इस खिड़की से: रमेशचन्द्र शाह, प्रकाशक: किताबघर
रमेशचन्द्र शाह ने अपनी डायरी के इस दूसरे खंड में 1986-2004 तक के कालखंड की महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक सरोकारों के साथ अपने नजरिए को दर्ज किया है। इस डायरी में 70 और 80 के दशक की छूटी हुई सामग्री भी शामिल है। डायरी नितांत अपनी निजी अनुभूतियों को अंकित रकने के लिए ही लिखी जानी चाहिए का मूलमंत्र में विश्वास रखने वाले शाह ने अपनी पहली डायरी अकेला मेला में 1981-85 के दौर की राम कहानी दर्ज की ।
खुद लेखक के शब्दों में डायरी लेखन अपने आप को दूर से देख सकना मानो वह कोई दूसरा हो। शाह के इंद्रधनुषी संसार में कबीर, निराला, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, निर्मल वर्मा से लेकर काफका, इलियट, रूडोल्फ, राबर्ट फ्रास्ट, हैरल्ड रोजेबर्ग की झलकी मिलती है। गागर में सागर की तरह कविता, चित्रकला, यात्रा वृंत्तात से लेकर आलोचना तक एक स्थान पर उपलब्ध है।
लेखक ने दुनिया में सभ्यता के नाम पर हो रहे संघर्ष से लेकर भारतीय समाज से कटे देसी बौद्धिक वर्ग और शैक्षिक दुनिया के सच से लेकर भाषाई गुलामी को अपनी कसौटी पर पूरी तरह कसा है । मुद्दे की बात यह है कि हाल में अपनी मौत के बाद भी लगातार मीडिया में सुर्खियां बना हुआ ओसामा बिन लादेन भी लेखक की दृष्टि से बचा नहीं है ।
जबकि आज भी हिंदी का बौद्धिक समाज इसे असहज विषय मानकर कुछ बोलने लिखने से बचाव की भूमिका में ही है । जबकि शाह इस पर मौंजू टिप्पणी दर्ज करते हुए लिखते हैं कि तीन सौ करोड़ से अधिक डालरों की संपत्ति का मालिक बिन लादेन टाइम्स पत्रिका को इंटरव्यूह देते हुए एक ऐसी बात कहता है जो रोंगटे खड़े कर देने वाली है । यह कि "हमारे महजब में उन व्यक्तियों के लिए खास महत्व की जगह सुरक्षित है परलोक में, जो जिहाद में हिस्सा लेते है । मेरे लिए अफगानिस्तान की इस गुफा में बिताया गया एक दिन भी मस्जिद में इबादत के सौ दिनों के समतुल्य है।" 23 सितंबर 2001 को हैरल्ड टिब्यून की खबर पर लेखक टिप्पणी दर्ज करता है कि "सवाल उठता है सहज ही, तब फिर ओसामा को अपने इस धर्म की प्रेरणा कैसे और कहां से मिली और उसे लगातार इतनी बड़ी संख्या में आत्मघात के लिए तत्पर मुजाहिदीन भी कहां से और कैसे उपलब्ध हो जाते रहे सवाल निश्चय ही बहुत टेढ़ा और असुविधाजनक है।"
लेखक की डायरी में ऐसे अनेक मुश्किल और ज्वलंत विषय दर्ज है, जिनसे सीधे जूझने की बजाय हिंदी का बुद्धिजीवी वर्ग बगल से गुजरने में ही वीरता समझता है । सरकारी सुख सुविधाओं और प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए शतरमुर्गी रवैए को अपनाने वाले तथा भगवा, लाल और हरे रंग की रंतौधी के शिकार बुद्धिजीवी तबके की स्थिति पर रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों से सटीक कुछ नहीं कि "खंडन लोग चाहते है याकि मंडन या फिर अनुवाद का लिसलिसाता भक्ति से, स्वाधीन इस देश में, चौंकते हैं लोग एक स्वाधीन व्यक्ति से।"
सन् 1941 में उपन्यासकार ई एम फास्टर की "भारतीय बुद्धिजीवी सिवा राजनीति के और कोई बात ही नहीं करते" की टिप्पणी के जरिए आत्मकेंद्रित बौद्धिक समाज के दोगलेपन को उजागर करते हुए लेखक कहता है कि देश की, समाज की वास्तविक समस्याएं कभी भी इन बुद्धिजीवियों की नींद हराम नहीं करती । शिक्षा के अभाव में नब्बे प्रतिशत लोगों के रचनात्मक कार्यों में भागीदारी नहीं है-यह उनकी चिंता का विषय कभी नहीं रहा। न शिक्षा नीतियों का दिशाविहीन खोखलापन ही। मगर यूजीसी स्केल लागू करने के मुद्दे को लेकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे विश्वविद्यालय और कालेज महीने भर तक ठप्प करके सीपीआई और सीपीएम की अगुवाई में संघर्षरत शिक्षकों ने अपनी अभूतपूर्व और अभूतपश्चात एकता का रिकार्ड कायम कर दिया।
फिर डायरी में एक मौंजू सवाल दर्ज होता है कि अंग्रेजी के बिना दस मिनट तक भी अपनी बौद्धिक बहस चला पाने में अक्षम इन बुद्धिजीवियों से भला अब कौन पूछने वाला है कि हिंदुस्तान की महान् भाषाओं की बेकद्री करने वाला कौन है । इसी के मारे लेखक देश के सामूहिक औसत चरित्र की निंदा और कामचोरी की मुखर आलोचना करने वाले नायपाल को सरकारी पट्टे पर अपनी राजनीति चलाने वाले और समाज को उसकी असली आत्मा होने का विश्वास दिलाने की चाहत रखने वाले सहमत छाप बुद्धिजीवियों से कहीं ज्यादा भरोसेमंद और प्रामाणिक मानता है ।
"मैं कह चुका हूँ कि मुझे अपनी परंपरा और पूर्वजों पर गर्व है कि जिन्होंने बौद्धिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भारत को विश्व में अग्रणी बनाया । मैं आपसे पूछता हूँ -भारत के इस अतीत के बारे में आप कैसा महसूस करते हैं, क्या आप खुद को उसका सहभागी-उत्तराधिकारी महसूस करते हैं और इसलिए, क्या आप उस सपंदा पर सचमुच गर्व करते हैं जो आपकी भी उतनी ही है, जितनी मेरी या कि आप उसे पराई वस्तु मानते हैं-और अपने को उसके सामने परदेसी-अजनबी महसूस करते हैं ।"
सन् 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पंडित जवाहरलाल नेहरू के दीक्षांत भाषण के उपरोक्त अंश की टीप के साथ लेखक आज की राजनीति और शिक्षा जगत में पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी दूरदर्शिता और साफगोई की कमी को रेखांकित किया है ।
सन् 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पंडित जवाहरलाल नेहरू के दीक्षांत भाषण के उपरोक्त अंश की टीप के साथ लेखक आज की राजनीति और शिक्षा जगत में पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी दूरदर्शिता और साफगोई की कमी को रेखांकित किया है ।
उसे लगता है पोलिटिकल करेक्टनेस के मारे इस देश में आज सच बोलना ही मुहाल हो गया है ।
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