Raisina_from village to President House_रायसीना गाँव_जागीर से राष्ट्रपति भवन तक
26012019_दैनिक जागरण
आज यह बात जानकार हर किसी को हैरानी होगी कि आधुनिक भारतीय गणतंत्र का प्रतीक राष्ट्रपति भवन जिस रॉयसीना पहाड़ी पर शान से खड़ा है, कभी वहां पर रॉयसीना गांव हुआ करता था जो कि मारवाड़ के राजपूत शासकों की पैतृक जागीर था।
इतिहास के पन्नों में झांकने पर पता चलता है कि मुगल बादशाह शाह आलम दूसरा (1728-1806) ने अपने शासन के 17 वें साल के नौंवे जमादी-उल-आखिर में मारवाड़ के महाराजा बिजय सिंह (1752-1793) के पक्ष में इस जागीर के लिए एक सनद जारी की थी। बादशाह शाह आलम दूसरा का असली नाम अली गौहर था जो कि आलमगीर दूसरा का पुत्र था। उसने 24 दिसंबर 1750 ईस्वी से अपनी बादशाहत का साल शुरु किया था। इस सनद में दर्ज तारीख सात अगस्त 1775 की है।
इस सनद में अरबी लिपि में एक शाही तुगरा और शाही मोहर के अलावा ठप्पा अंकित हैं। वजीर की मोहर पर अंकित है शाह आलम बादशाह गाजी. इसमें 1190 का हिजरी संवत और ताजपोशी का 17 वां साल भी है। इससे पता चलता है कि यह मोहर आसफउदुल्लाह के समय की है। यह मोहर सनद के पीछे बाई ओर नीचे की तरफ लगी है। सनद बताती है- शाही दफ्तर की पंजी के अनुसार मामले का विवरण दर्ज किया जा सकता है। आदेश जारी किए गए। गाँव रायसीना राजधानी शाहजहाँनाबाद के हवाली (उपनगर) जिले में स्थित है।
महाराजा बख्त सिंह की पुरानी जागीर, जो कि पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए मुहम्मद मुराद ख़ान को दे दी गई, दूसरी बार साल 1760 में महाराजा बिजय सिंह को बहाल की गई। पर उसके बाद हाल में ही उसे खालसा में शामिल कर लिया गया। इसी रायसीना के उनकी पैतृक जागीर होने के कारण खालसा से महाराजा बिजय सिंह बहादुर और उनके वंशजों को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए बतौर ईनाम दी जाती है। दर्ज तारीख 24 अगस्त 1775.
सनद के अनुसार, इस शुभ मुहूर्त में यह आदेश जारी किया जाता है कि राजधानी शाहजहांनाबाद (दिल्ली) के हवाली (उपनगर) परगना में 700 रूपए के किराए की कीमत वाले रायसीना गाँव को महाराजाधिराज बिजय बहादुर और उनकी पीढ़ियों को उनकी पुरानी जागीर, जिसे खालसा में मिला लिया गया, के बदले ईनाम में दी जाती है। यह (जागीर) भविष्य में होने परिवर्तन से सुरक्षित और संरक्षित होगी। इससे किसी तरह की वसूली भी नहीं की जाएंगी तथा यह जागीर सभी तरह के नागरिक और शाही वसूली से मुक्त होगी। दर्ज तारीख 7 अगस्त 1775.
इस सनद से यह बात साफ होती है कि रायसीना गांव, जिस पर आज की नई दिल्ली बसी है, मुगल काल में मारवाड़ के शासकों की पैतृक जागीर था। जो कि महाराजा बख्त सिंह के शासनकाल (1751-52) तक नियमित रूप से उनके स्वामित्व में रहा। पर जोधपुर राजवंश में आपसी कलह होने के कारण मुगल बादशाह ने विरोधी दल के उकसाने पर उसे महाराजा बिजय सिंह से जब्त करके मुहम्मद मुराद खान को सौंप दिया। जब बाद में जोधपुर राजवंश का आपसी विवाद समाप्त हो गया तो रायसीना गांव को दोबारा 1760 में महाराजा बिजय सिंह को दे दिया गया। पर उसके कुछ समय उपरांत जब बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ मराठों की नजदीकियां बढ़ी और दरबार में मारवाड़ का प्रभाव कम हुआ तो गांव को एक बार फिर जोधपुर महाराजा से छीन लिया गया।
ऐसा प्रतीत होता है कि आखिरकार मारवाड़ में सभी प्रकार के प्रमुख विद्रोहों को दबाने के बाद महाराजा बिजय सिंह ने बादशाह के दरबार (जिसकी सनद के पिछले हिस्से में केंद्रीय सत्ता की मुहर से पुष्टि होती है) में इस गांव (जो कि उनकी पैतृक जागीर था) के लिए अपना दावा पेष किया था। मुग़ल बादशाह ने इस गांव को मारवाड़ के महाराजाओं की पैतृक जागीर होने के बतौर सबूत देखा होगा क्योंकि इसका और कोई दूसरा सही दावेदार भी नहीं था। यही कारण होगा कि बादशाह ने महाराजा बिजय सिंह के नाम पर यह सनद 1775 में जारी की। वैसे इस बात का अनुमान लगाना कठिन है कि कब और किन परिस्थितियों में यह जागीर मारवाड़ के षासकों के स्वामित्व से निकली। पर इस सनद से तो तथ्य तो साफ निकलते हैं। पहला यह कि रायसीना मारवाड़ के महाराजाओं की पैतृक जागीर था और दूसरा कि जुब्दाह-राजा-ऐ-हिन्दुस्तान-राज-राजेश्वर-महाराजाधिराज की पदवी मुगल सल्तनत के अंत तक मारवाड़ के महाराजाओं के नाम से साथ प्रयोग होती रही।
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