Sunday, September 15, 2019
Different tastes of Delhi Food after Independence_दिल्ली के बाशिंदों की जुबानी, खाने की कहानी
"फाॅर रिजन्स ऑफ़ स्टेटः दिल्ली अंडर इमरजेंसी" पुस्तक लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस दिल्ली विश्वविद्यालय के समय अपने छात्र जीवन को याद करते हुए लिखते हैं कि खैबर-पास के ढाबे पर बन-मक्खन खाने के लिए अपने नए काॅमरेड दोस्तों के साथ माॅल रोड से क्रांति के गीत गाते हुए पैदल जाने की बात मेरी मधुर स्मृतियों में दर्ज है। वे पत्रकारिता के दौर में लोदी काॅलोनी में सरकारी मकान की किराए की बरसाती में बिताए समय के बारे में कहते हैं कि "जाॅली मेस" नामक एक स्थानीय बंगाली ढाबा खाना मुहैया करवाता था। जिसमें एक दिन में दो बार मछली परोसी जाती थी और रविवार को दोपहर में खास तौर पर बकरे या मुर्गे का मांस मिलता था। इस सब के लिए केवल महीने भर में एक सौ रूपए ही देने पड़ते थे। 1975 में लगे आपातकाल की समाप्ति के बाद के दौर के बारे में वे लिखते हैं कि हमारे पास पूरे समय के लिए एक खानसामा भी था, जो कि मात्र 300 रूपए महीने की पगार लेता था। ओह, उन खुशनुमां शामों में हम छत पर बैठकर रोलिंग स्टोन सुनते हुए रम पीते थे। कभी-कभार हम बाजार में मौजूद मोएट रेस्तरां भी चले जाते थे। जहां पर हम एक प्लेट सींक कबाब, एक दाल मक्खनी और दो नान खाने के लिए पूरे दस रूपए देते थे, जिसमें वेटर की एक रूपए की बक्शीश शामिल होती थी।
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