कतरा कतरा पिघल कर दर्द,
रोम रोम में रिस जाता है
दर्द की टीस इतनी होती है,
चीत्कार का भी रूप नहीं ले पाती
मौत का डर ज्यादा होता है, डर की मौत से
पैदा होने वाले की मौत तो तय है
मौत का वक़्त
मानो जीने का बहाना भी छीन लेता है
क्या दर्शन भी
मौत की ओर जाने का नाम है ?
या मौत के मुह से वापसी का
जब जिंदगी के बेमानी होने के मायने
ज्यादा सही समझ में आने लगते है
होनी-अनहोनी, जायज-नाजायज,
ठीक-गलत के चक्कर में
बाबा लोगों की हर बात में भरोसा जगने लगता है
जब अपने सही का अकेलापन,
दूसरे की भीड़ के आगे गलत लगने लगता है
बस यही आकर लोकतंत्र के मायने
गड़बड़ाने लग जाते है
भीतर की आवाज़ बेमानी होने लगती है
वर्ना जिंदगी की दौड़
दाखिले, नौकरी, लड़की, बच्चे, बॉस और भविष्य के
चक्रव्यूह में उलझ कर रह जाती है
और हम अभिमन्यु बनकर
आखिरी दरवाजे पर दस्तक देते-देते
इस उम्मीद में जिंदगी को जाया कर देते है
चमत्कार भी इसी दुनिया में होते है
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