Saturday, September 7, 2019

feroz shah kotla baoli_कोटला फिरोजशाह बावड़ी

07/09/2019, दैनिक जागरण 




दिल्ली के पांचवे शहर फिरोजाबाद का निर्माण फिरोजशाह तुगलक (1351-88 ईस्वी) ने करवाया था। उस समय यमुना के किनारे के साथ-साथ स्थित और अब शाहजहांनाबाद के दिल्ली गेट के बाहर मथुरा रोड पर स्थित कोटला फिरोजशाह इसके दुर्ग का काम देता था। इसी सुल्तान फिरोज शाह ने किला कोटला-ए-फिरोज शाही में एक बावली बनवाई। यह बावली पिरामिडिय के आकार वाली इमारत, जिस पर अशोक की लाट स्थापित है, के पहले दाई ओर बनी है। उल्लेखनीय है कि ‘अशोक की लाट’ दिल्ली की सबसे पुरानी ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है। यह अब से 2,000 साल से भी अधिक पुरानी है।
विक्रमजीत सिंह रूपराॅय की पुस्तक "टाॅप टेन बावलियों" के अनुसार, दिल्ली में यह गोलाकार वाली एकमात्र बावली है। फिरोज शाह कोटला की बावली का बाहर से व्यास में नाप 33 मीटर और भीतर से नौ मीटर है। क्षेत्रफल के हिसाब से यह दिल्ली की सबसे बड़ी बावली है। इस तरह की दो अन्य बावलियां हरियाणा के फरीदाबाद में सूरजकुंड और गुरूग्राम के फरूर्खनगर में हैं। इस बावली की विशेषता यह है कि दिल्ली की अधिकतर दूसरी बावलियों से भिन्न है जहां कुंआ, एक दीवार से अलग है। यहां पर कुंआ इस तरह खोदा गया है कि उसने एक जलाशय का आकार ले लिया है। दिल्ली में इस प्रकार के अन्य उदाहरण निजामुद्दीन बावली और तुगलकाबाद किले की बावली है।
सर सैय्यद अहमद के मतानुसार संस्कृत साहित्य में ऐसे सीढ़ीदार कुंओं का, जिन्हें बाईं, दाईं या बावलियां कहते थे, विस्तृत उल्लेख मिलता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक "दिल्ली और उसका अंचल" में बावलियां का अर्थ सीढ़ीयुक्त कुएं दिया गया है। कुंआ पुंलिंग है, कुंआ भूजल को पाने के लिए बनता है। "आज भी खरे है तालाब" में अनुपम मिश्र लिखा है कि बाई या बाय छोटे तालाबों का नाम था। बाद में यह नाम तालाब से हटकर बावड़ी में आ गया। दिल्ली में कुतुब मीनार के पास राजो की बाय नामक बावड़ी आज इस शब्द की तरह पुरानी पड़ चुकी है।
मुस्लिम सुल्तानों ने बावलियों को बढ़िया ढंग से मनोरंजन स्थलों के रूप में बनाया था। उनमें अंदर-ही-अंदर वाले लंबे रास्ते, हौज के ऊपर मेहराबें और ऊपर से नीचे उतरने वाली सीढ़ियां होती थीं। यहां बावड़ी का मतलब एक ऐसे कुंए से है, जिसमें पानी तक आने-जाने के लिए सीढ़ियां बनी होती हैं।
देश के अलग-अलग हिस्सों में इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। गुजरात और मध्य प्रदेश में इसे बाव भी कहते हैं। अंग्रेजी में बावड़ी को बताने के लिए स्टेप वेल शब्द का इस्तेमाल किया जात है। मूल रूप से बावड़ी के दो अंग होते हैं-एक कुंआ और दूसरा उसमें भरे पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियां। इस दोनों के बीच कमरे, बरामदे, खिड़कियां, जालियां, गैलरी आदि बनाए जाने की परंपरा रही है। इस पूरी इमारत को ही बावड़ी या बावड़ी कहा जाता है।
रूपराॅय की पुस्तक के अनुसार, फिरोज शाह कोटला बावली की तुलना एक कुंड से नहीं की जा सकती क्योंकि यहां पर भूमिगत प्रकोष्ठ बने हुए थे, जहां पर एक समय गुबंदनुमा छत थी। यहां पर एक भूमिगत जलनिकास भी है जो कि यमुना नदी की ओर जुड़ा है। गुबंदनुमा छत तो आज पूरी तरह नष्ट हो गई है जबकि उसके वास्तविक स्थापत्य के विषय में कोई लिखित विवरण नहीं है। मूल रूप से इसका प्रवेश पूर्व और पश्चिम (दिशा) की ओर से था। अब जनता के लिए केवल पश्चिम दिशा की ओर से ही प्रवेश खुला है। जब आप यहां प्रवेश करते हैं तो सीढ़ियां आपको निचले स्तर पर ले जाती है, जहां से आप प्रकोष्ठ और जलाशय तक पहुंच सकते हैं। कभी प्रवेश द्वारों के पूर्व और पश्चिम में गुम्बदों वाली दो छतरियां होती थी, जिसके दोनों ओर सीढ़ियां थी।
हालांकि फिरोजशाह बावड़ी की खूबसूरती के तो अब अवशेष ही दिखाई देते हैं। इस बावड़ी के पानी को तत्कालीन किले के अंदर बने तहखानों को ठंडा रखने के लिए काम में लाया जाता था। दिल्ली प्रवास के दौरान सुलतान स्वयं गर्मी के दिनों में इस बावड़ी के साथ बनाए गए कमरों और बरामदों का उपयोग करता था। इस पानी का इस्तेमाल आज की इस इमारत के आस-पास के क्षेत्र को हरा-भरा बनाए रखने के लिए किया जाता है।


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