Saturday, September 5, 2015

कृष्ण_राममनोहर लोहिया



प्रेमिकाओं का प्रश्‍न जरा उलझा हुआ है। किसकी तुलना की जाए, रुक्मिणी और सत्‍यभामा की, राधा और रुक्मिणी की या राधा और द्रौपदी की। प्रेमिका शब्‍द का अर्थ संकुचित न कर सखा-सखी भाव को ले के चलना होगा। अब तो मीरा ने भी होड़ लगानी शुरू की है। जो हो, अभी तो राधा ही बड़भागिनी है कि तीन लोक का स्‍वामी उसके चरणों का दास है। समय का फेर और महाकाल शायद द्रौपदी या मीरा को राधा की जगह तक पहुंचाए, लेकिन इतना संभव नहीं लगता। हर हालत में, रुक्मिणी राधा से टक्‍कर कभी नहीं ले सकेगी।
मनुष्‍य की शारीरिक सीमा उसका चमड़ा और नख हैं। यह शारीरिक सीमा, उसे अपना एक दोस्‍त, एक मां, एक बाप, एक दर्शन वगैरह देती रहती है। किंतु समय हमेशा इस सीमा से बाहर उछलने की कोशिश करता रहता है, मन ही के द्वारा उछल सकता है। कृष्‍ण उसी तत्‍व और महान प्रेम का नाम है जो मन को प्रदत्‍त सीमाओं से उलांघता-उलांघता सबमें मिला देता है, किसी से भी अलग नहीं रखता। क्‍योंकि कृष्‍ण तो घटनाक्रमों वाली मनुष्‍य-लीला है, केवल सिद्धांतों और तत्‍वों का विवेचन नहीं, इसलिए उसकी सभी चीजें अपनी और एक की सीमा में न रहकर दो और निरापनी हो गई हैं। यों दोनों में ही कृष्‍ण का तो निरापना है, किंतु लीला के तौर पर अपनी मां, बीवी और नगरी से पराई बढ़ गई है। पराई को अपनी से बढ़ने देना भी तो एक मानी में अपनेपन को खत्‍म करना है। मथुरा का एकाधिपत्‍य खत्‍म करती है द्वारिका, लेकिन उस क्रम में द्वारिका अपना श्रेष्‍ठतत्‍व जैसा कायम कर लेती है।

-राममनोहर लोहिया (कृष्ण)

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