में गंधक की बावली के 400 मीटर दक्षिण की ओर दूसरा चार स्तरों वाला सीढ़ीयुक्त कुआं है जो राजो की बैन के नाम से जाना जाता है, ऐसा लगता है कि उसको यह नाम राजों (कारीगरों) द्वारा इस्तेमाल किये जाने के कारण मिला था। माना जाता है कि इस बावड़ी के पानी का इस्तेमाल इस इलाके में रहने और निर्माण कार्यों में लग राज और मिस्त्रियों द्वारा किया जाता था। इसलिए इसका नाम “राजों की बैन” पड़ा।


इसकी ऊपर की दीवारों के भीतर की सीढ़ियां उसे एक मस्जिद से जोड़ती हैं, जिसकी छतरी में 912 हिजरी (सन् 1506) का एक अभिलेख है जिसमें यह बतलाया गया है कि यह सिंकदर लोदी (1498-1517) के शासन काल में बनवाया गया था। लोदी वंश दिल्ली पर शासन करने वाला एक ऐसा वंश रहा, जिसने यहां पर अपने किसी शहर का निर्माण नहीं किया, लेकिन उनके निर्माण के नमूने आज भी शहर में दिखाई देते हैं।

यह इमारत चार मंजिला है। इसके चारों ओर कमरे बने हुए हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है। इतिहासकार परसीवल स्पीयर ने अपनी पुस्तक “दिल्लीःइट्स मान्यूमेंट एंड हिस्ट्री” में लिखा है कि एक समय में इस बावड़ी को सूखी बावड़ी भी कहा जाता था, क्योंकि इसमें पानी नहीं रह गया था। इस बावड़ी के साथ एक मस्जिद भी बनी हुई है। यह बावड़ी दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा महरौली क्षेत्र में विकसित किए गए पुरातात्विक पार्क में स्थित है। जमाली कमाली से करीब आधा किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की ओर चलने पर यह बावड़ी मिलती है।

इसे “राजो की बाई” के नाम से भी पुकारा जाता है। दिल्ली के इतिहास और उसकी इमारतों पर किताब लिखने वाले सर सैयद अहमद के अनुसार संस्कृत साहित्य में ऐसे सीढ़ीदार कुंओं का जिन्हें बाई, दाईं या बावलियां कहते थे विस्तृत उल्लेख मिलता है। मुस्लिम शासकों ने बावलियों को बढ़िया ढंग से मनोरंजन स्थलों के रूप में बनाया था।


Barapula_water drain_गंदगी नहीं ताज़े पानी का स्त्रोत था बारापुला




दक्षिणी दिल्ली में रिज से पानी के यमुना नदी की ओर बहाव की ओर नजर डालें तो बारापुला, तेहखंड और बुधिया नाला तीन ऐसे रास्ते हैं, जिनसे होकर रिज की पहाड़ियों का पानी यमुना में पहुंचा करता था। ये तीनों अब नाले के रूप में दिखाई देते हैं जो शहर की गंदगी को यमुना में पहुंचाने का काम करते हैं। इन नालों ने कभी अच्छे दिन भी देखे थे। मानसून के दिनों में तेज रफ्तार से पानी की निकासी करने वाली ये नाले पहाड़ी नदियों की तरह काम करते थे।


मार्ग से प्रकाशित जट्टा-जैन-नेउबाउर की संपादित “वाटर डिजाइन, एनवायरनमेंटएंड हिस्ट्रिज” पुस्तक में जेम्स एल वेशकोट “बारापुला नाला और इसकी सहायक धाराएं, सल्तनत और मुगलकालीन दिल्ली में जल विभाजन की वास्तुकला” नामक अध्याय में लिखते हैं कि दिल्ली रिज से लेकर मैदान, महरौली से लेकर शाहजहांनाबाद तक का समूचा क्षेत्र एक बड़े जल स्त्रोत से सिंचित होता था। यह पानी के एक प्रमुख प्रवाह का रूप ले लेता था जो कि आज बारापुला नाला (अब इस नाम के बने नए फ्लाईओवर के कारण प्रसिद्ध) के नाम से जाना जाता है। बारापुला नाला आज के शहरी गांव निजामुद्दीन से होते हुए बहता हुआ एक प्रमुख जल स्त्रोत से मिलता है, जिसे आज कुशक नाला के रूप में जाना जाता है।



जेम्स एल वेशकोट के अनुसार, बृहत्तर दिल्ली में पानी की चार प्रमुख धाराएं थी। इनमें से एक हौजखास तालाब में पहुंचती थी, कुशक नाला दक्षिणपूर्व दिल्ली को सिंचित करता था, मध्य रिज की पहाड़ी धाराएं थीं और अंतिम धारा पानी की घुमावदार धाराएं थीं, जिनसे लोदी मकबरे के बागों और गांवों को पानी पहुँचता था।



जब हम किला रॉय पिथौरा की पानी की विभिन्न धाराओं से दिल्ली के जल प्रवाह क्षेत्र तक की यात्रा करते हैं तो हमें इनके व्यापक अंर्तसंबंध का पता चलता है। यहाँ नदी के किनारे की बसावट का इलाका किलोकरी के नाम से जानी जाती थी। यह बारापुला के यमुना नदी में मिलने के स्थान के ठीक दक्षिण में है। 1286 ईस्वी में सुल्तान कैकुबाद ने किलोकरी का विस्तार किया था। ऐतिहासिक पुस्तकों में यहां पर सुन्दर महल और उद्यानों के होने का वर्णन है। ऐसा माना जाता है कि शायद नाले और नदी दोनों में पानी की बाढ़ के कारण किलोकरी अधिक समय तक आबाद नहीं रही जबकि आज के आधुनिक समय में यहां घनी शहरी आबादी का विकास देखने को मिलता है।



कुशक नाला में मिलने वाली पानी की मुख्य धारा में पहाड़ी ढलानों की छोटी धाराओं सहित तुगलकाबाद से ऊपरी क्षेत्र में विभिन्न जल स्त्रोंतों से पानी आता था। कुशक नाला में मिलने वाले जल स्त्रोतों का समागम, एक तुगलक-कालीन जल नियंत्रण संरचना सतपुला बांध के ऊपर होता था। सतपुला अंग्रेजों से पहले की दिल्ली का विशालतम और सर्वाधिक परिष्कृत जल नियंत्रण ढांचा है। मुहम्मद बिन तुगलक ने 1343 ईस्वी में इसको बनवाया था।



जेम्स एल वेशकोट के अनुसार, सतपुला बांध से नियंत्रित पानी एक संकरी जलधारा के रूप में निकलता था, जिसकी दाई ओर चिराग-दिल्ली गांव, और बाई ओर सिरी का किला था। अफसोस की बात है कि आज इसके ठीक उलट यह दुर्गंध-कचरे से भरा हुआ नाला चिराग दिल्ली गुजरता हैं।



बारापुला नाला के आगे बढ़ने के साथ इसमें दक्षिण से, अब्दुल रहीम खानखाना (प्रसिद्ध हिंदी मध्यकालीन कवि) के भव्य मकबरे के बाग से होकर बहने वाली पानी की छोटी उपधाराएं आकर मिलती हैं। दिल्ली के इतिहास में इस कब्र परिसर शायद नाले के सामने बेहतरीन बगीचा था। इस नाले पर अभी तक बची हुई सबसे पुरानी जल संरचना मुगलकालीन बारापूला का पुल है, जिस पर इस नाले का नाम है।



Monday, June 12, 2017

tongue is sharp then razor_जुबान का वार_उस्तरे की धार



जुबान का वार, उस्तरे की धार से भी तेज होता है!

Books_Newspaper_कालजयी_पुस्तक


पुस्तक ही कालजयी होती है, 

अख़बार का क्या है 

एक दिन 

बाद ही रद्दी!

Country_Kennedy_देश_जॉन एफ़. कैनेडी

जॉन एफ़ कैनेडी भारत दौरे पर 


"यह मत पूछे कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है बल्कि यह पूछे कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं."


-जॉन एफ़. कैनेडी, अमेरिकी राष्ट्रपति 

Waiting eyes_याद जब आँखों में हो

Waiting by Joseph Lorusso


याद जब आँखों में हो,
नींद कैसे आएँगी,
आँखें हैं भले दो,
दिल तो एक है.



Sunday, June 11, 2017

Endless wait_इंतज़ार



कितने लोग
बेसबब चले आते हैं,जिंदगी में

बिना पूछे,
बेमनबेसाख्ता

बस
जिसका इंतज़ार होता हैवहीँ नहीं होता!


Saturday, June 10, 2017

Hall of nations_हॉल ऑफ नेशंस



आज प्रगति मैदान में आने वाले दर्शक को शायद ही यह बात पता होगी कि यहाँ पर बने ‘हॉल ऑफ नेशंस’ में त्रिशूल के दृश्य फिल्माए गए थे। इस फिल्म में पूनम ढिल्लो अपने घर से भागकर ‘हॉल ऑफ नेशंस’ ही आई थी और प्रेम चोपड़ा से लेकर बाकि नायकों की लड़ाई के दृश्य इसी हॉल में फिल्माए गए थे।

यश चोपड़ा की निर्देशित त्रिशूल में फिल्म में भूमि-भवन निर्माता आर के गुप्ता (संजीव कुमार) और उसके परित्यक्त-नाजायज बेटे विजय (अमिताभ बच्चन) की कहानी में राजधानी का फैलता शहरी जनजीवन और सटे हुए उपनगरों जैसे फरीदाबाद और गुड़गांव के उभरने की बात पृष्ठभूमि में साफ झलकती है। फिल्म की बाप-बेटों के आपसी और पारिवारिक संघर्ष की कहानी के साथ लोधी गार्डन, गोल्फ क्लब, जिमखाना, सरकारी कार्यालयों, प्रगति मैदान और अशोक होटल का जुड़ाव सहज रूप से स्थानिकता को एक प्रमाणिकता प्रदान करता है। देश में आज़ादी के २५ बरस पूरे होने पर प्रगति मैदान में बने ‘हॉल ऑफ नेशंस’ का उद्‌घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 3 नवंबर, 1972 को किया था। इसका डिजाइन राज रेवल-इंजीनियर महेंद्र राज ने बनाया था। उल्लेखनीय है कि एक समय में यहाँ पर 20वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध वास्तुकला ढांचों की एक प्रदर्शनी आयोजित की गयी थी।

भारत के आधुनिक वास्तुकला के विकास में “हॉल ऑफ नेशंस” एक बहुत ही महत्वपूर्ण इमारत के नाते स्थान है। यह 1970 के दशक में देश में उपलब्ध संसाधनों के साथ एक विशाल ढांचे और स्थान वाली संरचना खड़ी करने की पेशेवर क्षमता का प्रतीक थी, जिसे इस इमारत के मामले में सीमेंट, कंक्रीट और कुशल मजदूरों के सहयोग से खड़ा किया गया था। हाल ही में ‘हॉल ऑफ नेशंस’ की इमारत को ढहा दिया गया। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इंटेक) ने इस साल अप्रैल में इस इमारत को न ढ़हाने को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी पर उसे न्यायालय ने खारिज कर दिया।
प्रगति मैदान में भारत व्यापार संवर्धन संगठन (आईटीपीओ) का मुख्यालय है, जो कि वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत एक नोडल एजेंसी के रूप में काम करता है। आईटीपीओ के परिसर में हर साल एक विश्व प्रसिद्ध वार्षिक व्यापार मेले का आयोजन होता है।

INA Delhi case_आजाद हिंद फौज का दिल्ली मुकदमा





दूसरे विश्व युद्व में अंग्रेज सेना की 1943 में बर्मा को जापानी सेना से दोबारा जीत के साथ भारत में आम जनता को आजाद हिंद फौज के कारनामों के बारे में पता लगा। अंग्रेज़ सरकार ने 27 अगस्त 1945 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिंद फौज के सभी बंदी बनाए सैन्य अधिकारियों और जवानों के कोर्ट मार्शल के लिए फौजी अदालत में पेशी की बात की घोषणा की।

इस पेशी का मुख्य उदेश्य यह जतलाना था कि आज़ाद हिंद फौज के सैनिक गद्दार और जापानियों की चाकरी में लगे गुलाम थे। अंग्रेज़ सरकार का मानना था कि जब आज़ाद हिंद फौज की क्रूरता के कुकृत्य सार्वजनिक होंगे तो उसके लिए सहानुभूति अपने से ही समाप्त हो जाएंगी। इसी कारण से जनसाधारण को मुकदमों की कार्यवाही को देखने का अवसर दिया गया।

26 जुलाई 1945, ब्रिटेन में हुए आम चुनावों में प्रधानमंत्री चर्चिल को मुंह की खानी पड़ी और क्लीमेंट एटली प्रधानमंत्री बना। ऐसे कांग्रेस नेतृत्व और अंग्रेज सरकार दोनों ही एक-समान दुविधा के शिकार थे। नेताजी के साथ कैसा व्यवहार हो। क्या उन्हें बंदी बनाकर भारत लाया जाए?

अब देश के जनसाधारण की आँखों में नेताजी गांधीजी के समकक्ष थे। यह साफ़ हो गया था कि अगर सुभाष चन्द्र बोस वापिस लौटे तो जनता में नेताजी के समर्थन की लहर कांग्रेस के नेतृत्व को अप्रासंगिक कर देगी।

तभी, दूसरे विश्व युद्व का अचानक से अंत हुआ। जापान ने हिरोशिमा-नागासाकी में दो परमाणु बमों के गिरने के बाद 15 अगस्त 1946 को हथियार डाल दिए। तभी 23 अगस्त 1945 को नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्यु होने की घोषणा हुई। नेताजी की मौत ने अंग्रेज सरकार और कांग्रेस नेतृत्व दोनों की दुविधा दूर कर दी। अब वे उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली स्थिति में नहीं थे। वे स्वतंत्रता सेनानियों की एक सेना का नेतृत्व करने वाले एक शहीद थे। कांग्रेस नेतृत्व को जल्दी से यह बात समझ में आ गई कि आजाद हिंद फौज की सफलता की बड़ाई करके कम से कम कुछ समय के लिए तो राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है।

अगस्त 1945 को अंग्रेज सरकार ने आजाद हिंद फौज के लगभग 600 सैनिकों पर अदालत में मुकदमा चलने और बाकियों के बर्खास्त होने की बात कही। सबसे पहले कर्नल (कैप्टन) शाह नवाज, कर्नल (कैप्टन) पी के सहगल और कर्नल (लेफ्टिनेंट) जी एस ढिल्लो के विरूद्व मुकदमा चलना था। समय को पहचानते हुए कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज के सभी आरोपी सैनिकों के बचाव की पूरी जिम्मेदारी अपने पर ले ली। आज़ाद हिंद फौज की बचाव पक्ष की समिति में कैलाश नाथ काटजू, आसफ अली, राय बहादुर बद्री दास, रघुनंदन सरन, तेज बहादुर सप्रू, जवाहर लाल नेहरू और भूलाभाई देसाई थे।

दिल्ली के लालकिले में पहला मुकदमा 5 नवंबर 1945 को शुरू हुआ। इस बीच 30 नवंबर 1945 को गवर्नर जनरल ने जनता में बढ़ती लोकप्रियता और उत्साह को भांपते हुए मुकदमे के लिए पेश नहीं किए गए आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों को रिहा करने का फैसला लिया। अंग्रेज सरकार इस नजरिए से यह बात को पूरी तरह साफ हो गई कि यह मुकदमा एक आला दर्जे की भूल था।

इन अफसरों को देशद्रोही बताने से, उनकी लोकप्रियता में ही वृद्धि हुई। इन मुकदमों से बने राष्ट्रवादी माहौल से सशस्त्र सैनिक भी अछूते नहीं रहे। इसी का परिणाम 1946 में बंबई में भारतीय नौसेना में विद्रोह के रूप में सामने आया। इस तरह, आज़ाद हिंद फौज ने हारकर भी अंग्रेजी उपनिवेशवाद के कफन में अंतिम कील गाड़ने में सफल रही।

Dalit Law Minister of Pakistan_J N Mandal_जोगेंद्र नाथ मंडल

जोगेंद्र नाथ मंडल


एक दलित की "जियारत"

सिंध के अमरकोट के अकबर से लेकर पाकिस्तान तक 'दलित' अशक्त ही रहे. 

एक जोगेंद्र नाथ मंडल 'जियारत' पर पाकिस्तान गए थे पर लौटकर वापिस हिंदुस्तान आएं. 

इसका कारण, पाकिस्तान के ऊँची जाति वाले मुस्लिम बाहुल्य समाज का इस्लामी कानून पहले 'दलित' कानून मंत्री के मन को नहीं भाया.

Friday, June 9, 2017

big media houses_normal journalist_मीडिया में बाप-बढ़ा न भैया, सबसे बड़ा








मीडिया में बाप-बढ़ा न भैया, सबसे बड़ा...

जब बड़े मीडिया समूह पत्रकार-कैमरामैन-फोटोग्राफर को सड़क पर ला देते हैं तब कोई क्लब आवाज़ नहीं उठाता!

कितने बड़े मीडिया समूह अपने यहाँ वेजबोर्ड पर वेतन दे रहे हैं...

एक का तो मैं खुद भुक्तभोगी हूँ, जहाँ मणिसाना के नाम पर "अंगूठा" दिखा दिया गया.

आज के कितने बुजुर्ग पत्रकारों ने "कुर्सी" पर रहते हुए, अपने से कनिष्ठ पत्रकारों को वेजबोर्ड के अनुसार वेतन न मिलने पर "लाला" से ऊँची आवाज़ में बात भी की?

वेतन दिलाने की बात तो दूर की है...

साहस की पत्रकारिता ने कब कस्तूरबा गाँधी मार्ग पर अख़बार की ईमारत के बाहर धरने पर बैठे पत्रकारों की खबर छापी?

या अर्चना सिनेमा वालों ने नोएडा के टीवी समूहों से बाहर किए पत्रकारों के फिल्म सिटी में जलूस की खबर दिखाई, सो फिर काहे का जमावड़ा, काहे की लड़ाई!

शायद इसीलिए पत्रकार-संपादक-मंत्री रहे "शख्स" ने कभी "क्लब" की सदस्यता तक नहीं ली.

Thursday, June 8, 2017

Anti National character_Indian Left_वामपंथ का अराष्ट्रीय चरित्र



वाम-पंथी कब से "भारत", "आत्मा" में भरोसा करने लग गए!
आखिर इसी "पंथिक" स्वरुप ने तो "पाकिस्तान" को बौद्धिक समर्थन दिया था। खैर, हारे का हरिनाम।
सीताराम कहो या राधे श्याम नाम से अधिक काम की बात ज्यादा जरुरी है।
उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन ने नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित अपनी आत्मकथा में बहुत आश्चर्य और दु:ख के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन पाकिस्तान-समर्थक नीतियों की भर्त्सना की है।
आखिर धर्म के आधार पर देश के राष्ट्रीय-विभाजन का समर्थन मार्क्‍सवादी सिध्दान्तों के प्रतिकूल तो था ही, वह उन मुस्लिम राष्ट्रीय भावनाओं को भी गहरी ठेस पहुँचाता था, जो आज तक काँग्रेस और अन्य प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिल कर मुस्लिम लीग की अलगाववादी नीतियों का विरोध करते आ रहे थे।
मालूम नहीं, अपने को सेक्यूलर・की दुहाई देने वाली दोनो कम्युनिस्ट पार्टियां आज अपने विगत इतिहास के इस अंधेरे अध्याय के बारे क्या सोचती हैं, किन्तु जो बात निश्चित रूप से कही जा सकती है, वह यह कि आज तक वे अपने अतीत की इन अक्षम्य, देशद्रोही नीतियों का आकलन करने से कतराती हैं।
निर्मल वर्मा के शब्दों में, "मोहित सेन की पुस्तक यदि इतनी असाधारण और विशिष्ट जान पड़ती है, तो इसलिए कि उन्होने बिना किसी कर्कश कटुता के, किन्तु बिना किसी लाग-लपेट के भी अपनी पार्टी के विगत के काले पन्नों को खोलने का दुस्साहस किया है, जिसे यदि कोई और करता, तो मुझे संदेह नहीं, पार्टी उसे साम्राज्यवादी प्रोपेगेण्डा・कह कर अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधे रखना ज्यादा सुविधाजनक समझती; यह वही पार्टी है, जो मार्क्‍स की क्रिटिकल चेतना को बरसों से क्षद्म चेतना (false consciousness) में परिणत करने के हस्तकौशल में इतना दक्ष हो चुकी है, कि आज स्वयं उसके लिए छद्म को असली・से अलग करना असंभव हो गया है।"



मोहित सेन लिखते हैं ”यहाँ यह कह देना जरूरी है कि उन दिनों किसी कम्युनिस्ट नेता ने हमारी युवा मानसिकता को स्वयं भारत की महान परंपराओं और बौद्धिक योगदान की ओर ध्‍यान नहीं दिलाया जो हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन और मार्क्‍सवाद के विकास के लिए इतना उपयोगी सिद्ध हो सकता था…हम कम्युनिस्ट अधिक थे भारतीय कम।”

Monday, June 5, 2017

godi_puran_गोदी-पुराण



नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

आज के कलियुग में भारत, नहीं माफ़ कीजिएगा इंडिया, की रक्षा के नए स्वयंभू अवतार के आगमन से पूर्व अरक्षित देश और निर्बल जनता-जनार्दन की सुरक्षा तो राम-भरोसे ही थी।


अब एक आसमानी किताब, जैसे बाइबिल, की तरह देश को बचाने का सन्देश जमीन पर कितना फैलता-फलता है, यह तो "हम लोग" नहीं समय ही बताएगा। 


यह अनायास नहीं है कि इसी भारत भूमि के "पुरा-ज्ञान" से एक श्लोक का स्मरण हो आया, अब यह मत पूछना कि "पुराण" से क्यों नहीं? 

कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो माभूत् राजा कालस्य कारणम्॥

अर्थात
काल (परिस्थिति) राजा का कारण है, या राजा काल का कारण है, इस संबंध में संशय मत रखो; राजा (ही) काल का कारण है ।

अब भला "भारत की खोज" इतनी सहज कहाँ? 


Sunday, June 4, 2017

ghandak bavali_दिल्ली की सबसे पुरानी बावली गंधक-बावली

गंधक की बावली_3/06/2017


गंधक की बावली

बावलियां गहरे कुंए होते हैं जिनमें पानी तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनाई जाती हैं। किसी समय में राजधानी में करीब सौ बावलियां होती थीं लेकिन आज के दौर में केवल दो दर्जन बावलियां ही शेष हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक “दिल्ली और उसका अंचल” के अनुसार, महरौली में और उसके आसपास अनगढ़े पत्थरों से अनेक सीढ़ीयुक्त बावलियां बनवाई गईं, जिनमें अन्यों की तुलना में दो अधिक प्रसिद्व हैं। तथा-कथित गंधक की बावली, जिसके पानी में गंधक की गंध है, अधम खां के मकबरे से लगभग 100 मीटर दक्षिण में स्थित हैं। गंधक की बावली पानी प्रचुर मात्रा में सल्फर पाए जाने के कारण गंधक की बावली कहलाती है। यह विश्वास किया जाता है कि इसे गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुमिश (1211-36) के शासनकाल में बनवाया गया था।


इसके दक्षिण छोर पर एक गोलाकार कुंए सहित इसकी पांच मंजिलें हैं। यह गोता लगाने वाला कुंआ भी कहलाता है क्योंकि गोताखोर दर्शकों के मनोरंजन के लिए ऊपर की मंजिलों से इसमें छलांग लगाते हैं। इस काम को करने वालों के लिए यह नियमित आय का साधन था। महेश्वर दयाल ने अपनी पुस्तक “दिल्ली जो एक शहर है” में लिखा है कि इस बावली में लोग अपनी त्वचा के रोगों के उपचार के लिए भी नहाते थे और उसका पानी बोतलों और शीशियों में भरकर घर भी ले जाते थे।


आदित्य अवस्थी की पुस्तक “नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली” के अनुसार, यह बावड़ी उत्तर से दक्षिण की ओर 133 फीट लंबी और करीब 35 फीट चौड़ी है। इस इमारत में पानी तक पहुंचने के लिए 105 सीढ़ियां हैं। बावड़ी के ऊपरी हिस्से में सजावटी पत्थर लगे हुए हैं। सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि इस बावड़ी के तहत करीब 2,200 वर्गमीटर का क्षेत्र आता है। अब यह क्षेत्र कितना बचा है, यह तो इसे देखनेवाले ही जान-समझ सकते हैं। यह गंधक की बावली वर्श 1975 में सूख गई थी। फिर साफ सफाई की गई और इस इलाके में जल संचयन पर ध्यान दिया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसमें फिर से पानी आ गया। वर्तमान में इसकी देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जिम्मे है। इस साल (2017) दिल्ली विधानसभा ने दिल्ली की बावलियों विशय पर जल संरक्षण और प्रबंधन की इस प्राचीन और मध्यकालीन धरोहर को एक कैलेंडर में समेटा है, जिसमें राजधानी की चुनींदा बावलियों का चित्रमय उल्लेख है।


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