मुझमें भी था
जीवन में बादल बनकर
धरती पर छा जाने का पागलपन
चाहा था,
फुहार बरसे घर में,
खिले फूल,
बगिया में
बदली बनकर कड़के कोई
बिछ जाएं मन आंगन में
निकल गए बादल जब नजर बचाते हुए
घर चिनने के लिए पड़े पत्थर,
अपने ही लेकर निकल गए
जब घर बसने से पहले ही
खंडहर हो गया
औरों से क्या कहता
रह गया मन अकेला रेगिस्तान में
मानसून की मृगतृष्णा झेलने को अभिशप्त
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