Saturday, January 23, 2016
तीस हजारी, एक भूली बिसरी कहानी_Tis Hazari, a forgotten chapter of capital history
जहाँआरा-तीस हजारी की राजकुमारी
Friday, January 8, 2016
जिंदगी_एक सफर (life a journey with you...)
अभी तो शुरू हुआ है सफर,
मंजिल पर है नज़र,
क्या बताओ होगा क्या अंजाम,
जब मैं ही हूँ बेखबर
बीच रास्ते में मत पूछ किधर,
चले हैं दो लोग, किस डगर,
क्या बताओ, कैसा होगा सफर,
जब मैं ही हूँ बेखबर
अभी तो पाना है, खोना है अक्सर,
जिंदगी पर रखो नज़र,
अभी कैसे बताऊँ मेरे हमसफर,
जब मैं ही हूँ बेखबर
कितने इम्तिहान, कैसा होगा सफर,
अभी से कहूँ, कैसे अगर-मगर,
कितने मुकाम बाकी है खैर,
जब मैं ही हूँ बेखबर
सो हिम्मत रख, मेरे हमसफर,
गम-खुशियाँ आनी हैं, मगर
सिलसिलावार जारी रखना है, यह सफर
मुझे हैं, तेरी खबर
न हो तू मुझसे बेखबर।
Wednesday, January 6, 2016
Mastani Bajirao_बिना मस्तानी के भी था एक बाजीराव
हाल में ही निर्देशक संजय लीला भंसाली की रिलीज हुई हिंदी फिल्म "बाजीराव मस्तानी" ने सिनेमाई दर्शकों के साथ जनसाधारण के मन में भी बाजीराव को लेकर उत्सुकता पैदा की है। आखिर यह वीर मराठा था कौन? लाख टके का सवाल है यह है कि फिल्मी मस्तानी से अलग बाजीराव का व्यक्तित्व कैसा था? इतिहास के पन्ने खँगालने पर पता चलता है कि बाजीराव ने न केवल महाराष्ट्र बल्कि राष्ट्र के इतिहास को अपनी विलक्षण प्रतिभा और वीरता से प्रभावित किया।
मुगल दिल्ली से बाजीराव का परिचय युवावस्था में ही हो गया था। वे अपने पिता पेशवा बालाजी विश्वनाथ के साथ दिल्ली वर्ष 1718-1719 में आए थे। तब बालाजी विश्वनाथ ने मुगल बादशाह फर्रूखसियर के वजीर और सैयद बंधुओं में से एक हुसैन अली खां के साथ संधि की थी। इस संधि में मराठों को मुगलों के छह दक्खिनी सूबों की चौथ और सरदेशमुखी वसूलने तथा छत्रपति शाहू को मराठा स्वराज्य का शासक होने के अधिकार मिला। बादशाह फर्रूखसियर के इस संधि से इंकार करने के कारण सैयद बंधुओं ने उसे तख्त से बेदखल और अंधा बनाकर कैद में डाल दिया। उसके बाद बने, दूसरे बादशाह रफीउलद्दौला ने मराठा संधि को अपनी स्वीकृति दी।
इस तरह, बाजीराव को अपनी पहली दिल्ली यात्रा में ही मुगल सल्तनत के खोखलेपन का आभास हो गया। छत्रपति शाहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र 19 वर्षीय बाजीराव को सन् 1720 अपना पेशवा नियुक्त किया।बाजीराव अपनी मृत्यु तक यानी सन् 1740 तक पेशवा के पद पर रहे।
पेशवा बाजीराव अपने पिता से अधिक महत्वाकांक्षी, युद्धप्रिय और कुशाल सेनानी थे। यह कालखंड देश में हिंदू चेतना का नवोत्थान था जो कि बालाजी विश्वनाथ के पेशवा के रूप में अभिषेक (सतारा, 1713) से आरंभ होकर बाजीराव पेशवा के महान अभियानों (1723-1740) तक रहा।
बाजीराव ने पेशवा बनने के बाद मराठा राज्य के उत्तर दिशा में विस्तार करने की नीति अपनाई। उन्होने छत्रपति शाहू के दरबार में कहा, "जो कुछ तुम्हारे पास है उसे बचाओ और उसकी वृद्धि के लिए प्रयत्न करो, सब ओर महाराष्ट्र साम्राज्य का प्रसार करो। मुझे विश्वास है कि हमारी संगठित शक्ति निजामुल मुल्क मुहम्मद खां आदि को शीघ्र की पराजित कर देगी।" बाजीराव का कहना था, "यदि हम जर्जर वृक्ष के तने पर ही सीधे प्रहार करेंगे तो उसकी शाखा-प्रशाखाएं तो अपने से ही गिर पड़ेगी। उनकी वक्तृता के प्रभाव में आकर छत्रपति शाहू ने भी इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी।"
बाजीराव ने दक्कन में मराठा राज्य को निष्कंटक करने के लिए निजाम आसफजाह निजामुलमुल्क से अनेक बार मोर्चा लिया और हर बार उसे पटकनी दी। बाजीराव ने मार्च 1728 को पालखेड़ के समीप निजाम को करारी हार दी और उसे मुंगी शिवागांव की संधि मानने के लिए बाध्य कर दिया। इस संधि के अनुसार, निजाम ने शाहू को चौथ और सरदेशमुखी देना, शंभूजी को सहायता न देना, विजित प्रदेश लौटाना स्वीकार किया। निजाम की इस हार से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई और उनका देश के पूर्व तथा दक्षिण भाग में प्रसार करना, अब केवल समय का प्रश्न था।
पेशवा बाजीराव के बारे में अंग्रेज इतिहासकार रिचर्ड टेम्पल ने लिखा है कि वे घुड़सवारी में अद्वितीय थे तथा आक्रमण में आगे रहकर भयंकर से भयंकर स्थितियों में अपने को सदैव परखने के लिए इच्छुक रहा करते थे। वे कष्ट सहिष्णु थे। अपने सैनिकों के साथ आपत्तियों को झेलने में वे गर्व महसूस करते थे। स्वदेश भक्ति से ओत प्रोत हिन्दुत्व के पुराने विरोधी मुसलमानों और नए बैरी अंग्रेजों पर विजय पाना वे राष्ट्रीय धर्म समझते थे। बाजीराव ने हिंदू पद पादशाही के आदर्श का प्रचार किया और इसे लोकप्रिय बनाया ताकि अन्य हिंदू राजा इस योजना में मुगलों के विरुद्ध इनका पक्ष लें और साथ दें।
वहीं उत्तर भारत में, इलाहाबाद के मुग़ल सूबेदार मुहम्मद खां बंगश ने बुंदेलखंड पर हमला किया। जिस पर बुंदेला राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपनी सहायता के लिए पत्र में लिखा, वहीं उत्तर भारत में, इलाहाबाद के मुग़ल सूबेदार मुहम्मद खां बंगश ने बुंदेलखंड पर हमला किया। जिस पर बुंदेला राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपनी सहायता के लिए पत्र में लिखा,
जो गति ग्राह गजेन्द्र की, सो गति भइ है आज।
बाजी जात बुन्देल की, राखो बाजी लाज।
इस पत्र के उत्तर में पेशवा बाजीराव ने लिखा कि आप निश्चिंत तथा निर्भय रहें। हम इस धर्मयुद्ध में सब प्रकार से आपकी सहायता करने को तत्पर है।
वे होंगे छत्तापता, तुम होग छतसाल।
वे दिल्ली की ढाल तो, तुम दिल्ली ढालनेवाल।
पेशवा बाजीराव राजा छत्रसाल की सहायता के लिए बुंदेलखंड कूच कर गए और इन दोनों की 60 हजार की संयुक्त सेना ने मुगल फौज के छक्के छुड़ा दिए। मुग़ल सूबेदार हारकर राजा छत्रसाल और पेशवा बाजीराव से संधि करनी पड़ी। इस तरह, सन् 1728 तक मराठों ने बुंदेलखंड के सभी विजित प्रदेश मुगलों से वापिस छीन लिए।
पेशवा बाजीराव ने तो छत्रसाल की सहायता निरपेक्ष भाव से की थी, फिर भी इस कृपा से छत्रसाल बाजीराव से अभिभूत हो गए। अतः सन् 1733 में वीर छत्रसाल ने अपनी मृत्यु के समय अपने राज्य को तीन भागों में विभाजित कर दिया। पहले दो भाग अपने पुत्रों और तीसरा भाग बाजीराव प्रथम को दे दिया। यहीं से मध्य भारत में मराठा ब्राहाणों के राजवंश की नींव पड़ी। छत्रसाल के उत्तराधिकारी भी बाजीराव के मित्र और सहायक रहे।
सन् 1735 तक मराठों ने पूरे गुजरात और मालवा पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया था। पर स्थानीय मुगल अधिकारियों के प्रभाव में कुछ क्षेत्रों ने मराठा प्रभुत्व मानने से इंकार कर दिया। तो मुगल बादशाह मुहम्मद शाह भी मराठों को चौथ और सरदेशमुखी के अधिकार के लिए शाही आदेश जारी करने में आनाकानी कर रहा था। इतना ही नहीं, मुगल बादशाह ने पेशवा बाजीराव से मिलने को भी टाले रखा।
ऐसे में, बाजीराव ने मराठों की शक्ति प्रदर्शन का निश्चय किया। वर्ष 1737 में बाजीराव ने एक बड़ी मराठा सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच किया। बाजीराव ने मराठा सेना को दो टुकडि़यों में बांट दिया। सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व पेशवा बाजीराव और दूसरी टुकड़ी की संयुक्त कमान पीलाजी जाधव और मल्हारराव होल्कर के हाथ में थी। अवध के नवाब और आगरा के मुगल सूबेदार सआदत खान की विशाल घुड़सवार सेना से टक्कर में होल्कर की मराठा टुकड़ी को पीछे हटना पड़ा। ऐसे में, होल्कर की टुकड़ी वापस बाजीराव की टुकड़ी में आकर मिल गई। उधर, सआदत खान ने मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला को मराठों की हार की झूठी खबर दी, जिसके फलस्वरूप मथुरा से दिल्ली तक मुगल जश्न मनाने लगे। यह खबर सुनकर दूसरे मुगल सेनापति भी सआदत खान की कथित कामयाबी के जश्न में शरीक होने की गरज से दिल्ली छोड़कर निकल गए।
ऐसे में, पेशवा बाजीराव ने मुगल बादशाह को मराठा शक्ति की एक झलक दिखाने की सोची। बाजीराव के नेतृत्व में मराठा टुकड़ी ने दिल्ली से दूर डेरा डालकर ठहरी मुगल फौज को चकमा देते हुए तेजगति से दिल्ली के बाहरी इलाके में पहुंच गई। बाजीराव ने दस दिन की दूरी केवल अड़तालीस घंटे में पूरी करके सबको हैरान कर दिया और मराठा सेना ने तुगलकाबाद पहुंचकर धूम मचा दी।
पेशवा कुतुबमीनार आकर रुके और फिर मराठों ने मुग़ल दिल्ली को बुरी तरह रौंद डाला। ऐसे में, मुगल बादशाह अपनी जान बचाने के लिए सुरक्षित लाल किले में जाकर छिप गया। यहाँ तक कि लाल किले से मीर हसन कोका के नेतृत्व में आठ हजार की मुगल फौज को भी बाजीराव के हाथों बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। पेशवा बाजीराव बेशक दिल्ली में केवल तीन दिन ठहरे पर इस दौरान उन्होंने मुगल सल्तनत के खोखलेपन को जगजाहिर कर दिया।
दिल्ली के मुगल दरबार के बाजीराव के खिलाफ मुकाबले के लिए किए गए सारे प्रयत्न निष्फल रहे। एक दिन वह भी था, जब मराठा जाति के अभ्युत्थान को दिल्ली की तरफ से बार-बार बाधा दी गई। लेकिन अब दिल्ली में दम्भ, घमंड,अहंकार में चूर, तैमूरी बादशाहों के सल्तनत का पतन शुरू हो चुका था। सन्1738 में मुगल बादशाह ने निजाम को फिर दिल्ली बुलाया और उसे आसफजां का खिताब देकर मराठों के विरुद्ध भेजा। पेशवा बाजीराव ने उसे एक बार फिर भोपाल के युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया। निजाम को हारकर बाजीराव से दुरई-सराय की संधि करनी पड़ी। निजाम ने मालवा, नर्मदा के बीच की संपूर्ण भूमि और 50 लाख रूपए बाजीराव को दिए। इस तरह, मुगल बादशाह और निजाम को मुंह की खानी पड़ी और मराठा शक्ति की सर्वोच्चता को स्वीकार करना पड़ा।
पेशवा बाजीराव ने देश में बृहद मराठा साम्राज्य की नींव डाली। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार पेशवा बाजीराव को रचनात्मक पूर्व दृष्टि रखने वाला मानते हुए लिखते हैं, "यदि सर राबर्ट वालपोल ने इंगलैंड के प्रधानमंत्री पद को अप्रतिरोध्य सत्ता का केंद्र बना दिया तो ठीक उसी प्रकार बाजीराव ने ऐसी ही सत्ता का केंद्र मराठा राज्य में भी बना दिया।"
जबकि जी.एस. सरदेसाई के अनुसार, "अब शाहू एक छोटे से राज्य के राजा नहीं थे जिनके अधीन एक भाषा-भाषी लोग रहते थे जैसा कि उनके पिता या पितामह के काल में था। अब वह एक दूर-दूर तक विस्तृत तथा भिन्न प्रदेशों के महाराजा थे। मराठों का राज्य अब अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक फैला था और भारतीय मानचित्र पर स्थान-स्थान पर मराठा शक्ति के केंद्र थे। भारतीय शक्ति का केंद्र बिंदु अब दिल्ली नहीं पूना था।"
रिचर्ड टेम्पल ने पेशवा बाजीराव का वर्णन करते हुए लिखा है "वह खेमों में ही जिए और खेमों में ही मरे, अपने साथियों के बीच।" शायद इसीलिए आज तक लोग उन्हें सैनिक पेशवा तथा शक्ति के अवतार के रूप में स्मरण करते हैं।
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