नटवर सिंह ने अपनी पुस्तक "महाराजा सूरजमल" में लिखा है कि पानीपत युद्ध से बचे हुए एक लाख मराठे बिना शस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य-क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने प्रेम और उल्लास से उन्हें ठहराया और उनका आतिथ्य किया। हर मराठे सैनिक या अनुचर को खाद्य सामग्री दी गई। घायलों की तब तक शुश्रूषा की गई, जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य न हो गए।
अंग्रेज इतिहासकार ग्रांट डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बरताव के बारे में लिखा है कि जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए, उनके साथ सूरजमल ने अत्यन्त दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए जाटों के व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं। फादर वैंदेल, और्म की पांडुलिपि के अनुसार, (पानीपत की लड़ाई के परिणामस्वरूप) सूरजमल उन अनेक महत्वपूर्ण स्थानों का स्वामी बन गया, जो इससे पहले पूरी तरह मराठों के प्रभाव-क्षेत्र में थे। चम्बल के इस ओर उसके सिवाय अन्य किसी का शासन नहीं था और गंगा की ओर भी लगभग यही स्थिति थी।
अठारहवीं शती तक मुगल शासन की यह स्थिति हो गई थी कि दिल्ली में बादशाहत कमजोर पड़ने से सारे देश में सत्ता की छीनझपट आरम्भ हो गई थी। मुगल बादशाह मुहम्मद शाह राग-रंग-रस में इतना मग्न रहता था कि परदेश से नादिरशाह और अहमद शाह के रेले आते और किले और नगर को लूटकर जाते रहे, देश और प्रजा का कुछ भी होता रहा, वह तो अपनी लालपरियों के आगोश में मस्त रहा।
इतिहास के अनुसार, ब्रजप्रदेश पर अब्दाली के आक्रमण दो बार हुए। पहला आक्रमण 26-27 फरवरी 1757 को जहान खां अफगानी के सेनापतित्व में हुआ था, फिर नजीम खां आया था और दूसरी बार का आक्रमण पन्द्रह दिन बाद स्वयं अब्दाली के नेतृत्व में हुआ था। लेकिन चाचा वृन्दावन दास की लंबी कविता "श्री हरिकला बेला" के अनुसार वर्ष 1757 और वर्ष 1761 में तीन वर्ष के अंतराल से वे आक्रमण किए गए थे। उल्लेखनीय है कि अन्तिम आक्रमण के बाद कवि ने "हरिकला बेला" की रचना भरतपुर में सुजानसिंह सूरजमल के शासनकाल में की थी।
उत्तर मुगल काल में नादिरशाह का आक्रमण दिल्ली तक और उसके बाद अहमद शाह दुर्रानी अब्दाली का आक्रमण मथुरा-वृन्दावन तक हुआ था। उन दोनों को यहां हमले के लिए आमंत्रित किया गया था। असली बात यह थी कि ब्रज प्रदेश का जाट राजा सूरजमल और दक्खिन के मराठे दिल्ली पर निगाह लगाए हुए थे और जो अपने को दिल्ली का वंशागत मालिक समझते थे, वे इन शक्तियों से घबड़ाए हुए थे।
अहमदशाह अब्दाली को विशेष रूप से सूरजमल जाट की बढ़ती शक्ति और प्रभाव से टक्कर लेने के लिए बुलाया गया था। उसका वश सूरजमल पर तो चला नहीं, मथुरा-वृंदावन की लूटपाट और हिन्दुओं के सिरों की मीनारें बनाकर ही वह लौट गया। ऐसे में अब्दाली के सूरजमल को कुचल डालने के बुलावा की बात बेअसर ही रही और उसका वह कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह के मृत्यु के बाद ही सूरजमल का सितारा चमका। जयपुर राज्य में ईश्वरी सिंह और माधोसिंह के बीच सात वर्षों तक उत्तराधिकार संघर्ष हुआ। इस दौरान की सूरजमल उभरा क्योंकि न तो विलास भवन में बैठे मुगल बादशाह को उस ओर ध्यान देने की फुरसत थी और न अंतपुर के षड्यंत्रों में फंसे जयपुर नरेश के पास समय था। बल्कि मराठों के आक्रमण से अपनी रक्षा करने बगरू की लड़ाई (1748) माधोसिंह को समझाने-बुझाने के लिए ईश्वरीसिंह ही सूरजमल की आवश्यकता पड़ गई थी। उस आवश्यकता ने सिद्व कर दिया कि जयपुर की तुलना में भरतपुर की शक्ति कम नहीं थी, बल्कि बढ़ने लगी थी। उसकी शक्ति बढ़ने का एक और प्रमाण यह है कि दिल्ली के शाह आलम के वजीर सफदरजंग ने भी अपने पठान विरोधी अभियान में सूरजमल की सहायता मांगी थी। बाद में सफदरजंग और सूरजमल ने मिलकर दिल्ली को खूब लूटा और नष्ट कर डाला।
अब्दाली के जाने के बाद सूरजमल मुगल बादशाह का अटल शत्रु बन गए थे और जयपुर का सहायक हो गए थे। ईश्वरीसिंह की आत्महत्या के बाद जब माधोसिंह जयपुर का राजा बन गया, तब उसके भाई प्रतापसिंह के लिए भी आड़े वक्त में वही शरणदाता सिद्ध हुए थे ।
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