कितनी छवियों में कैद थी,
उसकी तस्वीर ।
कितनी यादों में, गुम थी उसकी झलक ।
कितने खतों में कैद थी, उसकी खुशबू ।
कितनी निगहबान थी, निगाहें उसकी ।
पहली किताब के शब्द चीन्हें थे, उसकी ही आंखों से ।
सोया था उसकी ही पलकों के तले, न जाने कितनी बार ।
धीमी होती सांसों, तकती बेजुबान निगाहों से ।
समय ठहरा था, अस्पताल के बिस्तर पर ।
जिंदगी की जंग को, धीरे धीरे हाथ से छोड़ती हुई ।
मौत की धार पर चलते हुए, अंत से अनंत की ओर बढ़ती।
मां, मेरी मां ।
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