Cinema of Old Delhi_पुराने दौर की दिल्ली के सिनेमा
देश की आज़ादी से पहले ही पुरानी दिल्ली के इलाका बड़े स्तर पर वाणिज्यिक स्वरूप, जिसके लिए आज यह क्षेत्र प्रसिद्व है, के अलावा मसालों, कपड़ा, सूखे फल, जवाहरात और इलेक्ट्रॉनिक सामानों के थोक-खुदरा व्यापार का केंद्र था। इतना ही नहीं, उस समय शहर में आबादी की अच्छी खासी बसावट थी। सिविल लाइन के करीब कुलीन पड़ोस राजपुर रोड में फिल्म व्यापार से जुड़े अनेक लोग रहते थे। आज भी राजपुर रोड पर गए जमाने के मशहूर हिंदी अभिनेता राजेश खन्ना के परिवार के पुराने मकान, जिनमें से कुछ का नवीनीकरण हो चुका है, देखे जा सकते हैं।
तब पुरानी दिल्ली में लगभग सात-आठ सिनेमा घर थे। उन्हें लोग बायोस्कोप कहते थे। जबकि समाज के सर्वहारा तबके के सदस्य उन्हें मंडवा के नाम से पुकारते थे। किसी कारण विशेष से पुराने सिनेमा घरों में से शायद ही किसी को कभी उनके उसही नाम से जाना जाता था-रिट्ज, नाॅवल्टी या कुमार टॉकीज। इसकी बजाय, वे सभी सिनेमा घर, उस क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थिति के नाम से जाने जाते थे जहां वे स्थित थे। इसी कारण से कुमार टॉकीज पत्थरवाला था और जगत मछलीवाला।
दूसरे विश्व युद्ध खासकर देश विभाजन के बाद पुरानी दिल्ली में सिनेमा दर्शकों की संख्या में वास्तविक बढ़ोत्तरी हुई। ऐसा बड़े पैमाने पर आबादी के महजबी आधार पर अदलाबदली के कारण हुआ। यह वह समय था जब मोती और कुमार थिएटर मोती टाॅकीज और कुमार टाॅकीज बने। यह सिलसिला पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक और जामा मस्जिद के पुराने इलाकों से शुरू हुआ और धीरे-धीरे कनॉट प्लेस तक फैल गया।
उस दौर में मोती और जगत सिनेमाघरों में प्रभात टॉकीज, बॉम्बे टॉकीज और न्यू थिएटर की अच्छी हिंदी फिल्में लगती थी। जबकि 1950 के दशक में राज कपूर, बिमल रॉय, महबूब और गुरु दत्त जैसे प्रतिष्ठित फिल्म निर्माताओं की फिल्में लगना शुरू हुई। तक के जमाने में मोती अधिक आधुनिक माना जाता था, जहां समाज के सभी वर्गों के दर्शक आते थे। 1970 के मध्य तक यहां सुबह के शो में अंग्रेजी फिल्में दिखाई जाती थी। जबकि दूसरी तरफ, जगत के मछली बाजार और मुर्गा बाजार के नजदीक होने के कारण उसे पुराने शहर की गरीब बसावट वाली जनता के मनोरंजन केंद्र के रूप में देखा जाता था।
इन थिएटरों की अपनी स्थानीय दर्शकों की वफादार फौज थी। तब के प्रारंभिक दौर में सिनेमा हॉल अपने फिल्म व्यापार के लिए स्थानीय दर्शकों पर निर्भर थे। "दिल्ली फोर शोज, टाॅकीज आॅफ यसटरईयर किताब" में जिया उस सलाम बताते हैं कि जहां मुसलमान जामा मस्जिद के पास जगत में जाना पसंद करते थे तो वहीं हिंदुओं का पसंदीदा मोती था। रिट्ज और मिनर्वा में महिला दर्शकों की सुविधा के लिए अलग से बाॅक्स बने हुए थे, जहां बुर्कानशीन मुस्लिम महिलाएं, गैरों की नजरों से दूर सुकून से सिनेमा के जादू का आनंद लेती थी।
तब फिल्मों के विज्ञापन का प्रचार, पहियों वाली गाड़ी पर लगे होर्डिंग से होता था, जिसे दो आदमी धक्का देकर चांदनी चौक, खारी बावली, उर्दू बाजार, नई सड़क, दरीबा, मटिया महल और हौज काजी की व्यस्त सड़कों पर घूमते थे। "दिल्ली द फर्स्ट सिटी" पुस्तक में सतीश जैकब लिखते हैं कि उन दिनों में अज्ञातकुलशील एम.एफ. हुसैन एस्प्लानेड रोड पर फिल्म की होर्डिंग को उकेरते देखे जा सकते थे। उसी समय में ग्रामोफोन प्लेयर और रेडियो की शुरूआत हुई थी। तब सबसे पहले काले रंग की भारी डिस्क देखने वालों ने उसे तवा का नाम दिया और यही नाम उससे चिपक गया।
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