Sunday, September 15, 2019

Different tastes of Delhi Food after Independence_दिल्ली के बाशिंदों की जुबानी, खाने की कहानी





भारत के विभाजन (वर्ष 1947) के बाद दिल्ली का तेजी से विस्तार हुआ और देश के कोने-कोने से यहाँ व्यक्ति काम और धाम की तलाश में आए। इस कारण से राजधानी में शीघ्र ही प्रादेशिक और अंतरराष्ट्रीय विविधता वाला भोजन सहज ही उपलब्ध हो गया। दिल्ली की पाक कला ने, शहर के स्वभाव के अनुरूप, यहां आकर बसने और घर बनाने वाले अनेक व्यक्तियों और समुदायों से व्यंजनों और मसालों को सीखा तथा अपनाया।


"न्यू दिल्ली डाॅउन द डिकेंड्स" में ध्रुव एन. चौधरी (प्रसिद्ध भारतीय अंग्रेजी लेखक नीरद सी. चौधरी के बेटे) लिखते हैं कि आजादी से पहले कनाॅट प्लेस में "डेवीकाॅस" और "वेंगर्स" नामक दो महत्वपूर्ण पेस्ट्री शाॅप और रेस्तरां थे, जिनके मालिक यूरोपीय थे। तब क्वींसवे (अब जनपथ) पर मौजूद काॅफी हाॅउस, "द इंडिया काॅफी हाॅउस" कहलाता था। वर्ष 1945 में दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति तक काॅफी हाॅउस, जो कि सभी के प्रवेश के लिए खुला था, में अधिकतर अमेरिकी सैनिक काॅफी पीते और डोनट खाते नजर आते थे। बाद में, यह काॅफी हाॅउस एक बैरक, जो कि थिएटर कम्युनिकेशन बिल्डिंग कहलाती थी, के बगीचे में स्थानांतरित हो गया। अपने नाम के अनुरूप इस इमारत का रंगमंच से कोई लेना-देना नहीं था और यह इमारत आज के पालिका बाजार के स्थान पर थी।

"सेलिब्रेटिंग दिल्ली" पुस्तक में प्रीति नारायण लिखती है कि दिल्ली की समृद्ध पाककला में सबसे पहले पंजाबियों ने अपना योगदान दिया। करिश्माई कुंदनलाल के शुरू किए गए मशहूर मोती महल ने तंदूरी खाने खासकर चिकन को प्रसिद्धि दिलवाई। ऐसा कहा जाता है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की फरमाइश पर उन्हें विमान यात्राओं में तंदूरी चिकन परोसा जाता था। सर्वत्र मिलने वाला तंदूरी चिकन भी मोती महल की ही देन था। यहां तक कि असली दिल्ली के खाने का ठिकाना माने जाने वाले करीम ने भी तंदूरी चिकन को अपनी भोजन सूची में शामिल किया।
करीब 25 साल ऑक्सफ़ोर्ड यूर्निवसिटी प्रेस के संपादक रहे रवि दयाल के अनुसार, 1950 के दशक की आखिरी बरसों तक नई दिल्ली में रहने वालों के लिए मोती महल एक सर्वाधिक आकर्षण वाला ठिकाना था। तो वहीँ मेडिन्स होटल के बार और नाइट-क्लब शहर के लोगों की कल्पनाशीलता का भाग थे। दयाल ने अपने समय की दिल्ली के हवा-पानी का वर्णन करते हुए लिखा है कि 1970 के दशक तक आपको पीने के पानी को उबालने या छानने की जरूरत नहीं होती थी। आप बीमार होने की चिंता को छोड़कर, बेझिझक पटरी वालों से ककड़ी और चाट खा सकते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय जाने का मतलब था, दरियागंज और लाल किला होकर गुजरना। यहां काफी देर ठहरना होता था क्योंकि इन इलाकों से होकर गुजरने वाली बसों की अदला-बदली करनी पड़ती थी। इन ठहरावों के दौरान व्यक्ति को बस स्टैडों के पास बने ढाबों और खाने के दुकानों को जानने का मौका मिलता था।

"दिल्ली, द फर्स्ट सिटी" पुस्तक में बीबीसी के पूर्व पत्रकार और पुरानी दिल्ली निवासी सतीश जैकब लिखते हैं कि पचास के दशक में एक रूपए में चालीस किलो गेहूं या चार किलो देसी घी मिलता था। दो पैसे में आपको पराठों और शोरबे वाले मांस का शानदार भोजन उपलब्ध था। तब सुख-साधनों का स्तर ऊंचा था तो लोगों में बहुतायत की एक भावना थी। यही कारण है कि तब सड़क किनारे बने खाने की दुकानों में दाल के लिए पैसे नहीं लिए जाते थे। भोजन में दाल निशुल्क परोसी जाती थी। सतीश लिखते हैं कि तब खानसामा का एक महत्वपूर्ण किरदार होता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि पुरानी दिल्ली के लोग बेहतर खाने की तमीज रखने वाले अपने दोस्तों के लिए धीमी आंच पर अहिस्ता-अहिस्ता पकने वाले स्वादिष्ट पकवानों से मेजबानी करना पसंद करते थे। यहां तक कि मेरे वालिद, जो कि कोई नवाब नहीं थे, महीने में दो बार रात के खाने की महफिलें रखते थे। इनके लिए खाना तैयार करने के हिसाब से पूरी मेहनत के साथ व्यापक तैयारियां की जाती थी।
पद्मश्री से सम्मानित प्रसिद्ध चित्रकार अंजलि इला मेनन, जिनके पिता राष्ट्रपति के चिकित्सक थे, ने अपनी किशोरावस्था में दिल्ली में बिताए समय के बारे में लिखा है। उनके संस्मरण के अनुसार, बावर्चीखाना घर के मुख्य भाग से जुदा था पर वह एक टाइल वाली छत के रास्ते से जुड़ा हुआ था। वहां पर लकड़ी से जलने वाले तीन चूल्हें और उसके नीचे तंदूर था। इस पुरानी रसोई में हैरतअंगेज खाने की चीजें मिलती थीं। जहां पर न केवल देसी जायके का खाना बल्कि केक और कस्टर्ड, पाई और सपनों के स्वाद वाली पेस्ट्री भी मिलती थी। एक सैनिक परिवार में बरती जाने वाली किफायत के बीच बगीचे में उगने वाली हर चीज का उपयोग होता था, जिनसे मुरब्बे और अचार बनाए जाते थे। ऐसे में, हमेशा शानदार खाने से भरी मेज की याद स्थायी है। कभी-कभार भोजन के लिए कनाट प्लेस जाने के अलावा मोती महल में रात्रि भोज का दुर्लभ अवसर मिल जाता था। नहीं तो, छावनी में जिंदगी पूरी तरह अपने में सिमटी हुई थी। तब पचास के दशक में (मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा) हुसैन जामा मस्जिद इलाके के नाज होटल में रहते थे। हमारे दोस्तों का एक समूह बहुधा काॅलेज की कक्षाओं को छोड़कर दोपहर के खाने के लिए सामूहिक रूप से फ्लोरा रेस्तरां पहुँच जाता था।

"फाॅर रिजन्स ऑफ़ स्टेटः दिल्ली अंडर इमरजेंसी" पुस्तक लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस दिल्ली विश्वविद्यालय के समय अपने छात्र जीवन को याद करते हुए लिखते हैं कि खैबर-पास के ढाबे पर बन-मक्खन खाने के लिए अपने नए काॅमरेड दोस्तों के साथ माॅल रोड से क्रांति के गीत गाते हुए पैदल जाने की बात मेरी मधुर स्मृतियों में दर्ज है। वे पत्रकारिता के दौर में लोदी काॅलोनी में सरकारी मकान की किराए की बरसाती में बिताए समय के बारे में कहते हैं कि "जाॅली मेस" नामक एक स्थानीय बंगाली ढाबा खाना मुहैया करवाता था। जिसमें एक दिन में दो बार मछली परोसी जाती थी और रविवार को दोपहर में खास तौर पर बकरे या मुर्गे का मांस मिलता था। इस सब के लिए केवल महीने भर में एक सौ रूपए ही देने पड़ते थे। 1975 में लगे आपातकाल की समाप्ति के बाद के दौर के बारे में वे लिखते हैं कि हमारे पास पूरे समय के लिए एक खानसामा भी था, जो कि मात्र 300 रूपए महीने की पगार लेता था। ओह, उन खुशनुमां शामों में हम छत पर बैठकर रोलिंग स्टोन सुनते हुए रम पीते थे। कभी-कभार हम बाजार में मौजूद मोएट रेस्तरां भी चले जाते थे। जहां पर हम एक प्लेट सींक कबाब, एक दाल मक्खनी और दो नान खाने के लिए पूरे दस रूपए देते थे, जिसमें वेटर की एक रूपए की बक्शीश शामिल होती थी।


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