Saturday, January 27, 2018
Thursday, January 25, 2018
भवानी प्रसाद मिश्र_अज्ञेय_आधुनिक गद्य कविता
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।
हिंदी की आधुनिक गद्य कविता के लिए भवानी प्रसाद मिश्र से बड़ा कवि नहीं हुआ है।
सो, मुझे उन्हें पढ़ना पत्रकारिता-कविता दोनों के लिए जरूरी लगता है। उन्हें पढ़ने का अवसर मिले तो जरूर पढ़ना चाहिए।
मुझे तो अपनी भाषा-भाव के विस्तार में भवानी प्रसाद मिश्र-अज्ञेय ही इस योग्य लगे हैं, जिनसे मैंने पढ़कर सीखा है।
Saturday, January 20, 2018
26 Jan is more than just Republic Day_सिर्फ तारीख भर नहीं है 26 जनवरी
देश ही नहीं दिल्ली के भी कम लोग इस बात से वाकिफ है कि आजादी के बाद 26 जनवरी, 1950 को हुई पहली गणतंत्र दिवस परेड, राजपथ पर न होकर इंडिया गेट के पास बने नेशनल स्टेडियम में हुई थी। तब इर्विन स्टेडियम के नाम से मशहूर इस इमारत की कोई चहारदीवारी न होने से, पुराना किला साफ दिखता था। फिर अगले चार साल तक कोई निश्चित स्थान तय न होने के कारण दिल्ली में गणतंत्र दिवस समारोह स्थल इर्विन स्टेडियम से लेकर किंग्सवे कैंप, लाल किला और रामलीला मैदान तक बदला।
1955 में पहली बार गणतंत्र दिवस परेड राजपथ पर हुई। आठ किलोमीटर की दूरी तय करने वाली इस परेड की परंपरा आज तक कायम है जो कि अब रायसीना हिल से आरंभ होकर राजपथ, इंडिया गेट से होती हुई लालकिला पर समाप्त होती है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 26 जनवरी की तिथि का अत्याधिक महत्व है। अगर इतिहास में झांके तो पता चलता है कि लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन पारित एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव में कहा गया था कि अंग्रेज सरकार ने 26 जनवरी, 1930 तक भारत को उपनिवेश का दर्जा (डोमीनियन स्टेटस) नहीं दिया, तो भारत को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर दिया जाएगा। इतना ही नहीं, इस अधिवेशन में पहली बार तिरंगा फहराया गया और हर साल 26 जनवरी को पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाने का भी फैसला हुआ। यही कारण है कि कांग्रेस, तब से लेकर 1947 में देश की आजादी तक, 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाती रही।
पहले भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने 26 जनवरी 1950 को भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया और फिर राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को देश के पहले राष्ट्रपति की शपथ दिलाई। उन्हें तोपों की सलामी दी गई, और आज भी यह परंपरा बनी हुई है।
राष्ट्रपति भवन से डाॅ राजेंद्र प्रसाद वाया कनॉट प्लेस से होते हुए छह ऑस्ट्रेलियाई घोड़ों वाली एक बग्घी में सवार होकर इर्विन स्टेडियम पहुंचे। तब करीब 15 हजार नागरिक मुख्य गणतंत्र परेड देखने के लिए इर्विन स्टेडियम, जहां राष्ट्रपति ने तिरंगा फहराकर परेड की सलामी ली, में एकत्र हुए थे। तब परेड में भारतीय सशस्त्र सेना के तीनों अंगों के जवानों सहित सैन्य बैंड दलों ने भाग लिया था। उस समय इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो पहले विदेशी मुख्य अतिथि बने थे।
1951 से गणतंत्र दिवस समारोह के लिए राजपथ का स्थान नियत किया गया और उस साल, पहली बार चार वीरों को उनके अदम्य साहस और शौर्य के लिए सर्वोच्च अलंकरण परमवीर चक्र दिए।
1952 से बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम की शुरूआत हुई और तब एक समारोह रीगल सिनेमा के सामने मैदान में और दूसरा लालकिले में हुआ था। सेना बैंड ने पहली बार महात्मा गांधी के पसंदीदा गीत "अबाइड विद मी" की धुन बजाई थी, जो कि अब हर साल बजती है।
1953 में गणतंत्र दिवस परेड में पहली बार लोक नृत्य और आतिशबाजी हुई थी। इतना ही नहीं, पूर्वोत्तर राज्यों-त्रिपुरा, असम और अरुणाचल प्रदेश के वनवासी समाज के बंधुओं ने पहली बार गणतंत्र दिवस समारोह में भागीदारी की। जबकि 1955 में दिल्ली के लाल किले के दीवान-ए-आम में गणतंत्र दिवस पर पहली बार मुशायरा हुआ।
1956 में पहली बार पांच सजे-धजे हाथी गणतंत्र दिवस परेड में शामिल किए गए। इसी तरह, 1958 से दिल्ली की सरकारी इमारतों को बिजली से रोशन किया जाने लगा तो 1959 में पहली बार गणतंत्र दिवस समारोह में दर्शकों पर भारतीय वायुसेना के हेलीकॉप्टरों से फूल बरसाए गए। वही 1960 में परेड में पहली बार बहादुर बच्चों को हाथी पर बैठाकर लाया गया।
1962 में इस परेड और बीटींग रिट्रीट समारोह के लिए पहली बार टिकट के रूप में शुल्क लगाया गया तो अगले साल देश पर चीन के आक्रमण के कारण परेड का आकार छोटा कर दिया गया, जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने पहली बार गणतंत्र दिवस परेड में भाग लिया।
1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहली बार इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति पर सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करने गई और तब से यह परंपरा आज तक जारी है।
Saturday, January 13, 2018
Arrival of Electricity in Delhi_दिल्ली में बिजली आने की कहानी
बीसवीं सदी के आरंभ में दिल्ली में विद्युतीकरण की शुरूआत हुई और संयोग से शहर की राजनीतिक हैसियत में भी इजाफा हुआ।
“दिल्ली बिटवीन टू एंपायर्स” पुस्तक में नारायणी गुप्ता लिखती है कि पाइप से पानी और कचरे-मल की निकासी के लिए नाली की व्यवस्था की तरह बिजली भी 1902 में (दिल्ली) दरबार के होने के कारण दिल्ली में आई। फानशावे ("दिल्ली: पास्ट एंड प्रेजेन्ट" पुस्तक का लेखक एच॰ सी॰ फांशवा) ने पूरब (यानी भारत) में बिजली की रोशनी के आरंभ के विषय पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल अपव्यय के रूप में खारिज कर दिया था। उसने (कु) तर्क देते हुए कहा था कि दिल्ली में कलकत्ता के उलट कारोबार सूर्यास्त तक खत्म हो जाता है और ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी काफी थी।
बीसवीं सदी के पहले दशक में अंग्रेज साम्राज्यवादी शासन की तरफ से भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार (1903, 1911) आयोजित किए, जिनमें दिल्ली की साज-सजावट के लिए बिजली का इस्तेमाल किया गया। “ए मॉरल टेक्नोलाजी: इलेक्ट्रिफिकेशन एज पोलिटिकल रिचुअल इन न्यू दिल्ली” पुस्तक में लियो कोल्मैन लिखते हैं कि इन अंग्रेज शाही-रस्मों ने आधुनिक प्रौद्योगिकियों पर औपनिवेशिक पकड़ (श्रेष्ठता) को प्रदर्शित किया और भारतीय राजा रजवाड़ों को भी अपने राजनीतिक और दूसरे अनुष्ठान कार्यक्रमों के लिए बिजली का इस्तेमाल करने की दिशा में प्रेरित किया। कोलमैन के अनुसार रस्म-अनुष्ठान, नैतिक निर्णय और प्रौद्योगिकीय प्रतिष्ठानों की स्थापना संयुक्त रूप से मिलकर आधुनिक राज्य शक्ति, नागरिक जीवन और राजनीतिक समुदाय को आकार देते हैं।
दिल्ली में वर्ष 1905 में पहली डीजल पावर स्टेशन बनाया गया और मैसर्स जॉन फ्लेमिंग नामक एक निजी अंग्रेजी कंपनी को भारतीय विद्युत अधिनियम 1903 के प्रावधानों के तहत बिजली बनाने की अनुमति दी गई थी। इस कंपनी को सीमित रूप से बिजली बनाने और वितरण करने की दोहरी जिम्मेदारी दी गई थी। इस कंपनी ने विद्युत अधिनियम, 1903 के तहत लाइसेंस लेने के बाद पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया था। कुछ समय बाद, यह कंपनी दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी बन गई।
वर्ष 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने की शुरूआत की गई। वर्ष 1932 में सेंट्रल पावर हाउस का प्रबंधन नई दिल्ली नगर निगम समिति (एनडीएमसी) के हाथ में दे दिया गया।
दिल्ली में बिजली उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में वर्ष 1939 एक मील का पत्थर साबित हुआ जब दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी (डीसीईएए) की स्थापना हुई। इस कंपनी कि जिम्मे स्थानीय निकायों, विशेष रूप से दिल्ली म्यूनिसिपल कमेटियों के क्षेत्रों पश्चिम दिल्ली और दक्षिण दिल्ली के अलावा अधिसूचित क्षेत्र समितियों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों लाल किला, सिविल लाइंस, महरौली] नजफगढ़ तथा दिल्ली डिस्ट्रिक बोर्ड को बिजली आपूर्ति करने की जिम्मेदारी थी। दिल्ली-शाहदरा की म्यूनिसिपल कमेटियों के क्षेत्रों और नरेला के अधिसूचित क्षेत्र में बिजली आपूर्ति का काम विभिन्न निजी एजेंसियां करती थी। देश की आजादी के साल यानी वर्ष 1947 में डीसीईएपी ने दिल्ली इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी लिमिटेड के नाम से एक निजी लिमिटेड कंपनी का अधिग्रहण किया।
Wednesday, January 3, 2018
Ram_Vidhyaniwas mishra_विद्यानिवास मिश्र_मेरे राम का मुकुट भीग रहा है
कितनी अयोध्याएँ बसीं, उजड़ीं, पर निर्वासित राम की असली राजधानी, जंगल का रास्ता अपने काँटों-कुशों, कंकड़ों-पत्थरों की वैसी ही ताजा चुभन लिये हुए बरकरार है, क्योंकि जिनका आसरा साधारण गँवार आदमी भी लगा सकता है, वे राम तो सदा निर्वासित ही रहेंगे और उनके राजपाट को सम्भालने वाले भरत अयोध्या के समीप रहते हुए भी उनसे भी अधिक निर्वासित रहेंगे, निर्वासित ही नहीं, बल्कि एक कालकोठरी में बंद जिलावतनी की तरह दिन बिताएँगे।
-विद्यानिवास मिश्र (मेरे राम का मुकुट भीग रहा है)
Tuesday, January 2, 2018
Ram in indian constitution_Hindu_राम की सबसे बड़ी महिमा_लोहिया
राम की सबसे बड़ी महिमा उसके उस नाम से मालूम होती है, जिसमे उन्हे मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर पुकारा जाता है । जो मन मे आया वो नहीं कर सकते ।
राम की ताकत बंधी हुई, उसका दायरा खिंचा हुआ है।
राम की ताकत पर कुछ नीति या शास्त्र की या धर्म कि या व्यवहार की या अगर आप आज की दुनिया का एक शब्द ढूंढे तो, विधान की मर्यादा है।
- डॉक्टर राम मनोहर लोहिया
Monday, January 1, 2018
Cover_story_Old Books_new reference_panchjanaya_पुरानी किताब_नई बात_पांचजन्य_आवरण स्टोरी
आज के इन्टरनेट-गूगल युग में जब विषय सामग्री (कंटेंट) को खोजने की सुविधा सहज हो गई है वहीँ दूसरी ओर पुरानी हो चुकी किताबों को नए संदर्भ में झांकने-खंगालने की जरुरत अधिक बन पड़ी है। यह आवश्यकता भारतीय भाषाओँ खासकर हिंदी में लगती है, जहाँ विभिन्न विधाओं में प्रचुर मात्रा में स्तरीय लेखन हुआ पर अकादमिक अध्ययन में अंग्रेजी की वर्चस्व और हिंदी में संदर्भ न दिए जाने के दुश्चक्र ने नई पीढ़ी को अपनी भाषा में उपलब्ध खजाने से वंचित ही रखा है. ऐसे में हिंदी समाज के मन से भ्रम मिटने की आशा में कुछ पुस्तकें जो स्मरण बोध बन सकें और दोबारा पुराने बीज से नवांकुर निकलने का मार्ग प्रशस्त हो.
वीर विनोद-मेवाड़ का इतिहास, महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास (जोधपुर ग्रंथागार)
हाल में ही प्रस्तावित हिंदी फिल्म पद्मावती के कारण मेवाड़ की महारानी पद्मिनी के व्यक्तित्व में देश भर की रूचि पैदा हुई है। यह भी संयोग ही है कि वर्ष 1886 में प्रकाशित हुए इस चार खण्डों वाले महाग्रंथ का वर्ष 2017 में चौथा संस्करण (इससे पहले 1986, 2007) प्रकाशित हुआ है।
मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह ने इस बृहद ग्रन्थ को कविराजा श्यामलदासजी की अध्यक्षता में लिखवाना तय करते हुए इसके लेखन के लिए एक लाख रूपए स्वीकृत किए। जबकि यह महाराणा फतहसिंह के शासनकाल में प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ के महत्व का इस बात से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने अपने "उदयपुर का इतिहास" का भवन वीर विनोद की बुनियाद पर खड़ा किया और सर्वाधिक पाद टिप्पणियां इसी ग्रन्थ की दी लेकिन सर्वत्र इसे अप्रकाशित बताया। इस तरह, ओझा की पुस्तक ने "वीर विनोद" की बड़ी मांग खड़ी कर दी थी क्योंकि पाद टिप्पणियों वाले ग्रन्थ को हर कोई देखना चाहता था। ओझा ने 1928 में यह जरूर स्वीकार किया कि 12 वर्ष तक लिखा गया और एक लाख रूपयों के व्यय से यह बृहद् इतिहास कई हजार पृष्ठों में समाप्त हुआ है।
वीर विनोद के प्रथम भाग में भूगोल, राजपूताने-मेवाड़ के भूगोल और इतिहास, जातियों का वर्णन, दूसरे भाग में मध्यकालीन मेवाड़ का इतिहास व उसका महत्व, तृतीय भाग में उत्तर मध्यकालीन मेवाड़ का विवरण और चतुर्थ भाग में महाराणा प्रताप से सज्जनसिंह तक का विवरण और उसकी महत्ता का वर्णन किया गया है। इस विस्तृत ग्रन्थ में मेवाड़ के राजवंश और उससे जुड़ी अनेक रियासतों का विवरण इतिहास समुच्चय की मूलभूत विशेषता है तथा इसकी भाषा मौलिक और प्रभावी है।
संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर (लोकभारती प्रकाशन)
इस पुस्तक में दिनकर ने भारतीय जनता की रचना से लेकर बुद्व से पहले का हिन्दुत्व, जैन, बौद्व और वैदिक मत के उद्भव और उनकी सामाजिक प्रासंगिकता को समेटा है। खास बात यह है कि पुस्तक में भारत में इस्लाम, मुस्लिम आक्रमण, हिंदु-मुस्लिम संबंध, हिन्दुत्व पर प्रभाव, भक्ति आंदोलन और इस्लाम और अंततः अमृत और हलाहल संघर्ष शीर्षक पाठों के तहत सात अध्यायों में हिन्दू और इस्लाम के टकराव से लेकर विमर्श को सहेजा है। उदाहरण के लिए दिनकर ने पाकिस्तान के राष्ट्रीय शायर अल्लामा इकबाल के तराना-ए-हिंदी से तराना-ए-मिल्ली तक के सफर को रेखांकित करते हुए लिखा है कि इकबाल की कविताओं से, आरम्भ में, भारत की सामासिक संस्कृति को बल मिला था, किन्तु, आगे चलकर उन्होंने बहुत सी ऐसी चीजें भी लिखीं जिनसे हमारी एकता को व्याघात पहुंचा। जैसे यह बात कम जानी है कि सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा का तराना लिखने वाले इकबाल ने बाद में लिखा
चीनो अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा, मुस्लिम हैं हम वतन के, सारा जहाँ हमारा.
तोहीद की अमानत, सीनों में है हमारे, आसां नहीं मितान, नामों-निशान हमारा.
इतना ही नहीं वे लिखते हैं कि हम वैदिक काव्य तथा रामायण और महाभारत को बहुत ऊँचा पाते हैं, क्योंकि इन कविताओं में पारदर्शिता बहुत अधिक है और उनके भीतर से जीवन की बहुत बड़ी गहराई साफ दिखाई पड़ती है। इसके सिवा, उनसे यह भी ज्ञात होता है कि जिस युग में काव्य रचे गए, उस युग में यह देश समाज-संगठन के आदर्शों को लेकर और अगोचर सत्यों का पता लगाने के लिए भयानक संघर्ष कर रहा था।
भारतीय संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि, देवेन्द्र स्वरूप (समाजनीति समीक्षण केंद्र)
राष्ट्रवादी इतिहासकार देवेन्द्र स्वरूप के भारतीय संविधान के पूर्व-उत्तर काल पर आधारित कुल 17 व्याख्यानों में 18 वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 20 वीं के मध्य तक के कालखंड के भारतीय इतिहास का विशद् वर्णन है। यह पुस्तक अंग्रेजों के फैलाए अनेक ऐतिहासिक भ्रांतियों और दुष्प्रचार का शमन करती है जैसे अंग्रेजों को दक्षिण में फ्रांसिसियों द्वारा थोपे गये युद्वों के कारण ही भारतीय राजनीति में उलझना पड़ गया, कोरा झूठ है। इसी तरह अंग्रेजों का मुगलों का उत्तराधिकारी होने की बात भी झूठ है क्योंकि भारत के प्रायः सब भागों में अंग्रेजों के प्रतिद्वंदी स्थानीय देशज राजा एंव मराठे ही थे। यह बात साफ है कि 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में मराठों के पतन के बाद ही अंग्रेज भारत पर हावी हो पाये और इस प्रकार उन्होंने भारत का साम्राज्य मुगलों से नहीं अपितु मराठों से प्राप्त किया था। पुस्तक बताती है कि मराठों के पतन के बाद भारत में अपने एकछत्र राज्य को स्थापित करने के लिए अंग्रेज उच्च वर्ग ने भारतीय सभ्यता एवं इतिहास और भारतीयों के चरित्र का एक अत्यंत नकारात्मक बौद्विक चित्र प्रस्तुत करना शुरू किया। इसी क्रम में एक सुनियोजित प्रयास बड़े स्तर पर भारतीयों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाई बनाने का भी था। इन प्रयासों की परिणति 1857 के विस्फोट में हुई। पुस्तक बताती है कि किस तरह पढ़े लिखे भारतीयों के दबाव में महात्मा गांधी को संसदीय स्वराज का अपना तात्कालिक उद्देश्य बताना पड़ा और कैसे अंग्रेज निरंतर मुसलमानों और दलित वर्ग का उपयोग गांधीजी का अवरोध करने के लिए करते रहे। पर दलितों में गांधीजी का प्रभाव इतना गहरा था कि अंग्रेजों के उस प्रयास को वे बहुत सीमा तक कुंठित कर पाये। कुल मिलाकर यह पुस्तक बताती है कि दीर्घकाल तक स्वदेशी और स्वराज्य के आदर्शों के लिए संघर्षरत रहने के पश्चात् भी भारत को अंग्रेजी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना पड़ा।
आज भी खरे हैं तालाब, अनुपम मिश्र (गाँधी प्रतिष्ठान)
पिछले दो दशक में देश की सर्वाधिक पढ़ी गई पुस्तकों में से एक आज भी खरे हैं तालाब बिना कॉपीराइट वाली अकेली ऐसी पुस्तक है, जिसे इसके मूल प्रकाशक से अधिक अन्य प्रकाशकों ने अलग-अलग भारतीय भाषाओं और फ्रांसीसी में दो लाख से अधिक प्रतियों को छापा है। जनसत्ता के संस्थापक-संपादक और उन्हें पत्रकारिता में लाने वाले प्रभाष जोशी के शब्दों में, अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है। सम्मान से समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्टी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है। कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता है।
यह पुस्तक दिल्ली के महानगरीय समाज के चुकते पानी और राजधानी की समृद्व जल पंरपरा वाली विरासत के छीजने की चिंता की साक्षी भी है। अंग्रेजी राज में अनमोल पानी का मोल लगने की बात पर पुस्तक बताती है कि इधर दिल्ली के तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बन चली थी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ-हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राज के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए।
यह अनायास नहीं है कि जल जैसे नीरस विषय पर सरस भाषा में आज भी खरे हैं तालाब नामक पुस्तक लिखने वाले अनुपम मिश्र जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख पंक्ति के रचियता भवानी प्रसाद मिश्र की कुल पंरपरा से थे। यह पुस्तक देश के हिंदी समाज के पानी ही नहीं बल्कि भाषा की भी उतनी ही चिंता को भी रेखांकित करती है। प्रकृति और पानी के प्रति यह ममत्व उनकी दूसरी पुस्तकों हमारा पर्यावरण और राजस्थान की रजत कण बूंदे शीर्षक वाली पुस्तकों में भी परिलक्षित होता है। आज अनुपम की ये पुस्तकें जल संरक्षण के देशज ज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर हैं।
भारतीय कला, वासुदेवशरण अग्रवाल (पृथिवी प्रकाशन)
इस पुस्तक में लेखक ने भारतीय कला और वास्तु पर तत्कालीन प्रचलित वर्णनात्मक ग्रंथों से इतर कला के अर्थों पर विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने स्थापत्य और वास्तु के संयुक्त अध्ययन करते हुए अवशेषों का बाह्य वर्णन तक न सीमित रखते हुए उनके भीतरी अर्थ पर आवश्यक विचार किया है, जिनके परिणामस्वरूप ये कला-कृतियां अस्तित्व में आई। पुस्तक में संस्कृत, पाली, प्राकृत भाषाओं की मूल शब्दावली का उपयोग करते हुए वास्तु और स्थापत्य के नामों, कला संबंधी अभिप्रायों और अलंकरणों के विकास को खोजने का प्रयास किया गया है। इतना ही नहीं, कला की साहित्यिक पृष्ठभूमि की खोज के क्रम में कला और साहित्य के अंर्तसंबंध को भी रेखांकित किया गया है। पुस्तक में प्रत्येक युग, प्राग् ऐतिहासिक युग, सिन्धु घाटी, वैदिक काल, महाजनपद युग, मौर्य-शुंगकाल से संबंधित विशेष कलाओं की ओर ध्यान देते हुए भारतीय कला के विकास-क्रम की समीक्षा की गई है। कुषाण कला, गांधार कला, सातवाहन युगीन स्तूप, भारतीय मिट्टी के खिलौने सहित संस्कृत युग में प्रतीक और मूर्तियों का गहन रूप से विशद् विश्लेषण किया गया है।
हिंदी की शब्द सम्पदा, विद्यानिवास मिश्र (राजकमल प्रकाशन)
आज जब हिंदी समाज के सार्वजनिक जीवन में अध्यापन से लेकर मीडिया तक में हिंदी भाषा के प्रयोग के स्वरूप और उपादेयता पर सहज संकट दिखता है, ऐसे में विविध व्यवहार क्षेत्रों में हिंदी की अभिव्यक्त क्षमता की एक मनमौजी पैमाइश वाली ललित निबन्ध शैली में लिखी गई भाषा विज्ञान की इस किताब के मायने और बढ़ जाते है। अज्ञेय के दिनमान में किस्तवार छपे ये लेख पुस्तक के रूप में 12 अध्यायों में जजमानी की सामाजिकता से लेकर पर्व त्यौहार और मेले के लोकपक्ष, राजगीर और संगतरास से लेकर वनौषधि तथा कारखाना की आर्थिकी को रेखांकित करते हैं। पानी से लेकर दिशाओं तक, पशुओं से लेकर मानव शरीर तक, विवाह-सात बंधन से लेकर राम रसोई-घर द्वार तक जीवन का शायद कोई कोना ही इससे अछूता रहा है।
एक आत्मकथा, मोहित सेन (नेशनल बुक ट्रस्ट)
भारतीय कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन ने अपनी आत्मकथा में बहुत आश्चर्य और दुख के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन पाकिस्तान-समर्थक नीतियों की भर्त्सना की है। वे लिखते हैं ”यहाँ यह कह देना जरूरी है कि उन दिनों किसी कम्युनिस्ट नेता ने हमारी युवा मानसिकता को स्वयं भारत की महान परंपराओं और बौद्धिक योगदान की ओर ध्यान नहीं दिलाया जो हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन और मार्क्सवाद के विकास के लिए इतना उपयोगी सिद्ध हो सकता था, हम कम्युनिस्ट अधिक थे भारतीय कम।”
प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा के शब्दों में, मोहित सेन की पुस्तक यदि इतनी असाधारण और विशिष्ट जान पड़ती है, तो इसलिए कि उन्होने बिना किसी कर्कश कटुता के, किन्तु बिना किसी लाग-लपेट के भी अपनी पार्टी के विगत के काले पन्नों को खोलने का दुस्साहस किया है, जिसे यदि कोई और करता, तो मुझे संदेह नहीं, पार्टी उसे साम्राज्यवादी प्रोपेगेण्डा कह कर अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधे रखना ज्यादा सुविधाजनक समझतीय यह वही पार्टी है, जो मार्क्स की क्रिटिकल चेतना को बरसों से छद्म चेतना में परिणत करने के हस्तकौशल में इतना दक्ष हो चुकी है, कि आज स्वयं उसके लिए छद्म को असली से अलग करना असंभव हो गया है। मालूम नहीं, अपने को सेक्यूलर की दुहाई देने वाली दोनो कम्युनिस्ट पार्टियां आज अपने विगत इतिहास के इस अंधेरे अध्याय के बारे क्या सोचती हैं, किन्तु जो बात निश्चित रूप से कही जा सकती है, वह यह कि आज तक वे अपने अतीत की इन अक्षम्य, देशद्रोही नीतियों का आकलन करने से कतराती हैं।
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