Friday, March 25, 2016
दिल्ली के पुराने दौर की होली_Holi in old days of Delhi
दिल्ली के पुराने दौर में ऐसा नहीं था। उस समय में परंपरा से होली भाईचारे और प्रेम का उत्सव था। सुप्रसिद्व मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन हुए पद्मावत के रचियता मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार उस समय गांवों में जरूर इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे।
दैय्या रे मोहे भिजोया री, शाह निजाम के रंग में,
शायर मीर ने होली के नाम पर नज्मों की पूरी एक किताब ही लिखी है “साकी नाम होली” इसकी इन पंक्तियों में होली की मस्ती को देखा जा सकता है।
होली के दिन तो यों भी गुल गपाड़े और रंगरेलियों में गुजर जाते लेकिन रात को जगह-जगह महफिल लगती। सेठ-साहूकार, अमीर गरीब सब चंदा जमा करते और दावतों, महफिलों और मशीनों के लिए बड़ी-बड़ी हवेलियों के आंगनों को या धर्मशालाओं के सहनों को खूब सजाया जाता। गलियों-मुहल्लों और चौकों में रंग खेलने से एक दिन पहले होली भी जलाई जाती थी। उसके लिए भी चंदा होता था मगर लड़के-वाले टोलियों में घूम-फिरकर और घर-घर जाकर पैसे, लकड़ी और उपले भी इकट्ठे करते थे।
क्यों मों पे मारी रंग की पिचकारी
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