“हम बेशक आसमान में उड़ रहे हो पर हमारा जमीन से नाता नहीं टूटना चाहिए। पर अगर हम अर्थशास्त्र और राजनीति की जरूरत से ज्यादा पढ़ाई करते हैं तो जमीन से हमारा नाता टूटने लग जाता है-हमारी आत्मा प्यासी होकर तन्हां हो जाती है। हमारे राजनीतिक मित्रों को उसी प्यासी आत्मा की स्थिति से सुरक्षित रखने और बचाने की जरूरत है और इस उद्देश्य के लिए शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, कवियों, लेखकों और कलाकारों के रूप में नामित सदस्य यहाँ (राज्यसभा) उपस्थित हैं।’’इस शब्दों के साथ, पृथ्वीराज कपूर ने देश की राजधानी दिल्ली में संसद के उच्च सदन में एक कलाकार की ओर से नामित सदस्यों की भूमिका के बारे में दी गई बेहतरीन दार्शनिक व्याख्या न केवल अपने नामांकन बल्कि इस विषय में हमारे गणराज्य के संस्थापक सदस्यों के दृष्टिकोण को भी न्यायसंगत साबित कर दिया।
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पृथ्वीराज के बड़े प्रशंसकों में से एक थे। नेहरू के समय में ही पृथ्वीराज को पहली बार राज्यसभा के लिए नामित किया। वे दो बार, वर्ष 1952 में दो साल के लिए और फिर वर्ष 1954 में पूर्ण काल के लिए राज्यसभा के सदस्य रहे। “पुस्तक थिएटर के सरताज पृथ्वीराज’’ (प्रकाशक: राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) में योगराज लिखते है कि जब पृथ्वीराज राज्यसभा में अपने नामांकन को लेकर दो-मन थे। बकौल पृथ्वीराज, “थिएटर की भलाई और राज्यसभा की व्यस्तताएं, पर क्या किया जाए!
मुझे इन परिस्थितियों का मुकाबला तो करना होगा। थिएटर को भी जिंदा रखना है और सरकार के इस सम्मान को भी निभाना है। दूसरा कोई चारा नहीं है चलो थिएटर की सलामती के लिए और बेहतर लड़ाई लड़नी होगी।’’
उनके साथ कंस्टीट्यूशन हाउस में रहे वी एन कक्कड़ अपने संस्मरणों वाली पुस्तक “ओवर ए कप ऑफ काफी’’ में बताते हैं, पृथ्वीराज ने उन्हें एक बार कहा कि, “मुझे वास्तव में नहीं पता कि मुझे राज्यसभा में क्या करना चाहिए। मेरे लिए मुगल-ए-आजम फिल्म में अभिनय करना राज्यसभा में एक सांसद की भूमिका निभाने से आसान था। भगवान जाने पंडित जी ने मुझमें क्या देखा। लेकिन जब भी मैं दिल्ली में रहूंगा और राज्यसभा का सत्र होगा तो मैं निश्चय ही उसमें भाग लूंगा।’’ 60 के दशक के आरंभ में कंस्टीट्यूशन हाउस कस्तूरबा गांधी मार्ग पर होता था, जहां पृथ्वीराज शुरू में बतौर राज्यसभा सांसद रहें। वैसे बाद में वे अपने कार्यकाल के अधिकतर समय में इंडिया गेट के पास प्रिंसेस पार्क में रहे।
“राज्य सभा के नामांकित सदस्य पुस्तिका’’ (प्रकाशक: राज्यसभा सचिवालय) के अनुसार, एक थिएटर कलाकार और सिने अभिनेता के रूप में अपने उत्कृष्ट योगदान के लिए राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित पृथ्वीराज कपूर ने सदन के पटल पर नामजद सदस्यों (जिसका संदर्भ मैथिलीशरण गुप्त का था) के अपने आकाओं के विचारों को व्यक्त करने के आरोप का खंडन करते हुए कहा, “जब यहां अंग्रेजों का राज था और जनता पर दमिश्क की तलवार लटक रही थी तब मैथिलीशरण गुप्त जैसे क्रांतिकारी थे, जिनमें भारत भारती लिखने का साहस था। ऐसे में, उस समय हिम्मत करने वाले निश्चित रूप से आज अपने मालिकों के समक्ष नहीं नत मस्तक होंगे। वे (नामजद सदस्य) तर्क और प्रेम के सामने झुकेंगे और न कि किसी और के सामने।” पृथ्वीराज कपूर ने देश की सांस्कृतिक एकता के अनिवार्य तत्व को रेखांकित करते हुए 15 जुलाई 1952 को राज्यसभा में एक राष्ट्रीय थिएटर के गठन का सुझाव दिया था। जिसके माध्यम से विभिन्न संप्रदायों और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले व्यक्तियों को एक साथ लाने और एक समान मंच साझा करने तथा उचित व्यवहार सीखने के अवसर प्रदान किए जा सकें।
वर्ष 1954 में संगीत नाटक अकादमी के 'रत्न सदस्यता सम्मान' से सम्मानित होने के बावजूद उन्होंने पृथ्वी थिएटर के लिए किसी भी तरह की सरकारी सहायता लेने से इंकार कर दिया। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें कई सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडलों में विदेश भेजा। पृथ्वीराज कपूर और बलराज साहनी वर्ष 1956 में चीन की यात्रा पर गए एक भारतीय सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे।
शशिकपूर के शब्दों में, पृथ्वीराज कपूर अपनी थिएटर कंपनी, जिसने लगातार 16 साल 150 स्थायी व्यक्तियों के साथ नाटक किए, को अपना नशा कहते थे। वे मुंबई के सबसे पेशेवर अभिनेता प्रबंधक के रूप में जाने जाते थे। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी थिएटर ने भारत में अनेक शौकिया समूहों के लिए मानक निर्धारित किए। इतना ही नहीं, पृथ्वीराज कपूर आल इंडिया रेलवे यूनियन के अध्यक्ष रहे और विश्व शांति कमेटी के भारतीय चेयरमैन भी।
थिएटर में रूझान के कारण कानून की अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर पेशावर से मुंबई अपनी किस्मत आजमाने पहुंचे और पृथ्वीराज इंपीरियल फिल्म कंपनी से जुड़े। वर्ष 1931 में प्रदर्शित पहली भारतीय बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ में पृथ्वीराज ने बतौर सहायक अभिनेता काम करते हुए चौबीस वर्ष की आयु में ही अलग-अलग आठ दाढि़यां लगाकर जवानी से बुढ़ापे तक की भूमिका निभाई। फिर राज रानी (1933), सीता (1934), मंजिल (1936), प्रेसिडेंट, विद्यापति (1937), पागल (1940) के बाद पृथ्वीराज फिल्म सिकंदर (1941) की सफलता के बाद कामयाबी के शिखर पर पहुंच गए। उनकी अंतिम फिल्मों में राज कपूर की ‘आवारा’ (1951), ‘कल आज और कल’, जिसमें कपूर परिवार की तीन पीढियों ने अभिनय किया था और ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘आसमान महल’ थी। उन्होंने कुल नौ मूक और 43 बोलती फिल्मों में काम किया।
हिंदी सिनेमा के सितारे पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस के सिनेमाघरों में कई नाटकों का प्रदर्शन किया। पुस्तक थिएटर के सरताज पृथ्वीराज के अनुसार, “इसी बीच पृथ्वीराज कपूर अपना थिएटर लेकर दिल्ली आए। उन दिनों उनके तीन नाटक बहुत चर्चित थे-“शकुन्तला”, “दीवार” और “पठान”। ये तीनों नाटक अपनी-अपनी जगह लोगों की खूब वाह-वाही ले रहे थे। संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम् उर्दू में बिलकुल पारसी थिएटर की शैली में नाटकीय रूपांतर था। दूसरा नाटक “दीवार” था जो राष्ट्रीय एकता पर देश के विभाजन के विरोध में था। इसी तरह पृथ्वी थिएटर के तीसरे नाटक “पठान” को लिखने में भी पृथ्वीराज का बड़ा हाथ था।
‘आई गो साउथ विथ पृथ्वीराज एंड हिज पृथ्वी थिएटर्स’ पुस्तक (प्रकाशक:पृथ्वी थिएटर्स) में प्रोफेसर जय दयाल लिखते हैं, ‘पृथ्वी ने हर तरह के उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए निर्भीकता के साथ ‘दीवार’ का मंचन किया। एक लम्बे अंतराल के बाद इस नाटक को आला स्तर के नेताओं से एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति के रूप में मान्यता मिली। तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और सूचना एवं प्रसारण मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नाटक को अंत तक बैठकर देखा जबकि वह केवल मात्र एक सरकारी उपस्थिति की खानापूर्ति के लिए आए थे।
'दीवार' ने उन्हें गुदगुदाने के साथ उनकी आँखे भी नम कर दी और इसका नतीजा पृथ्वी थिएटर को मनोरंजन कर से मिली छूट के रूप में सामने आया।
गौरतलब है कि पहले कनाट प्लेस के रीगल सिनेमा में रूसी बैले, उर्दू नाटक और मूक फिल्में दिखाई जाती थीं। पृथ्वीराज कपूर ने कनॉट प्लेस के कई थिएटरों में मंचित अनेक नाटकों में अभिनय किया था। आज़ादी से पूर्व उस दौर में, यहां समाज के उच्च वर्ग का तबका, जिनमें अंग्रेज़ अधिकारी और भारतीय रजवाड़ों के परिवार हुआ करते थे, नाट्य प्रस्तुति देखने आया करता था।
उस समय जब दिल्ली में पृथ्वी थिएटर के नाटक रीगल सिनेमा हाल में हो रहे थे। सारे शो हाउसफुल थे। लोग टूटे पड़ते थे। हो सकता है, लोगों की इस भीड़ का कारण बहुत हद तक ये हो कि स्टेज पर उनके सामने एक बहुत बड़ा नामवर फिल्मी अभिनेता चलता-फिरता नजर आएगा। इसके अतिरिक्त लोग देखेंगे तो नाटक ही न। योगराज के शब्दों में, जहां तक मुझे याद है, दो या तीन सप्ताह पृथ्वी थिएटर अपने इन तीनों नाटकों को बार-बार खेलते रहे और लोग इसी तरह भीड़ की शक्ल में आते रहे।”
आज यह बात जानकर सबको हैरानी होगी कि थिएटर की मशहूर अदाकारा जोहरा सहगल ने पृथ्वी थिएटर में अपनी पारी की शुरूआत बतौर एक नृतकी के रूप में की थी। प्रसिद्व रामपुर राजघराने से संबंधित जोहरा भारत के मशहूर और अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नर्तक उदयशंकर के बेले ग्रुप में थीं और इस ग्रुप में महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। पृथ्वीराज के बारे में जोहरा कहती है, “उन्होंने मुझे विनम्रता का पाठ पढ़ाया और मेरे व्यक्तित्व में से घमंड को पूरी तरह निकाल बाहर किया। मैंने हमारी नाट्य मंडलियों के साथ रेल के तीसरे दर्जे में पूरे भारत का दौरा करने के कारण ऐसी चीजें सीखीं जिन्हें करना पहले मैं अपनी हेठी समझती थी। जोहरा के लिए, पृथ्वीजी देवता थे।
पृथ्वीराज कपूर ने वर्ष 1944 में तत्कालीन फारसी और परंपरागत थिएटरों से अलग आधुनिक शहरी थिएटर की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए पृथ्वी थिएटर शुरूआत की। पृथ्वी थिएटर ने सोलह वर्ष में 2662 नाट्य प्रस्तुतियां दी, उसके बहुचर्चित नाटकों में दीवार, पठान, 1947, गद्दार, 1948 और पैसा थे। उल्लेखनीय है कि टेलीविजन सीरियल के निर्माता रामानंद सागर और प्रसिद्व संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन जैसे कलाकार पृथ्वी थिएटर से ही फिल्मी दुनिया में आए।
हिंदी फिल्मों में सम्मोहित अभिनय और रंगमंच को नई दिशा देने वाले पृथ्वीराज का 29 मई, 1972 को निधन हुआ। उन्हें मरणोपरांत सिनेमा जगत के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के (वर्ष 1971) से सम्मानित किया गया था।
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