Saturday, September 5, 2015

यादों के झरोखे में, शाहजहानाबाद की हवेलियां_Havelis of Shahjahanabad

वर्ष 1639 में मुगल बादशाह शाहजहां ने मुगलिया सल्तनत की राजधानी को आगरा से स्थानांतरित करके दिल्ली लाने का निर्णय किया। आगरा की भयंकर गर्मी से परेशान शाहजहां को अपनी नई राजधानी के शहर शाहजहानाबाद और लालकिले के निर्माण में करीब नौ बरस का समय लगा और सन् 1648 में जाकर फारसी मिश्रित वास्तुकला पर आधारित शाहजहानाबाद का काम पूरा हुआ।
नए शहर की फसील के दरवाजों के नाम उन स्थानों पर रखे गए जहां के लिए उन दरवाजों से रास्ते जाते थे। कुल मिलाकर 13 दरवाजे बनवाए गएः कश्मीरी दरवाजा, अजमेरी दरवाजा, लाहौरी दरवाजा, काबुली दरवाजा, दिल्ली दरवाजा आदि। दिल्ली के नाम पर दिल्ली दरवाजे का नाम कोई हैरत की बात नहीं है क्योंकि शाहजहां ने जो शहर बनवाया था वह दिल्ली नहीं शाहजहाबाद था, दिल्ली उसके दक्षिण में थी।
शाहजहां ने कुछ खास इमारतों जैसे जामा मस्जिद, फतेहपुरी मस्जिद और अकबर बादी मस्जिद (अब यहां सुभाष पार्क है), बेेगम का बाग (वर्तमान गांधी ग्राउंड), तीस हजारी बाग (अब यहां कचहरी और कार्यालय है) सहित महल और शानदार हवेलियां बनवाईं।
सन् 1857 की पहली जंगे-आजादी के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली में मुगलिया तख्त को पलटने के साथ दिल्ली की काया पलट थी। शाहजहां के दौर की बहुत-सी इमारतें, बाजार और मस्जिदें ढहा दी गई। जो कुछ बच रहा उन इमारतों का आकार और रूप बदल गया।
जामा मस्जिद के आस पास के महल और चांदनी चौक की हवेलियां बहुत शानदार बनाई गई थीं। कलाॅं महल शाहजहां के काल की इमारत थी, किला बनने से पहले शाहजहां आगरा से आकर यहां ठहरा करते थे। अब यहां स्कूल की इमारत है। रंग महल, चांदनी महल, शीश महल, इमली महल मुगल काल की इमारतें थीं। रंग महल मिर्जा जमशेदबख्त ने बनवाया था।
चांदनी महल और शीश महल मुहम्मद शाह रंगीले के जमाने में बना था। इमली महल भी एक शानदार इमारत थी। सन् 1857 के बाद अंग्रेजों ने इसे नीलाम कर दिया और लाला सुल्तान सिंह ने खरीद कर इसे एक नए ढंग से बनवाया।
जामा मस्जिद के दक्षिणी दरवाजे के सामने सड़क मटिया महल का बाजार कहलाती है। यहां दाई ओर एक बड़ा महल था। शाहजहां ने यह महल भी लाल किला बनने से पहले हरम की औरतों के ठहरने के लिए बनवाया था। इस बाजार की सबसे पुरानी हवेली लाल किले के लाहौरी दरवाजे के पास नहर के किनारे स्थित थी। यह नवाब शाइस्ता खां की बारहदरी कहलाती थी। शाइस्ता खां शाहजहां के ससुर और उनके मंत्री आसफ खां के बेटे थे। मुगल शासन के अंतिम दौर में यह हवेली टूट-टाटकर बराबर हो गई थी।
लाल किले से थोड़ी दूर आगे चांदनी चौक में दाएं हाथ को कुमार टाकीज के पीछे आज से दो सौ बरस पुरानी एक शानदार ऐतिहासिक इमारत है जिसे आजकल तो भागीरथ पैलेस कहते हैं लेकिन आज से कुछ साल पहले तक यह बेगम समरू की कोठी कहलाती थी।

शाह आलम द्वितीय ने बेगम समरू की बहादुरी और वफादारी से खुश होकर बेगम के बाग (शाही बाग) का एक हिस्सा उसे इनाम में दे दिया था। शाहजादी जहांआरा बेगम के लगवाए हुए इस बाग में इससे पहले किसी मुगल बादशाह ने कभी कोई इमारत नहीं बनाई थी। बेगम समरू की कोठी विदेशी वास्तुकला का नमूना है (बेगम समरू की पुरानी हवेली जो जरनैल बीबी की हवेली कहलाती थी, कोडि़या पुल के पास उस जगह थी जहां आजकल रेलवे का गोदाम है। जब अंग्रेजों ने 1857 के बाद कलकत्ता दरवाजे से लेकर काबुली दरवाजे तक सड़क निकाली और रेल की पटरी बिछाई तो यह हवेली भी ढहा दी गई)।
वर्ष 1857 में बेगम समरू की कोठी में दिल्ली बैंक था। यहां हिन्दुस्तानी सेनाओं ने दिल्ली वालों से मिलकर बड़ा जबरदस्त हमला किया था। तीन घंटे की लगातार लड़ाई में बैंक का अंग्रेज मैनेजर ब्रेसफोर्ड मार डाला गया और सिपाहियों ने बैंक को लूट लिया। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में बेगम समरू की कोठी को दिल्ली के प्रसिद्व वकील शिवनारायण ने खरीद लिया था लेकिन आजकल यहां बैंक भी है, होटल भी है और बहुत सी दुकानें भी हैं और यह कोठी भगीरथ पैलेस कहलाती है।
भगीरथ पैलेस के पास एक बहुत बड़ा बिजली के सामान का बाजार है। यहां बिजली के सामान की सैकड़ों दुकानें हैं और पास ही कटरा लच्छू सिंह है जिसका मुख्य रास्ता चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फव्वारे से थोड़ाा आगे चलकर है। मुगल शासन काल में यह बेगम साहब का कटरा कहलाता था लेकिन वर्ष 1857 के बाद इसे अंग्रेजों ने लछमन सिंह (लच्छू सिंह) की संपत्ति बना दिया था। बलदेव सिंह ने जो लछमन सिंह का भाई था सन् 57 के संघर्ष में अंग्रेजों की बड़ी मदद की थी। मुईनुद्दीन हसन ने ‘खदंग-ए-गदर‘ में बलदेव सिंह की गद्दारी और कत्ल का वर्णन किया है।
इसी तरह, चांदनी चौक की कोतवाली भी एक ऐतिहासिक इमारत थी। यह शाहजहां के काल में बनवाई गई थी। कोतवाली के अहाते में एक चबूतरा था जहां मुलजिमों को लाकर खड़ा किया जाता था। काजी सजा सुनाता और कोतवाल सजा देता था। कोतवाली के सामने बीच बाजार में एक ऊंचा लक्कड़ जमीन में गड़ा था जो लाल खां लक्कड़ कहलाता था। चोर डाकुओं और बदमाशों को इस लक्कड़ से बांधकर कोड़े लगाए जाते थे। कोतवाली के पीछे के अहाते में फांसी घर था। दिल्ली के मशहूर शायर मिर्जा गालिब को भी इस कोतवाली की एक कोठरी में बंद किया गया था। कुछ साल पहले कोतवाली का एक हिस्सा गुरूद्वारा सीसगंज की कमेटी को दे दिया गया है।

कोतवाली से कुछ आगे चलकर घंटेवाले हलवाई, जिसकी दुकान अब बंद हो चुकी है, के पास राजा जुगल किशोर की हवेली है। राजा जुगल किशोर मुहम्मद शाह रंगीले के समय में वकील-ए-बंगाला थे और बड़ी शान-शौकत से जिंदगी गुजर करते थे। अहमद शाह के काल में सफदर जंग ने राजा जुगल किशोर को अपना वकील नियुक्त दिया था। आजकल इस हवेली का नक्शा बदल गया है। यहां रियाइशी मकान भी हैं और कपड़े का बाजार भी है।
सन् 1837 में बने शाहजहानाबाद के एक नक्शे के अनुसार, कोतवाली के पास उस जगह जहां अंग्रेजों के समय में सीसगंज गुरूद्वारा बनाया गया, रोेशनुद्दोला की हवेली थी। कोतवाली के दूसरी तरफ सुनहरी मस्जिद है। इस मस्जिद को भी रोेशनुद्दोला ने बनवाया था। इस मस्जिद की छत से नादिरशाह ने सन् 1739 में मुहम्मद शाह रंगीले के शासनकाल में दिल्ली वालों का कत्ल का तमाशा देखा था।
चांदनी चौक में कूचा खानचंद एक मशहूर जगह है। शाहजहां के शासनकाल में इस कूचे में बल्ख के एक शहजादे ने बड़ी शानदार हवेली बनवाई थी। मीरजा संगी बेग ने “सेर-उल-मनाजिल” में लिखा है, “इस हवेली में कूचा खान चंद है जिसे अब्दुर्रहमान खां बिन नज्र मुहम्मद खां ने उस समय बनवाया जब शाहजहां ने बल्ख पर विजय प्राप्त की थी और इस शहर के लोग बल्ख के राजकुमार को शहंशाह के सामने बंदी बनाकर लाए।”

नील के कटरे में दिल्ली के नामी साहूकार लाला छुन्नामल की हवेली है। इस हवेली के बालाखाने का रास्ता चांदनी चौक की तरफ से भी है। लाला छुन्नामल वल्द मुतसद्दीलाल शाल-दुशाले के व्यापारी थे। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की खबरें और शाही दरबार की खबरें पहाड़ी पर अंग्रेजों के पास पहुंचाते थे और जब तक दिल्ली फतह नहीं हुई अंग्रेजों की हिमायत करने में उन्होंने कोई कसर उठा न रखी थी। इसके बाद अंग्रेजों की जीत के बाद उन्हें देश और दिल्लीवासियों से गद्दारी के ईनाम में सोने का तमगा और रायबहादुर का खिताब मिला। सन् 1862 में उनको दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी का पहला म्युनिसिपल कमिश्नर और फिर 1864 में आॅनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया गया।
पंडित घासीराम के कूचे में एक हवेली है जो नमक हराम हवेली कहलाती थी। शाह आलम द्वितीय के शासनकाल में इस हवेली में मुंशी भवानी शंकर रहते थे। यह दिल्ली वाले थे लेकिन रोजगार की तलाश में दिल्ली से बाहर चले गए और यशवंत राव होलकर के नौकर और दाएं बाजू बनकर बड़ा नाम कमाया। लेकिन 1803 में उनकी मराठों से अनबन हो गई। उसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की नौकर कर ली और दिल्ली वापस आ गए।
दिल्ली वालों को मुंशीजी से नफरत हो गई थी और वे उन्हें नमकहराम कहकर पुकारने लगे। जब मुंशीजी अपनेी हवेली से फतेहपुरी की मस्जिद के पास अपनी कचहरी में जाते तो लोग उन्हें नमक हराम है बे, नमक हराम है बे कहकर छेड़ते। मुंशीजी ने इसकी शिकायत अंग्रेजों से की। अंग्रेजों ने शहर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि कोेई मुंशीजी को नमक हराम न कहे। लेकिन इसका असर उलटा हुआ। जो लोग यह बात नहीं भी जानते थे वे भी मुंशीजी का असली नाम भूल गए और उन्हें नमक हराम कहकर याद करने लगे।
दिल्ली के न थे कूचे, औराके मुसव्विर थे
जो शक्ल नजर आयी तस्वीर नजर आयी



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