प्रसिद्ध साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने निबंध "स्वतन्त्रता संघर्ष इतिहास" में लिखते हैं कि तब देश विभिन्न राज्यों में बंट गया था और उनमें काफी प्रतिद्धंदिता और टकराव था। इस टकराव ने किसी हद तक साम्प्रदायिकता का रूप धारण जरूर किया, जब मराठाओं ने हिन्दू पादशाही का नारा लगाया और शाह वलीउल्लाह ने मराठा काफिरों को दिल्ली से मार भगाने के लिए अफगानिस्तान के अब्दाली को आमन्त्रित किया। अब्दाली के सैनिकों ने जब दिल्ली लूटनी शुरू की तब उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को बुरी तरह सताया, दोनों पर अत्याचार किये, यहां तक कि शाह वलीउल्लाह को भी घर छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा। यहां तक कि अब्दाली के अत्याचारों से परेशान होकर दिल्ली छोड़ने वाले लोगों में मियां नजीर भी थे। उस समय उनकी आयु 22-23 वर्ष थी।
सन् 1756-57 में मराठा सेनापति रघुनाथ राव की अनुपस्थिति में अब्दाली ने न केवल दिल्ली को लूटा बल्कि अपनी लूटपाट का दायरा मथुरा, गोकुल और वृंदावन तक फैला दिया। मुगल बादशाह आलमगीर के शासनकाल के दूसरे वर्ष में अब्दाली ने दूसरी बार सिन्धु नदी को पार किया। मुग़ल वजीर गाजीउद्दीन ने नरेला में अब्दाली के सन्मुख अपना आत्म-समर्पण कर दिया।
दिल्ली आने पर उसको डटकर लूटा गया, उसे एक करोड़ रुपया देना पड़ा और अपना वजीर पद छोड़ना पड़ा। अब्दाली दिल्ली के तख्त (29 जनवरी 1757) पर बैठ गया तथा उसने अपने नाम के सिक्के चलवाए। मराठों की गैर-हाजिरी में इमाद-उल-मुल्क को अब्दाली से समझौता करना पड़ा, जो नजीबुद्दौला को मीर बक्शी और व्यवहारतः दिल्ली दरबार में अपना प्रतिनिधि बना कर लौटा गया। अब्दाली को जिस एक मात्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा वह था जाट राजा का प्रतिरोध, जो डीग और भरतपुर के अपने शक्तिशाली किलों में दृढ़ता से डटा रहा।
कितने ही हंगामें दिल्ली में उर्दू के मशहूर शायर मीर तकी मीर की आंखों के सामने हुए और कितनी ही बार मौज-ए-खून उनके सर से गुजर गयी। अब्दाली के पहले आक्रमण के समय वर्ष 1748 मीर रिआयत खां के साथ लाहौर में मौजूद थे और पानीपत की तीसरी लड़ाई वर्ष 1761 के भी दर्शक थे। दिल्ली में इस विदेशी विजेता और देश के अन्तर गृहयुद्ध करनेवालों ने लूटमार मचाई। इसमें मीर का घर भी बरबाद हुआ। इस युग के माली नुकसानों और नैतिक पतन की भयानक तस्वीरें, मीर की शायरी और आपबीती "जिक्र-ए-मीर" में सुरक्षित हैं।
"जिक्र-ए-मीर" में अब्दाली की फौजों के हाथों दिल्ली की यह तस्वीर है-बंदा अपनी इज्जत थामे शहर में बैठा रहा। शाम के बाद मुनादी हुई कि बादशाह ने अमान दे दी है। रिआया को चाहिए कि परेशान न हो मगर जब घड़ी भर रात गुजरी तो गारतगरों ने जुल्म-ओ-सितम ढाना शुरु किए। शहर को आग लगा दी। सुबह को, जो कयामत की सुबह थी, तमाम शाही फौज और रोहिल्ले टूट पड़े और कत्ल व गारत में लग गए। मैं कि फकीर था अब और ज्यादा दरिद्र हो गया, सड़क के किनारे जो मकान रखता था वह भी ढहकर बराबर हो गया।
पानीपत में विजय प्राप्त करने के उपरान्त अब्दाली ने विजयोल्लास के साथ दिल्ली में प्रवेश किया तथा उसने सूरजमल के विरुद्व अभियान करने के सम्बन्ध में विचार किया क्योंकि उसने मराठाओं को शरण दी थी। दिल्ली से शाह के प्रस्थान के पांच दिन पूर्व समाचार प्राप्त हुआ कि सूरजमल ने अकबराबाद (आगरा) के किलेदार को किला खाली करने पर विवश कर दिया है, और किले में प्रवेश पा चुका है। अब्दाली की संतुष्टि के लिए उसने (सूरजमल) उसे एक लाख रुपया दिया तथा पांच लाख रुपया बाद में देने का वादा किया, जो कभी नहीं दिए गए। वर्षा ऋतु आ पहुंची थी तथा पृष्ठभाग में सिखों ने अपना सिर उठाना आरम्भ कर दिया, अब्दाली हठी जाट से इतना भर पाकर प्रसन्न था। 21 मई 1761 को वह शालीमार बाग (दिल्ली के बाहर) से अपने देश के लिए रवाना हुआ।
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