Monday, October 12, 2015
Sunday, October 11, 2015
Return of Sahitya Academy Prize_साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापसी
देश में सांप्रदायिक हिंसा की हालिया घटनाओं पर अपना विरोध जताते हुए नाता तोड़ने की घोषणा करने वाले मलयालम के कवि के. सच्चिदानंदन और साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस करने वाली उपन्यासकार सारा जोसेफ़ इस तथ्यात्मक सच्चाई से तो अवगत ही होंगे कि पिछले चार वर्षों में केरल में 131 सांप्रदायिक घटनाएँ हुई।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, दक्षिण भारत में जनवरी 2011 से जून 2015 की अवधि में सर्वाधिक सांप्रदायिक घटनाएँ दो राज्यों-कर्नाटक और केरल में हुई हैं। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 10.54 प्रतिशत कर्नाटक का था, जहाँ कुल 222 सांप्रदायिक घटनाएँ घटी, जबकि उसके बाद सबसे ज्यादा सांप्रदायिक घटनाएँ 131 केरल में दर्ज की गईं।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि हर लेखक करता हैं, अपनी भाषा-अपने प्रदेश से प्यार तो फिर ऐसे में मलयालम के लेखक भी कैसे कर सकते हैं, साक्षात सत्य से इंकार?
अब "अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो" (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी) वाले कथन से ये लेखक भ्रम की सृष्टि करते हुए अर्द्धसत्य से राष्ट्र-भाव को खोखला करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं।
अगर विशुद्ध रूप से केरल के ही साहित्यिक परिदृश्य की बात करें तो एम टी वासुदेवन नायर का कहना है कि स्वीकार किए जा चुके पुरस्कारों को नहीं लौटाऊँगा तो यू ए खादर का कहना है कि प्रतिरोध के लिए पुरस्कारों की वापसी का कोई अर्थ नहीं। वहीं सुगता कुमारी के शब्दों में पुरस्कार वापस करके प्रतिरोध जताने से कोई फायदा होगा यह नहीं लगता तो पी वलसला का मानना है कि पुरस्कार लिए हुए तथा मिले हुए दोनों तरह के होते है। वापस किए जा रहे पुरस्कार लिए गए हैं यह याद रहना चाहिए।
लाख टके का सवाल यह है कि आखिर ये लेखक केरल में हुई पिछले चार वर्षों में हुई सांप्रदायिक घटनाओं से उद्वेलित क्यों नहीं हुए और उनका मन क्यों नहीं पसीजा?
लगता है कि उन्हें 'घर' में लगी आग की कोई फिक्र नहीं बस चिंता है तो दूसरे के जलते से अपनी रोटी सेंकने की। सो, सब अपनी सीमा में सुरक्षित खेल रहे हैं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि अभी तक किसी साहित्यकार ने पद्म पुरस्कार नहीं लौटाया है, जो कि सरकार देती है, साहित्य अकादेमी नहीं।
पते की बात यह है कि सरकार न तो साहित्य अकादेमी के पुरस्कार पर निर्णय करती है और न ही उनकी प्रक्रिया को प्रभावित-नियंत्रित करती है तो ऐसे में साहित्य अकादेमी पुरस्कार को वापिस करना बेमानी है।
ऐसे में केरल सरकार से इस्तीफा मांगने की बजाए साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापिस करना अंगुली कटा कर शहीद होने का हल्ला दोगले चरित्र-चिंतन से अधिक कुछ नहीं।
Wednesday, October 7, 2015
Govindballabh pant_christian missionary गोविन्द वल्लभ पंत_विदेशी मिशनरी:नागालैंड
1950 के दशक के मध्य वर्षों तक नागा प्रदेश का प्रशासन नेहरू के अधीन विदेश मंत्रालय के हाथ में था।
गोविन्द वल्लभ पंत के गृहमंत्री बनने के बाद इसका प्रशासन गृह मंत्रालय को सौंप दिया गया। पंत का कहना था कि नागालैंड की समस्या मिशनरियों द्वारा पैदा की गई थी।
उन्होंने गृह मंत्रालय को विदेशी मिशनरियों के वीजे की अवधि न बढ़ाने का निर्देश दिया।
विदेशी चर्चों द्वारा खूब हंगामा मचाने के बावजूद उनमें से कइयों को वापसी का रास्ता दिखा गया।
(एक जिंदगी काफी नहींः कुलदीप नैयर)
गोविन्द वल्लभ पंत के गृहमंत्री बनने के बाद इसका प्रशासन गृह मंत्रालय को सौंप दिया गया। पंत का कहना था कि नागालैंड की समस्या मिशनरियों द्वारा पैदा की गई थी।
उन्होंने गृह मंत्रालय को विदेशी मिशनरियों के वीजे की अवधि न बढ़ाने का निर्देश दिया।
विदेशी चर्चों द्वारा खूब हंगामा मचाने के बावजूद उनमें से कइयों को वापसी का रास्ता दिखा गया।
(एक जिंदगी काफी नहींः कुलदीप नैयर)
Friday, October 2, 2015
Delhi_Film connection_दिल्ली और हिन्दी फिल्मों का संबंध
देश में आरंभ से ही हिंदी फिल्मों का दूसरा मतलब बंबई और अब मुंबई रहा है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण हाॅलीवुड की नकल पर बालीवुड का नाम रहा है। ऐतिहासिक कारणों से हिंदी फिल्मों के निर्माण से लेकर कथानक तक में बंबई का वर्चस्व रहा। सन् 1947 में देश को आजादी मिलने के बाद राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनने की वजह से फिल्मकारों का ध्यान दिल्ली की ओर खींचा।
1950 के दशक के उत्तरार्ध से फिल्म निर्माताओं ने मुंबई के विकल्प के रूप में दिल्ली की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया था और समय के साथ यह संबंध और मजबूत हुआ है और तब से लेकर अब तक छह दशकों में व्यावहारिक रूप से दिल्ली एक वैकल्पिक स्थान के रूप में उभरकर सामने आई है। तब से आकर्षण का यह सिलसिला आज तक न केवल कायम है बल्कि पहले से मजबूत हुआ है।
50 के दशक में लोकप्रिय हिंदी सिनेमा ने बंबई की स्थानीयता की छाया से निकलते हुए अब दिल्ली दूर नहीं (1957), जौहर महमूद इन गोवा (1965), लव इन टोक्यो (1966) और एन इवनिंग इन पेरिस (1967) जैसी फिल्में बनाईं।
सन् 1957 में बनी विजय आनंद की ”नौ दो ग्यारह“, दिल्ली से जुड़ी शुरूआती फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म में किशोर कुमार का गाया और देवानंद पर फिल्माया गाना ”हम है राही प्यार के“ में राजधानी के पुराना किला रोड, राजपथ और इंडिया गेट दिखता है। इस गाने को मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था और संगीत दिया था सचिन देव बर्मन ने।
इसी साल राज कपूर की बनाई फिल्म ”अब दिल्ली दूर नहीं“ रिलीज हुई, जिसकी कहानी भी दिल्ली शहर से जुड़ी हुई थी। इस फिल्म में एक नौजवान दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलकर हत्या के आरोपी अपने निर्दोष पिता को छुड़वाने के लिए हस्तक्षेप का आग्रह करने का इरादा करता है। सन् 1963 में विजय आनंद ने ”तेरे घर के सामने“ फिल्म बनाई। इस फिल्म में देवानंद एक भवन वास्तुकार की भूमिका में थे, जिसे अनजाने में अपने पिता के कट्टर प्रतिद्वंद्वी की बेटी (नूतन) से प्यार हो जाता है। पूरी तरह दिल्ली में फिल्माई गई इस फिल्म का गाना ”एक घर बनाऊंगा, तेरे घर के सामने“ में राजधानी के आरंभिक फैलाव की झलक देखने को मिलती है, जब दक्षिणी दिल्ली में डिफेंस काॅलोनी बस रही थी। इसी फिल्म का एक और मशहूर गाने दिल का भंवर करें पुकार का तो फिल्मांकन ही दिल्ली की प्रसिद्व कुतुब मीनार के परिसर में हुआ था। इस फिल्म से राजधानी में हिंदी फिल्मों के गानोें के फिल्मांकन ने मानो गति पकड़ ली और शायद इसी का नतीजा था कि यश चोपड़ा ने अपनी फिल्मों ”वक्त“ (1965) और बाद में ”त्रिशूल“ (1977) के गानों को दिल्ली में फिल्माया।
”तेरे घर के सामने“ की तरह नासिर हुसैन की फिल्म ”फिर वही दिल लाया हूं“ (1963) का कुछ हिस्सा भी दिल्ली में फिल्माया गया था। इस समय तक फिल्म निर्माताओं को दिल्ली भाने लगी थी और फिल्म के कुछ हिस्से या गाने के लिए एक विकल्प से अधिक राजधानी पूरी एक कहानी के लिए मुफीद बनने लगी थी। ऐसे ही 1970 के दशक में आई फिल्म ”रोटी, कपड़ा और मकान“ (1974) में दिल्ली का मुखर उपस्थिति स्पष्ट थी।
दिलचस्प बात यह है कि हिंदी फिल्मों में शूटिंग के लिए एक लोकप्रिय स्थान के रूप में दिल्ली को नए सिरे से स्थापित करने का काम अपने बड़े बजट की फिल्मों विदेशी स्थानों में शूटिंग करने के लिए मशहूर यश चोपड़ा ने किया। यश चोपड़ा की निर्देशित त्रिशूल में फिल्म में भूमि-भवन निर्माता आर के गुप्ता (संजीव कुमार) और उसके परित्यक्त-नाजायज बेटे विजय (अमिताभ बच्चन) की कहानी में राजधानी का फैलता शहरी जनजीवन और सटे हुए उपनगरों जैसे फरीदाबाद और गुड़गांव के उभरने की बात पृष्ठभूमि में साफ झलकती है। फिल्म की बाप-बेटों के आपसी और पारिवारिक संघर्ष की कहानी के साथ लोधी गार्डन, गोल्फ क्लब, जिमखाना, सरकारी कार्यालयों, प्रगति मैदान और अशोक होटल का जुड़ाव सहज रूप से स्थानिकता को एक प्रमाणिकता प्रदान करता है। इसी तरह, यश चोपड़ा की एक और यादगार फिल्म ”सिलसिला“ (1980) में अमिताभ बच्चन, रेखा जया भादुड़ी और जया भादुड़ी के प्रेम-विवाह के त्रिकोण की झंझावात वाली कहानी में तब के सरकारी कुतुब होटल और लोधी गार्डन की दृश्यों में दिल्ली की उपस्थिति साफ नजर आती है।
सईं परांजपे की फिल्म ”चश्मे बद्दूर“ (1981) में दिल्ली की बुनावट की छाप ऐसी थी कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों (फारुख शेख, राकेश बेदी, रवि बासवानी), बरसाती की जिंदगी, पड़ोस में रहने वाली लड़की मिस चमको यानी दीप्ति नवल सहित दिल अजीज लल्लन मियां पान वाले सईद जाफरी से लेकर राजधानी की तब की सड़कों पर मोटर साइकिल सवारी का दौड़ाना हो या पुराना किला की झील में नौका विहार सब उसमे गहरे से रंगे नजर आते हैं। इन सबमें महत्वपूर्ण बात यह है कि इस फिल्म में पहली बार दिल्ली के सिनेमाई चित्रण के हस्ताक्षर माने जाने वाले इंडिया गेट से राजपथ के रास्ते से इतर का जीवन दिखता है। इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी फिल्मांकन और सहज पटकथा लेखन वाली यह फिल्म आज भी बेजोड़ है।
80 के दशक में आई ”नई दिल्ली टाइम्स“ जैसी फिल्म (1986) देश की राजधानी में एक हत्या के मामले में कुछ नेताओं और पत्रकारों की मिलीभगत की पेचीदगी को उजागर करती थी।
पिछले डेढ़ दशक में दिल्ली पर आधारित फिल्मों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है और सबसे बड़ी बात यह है कि इन फिल्मों में से अधिकतर न केवल दिल्ली से जुड़ी हुई है बल्कि अपनी कहानी में शहर की बुनावट को एक अभिन्न अंग के रूप में उपयोग करती हुई आगे बढ़ती है, जिससे दिल्ली का सम्मोहन और अधिक मारक हो जाता है। दिल्ली ने फिल्मों के लिए भू-आकृतियों में परिवर्तन के साथ उसके दृश्यात्मक विवेचना का भी स्वरूप बदला है।
90 के दशक के बाद से ही फिल्म की शूटिंग के लिए एक स्थान के रूप में दिल्ली का महत्व साफ तौर पर बढ़ा है। यह बात दिल्ली को केवल फिल्म की शूटिंग के लिए एक स्थान से बढ़कर कथानक में पिरोने का काम करने वाली चंद फिल्मों 1947-अर्थ (1998), दिल से (1998), सरफरोश (1999), मानसून वेडिंग (2001), यादें (2001), मुझे कुछ कहना है (2001), फना (2006), खोसला का घोसला (2006), ओए लकी! लकी ओए! (2008), देव डी (2009), लव आज कल (2009), दिल्ली-6 (2009), पीपली लाइव, (2010), बैंड बाजा बारात (2010), दो दूनी चार (2010), आयशा (2010 ), रॉकस्टार (2011), नो वन कील्ड जेसिका (2011), विकी डोनर (2012), रांझणा (2013) और तनु वेड्स मनु रिटर्नंस (2015) से साफ होता है। इतना ही नहीं फिल्म लक्ष्य (2004) में कहानी के पात्रों का पुरानी दिल्ली, यमुना पार की दिल्ली या लुटियंस दिल्ली के पुराने और घिसे पिटे दृश्यों से इतर जाकर अपनी संवाद अदायगी में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का नाम लेना और फिल्म का दिल्ली छावनी के सैन्य अस्पताल में खत्म होने के दृश्य के फिल्मांकन से लेकर डेल्ही बेली (2011) और फुकरे (2013) की प्रति संस्कृति को विषय बनाया गया है।
फिल्म निर्माताओं की नई पीढ़ी में भी दिल्ली का सदाबहार आकर्षण बरकरार है। अतुल सभरवाल की फिल्म औरंगजेब (2013) में कहानी गुड़गांव और भू-माफिया पर केंद्रित है तो नवदीप सिंह की एनएच-10 (2015) एक सनसनीखेज थ्रिलर है जो कि गुड़गांव से सटे क्षेत्रों में प्रचलित कथित जातिवादी सम्मान-इज्जत को बचाने के लिए की जाने वाली हत्याओं, जिसमें खाप पंचायतों के वर्चस्व की लड़ाई की अपनी भूमिका है, के अपराध की जड़ों को खंगालने का काम करती है। जबकि वर्ष 2008 में नोएडा में हुए आरूषि-हेमराज के दोहरी हत्याकांड की पड़ताल पर आधारित मेघना गुलजार की प्रस्तावित फिल्म नोएडा जिसका नाम अब बदलकर तलवार रख दिया गया है, अब सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिए तैयार है।
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