Monday, December 23, 2019
Saturday, December 21, 2019
Surajmal Jat beyond third battle of Panipat_पानीपत से आगे, सूरजमल की कहानी
21122019_दैनिक जागरण |
हाल में रिलीज हुई हिंदी फिल्म "पानीपत" के कारण जाट राजा सूरजमल को ऐतिहासिक चरित्र दोबारा चर्चा में आ गया। उल्लेखनीय है कि फिल्म कथानक में उनके सही चरित्र चित्रण न किए जाने को लेकर काफी असंतोष भी देखा गया। जबकि पानीपत की लड़ाई (वर्ष 1761) में ऐन मौके पर सदाशिव भाऊ के व्यवहार से बेजार होकर अपनी सेना सहित मैदान से हटने वाले सूरजमल का उदात्त मानवीय चरित्र युद्ध के पश्चात् घायल मराठा सेना और स्त्रियों को सुरक्षा और शरण देने से उजागर हुआ।
नटवर सिंह ने अपनी पुस्तक "महाराजा सूरजमल" में लिखा है कि पानीपत युद्ध से बचे हुए एक लाख मराठे बिना शस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य-क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने प्रेम और उल्लास से उन्हें ठहराया और उनका आतिथ्य किया। हर मराठे सैनिक या अनुचर को खाद्य सामग्री दी गई। घायलों की तब तक शुश्रूषा की गई, जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य न हो गए।
अंग्रेज इतिहासकार ग्रांट डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बरताव के बारे में लिखा है कि जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए, उनके साथ सूरजमल ने अत्यन्त दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए जाटों के व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं। फादर वैंदेल, और्म की पांडुलिपि के अनुसार, (पानीपत की लड़ाई के परिणामस्वरूप) सूरजमल उन अनेक महत्वपूर्ण स्थानों का स्वामी बन गया, जो इससे पहले पूरी तरह मराठों के प्रभाव-क्षेत्र में थे। चम्बल के इस ओर उसके सिवाय अन्य किसी का शासन नहीं था और गंगा की ओर भी लगभग यही स्थिति थी।
अठारहवीं शती तक मुगल शासन की यह स्थिति हो गई थी कि दिल्ली में बादशाहत कमजोर पड़ने से सारे देश में सत्ता की छीनझपट आरम्भ हो गई थी। मुगल बादशाह मुहम्मद शाह राग-रंग-रस में इतना मग्न रहता था कि परदेश से नादिरशाह और अहमद शाह के रेले आते और किले और नगर को लूटकर जाते रहे, देश और प्रजा का कुछ भी होता रहा, वह तो अपनी लालपरियों के आगोश में मस्त रहा।
इतिहास के अनुसार, ब्रजप्रदेश पर अब्दाली के आक्रमण दो बार हुए। पहला आक्रमण 26-27 फरवरी 1757 को जहान खां अफगानी के सेनापतित्व में हुआ था, फिर नजीम खां आया था और दूसरी बार का आक्रमण पन्द्रह दिन बाद स्वयं अब्दाली के नेतृत्व में हुआ था। लेकिन चाचा वृन्दावन दास की लंबी कविता "श्री हरिकला बेला" के अनुसार वर्ष 1757 और वर्ष 1761 में तीन वर्ष के अंतराल से वे आक्रमण किए गए थे। उल्लेखनीय है कि अन्तिम आक्रमण के बाद कवि ने "हरिकला बेला" की रचना भरतपुर में सुजानसिंह सूरजमल के शासनकाल में की थी।
उत्तर मुगल काल में नादिरशाह का आक्रमण दिल्ली तक और उसके बाद अहमद शाह दुर्रानी अब्दाली का आक्रमण मथुरा-वृन्दावन तक हुआ था। उन दोनों को यहां हमले के लिए आमंत्रित किया गया था। असली बात यह थी कि ब्रज प्रदेश का जाट राजा सूरजमल और दक्खिन के मराठे दिल्ली पर निगाह लगाए हुए थे और जो अपने को दिल्ली का वंशागत मालिक समझते थे, वे इन शक्तियों से घबड़ाए हुए थे।
अहमदशाह अब्दाली को विशेष रूप से सूरजमल जाट की बढ़ती शक्ति और प्रभाव से टक्कर लेने के लिए बुलाया गया था। उसका वश सूरजमल पर तो चला नहीं, मथुरा-वृंदावन की लूटपाट और हिन्दुओं के सिरों की मीनारें बनाकर ही वह लौट गया। ऐसे में अब्दाली के सूरजमल को कुचल डालने के बुलावा की बात बेअसर ही रही और उसका वह कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह के मृत्यु के बाद ही सूरजमल का सितारा चमका। जयपुर राज्य में ईश्वरी सिंह और माधोसिंह के बीच सात वर्षों तक उत्तराधिकार संघर्ष हुआ। इस दौरान की सूरजमल उभरा क्योंकि न तो विलास भवन में बैठे मुगल बादशाह को उस ओर ध्यान देने की फुरसत थी और न अंतपुर के षड्यंत्रों में फंसे जयपुर नरेश के पास समय था। बल्कि मराठों के आक्रमण से अपनी रक्षा करने बगरू की लड़ाई (1748) माधोसिंह को समझाने-बुझाने के लिए ईश्वरीसिंह ही सूरजमल की आवश्यकता पड़ गई थी। उस आवश्यकता ने सिद्व कर दिया कि जयपुर की तुलना में भरतपुर की शक्ति कम नहीं थी, बल्कि बढ़ने लगी थी। उसकी शक्ति बढ़ने का एक और प्रमाण यह है कि दिल्ली के शाह आलम के वजीर सफदरजंग ने भी अपने पठान विरोधी अभियान में सूरजमल की सहायता मांगी थी। बाद में सफदरजंग और सूरजमल ने मिलकर दिल्ली को खूब लूटा और नष्ट कर डाला।
अब्दाली के जाने के बाद सूरजमल मुगल बादशाह का अटल शत्रु बन गए थे और जयपुर का सहायक हो गए थे। ईश्वरीसिंह की आत्महत्या के बाद जब माधोसिंह जयपुर का राजा बन गया, तब उसके भाई प्रतापसिंह के लिए भी आड़े वक्त में वही शरणदाता सिद्ध हुए थे ।
Saturday, December 14, 2019
Delhi burnt under Ahmed shah Abdali Durrani Attacks_अब्दाली के कत्लेआम का शिकार हुई थी दिल्ली
हिंदुस्तान की पश्चिमी सरहदों की तरफ से विदेशी अफगान आक्रांता अहमदशाह अब्दाली के हमले शुरू हुए, जिसका सिलसिला सन् 1748 से शुरू होकर लगभग बीस साल तक जारी रहा। इन लगातार हमलों से और हिन्दुस्तान के अन्दर परस्पर गृहयुद्धों से दिल्ली ऐसी तबाह और बरबाद हुई कि फिर डेेढ़-दो सौ बरस तक आबाद न हो सकी। यह बात कम जानी है कि अब्दाली ने कुल आठ बार हिंदुस्तान पर आक्रमण किया। पहला हमला वर्ष 1748 के आरंभ में किया। उसके बाद तो मानो हमलों की झड़ी लग गई।
प्रसिद्ध साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने निबंध "स्वतन्त्रता संघर्ष इतिहास" में लिखते हैं कि तब देश विभिन्न राज्यों में बंट गया था और उनमें काफी प्रतिद्धंदिता और टकराव था। इस टकराव ने किसी हद तक साम्प्रदायिकता का रूप धारण जरूर किया, जब मराठाओं ने हिन्दू पादशाही का नारा लगाया और शाह वलीउल्लाह ने मराठा काफिरों को दिल्ली से मार भगाने के लिए अफगानिस्तान के अब्दाली को आमन्त्रित किया। अब्दाली के सैनिकों ने जब दिल्ली लूटनी शुरू की तब उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को बुरी तरह सताया, दोनों पर अत्याचार किये, यहां तक कि शाह वलीउल्लाह को भी घर छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा। यहां तक कि अब्दाली के अत्याचारों से परेशान होकर दिल्ली छोड़ने वाले लोगों में मियां नजीर भी थे। उस समय उनकी आयु 22-23 वर्ष थी।
सन् 1756-57 में मराठा सेनापति रघुनाथ राव की अनुपस्थिति में अब्दाली ने न केवल दिल्ली को लूटा बल्कि अपनी लूटपाट का दायरा मथुरा, गोकुल और वृंदावन तक फैला दिया। मुगल बादशाह आलमगीर के शासनकाल के दूसरे वर्ष में अब्दाली ने दूसरी बार सिन्धु नदी को पार किया। मुग़ल वजीर गाजीउद्दीन ने नरेला में अब्दाली के सन्मुख अपना आत्म-समर्पण कर दिया।
दिल्ली आने पर उसको डटकर लूटा गया, उसे एक करोड़ रुपया देना पड़ा और अपना वजीर पद छोड़ना पड़ा। अब्दाली दिल्ली के तख्त (29 जनवरी 1757) पर बैठ गया तथा उसने अपने नाम के सिक्के चलवाए। मराठों की गैर-हाजिरी में इमाद-उल-मुल्क को अब्दाली से समझौता करना पड़ा, जो नजीबुद्दौला को मीर बक्शी और व्यवहारतः दिल्ली दरबार में अपना प्रतिनिधि बना कर लौटा गया। अब्दाली को जिस एक मात्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा वह था जाट राजा का प्रतिरोध, जो डीग और भरतपुर के अपने शक्तिशाली किलों में दृढ़ता से डटा रहा।
कितने ही हंगामें दिल्ली में उर्दू के मशहूर शायर मीर तकी मीर की आंखों के सामने हुए और कितनी ही बार मौज-ए-खून उनके सर से गुजर गयी। अब्दाली के पहले आक्रमण के समय वर्ष 1748 मीर रिआयत खां के साथ लाहौर में मौजूद थे और पानीपत की तीसरी लड़ाई वर्ष 1761 के भी दर्शक थे। दिल्ली में इस विदेशी विजेता और देश के अन्तर गृहयुद्ध करनेवालों ने लूटमार मचाई। इसमें मीर का घर भी बरबाद हुआ। इस युग के माली नुकसानों और नैतिक पतन की भयानक तस्वीरें, मीर की शायरी और आपबीती "जिक्र-ए-मीर" में सुरक्षित हैं।
"जिक्र-ए-मीर" में अब्दाली की फौजों के हाथों दिल्ली की यह तस्वीर है-बंदा अपनी इज्जत थामे शहर में बैठा रहा। शाम के बाद मुनादी हुई कि बादशाह ने अमान दे दी है। रिआया को चाहिए कि परेशान न हो मगर जब घड़ी भर रात गुजरी तो गारतगरों ने जुल्म-ओ-सितम ढाना शुरु किए। शहर को आग लगा दी। सुबह को, जो कयामत की सुबह थी, तमाम शाही फौज और रोहिल्ले टूट पड़े और कत्ल व गारत में लग गए। मैं कि फकीर था अब और ज्यादा दरिद्र हो गया, सड़क के किनारे जो मकान रखता था वह भी ढहकर बराबर हो गया।
पानीपत में विजय प्राप्त करने के उपरान्त अब्दाली ने विजयोल्लास के साथ दिल्ली में प्रवेश किया तथा उसने सूरजमल के विरुद्व अभियान करने के सम्बन्ध में विचार किया क्योंकि उसने मराठाओं को शरण दी थी। दिल्ली से शाह के प्रस्थान के पांच दिन पूर्व समाचार प्राप्त हुआ कि सूरजमल ने अकबराबाद (आगरा) के किलेदार को किला खाली करने पर विवश कर दिया है, और किले में प्रवेश पा चुका है। अब्दाली की संतुष्टि के लिए उसने (सूरजमल) उसे एक लाख रुपया दिया तथा पांच लाख रुपया बाद में देने का वादा किया, जो कभी नहीं दिए गए। वर्षा ऋतु आ पहुंची थी तथा पृष्ठभाग में सिखों ने अपना सिर उठाना आरम्भ कर दिया, अब्दाली हठी जाट से इतना भर पाकर प्रसन्न था। 21 मई 1761 को वह शालीमार बाग (दिल्ली के बाहर) से अपने देश के लिए रवाना हुआ।
Saturday, December 7, 2019
Remembrance of Third battle of Panipat because of film_फिल्म के बहाने, पानीपत लड़ाई का पुण्य स्मरण
दैनिक जागरण, 07122019 |
अभी रिलीज हुई "पानीपत" शीर्षक वाली हिंदी फिल्म से पानीपत की तीसरी लड़ाई नए सिरे से चर्चा में है। वास्तविक अर्थ में भारतीय इतिहास की धारा को बदलने वाले वर्ष 1761 में हुए पानीपत के युद्ध के प्रति जनसाधारण का उदासीन रवैया इस त्रासदीपूर्ण घटना से अधिक दुखदायी है। ऐसे में इस लड़ाई की पृष्ठभूमि को जानना बेहतर होगा।
वर्ष 1752 में उत्तरी भारत की राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब मराठों ने दोआब में प्रवेश किया और विदेशी अफगान हमलावर अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब में। वर्ष 1752 और वर्ष 1761 के बीच का चरण वस्तुतः उत्तरी भारत के स्वामित्व के लिए मराठों और अब्दाली के बीच शक्ति परीक्षण का चरण था।
मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1699–1759) के समय में वजीर गाजीउद्दीन ने मराठों को सम्राट की सहायता के लिए दिल्ली बुलवाया था। उस समय के पेशवा ने अपने भाई रघुनाथ राव (राघोबा) को बादशाह की आज्ञा पालने के लिए एक बड़ी सेना सहित दिल्ली भेजा। रघुनाथ राव ने अपनी सेना सहित और आगे बढ़कर अहमदशाह अब्दाली के नायब के हाथों से पंजाब विजय कर लिया और एक मराठा सरदार को दिल्ली बादशाह के अधीन वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया। किंतु इस अंतिम घटना ने उनके विरुद्ध अब्दाली का क्रोध भड़का दिया और वर्ष 1759 में एक जबदस्त सेना लेकर वह पंजाब पर फिर से अपना राज कायम करने और मराठे का विध्वंस करने के लिए अफगानिस्तान से निकल पड़ा।
ऐसा जानकर, उसने (पेशवा) अपने चचेरे भाई सदाशिव भाऊ को दिल्ली भेजने का निश्चय किया, जिससे वह अब्दाली को देश के बाहर खदेड़ दे। भाऊ लगभग दो लाख आदमी लेकर 14 मार्च को महाराष्ट्र के पतदूर से रवाना हुआ। भाऊ ने अगस्त 1760 को दिल्ली में प्रवेश किया। चम्बल पार करने से पूर्व भाऊ ने राजस्थान के सरदारों, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे थे कि वे इस लड़ाई को देश की लड़ाई समझकर विदेशी अब्दाली को सिन्धु के पार खेदड़ने में उसकी सहायता करें। किन्तु मराठों की यह कूटनीति असफल रही।
राजपूत, सिन्धिया और होल्कर के अत्याचारों के कारण मराठों के शत्रु हो गये थे, अतः वे तटस्थ रहे। परन्तु शुजाउद्दौला दोआब के अपने पड़ोसी रूहेलों को मराठों से अधिक शत्रु मानता था, अतः वह भाऊ का साथ देने के लिए राजी हो गया। जब यह बात अब्दाली को मालूम हुई तो उसने शुजाउद्दौला को अपने पक्ष में करने के लिए नजीबुद्दौला को लखनऊ भेजा। नजीबुद्दौला ने मेहदी-घाट स्थान पर नवाब-वजीर से मिलकर उसे स्वार्थ और महजब के नाम पर अब्दाली का साथ देने के लिए राजी कर लिया। शुजाउद्दौला, नजीबुद्दौला के आग्रह से अनूप शहर के खेमे में अब्दाली से मिला और उसने उसका हार्दिक स्वागत किया।
मराठों पर एक तो अब्दाली और शुजाउद्दौला के मिल जाने की चोट पड़ी और दूसरी राजा सूरजमल जाट के रूठकर दिल्ली से भरतपुर चले जाने की। कहा जाता है कि सूरजमल ने भाऊ को सलाह दी थी कि वह युद्ध सामग्री, तोपखाना और स्त्रियों को भरतपुर में सुरक्षित छोड़कर मराठों की पुरानी छापामार नीति को अपनाये और अब्दाली की रसद रोक दे किन्तु भाऊ ने इस सलाह को ठुकराकर खुले मैदान में डटकर लड़ाई लड़ना ही उचित समझा था।
पानीपत में मराठों का शिविर पूरब से पश्चिम तक छह मील लंबा और उत्तर से दक्षिण तक दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर लगभग 25 गज चौड़ी और छह गज गहरी एक खाई थी जिसकी सुरक्षा के लिए एक मिट्टी की दीवार पर बड़ी-बड़ी तोपें चढ़ा दी गयी थीं। अब्दाली का शिविर मराठों के शिविर से तीन मील दक्षिण में था, उसके पीछे सोनीपत गांव था और वह भी खाई तथा कटे हुए पेड़ों की डालियों से सुरक्षित था। किन्तु अब्दाली के अपना शिविर यमुना नदी के बिलकुल किनारे ले जाने से परिस्थिति बिलकुल बदल गयी थी। अब उसे पर्याप्त जल मिल सकता था और दोआब से यातायात संबंध सुगम हो जाने के कारण नजीबुद्दौला उसे रसद और चारा लगातार भेज सकता था। यह ही नहीं, अब अब्दाली ने मराठा सेना के चारों ओर गारद बिठाकर दोआब, दिल्ली और राजपूताने से उसके रसद और यातायात को रोक दिया। मराठों के लिए केवल उत्तर का मार्ग खुला रह गया किन्तु अब्दाली ने शीघ्र ही कुंजपुरा पर अधिकार करके मराठों का पंजाब से भी यातायात रोक दिया। इस परिस्थिति के कारण मराठा शिविर पर बड़ा भारी संकट छा गया। भाऊ को न तो कहीं से रसद ही मिल सकी और न वह दो महीने तक पानीपत से दक्खिन को ही कोई समाचार भेज सका।
14 जनवरी 1761 को दिल्ली से करीब 97 किलोमीटर दूर, पानीपत के प्रसिद्व मैदान में इनका (अफगान-मराठों) युद्ध हुआ। अब्दाली ने मराठों के रसद-पानी की आपूर्ति के रास्ते रोक दिए और उन्हें खाली पेट लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इस लड़ाई में मराठों की जान-माल की भारी क्षति हुई। सदाशिव और विश्वासराव, दोनों मैदान में काम आए। विजय अहमदशाह की ओर रही। इस लड़ाई में रोहिल्लों और अवध के शुजाउद्दौला जैसी देसी मुस्लिम शक्तियों का समर्थन उसे (अब्दाली) मिला।
एच. आर. गुप्ता की पुस्तक, "मराठा एवं पानीपत" के अनुसार, मराठों को लगभग 28,000 सैनिकों का नुकसान हुआ, जिसमें 22,000 मारे गए और बाकी के युद्धबंदी बना लिए गए। शहीद हुए फौजियों में सेना की टुकड़ियों के दो सरदार-भाऊ राव और पेशवा बालाजी राव का बड़ा लड़का विश्वास राव भी थे। इस युद्व के एकमेव प्रत्यक्षदर्शी शुजाउद्दौला के दीवान काशी राज के विवरण (बाखर) के अनुसार, युद्ध के एक दिन बाद लगभग 40,000 मराठा कैदियों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गई। किंतु अब्दाली को भी अपनी इस विजय की बहुत जबरदस्त कीमत देनी पड़ी। उसके इतने अधिक आदमी लड़ाई में काम आए और घायल हुए कि आगे बढ़ने का इरादा छोड़कर उसे फौरन अफगानिस्तान लौट आना पड़ा।
प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार "मुगल साम्राज्य का पतन" (खंड दो) नामक पुस्तक में लिखते हैं कि महाराष्ट्र में ऐसा कोई भी घर नहीं था जिसमें किसी न किसी आदमी के लिए शोक न मनाया गया हो। अनेक घर तो ऐसे थे कि जिनके घर के मालिक मारे गये थे और नेताओं की तो पीढ़ी की पीढ़ी तलवार के एक वार से ही मौत के घाट उतार दी गयी थी। इस युद्ध के परिणाम पर इतिहासकार प्रोफेसर सिडनी ओवेन 'द फॉल ऑफ़ मुग़ल एम्पायर' में लिखते है कि पानीपत की लड़ाई के साथ-साथ भारतीय इतिहास का भारतीय युग समाप्त हो गया। इतिहास के पढ़ने वाले को इसके बाद से दूर पश्चिम से आए हुए व्यापारी शासकों की उन्नति से ही सरोकार रह जाता है।
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