Saturday, September 21, 2019

architecture and making of british new delhi_अंग्रेज़ों की नयी दिल्ली का स्थापत्य और निर्माण





इतिहास में ऐसे क्षण विरल हैं जब अंग्रेजों ने सौंदर्यबोध के तत्व के दृष्टिगत महत्वपूर्ण निर्णय किए। सही मायने में भारतीय राजधानी की दृष्टि रखने वाला अंग्रेज वाइसराॅय लाॅर्ड हाॅर्डिंग मुख्य इमारतों को भारतीय शैली में तैयार किए जाने का पक्षधर था। हाॅर्डिंग सहित अनेक राजनीतिक व्यक्तियों, जिसमें अंग्रेज राजा भी था, का मत था कि नयी राजधानी के लिए भारत-सर्सेनिक वास्तुकला को अपनाने से भारतीय जनता को ब्रितानी राज के आवश्यक भारतीय चरित्र उजागर होगा।नए वाइसराॅय हाउस, अब राष्ट्रपति भवन, को डिजाइन करने के लिए नियुक्त वास्तुकार एडविन लुटियन इस सुझाव को लेकर व्याकुल था। लुटियन ने अपनी पत्नी को एक पत्र में साफ तौर पर खीझते हुए लिखा, ईश्वर ने पूर्वी इंद्रधनुष को अपनी संवेदनाओं को दिखाने के लिए नहीं बनाया था। इसका अर्थ यह था कि लुटियन के लिए पश्चिमी शास्त्रीय आर्क (वृत्त-चाप), इंद्रधनुष के सदृश्य, दैवीय न होकर प्राकृतिक था। और आप उसके साथ केवल इसलिए छेड़छाड़ नहीं कर सकते थे कि आपको यह बताना था कि आप कितने अच्छे और मिलनसार है। जबकि इस परियोजना में उसके सहकर्मी हबर्ट बेकर ने दक्षिण अफ्रीका की राजधानी प्रिटोरिया में अनेक वर्षों तक सरकारी इमारतों के निर्माण का कार्य किया था। बेकर भी लुटियन के समान शास्त्रीय परंपरा का पक्षधर था जो कि भारतीय वास्तुकला के प्राचीन एवं मनमोहक तरीकों की उपयोगिता को लेकर दुविधा में था। पर उनके संदेह असाधारण सार्वजनिक बहस में बहुमत से खारिज कर दिए गए। ब्रिटेन और भारत में राजनीतिकों, वास्तुकारों, कलाविदों, विषेशज्ञों और लेखकों में विभिन्न संभावित दृष्टिकोणों के लाभों को लेकर बहस हुई। एक पक्ष, जिसका नेतृत्व लाॅर्ड कर्जन के हाथ में था, का तर्क था कि अंग्रेजों को यूनानी हमलावर सिंकदर का अनुसरण करते हुए एशिया में यूरोपीय सभ्यता को स्थापित करना चाहिए। जबकि दूसरे पक्ष, जिसका नेतृत्व कला शिक्षक ई. बी. हाॅलेल के हाथ में था, का मानना था कि अंग्रेजों की पहली प्रतिबद्धता भारत और उसकी परंपरा होनी चाहिए।


लुटियन ने वाॅइसराॅय हाउस और ऑफ़ इंडिया वार मेमोरियल इंडिया गेट को तो बेकर ने दोनों सचिवालयों और काॅउंसिल हाउस (संसद भवन) को पश्चिमी वास्तुकला की  शास्त्रीय परंपरा के अनुरूप बनाया। पर कुछ भारतीय तत्व भी उसमें समाहित किए। जिनमें मुख्य रूप से सामग्री, चमकदार पाॅलिश और धौलपुर का लाल बलुआ पत्थर था। दिल्ली की कुतुब मीनार और हुमायूं के मकबरे में ऐेसे ही पत्थर के प्रयोग की अनुकृति का उदाहरण सामने था। लुटियन और बेकर ने विशिष्ट भारतीय "छज्जा" अपनाया जो कि सूरज और बारिश दोनों से बचाव के रूप में ढाल का काम करता था।


दो सचिवालय की इमारतें, नार्थ ब्लाॅक और साॅउथ ब्लाॅक, केंद्रीय धुरी के मार्ग, आज का राजपथ, के आमने-सामने खड़ी हैं। नाॅर्थ ब्लाॅक के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण लेख में लिखा है, जनता को स्वतंत्रता स्वतः ही नहीं प्राप्त होगी। जनता को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जागृत होना होगा। यह एक अधिकार है जिसे लेने के लिए स्वयं को काबिल बनाना पड़ता है।"

संसद भवन तुलनात्मक रूप से सचिवालयों से डिजाइन की दृष्टि में सादा और कम अलंकृत भवन है। बेकर ने समूचे भारतीय इतिहास में नयी दिल्ली के स्थान के बारे में घोशणा की, दो हजार वर्शों में भारतीय वास्तुकला में निश्चित रूप से एक शाही लुटियन पंरपरा होगी। बेकर की यह टिप्पणी अपने सहयोगी और कभी प्रतिद्वंदी, के प्रति अति सदाशयता दर्शाती है, जो कि युवा वास्तुकार की डिजाइन की बेहतर समझ को स्वीकारती है।


राजपथ पर इंडिया गेट के पीछे एक लंबी खाली छतरी है, जिसे लुटियन ने ही वर्ष 1936 में किंग जाॅर्ज पंचम की स्मृति में लगने वाली एक प्रतिमा के लिए बनाया था। देश की आजादी के बाद प्रसिद्ध समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के आंदोलन के कारण वहां से जाॅर्ज पंचम की प्रतिमा हटाई गई। 


इस खाली छतरी पर प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" ने लिखा है कि महापुरुषों की मूर्तियाँ बनती हैं, पर मूर्तियों से महापुरुष नहीं बनते। ब्रितानी शासकों, सेनानियों, अत्याचारियों तक की मूर्तियाँ हमें देखने को मिलती रहतीं तो हमारा केवल कोई अहित न होता बल्कि हम सुशिक्षित हो सकते। राजपथ में एक मूर्तिविहीन मंडप खड़ा रहे, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता सिवा इसके कि उसके भावी कुर्सीनशीन के बारे में हल्का मजाक हो सके। उसके बदले एक पूरी सडक ऐसी होती जिसके दोनों ओर ये विस्थापित मूर्तियाँ सजी होतीं और उस सड़क को हम ‘ब्रितानी साम्राज्य वीथी’ या ‘औपनिवेशिक इतिहास मार्ग’ जैसा कुछ नाम दे देते, तो वह एक जीता-जागता इतिहास महाविद्यालय हो सकता। इतिहास को भुलाना चाह कर हम उसे मिटा तो सकते नहीं, उसकी प्रेरणा देने की शक्ति से अपने को वंचित कर लेते हैं। स्मृति में जीवन्त इतिहास ही प्रेरणा दे सकता है।


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