Saturday, July 30, 2016

चौथी दिल्ली_तुगलक की जहांपनाह_Fourth city of Delhi_jahapanah


तुगलक वंश का सबसे चर्चित सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1325-51) अपने पिता गयासुद्दीन तुगलक की हत्या करके गद्दीनशींन हुआ था। इसी खूनी कुकृत्य के कारण वह अपने पिता के किले तुगलकाबाद में शांति से नहीं रह सका। मुहम्मद तुगलक ने वहां रहने वाले वाली जनता को संरक्षण देने के हिसाब से दिल्ली के चौथे नगर को बसाया। यह नगर काफी हद तक किला राय पिथौरा और सीरी के बीच एक दीवारनुमा अहाता था। इस शहर का नाम रखा गया, जहांपनाह यानी पूरी दुनिया की पनाहगाह।


आज जहांपनाह की दीवारें दिल्ली-महरौली सड़क को काटती है और इन्हें कई स्थानों पर देखा जा सकता है, जैसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के उत्तर में, बेगमपुरी मस्जिद के उत्तर में और खिड़की मस्जिदों के दक्षिण में, चिराग दिल्ली के उत्तर में, सतपुला के निकट तथा किला राय पिथौरा के हौजरानी द्वार के समीप।


"दिल्ली और उसका अंचल" पुस्तक के अनुसार, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से वर्ष 1964-65 में थोड़े पैमाने पर की गई खुदाई के पश्चात किला राय पिथौरा की पूर्वी दीवार के साथ उसके संधि स्थल के समीप जहांपनाह की दीवारों का एक हिस्सा प्रदर्शित हुआ है। इस खुदाई के निर्माण और अभिवृद्वियों के तीन अवस्थानों का पता चलता है, जिसकी बुनियादों में खुरदरे छोटे पत्थर हैं और जमीन के ऊपर दीवार का बाहरी हिस्सा संगीन चिनाई का है।


आदिलाबाद किले को इतिहास में दिल्ली का चौथा किला माना जाता है। बाकी लाल किला, पुराना किला और तुगलकाबाद किला है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के संरक्षण में होने के बावजूद लोगों को आदिलाबाद किले के बारे में बहुत कम जानकारी है। जबकि इस किले का भी अपना एक दुर्लभ अतीत रहा है। मुहम्मद तुगलक ने तुगलकाबाद के दक्षिण में आदिलाबाद नाम का छोटा किला बनवाया था।



वास्तुकला की दृष्टि से यह तुगलकाबाद से अधिक भिन्न नहीं है। इसे तुगलकाबाद से जोड़ने वाले बांध की दीवारें इस शहर की बाहरी दीवारों के रूप में पहाड़ियों के ऊपर तक चली गई है और इसमें दो फाटक दिए गए है जिसमें से एक दक्षिण-पूर्व और दो बुर्जों के बीच एक अतिरिक्त किलेबंद द्वार से युक्त और दूसरा दक्षिण-पश्चिम की ओर है। इसके अंदर, एक प्राचीर द्वार अलग किया गया एक नगर दुर्ग है जो दीवारों में बुर्ज और द्वारों से युक्त है और उसके भीतर महल है। यह किला मोहम्मदाबाद के नाम से भी विख्यात है और सम्भवतः शायद इसे जहांपनाह के बाद बनाया गया था। आज इसके अवशेष खंडहर ही हैं।

तुगलक वंश के दौरान आदिलाबाद किले का इस्तेमाल जहांपनाह शहर को सुरक्षा प्रदान करने के लिए किया जाता था। यह राजधानी में विभिन्न दौर में बने कई किलों में से एक होने के बावजूद उतना प्रसिद्व नहीं है।




तुगलकाबाद किले के दक्षिण पूर्व में स्थित इस सुंदर किले तक पहुंचने के लिए भूलभुलैया भरे कच्चे रास्ते और जंगल से गुजरना पड़ता है। राजधानी के सबसे पुराने किलों में से एक आदिलाबाद का किला तुगलक कालीन वास्तुकला का उदाहरण होने के बावजूद गयासुद्दीन तुगलक के किले तुगलकाबाद की प्रसिद्वि और विशालता के कारण बरसों तक लोगों की नजर से छिपा ही रहा।

एक बार आदिलाबाद तक पहुंचने का मतलब है बीते दौर में वापस जाना। टूटी सीढ़ियां और एक कच्चा ढलान वाला रास्ता किले तक पहुंचा देता है। यहां पहुंचकर साफ दिखता है कि यह किला अब खंडहर है। इतिहासकारों के अनुसार, एक छोटे किले के रूप में बना आदिलाबाद की रक्षा के लिए भारी प्राचीरें बनाई गई थी। अगर निर्माण में के उपयोग और बनावट के हिसाब से आदिलाबाद की तुलना विशाल तुगलकाबाद किले से की जाए तो यह एक छोटा किला लगेगा।

हालांकि जहांपनाह शहर की बाहरी परिधि में रक्षात्मक किलेबंदी के निर्माण के साथ इस किले की उपयोगिता बढ़ी क्योंकि इसकी सीमा में रहने वाले लोगों को सुरक्षा मिली। इस किलेबंदी वाले इलाके में एक महलनुमा गढ़ था, जिसमें शाही महल सहित महत्वपूर्ण प्रशासनिक भवन थे।



दिल्ली में मुगल या अंग्रेजों के जमाने की तो अनेक इमारतें हैं पर तुगलक कालीन भवन अधिक नहीं हैं। हर स्मारक की अपने समय के हिसाब से अलग-अलग विशेषताएं और स्थापत्य शैली होती है। ये दो किले तुगलक वंश की सबसे बड़ी विरासत हैं।

तत्कालीन विदेशी यात्री इब्न बतूता ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र का गहन अध्ययन किया था। सुल्तान द्वारा उसे विशेष प्रोत्साहन प्राप्त होता रहता था। इब्ने बत्तूता ने देहली का हाल बड़े विस्तार से लिखा है। नगर की चहार दीवारी, विभिन्न द्वार, देहली की जामा मस्जिद, देहली की कब्रों, तथा देहली के बाहर दो बड़े हौजों का बड़ा ही विशद वर्णन किया है।


इब्न बतूता ने अपनी यात्रा के विवरण में देहली के पूर्ववर्ती सुल्तानों का इतिहास इस देश के विश्वसनीय लोगों से सुनकर लिखा है। उसके आने से पूर्व सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के राज्य काल में जो घटनाएं घटी थी उनकी भी उसने बड़ी विशद चर्चा की है। देहली के विनाश का उसने बड़ा ही मार्मिक उल्लेख किया है।



1327 में तुगलक का दिल्ली से देवगिरी, जिसका नाम उसने दौलताबाद रखा, राजधानी बदलने का निर्णय एक दूसरा अनुचित कदम था, जिससे अंत में लोगों को असीम कष्ट हुआ। इतिहासकार सतीशचंद्र अपनी पुस्तक "मध्यकालीन भारत" में लिखते हैं कि मुहम्मद बिन तुगलक ने सुल्तान बनने के बाद जो कदम उठाए, उनमें सबसे विवादास्पद राजधानी का दिल्ली से देवगिरी में तथाकथित स्थानांतरण था।

इतिहासकार बरनी का कथन है कि नगर, अर्थात कुतबमीनार के इर्द गिर्द के पुराने नगर के खल्क अर्थात लोगों को वहां जाने का आदेश दिया गया। लेकिन बरनी ने यहां खल्क शब्द का प्रयोग साधारण जनता के लिए नहीं, बल्कि गणमान्य व्यक्तियों के लिए किया है। सुल्तान ने अनेक हाकिमों, उनके अनुयायियों और अनेक सूफी संतों समेत प्रख्यात व्यक्तियों को देवगीर जाने का निर्देश दिया जिसका नाम दौलताबाद रखा गया। इन लोगों का स्थान परिवर्तन के लिए काफी सरकारी दबाव डाला गया। ये लोग अपने परिवारों, दासों के साथ वहां जाएं, इसकी निगरानी रखने के लिए निरीक्षक नियुक्त किए गए।



बरनी ने लिखा है कि नगर (दिल्ली) के भवनों, प्रासादों अथवा इसके बाहरी भागों में एक भी बिल्ली या कुत्ता नहीं छोड़ा गया। जबकि स्टैनले लेनपूल का कथन है कि दौलताबाद गुमराह शक्ति का स्मारक चिन्ह था।

सुल्तान ने अंत में अपनी नीति की मूर्खता एवं अन्याय स्वीकार कर, कचहरी को पुनः दिल्ली ले गया और लोगों को वापस आने की आज्ञा दी। पर बहुत कम लौटने के लिए जीवित रहे। दिल्ली ने अपनी पुरानी समृद्वि और ऐश्वर्य खो दिया, जो बहुत काल तक पुनः प्राप्त नहीं किया जा सका। हां, सुल्तान नगर (दिल्ली) में अपने राज्य के कुछ शहरों से विद्वानों, सज्जनों, व्यापारियों तथा भूमिपतियों को लाया तथा उन्हें वहां बसाया। इब्न बतूता ने 1334 में दिल्ली को कहीं कहीं निर्जन एवं विनाश के चिन्ह सहित पाया।




जहांपनाह के खंडहर स्वाभाविक रूप से एक जिज्ञासा जगाते हैं। मुहम्मद तुगलक की प्रसिद्ध राजधानी में से कुछ खास नहीं बचा है। दक्षिण दिल्ली के कालू सराय, स्थानीय स्तर पर विजय मंडल के रूप में प्रसिद्व, के पास बनी इमारतों का एक समूह को जहांपनाह की निशानी माना जाता है।



विजय मंडल और कुछ नहीं उसके महल के अवशेष हैं। यह एक ऊंची पहाड़ी पर निर्मित एक लंबा स्तम्भनुमा भवन है। इसकी बाहरी दीवारों के निर्माण में पत्थरों का कुशल प्रयोग किया गया है, जिसकी छत अष्टभुजाकार है। पहली मंजिल पर एक हॉल और खजाना रखने वाले गड्ढ़े के अवशेष हैं।

यदि आप जमीन को ध्यान से देखें तो वहां पर वर्गाकार ब्लॉकों की एक श्रृंखला नजर आती है। ये खंभों के आधार हैं और वे मौजूदा हॉल के आसपास सभी स्थानों पर नजर आते हैं। इस स्थान की पहचान की गई है मशहूर हजार सुतून के रूप में यानी हजार स्तंभों का हॉल। इब्न बतूता के यात्रा वृत्तांत में इस हाॅल और तुगलक के महल का का विशद वर्णन है। उसके अनुसार, सुल्तान का देहली का महल दारे सरा कहलाता है। इसमें बहुत से द्वार हैं। तीसरे द्वार से होकर एक बहुत ही बड़े मशवर (विशाल कक्ष) में प्रविष्ट होते हैं। इसका नाम हजार सुतून अथवा हजार स्तम्भों वाला है। स्तम्भ पोलिश की हुई लकड़ी के बने हैं। इनके ऊपर लकड़ी की छत है जिसमें बड़ी सुंदर पच्चीकारी तथा चित्रकारी है। लोग इसके नीचे बैठते हैं और सुल्तान इसी में अपना आम दरबार करता है।



एक सीढ़ी और चढ़ने पर चारों ओर से खुला एक अष्टकोणीय मंडप दिखता है। वहाँ मंडप की छत के ओर जाने के लिए दो संकरी सीढ़ियां बनी हुई हैं। मंडप की छत पर खड़े होकर ही तुग़लक की राजधानी जहांपनाह की भव्यता का अंदाजा लगता है।



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