बीबीसी का इंटरव्यू लेने के लिए पैसे का लेन-देन का आरोप!
भला इसमें हैरानी कैसी ?
यह कोई नयी बात नहीं है.
खबर के लिए लालच, फिर वह किसी भी तरह का हो-पैसे का या नाम का या देह का, सहित सभी तरह के हथकंडों का इस्तेमाल हमेशा से होता रहा है.
मीडिया के इस सच से शायद ही कोई पत्रकार अनजान हो!
इंडियन एक्सप्रेस के अश्विनी सरीन की 'कमला' की याद है न, जिस पर एक फिल्म भी बनी थी.
सो बाइट लेने और टीवी शो के लिए लोग जुटाने की कसरत, मजमे के लिए भीड़ जुटाने से जुदा कुछ नहीं.
सो, बीबीसी और एनडीटीवी से कुछ अलग होने की प्रत्याशा, मृगतृष्णा से अधिक कुछ नहीं.
आखिर बाजार विदेशी हो या देशी कोई अन्तर नहीं करता, टीआरपी का बेताल दृश्य या अदृश्य रूप में हर किसी के कंधे पर सवार है.
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एक क्रिकेट खिलाड़ी के निजी जीवन में ताकाझांकी और उससे उपजी खीज के कारण, नोंकझोंक को तिल का ताड बनाने वाला मीडिया अपने गिरेबान में झाँकने का साहस आखिर क्यों नहीं कर पाता ?
क्या रंगीन और रसिया सिर्फ राजनीति-क्रिकेट की दुनिया में ही मिलते हैं, मीडिया की दुनिया उनसे जुदा है !
एक खोजी अंग्रेजी अखबार के पूर्व संपादक के अपने ही अखबार की महिला रिपोर्टर, जिसने अपने लाल सलाम यूनिवर्सिटी के अपंग-लाचार बॉयफ्रेंड-पति को बिसरा दिया, से रिश्ते से लेकर एक ही आदमी के साथ रहने वाली दो महिला टीवी पत्रकारों के किस्से मीडिया में सरे-आम है, जिसका आम-आदमी को पता भी नहीं और आम-पत्रकार भीष्म की तरह खामोश है, वह इसलिए क्योंकि जैसा कि हमारे राजस्थान में एक पुरानी कहावत है, "अपनी माँ को, कोई रांड नहीं बताता है."