दूसरों की नज़र में अच्छा बने रहने, घर परिवार में बड़े बुजुर्ग, माँ-पिता, भाई-बहिन, पत्नी-ससुराल की अपेक्षाओं को पूरा करने के फेर में व्यक्ति स्वयं का ही क्लोन बन जाता है यानि उसका वास्तविक स्वरुप मिट जाता है।
वह मात्र दूसरों की उम्मीदों को पूरा करने के चक्कर में छाया भर रह जाता है. आखिर असली-असली है और नकली नकली। वीरेन्द्र सहवाग, सचिन तेंदुलकर के तरह खेल सकता है पर तेंदुलकर नहीं बन सकता।
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