डायरी-अज्ञेय
पचीस-तीस वर्ष आज़ाद रह कर भी हम एक आत्म-प्रवंचना से छुटकारा नहीं पा सके हैं। हम समझते हैं कि अपने इतिहास के अनुज्ज्वल पक्ष की स्मृति मिटा कर हम उसके प्रभाव से मुक्त हो जाएँगे। जैसे कि जाति की स्मृति इतनी सतही होती है, जैसे कि प्रभाव इतने छिछले होते हैं, जैसे कि इतिहास ही इतना इकहरा होता है कि पिछली कड़ी से तोड़ कर भी कुछ अर्थ रख सके! हमारा दैनिक अखबार ही हमारी कुल इतिहास-शिक्षा हो जाये, इससे बड़ा क्या दुर्भाग्य होगा! पर वही हम कर रहे हैं। क्या ब्रितानी शासन के स्मृति चिह्न हटा देने से यह तथ्य मिट जाएगा कि वह शासन यहाँ रहा? क्या उसके लक्षणों को आँखों-ओट करना चाहना ही उसे गहरे में बनाये नहीं रखता? मैं तो समझता हूँ उनकी विशाल मूर्तियाँ हमने एकत्र कर के कालक्रम से लगा कर प्रदर्शित की होतीं, तो हमारी मुक्ति भावना अधिक पुष्ट हुई होती, इतिहास-परम्परा का हमारा ज्ञान गहरा हुआ होता, आज़ादी का अर्थ भी हमारी समझ में ठीक-ठीक आया होता, और जिस पीढ़ी ने स्वयं आज़ादी के संघर्ष में भाग नहीं लिया था वह भी उस संघर्ष को सम्मान की दृष्टि से देख सकती और उसमें गौरव का अनुभव कर सकती। महापुरुषों की मूर्तियाँ बनती हैं, पर मूर्तियों से महापुरुष नहीं बनते; ब्रितानी शासकों, सेनानियों, अत्याचारियों तक की मूर्तियाँ हमें देखने को मिलती रहतीं तो हमारा केवल कोई अहित न होता बल्कि हम सुशिक्षित हो सकते। राजपथ में एक मूर्तिविहीन मंडप खड़ा रहे, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता सिवा इसके कि उसके भावी कुर्सीनशीन के बारे में हल्का मज़ाक हो सके; उसके बदले एक पूरी सडक़ ऐसी होती जिसके दोनों ओर ये विस्थापित मूर्तियाँ सजी होतीं और उस सडक़ को हम ‘ब्रितानी साम्राज्य वीथी’ या ‘औपनिवेशिक इतिहास मार्ग’ जैसा कुछ नाम दे देते, तो वह एक जीता-जागता इतिहास महाविद्यालय हो सकता। इतिहास को भुलाना चाह कर हम उसे मिटा तो सकते नहीं, उसकी प्रेरणा देने की शक्ति से अपने को वंचित कर लेते हैं। स्मृति में जीवन्त इतिहास ही प्रेरणा दे सकता है।
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