कभी हम कहते है कि एक बुत की तरह खामोश और फिर कि कभी बुत बोल भी सकते हैं, जब ग्रीम डेविसन ने ये शब्द लिखे थे, तो उसका अभिप्राय इस बात से था कि सार्वजनिक स्मारक इस बात का एक महत्वपूर्ण संकेत होते हैं कि लोग क्या याद रखते हैं।
सन् 1857 देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150 वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में होने वाले कार्यक्रमों में ग्रीम की अंतर्दृष्टि की झलक देखने को मिली । यह एक विडंबना ही है कि दिल्ली की जनता, सरकार को एक कथित विद्रोह का स्मरण करते हुए देखने की गवाह बनी । देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पनपा राजनीतिक वर्ग, इस महत्वपूर्ण घटना को लेकर एक भयंकर आत्मविस्मृति का शिकार रहा है ।
दिल्ली में अंग्रेजी राज के स्वतंत्रता सेनानियों (कथित विद्रोहियों) के सम्मान में अलग से कोई स्मारक नहीं है । अंग्रेजों के विरूद्व लड़ते हुए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले वीरों सहित गद्दारी और राजद्रोह के झूठे आरोपों में फाँसी पर चढ़ा दिए गए, हजारों निर्दोष लोगों का कहीं कोई नामलेवा नहीं है । हमारी राष्ट्रीय राजधानी में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शानदार दास्तान इतिहास के पन्नों से गायब है।
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