Saturday, December 7, 2019

Remembrance of Third battle of Panipat because of film_फिल्म के बहाने, पानीपत लड़ाई का पुण्य स्मरण

दैनिक जागरण, 07122019 

अभी रिलीज हुई "पानीपत" शीर्षक वाली हिंदी फिल्म से पानीपत की तीसरी लड़ाई नए सिरे से चर्चा में है। वास्तविक अर्थ में भारतीय इतिहास की धारा को बदलने वाले वर्ष 1761 में हुए पानीपत के युद्ध के प्रति जनसाधारण का उदासीन रवैया इस त्रासदीपूर्ण घटना से अधिक दुखदायी है। ऐसे में इस लड़ाई की पृष्ठभूमि को जानना बेहतर होगा। 


वर्ष 1752 में उत्तरी भारत की राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब मराठों ने दोआब में प्रवेश किया और विदेशी अफगान हमलावर अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब में। वर्ष 1752 और वर्ष 1761 के बीच का चरण वस्तुतः उत्तरी भारत के स्वामित्व के लिए मराठों और अब्दाली के बीच शक्ति परीक्षण का चरण था।


मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1699–1759) के समय में वजीर गाजीउद्दीन ने मराठों को सम्राट की सहायता के लिए दिल्ली बुलवाया था। उस समय के पेशवा ने अपने भाई रघुनाथ राव (राघोबा) को बादशाह की आज्ञा पालने के लिए एक बड़ी सेना सहित दिल्ली भेजा। रघुनाथ राव ने अपनी सेना सहित और आगे बढ़कर अहमदशाह अब्दाली के नायब के हाथों से पंजाब विजय कर लिया और एक मराठा सरदार को दिल्ली बादशाह के अधीन वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया। किंतु इस अंतिम घटना ने उनके विरुद्ध अब्दाली का क्रोध भड़का दिया और वर्ष 1759 में एक जबदस्त सेना लेकर वह पंजाब पर फिर से अपना राज कायम करने और मराठे का विध्वंस करने के लिए अफगानिस्तान से निकल पड़ा।


ऐसा जानकर, उसने (पेशवा) अपने चचेरे भाई सदाशिव भाऊ को दिल्ली भेजने का निश्चय किया, जिससे वह अब्दाली को देश के बाहर खदेड़ दे। भाऊ लगभग दो लाख आदमी लेकर 14 मार्च को महाराष्ट्र के पतदूर से रवाना हुआ। भाऊ ने अगस्त 1760 को दिल्ली में प्रवेश किया। चम्बल पार करने से पूर्व भाऊ ने राजस्थान के सरदारों, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे थे कि वे इस लड़ाई को देश की लड़ाई समझकर विदेशी अब्दाली को सिन्धु के पार खेदड़ने में उसकी सहायता करें। किन्तु मराठों की यह कूटनीति असफल रही।


राजपूत, सिन्धिया और होल्कर के अत्याचारों के कारण मराठों के शत्रु हो गये थे, अतः वे तटस्थ रहे। परन्तु शुजाउद्दौला  दोआब के अपने पड़ोसी रूहेलों को मराठों से अधिक शत्रु मानता था, अतः वह भाऊ का साथ देने के लिए राजी हो गया। जब यह बात अब्दाली को मालूम हुई तो उसने  शुजाउद्दौला को अपने पक्ष में करने के लिए नजीबुद्दौला को लखनऊ भेजा। नजीबुद्दौला ने मेहदी-घाट स्थान पर नवाब-वजीर से मिलकर उसे स्वार्थ और महजब के नाम पर अब्दाली का साथ देने के लिए राजी कर लिया। शुजाउद्दौला, नजीबुद्दौला के आग्रह से अनूप शहर के खेमे में अब्दाली से मिला और उसने उसका हार्दिक स्वागत किया।


मराठों पर एक तो अब्दाली और शुजाउद्दौला के मिल जाने की चोट पड़ी और दूसरी राजा सूरजमल जाट के रूठकर दिल्ली से भरतपुर चले जाने की। कहा जाता है कि सूरजमल ने भाऊ को सलाह दी थी कि वह युद्ध सामग्री, तोपखाना और स्त्रियों को भरतपुर में सुरक्षित छोड़कर मराठों की पुरानी छापामार नीति को अपनाये और अब्दाली की रसद रोक दे किन्तु भाऊ ने इस सलाह को ठुकराकर खुले मैदान में डटकर लड़ाई लड़ना ही उचित समझा था।


पानीपत में मराठों का शिविर पूरब से पश्चिम तक छह मील लंबा और उत्तर से दक्षिण तक दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर लगभग 25 गज चौड़ी और छह गज गहरी एक खाई थी जिसकी सुरक्षा के लिए एक मिट्टी की दीवार पर बड़ी-बड़ी तोपें चढ़ा दी गयी थीं। अब्दाली का शिविर मराठों के शिविर से तीन मील दक्षिण में था, उसके पीछे सोनीपत गांव था और वह भी खाई तथा कटे हुए पेड़ों की डालियों से सुरक्षित था। किन्तु अब्दाली के अपना शिविर यमुना नदी के बिलकुल किनारे ले जाने से परिस्थिति बिलकुल बदल गयी थी। अब उसे पर्याप्त जल मिल सकता था और दोआब से यातायात संबंध सुगम हो जाने के कारण नजीबुद्दौला उसे रसद और चारा लगातार भेज सकता था। यह ही नहीं, अब अब्दाली ने मराठा सेना के चारों ओर गारद बिठाकर दोआब, दिल्ली और राजपूताने से उसके रसद और यातायात को रोक दिया। मराठों के लिए केवल उत्तर का मार्ग खुला रह गया किन्तु अब्दाली ने शीघ्र ही कुंजपुरा पर अधिकार करके मराठों का पंजाब से भी यातायात रोक दिया। इस परिस्थिति के कारण मराठा शिविर पर बड़ा भारी संकट छा गया। भाऊ को न तो कहीं से रसद ही मिल सकी और न वह दो महीने तक पानीपत से दक्खिन को ही कोई समाचार भेज सका।


14 जनवरी 1761 को  दिल्ली से करीब 97 किलोमीटर दूर, पानीपत के प्रसिद्व मैदान में इनका (अफगान-मराठों) युद्ध हुआ। अब्दाली ने मराठों के रसद-पानी की आपूर्ति के रास्ते रोक दिए और उन्हें खाली पेट लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इस लड़ाई में मराठों की जान-माल की भारी क्षति हुई। सदाशिव और विश्वासराव, दोनों मैदान में काम आए। विजय अहमदशाह की ओर रही। इस लड़ाई में रोहिल्लों और अवध के शुजाउद्दौला जैसी देसी मुस्लिम शक्तियों का समर्थन उसे (अब्दाली) मिला। 


एच. आर. गुप्ता की पुस्तक, "मराठा एवं पानीपत" के अनुसार, मराठों को लगभग 28,000 सैनिकों का नुकसान हुआ, जिसमें 22,000 मारे गए और बाकी के युद्धबंदी बना लिए गए। शहीद हुए फौजियों में सेना की टुकड़ियों के दो सरदार-भाऊ राव और पेशवा बालाजी राव का बड़ा लड़का विश्वास राव भी थे। इस युद्व के एकमेव प्रत्यक्षदर्शी शुजाउद्दौला के दीवान काशी राज के विवरण (बाखर) के अनुसार, युद्ध के एक दिन बाद लगभग 40,000 मराठा कैदियों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गई। किंतु अब्दाली को भी अपनी इस विजय की बहुत जबरदस्त कीमत देनी पड़ी। उसके इतने अधिक आदमी लड़ाई में काम आए और घायल हुए कि आगे बढ़ने का इरादा छोड़कर उसे फौरन अफगानिस्तान लौट आना पड़ा।


प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार "मुगल साम्राज्य का पतन" (खंड दो) नामक पुस्तक में लिखते हैं कि महाराष्ट्र में ऐसा कोई भी घर नहीं था जिसमें किसी न किसी आदमी के लिए शोक न मनाया गया हो। अनेक घर तो ऐसे थे कि जिनके घर के मालिक मारे गये थे और नेताओं की तो पीढ़ी की पीढ़ी तलवार के एक वार से ही मौत के घाट उतार दी गयी थी। इस युद्ध के परिणाम पर इतिहासकार प्रोफेसर सिडनी ओवेन 'द फॉल ऑफ़ मुग़ल एम्पायर' में लिखते है कि पानीपत की लड़ाई के साथ-साथ भारतीय इतिहास का भारतीय युग समाप्त हो गया। इतिहास के पढ़ने वाले को इसके बाद से दूर पश्चिम से आए हुए व्यापारी शासकों की उन्नति से ही सरोकार रह जाता है।


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