परउपदेश कुशल बहुतेरेडिजिटल दुनिया में प्रगतिशीलता और स्त्रीवादी विमर्श विषयों पर धारधार लिखने वाली पत्रकारों की असाध्य वीणा अपने स्वजातीय बंधुओं के जड़तावादी विचार और महिला विरोधी सोच के अमकर्म पर मौन हो जाती है। अब ऐसा सायास होता है या अनायास राम जाने!आखिर स्वमोह से कौन बच सका भला?
हिंदी के बुद्धिजीवी जितना विदेशी व्यक्तित्वों और घटनाओं के बारे में लिखते-बोलते हैं, अगर उसका कुछ प्रतिशत भी देश के महापुरुषों और स्थानों- घटनाओं के बारे में जानकर लिखते तो हिंदुस्तान में जनता प्रगतिशील होकर अपने से ही क्रांति कर देती!
आखिर यौन शोषण (मीटू) के कथित आरोपियों के भी तो मानवाधिकार होते हैं!
सेटरडे क्लब और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से अनजान कैटल क्लास को यह बात वैसे भी समझ नहीं आने वाली।
कैटल क्लास को अभी लुटियन जोन के चाल, चरित्र और चिन्तन को समझने के लिए बहुत ज्ञान हासिल करने की जरूरत है।
हमारे महानगर का मीडिया तो लुटियन जोन और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से ही चलता है। आखिर कैटल क्लास की खबर कहां सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनती है, दक्षिण दिल्ली में कुत्ते की मौत भी खबर है जबकि सारे दुखिया यमुना पार पुराना जुमला है। हिन्दी और अंग्रेजी के मीडिया में वर्ग का यह अंतर साफ है।
दिल्ली के मीडिया समूहों से पत्रकारों को पैदल करने की खबरें आ रही हैं। भगवान करें कि बेदखलों की सूची में साथी पत्रकारों के नाम न हो। फिर चाहे दोस्त, ईश्वर को न मानते हो। अगर ऐसा हुआ तो फिर न घिसू की कहानी को दोहराने के लिए कोई रहेगा, न ही प्रेमचंद को पढ़ने वाला। स्क्रीन रंगीन हो या काली पर होनी ज़रूरी है। अब इस शहर के लाला की मार का कोई बचाव नहीं, दुनिया का रोना रोने वालों के लिए रोने वाला कोई नहीं। कभी कभी भरम में होने की अधिक चाहना होती है। काश दुनिया के मज़दूरों के एक होने के नारे की तरह देश के मेहनतकश पत्रकारों के एक होने का भी कोई नारा होता!
एंकर केवल दूसरों की लिखी हुई स्क्रिप्ट पढ़ता है।
लिखने वाला चैनल हेड के अनुरूप लिखता है।
चैनल हेड मालिक के अनुसार लिखवाता है।
मालिक अपने हित और ज़रूरत के हिसाब से निर्णय करता है।
सो, केवल प्रस्तोता को ही दोषी मानना उपयुक्त नहीं। एचएमवी का सिद्धांत है, कभी कोई बड़का पत्रकार अपने मालिक के ख़िलाफ़ नहीं होता क्योंकि ऐसा करने पर वही बड़ा नहीं रहेगा।
मीडिया मालिक ने चिप निकाली तो पूरा प्रोग्राम यानी खेल ख़त्म।
शहर में यह सुख है कि यहां भ्रांतियां सुरक्षित रहती हैं शायद इसीलिए गांव टूटते जाते हैं।
सच का गांव नहीं होता, झूठ का पांव नहीं होता।
राजस्थान की इस कहावत को गढ़ने वाले को तो "फेक न्यूज" की कल्पना भी नहीं होगी।
"छपास" का रोग
हिंदी साहित्य की दुनिया में तो लिखने वाले की सूरत, विचार और ताकत को देखकर ही उसकी कृति का मूल्यांकन किया जाता है. स्वयं को साहित्यकार मानने वाले पत्रकार-अफसर-अध्यापक की त्रयी के रचे को भी साहित्य में शामिल करने पर विवश है.
"छपास" का रोग जो न कराए कम है.
आखिर हिंदी के सार्वजानिक जगत की धुरी इस समूह के ऊपर ही टिकी है.
ऐसे में फिल्म बहिष्कार की बात को विषयवस्तु और संवेदनशीलता से मापने की बात बेमानी है.
बाजार में वही दिखेगा, जो बिकने योग्य है.
बिकने वाले की अपनी मर्जी कहाँ होती है?
अब बिकने-बिकवाने के प्रपंच में सब "ब्रांडिंग" और "मार्केटिंग" का खेला है.
कबीर ने ऐसे ही नहीं कहा था, जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।
आखिर हिंदी फिल्म की बजाए बॉलीवुड का नाम, बाजार के तयशुदा शर्त पर चलने की ही बात को चरितार्थ करता है.
दिल्ली से छपने वाले अंग्रेजी अख़बारों के विदेशी डिग्री से लैस लेखकों के देशी विषयों पर लेखन में "कुछ छूटा" हुआ सा लगता है. अब यह जमीन से जुड़ाव की कमी के कारण है या हिंदी राज्यों के समाज से जुड़े विषयों को न समझने के कारण? शायद कुछ-कुछ दोनों भी हो सकता है.
वे पश्चिम के समाजशास्त्र-इतिहास के व्याकरण से भारत की समाज की संबंधों के गणित को सुलझाते हुए दिखते हैं. अब ऐसे में वे समस्या के प्रमेय से अधिक स्वयं प्रमाद का शिकार है.
चुनाव घोषणा से आज सुबह चुनाव परिणाम आने तक नेहरू की वैज्ञानिकता का दम भरने वाले और सोशल इंजीनियरिंग का पाठ पढ़ाने वाले अचानक शाम होते-होते केंद्रीय मंत्री को अपनी फोटो सहित चुनाव जीतने की बधाई दे रहे हैं.
सत्त्ता के साथ खड़ा होना और दिखना शायद जरुरी है.
शायद आज के दौर की टीवी पत्रकारिता की मजबूरी है, भले ही असल में मन में कितनी ही दूरी हो, जो कि बड़का पत्रकार की लखटकिया नौकरी से लेकर मालिक के करोड़ों के प्रसारण निवेश के संकट के बरअक्स होती है.
आखिर लिखने वाले की कसौटी पाठक ही होता है, आलोचक नहीं.
अगर पाठक को कुबूल है तो लिखने वाले ने गढ़ जीत लिया.
वैसे भी हिंदी में प्रगतिशीलता के नाम पर पाठक कटे ज्यादा है, जुड़े कम है. उसमें भी इतिहास तो मानो हिंदी के लिए बना ही नहीं है.
सब विमर्श के नाम पर पठनीयता समाप्त कर दी है, जिससे पाठक भी छिटका है.
सो, अपने राम तो हिंदी ने जो दिया है, उसे हिंदी और उसके बृहतर समाज को वापिस लौटने की छोटी सी कोशिश है.
बाकि सबहिं नचावत राम गोसाईं!
कुछ कलमघसीट पंजाब ट्रेन हादसे पर भी "सीन-दर-सीन" लिखकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं.
भाई, मृतक तो आपकी बौद्धिकता से प्रभावित होकर आपकी किताब खरीदने से रहे!
कम से कम अपने पशुत्व से दूसरों को मानवीयता का अपमान तो मत करो.
नहीं तो धिक्कार है, ऐसी विचारधारा और ज्ञान पर!
वैसे भी रुदालियाँ भाड़े पर रोने गाने का काम तो करती ही है!
जब से जर्नलिज्म, मीडिया हुआ तभी से उसमें "filmi" लक्षण आ गए!
जब पत्रकारिता से निष्क्रिय हो गए या कर दिए पेशेवर, अध्यापन की तरफ मुड़ते हैं तब वे अनुभव बेशक साझा कर ले, भरोसा नहीं जगा पाते!
बाकि अपने चुकने की कहानी तो कोई नहीं बताते जबकि नयों के लिए असली सबक तो यही होता है!
जब जवानी काम नहीं आई तो बुढ़ापे की दुहाई दोगलेपन से ज्यादा कुछ नहीं.
अब इससे अधिक क्या कहे, राम दुहाई!
विडम्बना है, मीडिया की लाला कंपनियों में क्रांति करने वाली कलम कदमताल सही न होने पर तोड़ दी जाती है! न कोई वेज बोर्ड की बात करता है न लाल झंडे की बस पिंक स्लिप थमा दी जाती है. और संस्थान के बाहर तो छोड़िये, भीतर से भी कोई आवाज़ नहीं उठाता!
टीवी में पत्रकारिता कम और एक्शन, ड्रामा और सस्पेंस ज्यादा हो गया है. उसी के अनुरूप एडिटर की जगह डायरेक्टर ने ले ली है. बुद्धू बक्सा से मदारी का तमाशा.
बकौल एनडीटीवी ट्विट,
चंद घंटों का ही रहा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर का आतंकी करियर का सफ़र!
मानो जाना तो था हिजरत को बॉर्डर पार, प्रोफेसर लम्बे ही निकल गए.
अब इधर वालों की मुश्किल है, पापी से प्यार तो फिर पाप से कैसे हो इंकार.
ऐसे में अब कौन पापी, कैसा पाप?
यह तो तय हो यार!
तभी तो विमर्श का विस्तार होगा.
नहीं तो वैसे ही यूनिवर्सिटी के "देशद्रोही" होने का 'काल' है.
अपने ही देश में बेगाने...कुछ ज्यादा पढ़े लिखे हिन्दू मात्र विरोध के विरोध की तर्ज पर हिंदुस्तान के बंटवारे और हिन्दुओं के सफाए के लिए "डायरेक्ट एक्शन" के डायरेक्टर जिन्ना को भी जिम्मेदार बता रहे है!१९८४ से लेकर १९९२ के लिए बात बात पर माफ़ी की दरकार लगाने वाले विभाजन के समय नरसंहार में नाहक मारे गए हिन्दू समाज का कोई "धणी-वारिस" नहीं है.
गांधीजी को सदा मिस्टर गाँधी कहने वाले जिन्ना प्रासंगिक-सामायिक तो कुछ के लिए वैचारिकी के अधिष्ठान हो रहे है!
छह मरे, दस घायल.
चार मरे, आठ घायल.
टीवी पर एंकर ऐसी खबर यूँ देता है मानो मरने वाले आदमी न होकर केवल एक संख्या हो!
फिर बदलाव की हालत में पहली वाली खबर सही थी या दूसरी इसकी भी कोई सफाई नहीं होती.मानो यह दर्शक की समझदारी पर है, किसे सही माने या किसे गलत!ऐसे लगता है की मानो एंकर के लिए जिंदगी-मौत के कोई मायने ही नहीं.वह अजर-अमर-अविनाशी 'मोड' में है पर साधारण आदमी-दर्शक क्या करें?अब यह तो मौजूं सवाल है कि टीवी एंकर को मौत से डर क्यों नहीं लगता?मालूम चले तो हम भी संवेदनहीन बन जाएँ, मौत की खबर सुनने, देखने और कुछ महसूस न करें.
पत्रकार महज "फ्लाइट" की टिकट के मारे
"संवादी" हो जाते है!
यह बात तो आज ही पता चली.
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएँगी....
हमारी बिरादरी का आकलन सटीक है या आधारहीन यह तो प्रगति की भाई लोग ही बता सकते हैं!
'सैटेनिक वर्सेज' को प्रतिबंधित करने वाले और उसके हिमायती तब से लेकर अब तक तो मुंह पर मक्खन लगाए हुए हैं जबकि अब 'पद्मावत' फ़िल्म के विषय में अचानक "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का राग अलापने लगे है!
बाकि अल्लाह झूठ न बुलवाएँ, बोलने को तो बहुत कुछ है.
अवार्ड वापसी का रुदाली गान हुआ अब बीते समय की बात.
एक "राष्ट्रवादी" के हाथों 'शेख़ुलर' 'Presstitute' को अवार्ड!
कुछ तो मजबूरियां रही होगी!
नहीं तो टीवी चैनल से पत्रकारों की छटाई पर भी स्क्रीन काली होती चाहे गलती से ही सही.
"बड़ी बहस" में अब देखेंगे "हम लोग"...
आखिर फेस बुक पर धार्मिक त्यौहार न बनाने की घोषणा की क्या मायने?
मतलब दीपावली का भी विरोध!
प्रत्यक्ष न सही तो परोक्ष ही...
कुछ टिप्पणियां देखी...
तो मन में सहज जिज्ञासा हुई क्या कोई अधार्मिक त्यौहार क्या होता है?
आखिर जब अंध विरोध तो आँखों के तमस से अधिक मन के कलुष को निकालने की जरुरत होती है!
तथागत बुद्ध ने भी तो "अप्पो दीपो भव" की बात कही थी.
फिर तो न राम के हुए न बुद्ध के...
मन के अँधेरे न जाने कब छटेंगे?
एक प्रस्तावित चैनल की टैग लाइन "यहाँ हर जन पत्रकार है" पर अनायास यह विचार आया कि ऐसे में तो 'कंट्री' के लोगों की बारे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि "यहाँ हर जन राजनीति का जानकार है".
अब 'कंट्री' मतबल क्या यह मत पूछियेगा, हम बता नहीं पाएंगे जी...
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री से बनने से पहले की रोहतक की सैनिक रैली को दिल्ली के एक अंग्रेजी दैनिक ने 'ब्लैक आउट' किया था.यह पत्रकारिता के किस सिद्धांत के अनुरूप था, यह तो उसके तत्कालीन 'काबिल' संपादक ही जाने!वह बात दीगर है कि उसे बाद में वहां से भी बड़े बेआबरू होकर निकलना पड़ा!बात निकलेगी तो दूर तलक जाएँगी...चंदा करने के बजाय अपने शेयर दर्शकों को बेचने का विकल्प भी जनवादी है।आखिर खाली-पीली रोने वाली रुदालियों और खीसे से कुछ खर्च न करने वालों की पहचान तो होगी!हिंदी में एक कविता की किताब भले ही "तीन सौ" में बेस्ट सेलर न बने पर एक "काव्यात्मक स्वप्न" को तो फेसबुकिया सेक्युलर हिन्दू नहीं हिंदी समाज साकार कर ही सकता है.
चैनल_बेक चैनल_मनी_ब्लैक मनी
अगर प्रगतिशील चैनल के लिए, "चार बड़े चिंता करने वाले" अपना लखटकिया 'अंशदान' दे तो एक शुरूआत हो सकती है!
नहीं तो "चारे का पैसा" ही सही, सेकुलरिज्म के नाम पर इतना तो बनता है.
परिवार न सही किसी के तो काम आएँगी, लक्ष्मी मैय्या भले ही काली सही!
आखिर "बेचारा चैनल" तो बाजार में बे-भाव बिकने से बचेगा?
गंगा-जमुनी तहजीब की कसम, इतने बेगैरत तो हम न समझे थे, तुमको.
विडम्बना है कि आज समाज का पढ़ा लिखा तबका, नेताओं को 'गुंडा' बता रहा है तो राजनीति पुरुष पत्रकार को 'दलाल' और महिला पत्रकार को 'वारांगना' जैसे विशेषणों से नवाज रही है. कुछ-एक के ख़राब होने से सभी पर एक ही ठप्पे को चस्पां देना सर्वथा अनुचित है.
फ़ेसबुक पर हिन्दू धर्म की मुखर आलोचना करने वाले अहिंदू आलोचक अपने स्वयं के संप्रदाय के विरूद्ध कुछ भी कहने से कतराते हैं!यहाँ तक कुछ तो अपनी अहिंदू पहचान छिपाते भी हैं।अब ऐसा आदतन है या जानबूझकर यह तो वे ही जाने।
दरबारी रुदाली का रोना...
कुछ 'खोना; कितना खोटा होता है।
बुद्ध की शिक्षा वालों को 'प्रतिकार का पाठ' स्मरण रहा, गीता के उदघोषक कृष्ण के वंशज 'सेक्युलर स्मृति लोप' से ग्रसित हो गए!
इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के ज़माने में लेखक-पत्रकार 'सच' लिखकर 'जेल' जाना पसंद करते थे और अब...इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के ज़माने में लेखक-पत्रकार 'सच' लिखकर 'जेल' जाना पसंद करते थे और अब...
बुद्ध की शिक्षा वालों को 'प्रतिकार का पाठ' स्मरण रहा, गीता के उदघोषक कृष्ण के वंशज 'सेक्युलर स्मृति लोप' से ग्रसित हो गए!
इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के ज़माने में लेखक-पत्रकार 'सच' लिखकर 'जेल' जाना पसंद करते थे और अब...इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों के ज़माने में लेखक-पत्रकार 'सच' लिखकर 'जेल' जाना पसंद करते थे और अब...
रतौंदी के शिकार लोग रे-बैन का चश्मा भी लगा ले तो दिखने थोड़ी लग जाएँगा!
भोपाल गैस कांड में बच्चों के असमय काल-कलवित होने पर देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री इतने द्रवित हुए थे कि उन्होंने अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन को भारत से सुरक्षित उसके देश भेजने की जिम्मेदारी भी प्रदेश में अपनी दल की सरकार ही मुख्यमंत्री को ही सौप दी थी.
इस बात को अधिक गहराई से जानने के इच्छुक कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह की आत्मकथा की किताब पढ़ सकते हैं....
७० साल की आजादी का सिला!कश्मीर का कीटाणु केरल में?अब कामरेड बहादुर सरकार को केरल के पलक्कड़ एक स्कूल में भी "तिरंगा" फहराने पर भी आपत्ति!संविधान की कौन से धारा है, लाल आतंकी नहीं तो उनके समर्थक कथित बुद्धिजीवी ही बता पाएंगे.अब लगता है कि जवाहर लाल नेहरु का केरल का निर्णय 'गलत' नहीं था.कहीं इतिहास स्वयं को दोहरा तो नहीं रहा है...
क्या किसी टीवी चैनल के प्रमुख ने अपने टीवी चैनल की टीआरपी रेटिंग के गिरने पर कभी इस्तीफा दिया है?वैसे इस्तीफा देने की बजाए मांगने वाला ही "बड़का" होता है,है न!
1965 में 'वक्त' फिल्म में अभिनेता राजकुमार का मशहूर संवाद था, “चिनॉय सेठ, जिनके मकान शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते !"
इस संवाद की याद एक बड़का पत्रकार के ट्विट को देखकर आई.
दिल्ली की पॉश इलाके पंचशील में कोठी खरीद कर रहने वाले और डेसू के ज़माने में किराये के मकान में बिजली का बकाया किराया माफ़ करवाने वाले बड़का पत्रकार करोड़ों रुपए "कहाँ से आने की बात" का सवाल उठा रहे हैं!
सच में नंगा ही चंगा है.
अब आप मत पूछना कि दिल्ली के पंचशील में मकान कितने में आता है!
पर्दे के पीछे छिपकर नेताओं के फेसबुक-ट्विटर चलाने वाले पत्रकार भविष्य भी बांचने लगे हैं. अँधेरे में छिपकर रहने वाले आने वाले समय का भी अँधेरा ही बता रहे हैं. सही है, आखिर मन की भीरुता व्यवहार में तो झलकेगी ही. समय भी कितना प्रबल है सबके नकाब उघाड़ देता है चाहे पढ़ा लिखा हो या अनपढ़!
कितने डग!
चाय वाले प्रधानमंत्री से झुग्गी वाले राष्ट्रपति तक|
हिंदुस्तान टाइम्स के सामने हड़ताल पर बैठे हिंदी पत्रकारों की खबर टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस में कभी नहीं छपी तो नोएडा के टीवी चैनलों से पत्रकारों को बोरी भर कर निकालने की बात किसी अंग्रेजी चैनल ने नहीं दिखाई.
सबसे तेज़ चैनल से लेकर मशाल जलाने वाले अंग्रेजी अखबार, इस हम्माम में सब नंगे हैं.
अब सब सहूलियत पसंद साथ है, बस आपको यह तय करना है, किसको 'यूज़' करेंगे, किसके लिए 'यूज़' होंगे.
लाला-मालिक के आगे सारी कलम-माइक "मौनी" हैं. (17072017)
बॉलीवुड, बोल्ड, बिंदास!
क्या हम कभी बॉडी के मोह से निकलेंगे!
बॉडी की रक्षा-चिंता ही कहीं इस आरोपित भाषा-विमर्श की ही देन तो नहीं! (23032017)
साधू की जाति-धर्म खोज निकालने वाले भारत में वास्को-डी-गामा और कोलंबस के वंशज बस आंतकी का धर्म ही नहीं देख पाएं! (22032017)
जीवन में अपनी पत्नी को तलाक देकर मझधार में छोड़ने वाले को अचानक "स्त्री अस्मिता" और "गरिमा" की याद आने लगी है. (19032017)
उत्तरप्रदेश के राजतिलक के परिणामस्वरूप जातिवादी चाह रखने वाले, अब अचानक अनुपम खैर की खैरियत के लिए फिक्रमंद हो गए हैं!
अचानक साइकिल से लेकर हाथी सब अकेले !
हंसिया का तो हत्था ही उखड़ गया, कन्हैया की मुरली भी काम नहीं आई!
सही है, मुश्किल वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है. फिर यह तो पढ़े-लिखे कॉलेज के टीचरों का क्या कसूर! (19032017)
सांप्रदायिक-जातिवादी दलों को वोट देने वाले, इनसे इतर सरकार बनने से सदमे में हैं, मानो बीज तो बबूल का रोपा था और आम कहाँ से आ गया!
(18032017)
जो से-पत्रकार अपने संस्थान में संपादक बनने के नाम पर भी चुप रहते हैं, वे सरकार और मुख्यमंत्री के बनने पर कैकयी जैसे रूठकर कोप भवन में जाने और मुखर होने का का भ्रम फैलाने का प्रपंच कर रहे हैं....(18032017)
सुर की तरह शब्दों को भी साध कर लिखा जा सकता है...(18032017)
बड़का पत्रकार की अपने परिवार-मालिक की "कारगुजारी" पर चुप्पी उसके चाहने वालों को नागवार लगती है.
घर से लेकर नौकरी की "गुज़र" की चुप्पी हम सब पर भारी है.
बाकि सबकी मजबूरियां होती हैं, सो सहूलियत पसंद साथ की यारी है.
घर-नौकरी के बिना दर-दर का भिखारी बनने से अच्छा तो "चुप्पा" होना ही है.
आखिर बड़का पत्रकार भी तो हाड-मांस का पुतला है, कोई दूसरी दुनिया का प्राणी नहीं! (07032017)
एक गैर-रियासत (पाकिस्तान) और एक महजबी-सियासत (विभाजन) को जोड़ने वाली उर्दू की मंथरा भूमिका की स्मृति राष्ट्र के मानस पटल से मिटाए नहीं मिटती हैं! (26022017)
रतौंदी-स्मृति लोप-सहूलियत पसंद पत्रकारिता!
दिल्ली में सभ्यता से लेकर छात्र आन्दोलन की परिभाषा का विमर्श करने और वाले पत्रकार, जो बिहार से लेकर मध्य प्रदेश से अपनी रोजी-रोटी के लिए राजधानी आये हैं, अपने मूल प्रदेश को बिसराए हुए हैं.
यह रतौंदी है या स्मृति लोप अथवा सहूलियत पसंद पत्रकारिता जो अपने घर, राज्य, लोगों को छोड़कर सबके लिए प्रश्नाकुल हैं. (24022017)
संसद में भाषा की गरिमा के सवाल पर चिंतित प्रगतिशील पत्रकार-कॉलेज शिक्षक ही उनकी भाषा में अधिक वाचाल होते दिख रहे हैं. आखिर "पर-उपदेश कुशल बहुतरे" का सीधा उदाहरण तो यही दिखा रहा है. (15022017)
एकाकी होने का भाव कायरता को जन्म देता है जो
अकर्मण्य बनाता है. (09022017)
खोह में जाने से अच्छा है कि खोल से बाहर आकर मोर्चा बांधे... (09022017)
"द हिंदुस्तान टाइम्स" के बाद जौहर की ज्वाला में एबीपी समूह के "द टेलीग्राफ" "आनंद बाज़ार पत्रिका" की कलम भी सती!
शायद इसीलिए साथी-कामरेड अमीर खुसरो की तरह मौन है!
पत्रकारिता की आने वाली पीढ़ी तो यही पढ़ेगी कि किसी ने कुछ नहीं लिखा था.
सो "पद्मिनी" की तरह कलमकारों की रोजी-रोटी "हत्या" मनगढ़ंत-मिथ्या प्रचार ही माना जाएंगा, जायसी के "पदमावत" की तरह!
आखिर दूसरों के लिए मशाल जलाने वालों के खुद के घर के चूल्हे जलना बंद हो गए और सब ओर घनीभूत पीड़ा वाली ख़ामोशी. (05022017)
कलकत्ता के "द टेलीग्राफ" के थोक के भाव प्रगतिशील पत्रकारों को रोजी-रोटी से मरहूम करने और नौकरी से निकल बाहर करने के फैसले पर हर मुद्दे पर ट्विटर का इस्तेमाल करने वाले उसी संस्थान के एक बड़का पत्रकार अपने घर में लगी आग पर चुप्पी साधे हुए हैं.
यहाँ तक की चीन-पाक का नापाक सुर गाने वाले जेएनयू के कुछ "देश विरोधी" मास्टर भी मौन हैं, सही में बहुत असहिष्णुता हैं. (04022017)
अख़बार को नोट आना बंद हो गए सो उन्होंने पत्रकारों के लिए रास्ता बंद कर दिया. (03022017)
क्रिकेट का कमाल
गोलंदाज का "छक्का"! (02022017)
ढोल (ओपिनियन पोल) की ही पोल खुलती है.
(11012017)
ये कैसा विमर्श है?
आत्म-हत्या करने वाले शहीद,
हत्या करने वाले क्रांतिकारी! (18012017)
वोट वाली जनता याद नहीं रखती पर लोक-स्मृति कुछ विस्मृत नहीं करती. (27122016)
चुनाव के दिन सैर-सपाटे को निकल जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग का ही रवैया लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी सरकार को लेकर सबसे अधिक अलोकतान्त्रिक दिखाई देता है।
कोई मर्सिया पढ़ रहा है, कोई चित्रगुप्त बनकर शेष दिन बता रहा है तो कोई उसके वजूद पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा है!
इससे तो लाल(जेएनयू )किले के क्षेत्र की नगर निगम की सीट तक लाल पार्टी को जिताने में असफल बुद्धिजीवी वर्ग की बेचारगी ही झलकती है।
लोकतन्त्र में जनता-जनार्दन के अभिमत का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना ही समय की मांग है नहीं तो कार्ड धारी बनकर पोलित ब्यूरो की पोलियो ग्रस्त चाल से पस्त ही होंगे। (11122016)
क्या विकासपरक सरकार के बिना विकासशील पत्रकारिता संभव है? (04122016)
पहले किराए की मकान में रहने वाले एक बड़का टीवी पत्रकार ने बिजली का अदा न किया बिल कम करवाए।
मकान मालिक भी सरकार के आर्थिक मामलों के सलाहकार का।
सो बिल का न देना तो बनता ही है न।
फिर दक्षिणी दिल्ली के पॉश इलाके में घर खरीदा।
कितने की पक्के में रजिस्ट्री हुई और कितने कच्चे?
अब यह सवाल कैसे?
आखिर वह पूछे तो "डाइरैक्ट दिल से" और दूसरा पूछे तो पूंछ हिलाएं।
दुनिया बहुत छोटी है बाबू फिर आमने सामने ला खड़ा कर देती है।
सो चुप रहना सुना है अँग्रेजी में "सोना" माना जाता है सो हम भी सोते हैं। (03122016)
आप जहाँ हैं, वही प्रामाणिकता से अपने को काम से सिद्ध करें ताकि वहां प्रामाणिकता की कसौटी आप और आपका काम हो। सो, ऐसे में पदवी और सम्मान दोनों आपके सहचर होंगे न कि आप उसके तलबगार। (03122016)
अगर हम एक वाक्य में ही शुद्ध भाषा /वर्तनी नहीं लिख सकते तो बेहतर है कि हम न लिखे।(03122016)
नए साल में जनवरी के बाद कितने अखबार-टीवी मालिकों के 'इतर' हवा-ला कारोबार पर बिजली गिरेगी और कितनी 'रिपोर्ट' होगी?
देश के सबसे बड़े अँग्रेजी अखबार के बड़े वाले तो ईडी के केस में ही निकल गए थे तो यूपी वाले गन्ना पिराई में पेरे गए थे!
मुझे आईआईएमसी से निकलने के बाद मिली मीडिया की पहली नौकरी में मजदूरी 'पिंक स्लिप' में मिली थी जिसमें 'चावल' कम दर पर खरीदने की सुविधा थी।
कहीं सच में ऐसा हुआ तो अभी दूसरों के लिए चौबीस घंटे मशाल जलाने वालों को अपनी दिया-बाती के लिए तेल खोजना पड़ सकता है। (13112016)
पाँच सौ के नोट के छुट्टे न होने की वजह से गरीब दिन भर भूखा रहा!
अब दिन में पाँच सौ कमाने वाला कौन गरीब भयो! (11112016)
बस लिखने के लिए लिखते हैं, यह भाषा-वर्तनी-अर्थ क्या निरर्थक रट है! सो, जब खुद शर्म न आएं या फिर कोई न शरमाएं तो फिर भला बच्चों को काहे भरमाए। (08112016)
बागों में बहार "स्थगित" हो गयी है!
(07112016)
नीरा रादिया वर्ल्ड दिस वीक मामले में अथॉरिटी कौन?
सवाल पूछा नहीं या पूछा नहीं गया?
ताकत चुक गयी?
जुबान चुक गयी?
नज़र चूक गयी?
नीर है,
बरखा है,
रतौंदी है!
तो झाल बजाए! (05112016)
बिलकुल मार्के के बात।
यह कुछ ऐसे ही है जैसे कोई पूंजीवादी चैनल मालिक किसी प्रगतिशील वरिष्ठ पत्रकार को मोटा पैसे देकर रख लेते हैं और वह अपने नीचे बाकी पत्रकारों को न्यूनतम मजदूरी पर ठेलकर गुलामी करवाता है। यह सिलसिला चैनल दर चैनल चलता रहता है, वरिष्ठ पत्रकार गति से हर बदलते चैनल से प्रगति करता हुआ ऊपर चढ़ता जाता है और मजदूर पत्रकार दिन प्रतिदिन गरीबी रेखा के नीचे जाते हैं। दो बड़ों की समझदारी से खेले ताकत के खेल में असली पत्रकार गरीब-गुरबा महामूर्ख मोहरा बनकर अपनी जिंदगी गुज़र कर देता है। (16102016)
टीवी पत्रकारिता में अपने से नीचे काम करने वाले कनिष्ठ पत्रकारों का खून चूसकर उन्हें गुलामी का नश्तर एहसास चुभोने वाले करवाने वाले अब अचानक "मीडिया के झुकने और रेंगने की मुद्रा" की बात बता रहे हैं।
क्यों भाई, जब खुद नहुष बनकर सबको जोते हुए थे तब क्या जीवित स्वर्ग जाने की तैयारी थी?
अब जीवित ऊपर जाने का उपक्रम तो विफल होना ही था, सो अब तो सुधार कर लो।
कर्म-विचार और व्यवहार में। (10102016)
अल्लाह के बंदे!
अपनों पर करम औरों पर सितम।
कुछ कार्टूनिस्ट, अपने महजब को छोड़कर बाकी सभी पर "तिरछी नज़र" रखते हैं!
सो सारा वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशीलता काले पर्दे में छिप जाती है!
अगर वैसी ही आलोचक नज़र अपने महजब पर डाले तो शायद "भस्म" हो जाएँ।
खैर, अपनी जान की सलामती कौन नहीं चाहता?
बिना मूठ की तलवार से भला कोई जंगबाज़ बना है! (10102016)
पी वी नरसिंह राव के बाद की काँग्रेस में ब्राह्मण नेताओं की अनदेखी और ईसाई नेताओं को तरजीह का नतीजा ऐसे प्रतीकों खासकर हिन्दू प्रतीकों के महत्व को समझने और जन संवाद के लिए उन्हें प्रयोग में न ला पाने की असमर्थता के रूप में देखने को मिला है। (09102016)
कुछ हिंदुस्तानियों को भारत में आकर आतंक फैलाने वाले आतंकियों और सीमा पार से उन्हें भेजने वाली पाकिस्तानी फौज में फर्क लगता है?
यानि एक मरा को कोई नहीं पर दूसरे का मरना ठीक नहीं।
वैसे मरना तो मारीच और रावण दोनों को पड़ा था!
अब ऐसा सोचने वाले मासूम या शातिर हैं यह तो उनका खुदा ही जाने! (09102016)
भांड पत्रकारिता या पत्रकारिता के भांड!
(रविश के ताजा लेख के शीर्षक को पढ़कर अनायास मन में कौंधा!) (07102016)
"जैसे तो तैसा". चीन के भारत का "पानी रोकने" का जवाब चीन में बना सामान न खरीदकर उसका "दानापानी" बंद करने के रूप में देना ही उपयुक्त है. (03102016)
पंत प्रधान की जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि!
कोझिकोड से कश्मीर तक (24092016)
गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता से पीड़ित पाकिस्तान की अवाम के बिरादर यहाँ भी हैं, सारे गए नहीं!
अब यहाँ वालों के लिए तो पंत प्रधान का भाषण था नहीं सो ऐसा होने में अचरज कैसा?
(महाराष्ट्र के थाणे में उत्तर प्रदेश के विजय यादव ने सुफिया मंसूरी से प्रेम विवाह किया था. विवाह के बाद सुफिया नेअपना नाम प्रिया रख लिया था. प्रिय गर्भवती थी. दोनों दंपत्ति की चाकू से गोद कर ह्त्या कर दी गए. उन्हें इतने निर्मम तरीके से गोदा गया कि प्रिया के पेट में पल रहे बच्चे के पांव बाहर निकल गए.) (24092016)
हिन्दी साहित्य की उम्र दराज रुदालियाँ जब रोती हैं तो मजेदार है कि आंसू एक नहीं गिरता है। (14092016)
हम हिन्दी से बने हैं सो अपनी भाषा के उपकार को स्वीकार करके कुछ करने के लिए आभार कैसा? (09092016)
आंबेडकर की संविधान की सर्वोच्चता के पैरोकार बुद्धिजीवी, मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के तीन तलाक वाले कुतर्क पर मुंह में दही क्यों जमाए बैठे हैं! आखिर दही-हांडी का त्यौहार तो बीत गया है। (04092016)
समाज-क्रांति वीर पत्रकार जब पत्रिका-चैनलों के लाला-मालिक का नाम जपते हुए अपने नौकरी में चाकरी करते हुए कलम और जुबान दोनों से बंजर होते हुए गूंगी गुडिया बन जाते हैं.
जब उन्हें मीडिया संस्थान से विदा कर दिया जाता है तो फिर उन्हें वही पत्रिका-चैनल, उसके लाला-मालिक सब दोगले-मतलबी लगने लग जाते हैं.
सो, हो भी क्यों न?
मतलब की दुनिया है तो फिर मीडिया और उसके लोग अछूते कैसे होंगे भला? (03082016)
गाय को पालने के दंभ से ही शायद उसका चारा भी चटकर जाने का दुस्साहस जागता है! शायद तभी बाड़ (पालक) ही खेत (चारा) खा जाती है।
आखिर दुनिया में मोल तो हर चीज का चुकाना पड़ता है। (29072016)
(दलित युवक के मुंह में पेशाब मामले में विपक्षी नेताओं का नीतीश पर हमला)
मगध में दलितों के साथ मत्स्य न्याय!
गुर्जर प्रदेश में शोर और मगध पर मौन, दलितों के द्रोणाचार्य को नमक जो चुकाना है! आखिर तब द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य का अंगूठा लिया था अब राज के लिए मौन धर लिया है। (23072016)
नौकरी के लिए लिखकर चाकरी करने वाला नामालूम चीजों पर ज्यादा जोर से लिखता-बोलता है। मीडिया के नाम पर अजेंडा लाला का और उसके लिए मुद्दे ला-ला कर देता हैं, लिखने वाला। लाला के विज्ञापन खतरे में पड़ने पर लेट भी जाता है। खैर पेट-लेट में ज्यादा अंतर नहीं है सो कैसा गम! (19072016)
कश्मीर में देश विरोधी मौतों पर दिल्ली की काले दिल वाली ''रूदालियां" बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर देती है जबकि मजेदार है कि आँसू एक नहीं गिरता आँख से!
वह बात दीगर है कि मीडिया का एक तबका "गंगा-जमुना" बहने का दावा करने लगता है! (18072016)
जीवन के आगे टीवी की रंगीन स्क्रीन छोटी ही रहेगी, मीडिया की रतौंदी को मन का मैल नहीं बनने देना ही असली चुनौती है। (11072016)
कुछ काबिल लोग "एक्सक्लूसिव" के नाम पर "जगत मामा" बन जाते हैं!
जबकि सबको पता होता है कि "मामा" की बहन की शादी ही नहीं हुई! (06072016)
गैर महजबी (मुस्लिम) ही तो "काफिर" है। वह बात दीगर है, काफिर की सूची हिन्दू से शुरू होती है, खत्म मनमर्जी के अनुसार होती है। पाकिस्तान में अहमदिया जमात के लोग काफिर है, अगर ईरान की सीमा नहीं लगी होती तो सारे शिया भी पाकिस्तान में काफिर होते। जैसे जिन्ना के लिए गांधी हिन्दू नेता और हिन्दू काफिर थे।(04072016)
"हम तो सिर्फ हिन्दू उत्पीड़न की ख़बरों पर राष्ट्रवादी हो लेते हैं।"
एक टीवी संपादक संगी की वाल पर पढ़ा!
अचरज तो हुआ फिर लगा कि ढाका के धमाके और काफिरों के मरने का असर है।
सो अब इस्लामी देशों में हिन्दू होने के नाम होने वाला व्यवहार "उत्पीड़न" और "खबर" लगने लगा है।
और तो और "हम" भी "राष्ट्रवादी" होने लगे हैं।
कोई शक नहीं कि बौद्धिक टीवी के "संघ विचारकों" (अगर होते हैं तो) का सही में काफी असर है। (03072016)
धमाका ढाका में, असर हिंदुस्तान में!
हिन्दू आतंकवाद का परचम लहराने वाले अब कह रहे हैं, "धर्मान्धता चाहे किसी भी मजहब, पंथ, मान्यताओं के भीतर हो, वो हर हाल में मनुष्य के विरुद्ध है."
ठीक तो है, हिन्दू तो धर्म है, महजब तो एक किताब, एक पैगंबर, एक रास्ते को ही अंतिम मानने वाले सामी लोगों के लिए हैं। आखिर अपनी जमात या समूह से ही जुड़े रहने की बजाय सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।) का जीवन दर्शन निश्चित रूप से ही अनुकरणीय है।
शुक्र है पेशावर हत्याकांड के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने वाले पाकिस्तानी टीवी चैनलों का बांग्लादेश में असर नहीं है। (03072016)
आतंक का महजब या महजब का आतंक? (02072016)
हमें समाज और मीडिया के बिना भी अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ने का अभ्यास करना होगा।
यह अभ्यास ही लंबे समय में सहायक होगा क्योंकि अगर हम अपनी आवाज़ खुद नहीं बुलंद करेंगे तो फिर समाज और मीडिया से ऐसी उम्मीद बेमानी है। (30062016)
राबड़ी के होते हुए भी बिहार में रेप!
बिहार को कितनी उम्मीदें हैं, उसे तोड़े नहीं।
बहन-बेटी की आबरू तो जाति से परे हैं।
मुख्यमंत्री न सही एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री से इतनी आशा तो निराशा में नहीं नहीं बदलेगी, ऐसा मन कहता है।
वैसे अब मन की होती कहाँ है? (25062016)
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति से भेदभाव की खबर!
हिन्दू समाज की पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति से मुसलमान बना व्यक्ति आज भी मुस्लिम व्यवस्था में तिरस्कृत ही है।
शेख, सैयद, मुग़ल और पठान में उपरोक्त किसी भी 'मुसलमान' का निकाह नहीं होता।
सो जब समाज ही दोगला है तो फिर वही दोगलापन चहुंओर दिखेगा। (24062016)
इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते! (24062016)
आज मीडिया यह याद नहीं दिलाएगा या उसे खुद को ही याद नहीं है!
आखिर इसी दिन के लिए तो स्वप्नदर्शी नेहरू के 'इंडिया' ने 'कामरेड' चीन का सयुंक्त राष्ट्र की 'स्थायी सदस्यता' के लिए अंध-समर्थन किया था। (24062016)
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे...
जो 'पाती' किसी के पास नहीं होती वह कैसे किसी 'एक' के पास होती है!
अब ऐसे में भगवान या फिर आज के कलियुग में 'पीआर' के पास सब कुछ होता है।
अब मीडिया को गरियाने से भी बात बनेगी नहीं, ब्राह्मण के नीचे काम कर लिए पर ब्राह्मणवादी मीडिया को गरियाना नहीं छोड़े। हाथी के दाँत खाने के और और खिलाने के और।
एक टीवी के ब्राह्मण बाबाजी है पर गैर-ब्राह्मण है कि प्रगतिशीलता के नाम पर दलित-ओबीसी, मुसलमानों के पैरोकार और न जाने क्या-क्या बनाने में लगे हैं। एक बाबाजी है कि भाई को अदद 'माननीय विधायक' नहीं बनवा सकें।
अब प्रदेश अध्यक्ष बनवाने के फेर में है।
अब मीडिया ब्राह्मणवादी या मनुवादी यह तो मुखौटा पहनने वाले ही जाने! (24062016)
जब कलमकार ज्योतिषी होने लगते हैं तो तोता बाबू के कार्टून की याद आ जाती है। (23062016)
कराची में अमजद साबरी की दिनदहाड़े हुई हत्या पर क़व्वाल बदर निज़ामी का कहना था कि "क्या खुदा, उसके पैग़ंबर और पवित्र इस्लामी शख़्सियतों की बंदगी एक गुनाह है?" कश्मीर से लेकर कराची तक आज के समय का सच तो इसके विपरीत ही दिखता है, जहाँ "ईश्वर" की आराधना ही जान-जोखिम का काम साबित हो रही है। (23062016)
कुछ टीवी चैनल हिन्दी को बेच रहे हैं, कुछ उसके नाम पर गुजर कर रहे हैं! (19062016)
विशाल भारद्वाज-गुलजार ने मिलकर लिखी-बनाई थी, एक फिल्म ओमकारा ।
इस फिल्म का यह संवाद देखे, "बेवकूफ और चूतिये में धागे भर का फर्क होता है।"
अब गुलजार-विशाल भारद्वाज लिखे तो भाषा की जय हो नहीं तो भय हो। (19062016)
कुछ चैनल हिन्दी को बेच रहे हैं, कुछ उससे गुजर कर रहे हैं। (18062016)
विदेशी धन के बिना देश की सेवा?
बहुत नाइंसाफी है! फिर अपनी सेवा कैसी होगी?
नहीं तो मेरी बीवी और मेरा टीवी, कमरा बंद।(16062016)
मंत्र से तंत्र तक
पशुओं का चारा चरने का तंत्र देशव्यापी हो तो कहीं कोई अनाचार ही नहीं होगा! न ही किसी को चारा-कागज़ चोरी होने का रपट करना होगा। (12062016)
खुदा का शुक्र है, अयोध्या मामले के कागज़ चारे की तरह नहीं गायब हुए नहीं तो धर्मनिरपेक्षता विधवा हो जाती ।
और मीडिया की रूदालियाँ बिना मरने वाले का नाम जाने मातम मनाने लग जाती। (09062016)
आज के प्रगतिशील पत्रकार, खास कर टीवी की दुनिया के, चाहे स्त्री हो या पुरुष, अपनी पहली शादी/निकाह/मैरिज को छुपाता क्यों हैं, दुनिया भर पर चर्चा करने वाले अपनी बीती जिंदगी पर बात क्यों नहीं करना चाहते!
यह बात समझ कर भी नहीं समझ नहीं आई?
टीवी पर दूसरों के इतर संबंध पर सार्वजनिक चर्चा करने वाले अपने पहले संबंध पर भी मौन साध जाते हैं, है न हैरानी की बात! (06062016)
सोचने की बात यह है कि कठमुल्ला से लेकर फादर-मिशनरी का निशाना ब्राह्मण ही क्यों है?
यह अनायास है या सुनियोजित प्रयास!
जबकि स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी के सम्पूर्ण वांगमय में ऐसा कुछ नहीं मिलता। (05062016)
आँख वाले अंधों की गाथा!
लो अब कर लो बात, इंद्रप्रस्थ की पत्रकारिता के भीष्म-द्रोण कह रहे हैं कि परिवार की मिल्कियत में शहजादे की तख्तनशीनी जम्हूरियत की कद्रदानी होगी!
सही में अब समझ में आया कि जन्मांध धृतराष्ट्र की राजसभा में सभी राजसद दुर्योधन को सुयोधन क्यों कहते थे।
अंधा राजा नहीं, दरबारी थे।
इतिहास अपने को दोहराता है पढ़ा था, आज देख भी लिया। (02062016)
आईएएस के बराबर वेतनमान लेने और गैर-बराबर काम करने वाले विश्वविद्यालय के शिक्षक "मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग" से संबंध रखते हैं!
यह बात कुछ समझ नहीं आई!
वेतन-कार्य की अवधि (समय) का अनुपात शायद सब कुछ कह देता है।
मेरे ही दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में हमारे हिन्दी के ही प्रोफेसर जब दो महीने तक पढ़ाने नहीं आयें तो हम सब प्रिन्सिपल के पास समस्या को लेकर गए।
वहाँ तो कुछ मिला नहीं पर बाहर आने पर प्रिन्सिपल के चपरासी ने बताया की प्रोफेसर और कोई नहीं खुद प्रिन्सिपल ही है।
सो जब आज से 15 साल पहले भी कुएं में भांग पड़ी थी, तो आज क्या हालत होगी इसकी सहज कल्पना लगाई जा सकती है।
वह बात अलग है, कुछ पढ़ाने वाले भी थे, खैर हर नियम का अपवाद जो होता है।
अगर पढे-लिखे तबके में सही में कोई "मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग" है तो वह है पत्रकार और उसमें भी हिन्दी पत्रकार।
हिन्दी मीडिया संस्थानों में नए वेतनमान तो छोड़िए, पिछले तक नहीं मिले। इसमें एक का तो मैं खुद भुक्तभोगी हूँ।
भरोसा न हो तो बहादुर शाह मार्ग से लेकर नोएडा के मीडिया दफ्तरों तक एक चक्कर लगा ले, सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
फिर आज विश्वविद्यालय शिक्षक बुद्धिजीवी है, बौद्धिक नहीं।
सो ऐसे अनर्गल मत न प्रकट हो यही बेहतर होगा। (28052016)
बात निकलेगी तो दूर तलाक जाएंगी...
नसीरुद्दीन शाह की माने तो गुजरात और बिहार के बारे में 'दिल्ली' के निवासियों को सोचना-बोलना बंद कर देना चाहिए! और दिल्ली से बाहर वालों को यहाँ की चिंता में दुख दुबला नहीं होना चाहिए!
न जाने कितने लाल किले पर झण्डा फहराने की हसरत लिए ही अल्लाह-मियां को प्यारे हो जाएंगे?
मैंने सोच रहा हूँ कि दिल्ली में बैठकर हर-बात पर नुक्ता-चीनी करने वाले वाले टीवी के पत्रकार मित्रों का क्या होगा?
कौन से जमाने की दुश्मनी निकली है, नासिर साहब आपने टीवी पत्रकारों से! (28052016)
सरकारी पीआर विषय पर पुस्तकों का अकाल है, लिखने वाले या तो शिक्षक हैं अथवा पत्रकार। दोनों को ही सरकारी पीआर का क, ख, ग नहीं पता। बाकी गूगल बाबा के दौर में हर कोई स्वनाम धन्य लेखक है। (23052016)
कांग्रेस की वेबसाइट पर 2002 के गुजरात दंगों का ज़िक्र तो है पर 1984 के सिख विरोधी दंगों और आपातकाल की कोई स्लाइड नहीं है। मजेदार है कि गुजरात में भी वर्ष 2002 से पहले हुए सांप्रदायिक दंगों का कोई उल्लेख नहीं है।
मानो तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का आपातकाल और सिख विरोधी दंगों से कोई संबंध ही नहीं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इन्दिरा गांधी के विरुद्ध निर्णय देने और आपातकाल का कारण बनने वाले न्यायधीश, उच्चतम न्यायालय में न्यायधीश नहीं बन पाएँ तो पंजाब में अकालियों को मात देने के चक्कर में पैदा हुए भस्मासुर भिंडरवाले ने अपने दावानल में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री को भी लपेट दिया।
स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास का एकतरफा विमर्श ही सब समस्याओं की जड़ है। आखिर गलतियों का सामना और स्वीकार से से ही भविष्य की संभावना का रास्ता खुलता है पर इतनी से बात कोई समझे तो न! (23052016)
सही कहें, ये बुद्धि से जीविका कमाने वाले एक और वीर पुरुष आशीष नंदी भी गुजरात के बारे में लिखकर अब अदालत में माफीनामा लिए पहुँच गए हैं।
इनसे अच्छे तो देह बेचने वाली हैं, कम से कम ईमान तो नहीं बेचती। इन बुद्धि की बलिहारी पुरुषों का क्या है, जब कमान में होते हैं तो नीचे वालों को पेट भर खाना क्या कपड़े भी पहनने से मोहताज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
जब खुद बेताज हो जाते हैं और अपनी रोटी कमानी पड़ती है तब सर्वहारा की बात करने लग जाते हैं।
हिन्दी पत्रकारिता में तो ऐसे कई राम रत्न हैं जो कंठी-माला, लाला की जपते हैं पर नाम मार्क्स का लेते हैं। (22052016)
केरल में बुजुर्ग कामरेड वी एस अच्युतानंदन को "वृद्ध निकाला"।
मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा को "आयु" के लाल सत्ता के मापदंड की नाम पर अस्वीकृत कर दिया गया।
अभी तक तो यही पता था कि सर्प अपने बच्चे की अंडों को भी नहीं छोड़ता पर
लाल क्रांति भी जीत के बाद सबसे पहले अपने ही वरिष्ठतम अनुयायी को शिकार बनाती है, आज देख भी लिया।
केंद्र में भाजपा सरकार के गठन में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मुरली मनोहर जोशी को मंत्रिमंडल में न लिए जाने के मामले में गला फाड़-फाड़ कर "रुदाली" बने लाल कलम वाले क्रांतिवीर अब मौन जड़वत हो जाएंगे मानो अहिल्या हो।
अचानक खुशवंत सिंह के उपन्यास "दिल्ली" का एक कथन याद हो आया कि दोगलों से तो हिजड़ा भला! गौरतलब है कि इस उपन्यास में सरदारजी ने एक हिजड़े के माध्यम से दिल्ली-दिल्लीवालों के दोहरे चरित्र को उजागर किया है। (22052016)
कैसा प्रगतिशील समाज?
इस मामले (केरल में राजनीतिक विरोधियों की हत्या) को लेकर बात-बात में खुला पत्र लिखने वाले हिंदी के वीर साहित्यिक चारणों की चुप्पी सही में हैरतअंगेज़ है इस पर न कोई बोला और न ही किसी को कोई खतरा लगा, क्यों न हो आखिर मौन भी तो एक तरह की स्वीकृति ही है ।
लाख टके का सवाल है कि आखिर हम विचारों की अभिव्यक्ति, कला-साहित्य के प्रति सम्मान, और स्वतंत्रता किसी भी तरह की सम्भावना से रहित कैसा प्रगतिशील समाज गढ़ रहे है ?(22052016)
वैसे अचरज कि बात यह है कि जो जितना बड़ा मार्क्सवादी बुद्धिजीवी होने का दावा करता है, वह उतने ही बड़े पूंजीवादी घराने का कलम का सिपाही है। आखिर देह से बुद्धि तक जीविका का उपार्जन हैं तो पराश्रित ही।(22052016)
सही है, केरल में "मार्क्स" के वाद को नहीं मानने वालों की हत्या हो रही है तो बोर्ड परीक्षा में "मार्क" नहीं लाने वाले वाले आत्महत्या कर रहे हैं। कुल जमा मतलब यही है कि विचार और परीक्षा के नाम पर नाहक ही बेगुनाह मनुष्य बलिवेदी पर चढ़ाएँ जा रहे हैं।
मजेदार यह है कि सनसनीखेज टीआरपी की अंधी दौड़ वाले टीवी चैनलों ये दोनों ही घटनाएँ नहीं दिखती। (22052016)
साजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है....
मजेदार है कि खुद सिफ़ारिश से गद्दी हथियाने वाले परिवार के नाम पर गद्दी पर काबिज होने की खिलाफत कर रहे हैं।
इसे कहते हैं खुद गुड़ खाएं और दूसरों को गुलगुलों से परहेज बताएं।
(21052016)
यह कहाँ आ गए हम?
पहले सड़क पर एक कार चालक फिर ऑफिस में पत्रकार और अब खुद पुलिस वाला!
मौत मानो छाँट-छाँटकर चुन रही हो।
अब कहने वाले कहेंगे कि बिहार में हो रहा है सो सब ज्ञान बाँट रहे हैं क्या दिल्ली-हरियाणा या राजस्थान कोई अछूते हैं।
सोलह आने सही बात।
पर दिल्ली के मीडिया में बिहार के दबदबे को देखकर ऐसा क्यों लगता है कि अपने प्रदेश को लेकर बौद्धिक टीवी बाबा तक दब जाते हैं!
अब यह दबाब भीतर का है या बाहर का यह तो वही जाने।
अपना कंट्री छोड़कर बिदेस में रोज टीवी पर खबर ऊँटाने वाले और खबर गिराने वाले अपने देस के धरातल से रसातल की ओर जाते देख बस भीष्म की मजबूरी से भला क्यों निहार रहे हैं?
इस पर न कोई बड़ी बहस है और न कोई प्राइम टाइम!
मानो मागधों ने मान लिया है
"कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?"
(रामदास-रघुवीर सहाय) (14052016)
हिंदुओं के मृतक शरीर को दाह संस्कार के बाद 'फूलों' (अस्थियों) को जल में प्रवाहित/विसर्जित किया जाता है।
अन्य किसी मतालम्बियों में भी ऐसा होता हो या होने की संभावना होती हो तो ज्ञानवर्धन करें।
मैं तो बड़े ही भ्रम में हूँ!
सही में, भावना में व्यक्ति क्या से क्या कह जाता है?
जैसे माना जाता है कि यीशु ने सलीब पर चढ़ाते समय कहा था, "ईश्वर इन्हें क्षमा करना, यह नहीं जानते कि क्या कर रहे है।" (09052016)
"बिना खड़ग-बिना ढाल" के "आज़ादी" के गीत में कितने "क्रांतिकारी" फांसी के फंदे को चूमकर "भारत माता" के जैकारे के साथ झूल गए, इसका पता ही नहीं चलता!
अब इतिहास में देशभक्तों इस धारा के साथ सरस्वती नदी सरीखा व्यवहार यह अनजाने हुआ या जानबूझकर पता नहीं?
वैसे रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता 'समर शेष है' में लिखा है,
समर शेष है,
नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं,
समय लिखेगा उनका भी अपराध। (09052016)
कविता कोई खबर नहीं है कि टीवी पर मुंह उठाकर पढ़ दिया।
कविता को बाँचने से अधिक सली खुशी तो उस भाषा को जानने की होती है। (08052016)
बौद्धिक टीवी के बाबा दिल्ली में तो साइड लेने पर "असहिष्णुता" का राग आलाप रहे थे अब बिहार की गर्मी में सड़क पर साइड न देने पर आदमी को आम की तरह "टपकाने" पर गम के मारे गला रुद्ध गया है।
सही में गर्मी भी कमाल है!
एक इंसान से शैतान बनकर दूसरे आदमी को मार देता है मानो सड़क पर कोई आखेट चल रहा हो।
वही दूसरा सब कुछ कहने के नाम पर कुछ भी कहने से बचता है मानो टीवी पर खबर नहीं खेला (नाटक) चल रहा हो।
बिहार से याद आया कि उसी प्रदेश के रहने वाले और हिन्दी के बड़े कवि नागार्जुन ने इंग्लैंड की रानी के भारत आगमन पर लिखी कविता 'आओ रानी हम ढोएंगे पालकी हो' नामक एक कविता लिखी थी, जिसकी पंक्तियाँ थी,
"आओ रानी हम ढोएँगे तुम्हारी पालकी,
यही राय बनी है वीर जवाहरलाल की।"
वे आजादी के बाद एक ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के ज़माने से अपने समय तक भी अँग्रेजी साम्राज्यवाद की खुली आलोचना की।
यही कारण है कि नागार्जुन को हिन्दी की बजाए मैथिली पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था। वह बात अलग है कि नेहरू की काँग्रेस के राज में तब "असहिष्णुता" के राग का सिक्का मीडिया के बाज़ार में चला नहीं था। (08052016)
सुशासन की सड़क पर बहा खून!
मगध में "रोडरेज़" जातिवादी वर्चस्व का पैमाना है और उसमें होने वाली निर्दोष नागरिक की 'हत्या' सुशासन की प्रगति का बैरोमीटर!
विडम्बना है कि सड़क के विकास में आदमी अविकसित ही रह गया।
इस पर रायसीना का प्रगतिशील मीडिया क्लब और आभासी दुनिया में दलित-वंचित समाज का ठेकेदार गैंग बुर्का पहने रहेगा क्योंकि बोलने से 'तलाक' मिल जाएंगा।
केरल से लेकर बिहार तक यही अंधी चुप्पी पसरी हुई है।
न केरल की दलित लड़की की तार-तार हुई अस्मिता दिखेगी और न उसकी हत्या का लाल लहू!
रायसीना का प्रगतिशील मीडिया क्लब में शामिल बिहारी भी बिहार के बारे में बुद्ध का बीच का मार्ग ही अपनाए रहता है।
राजस्थान की भंवरी देवी से दिल्ली की निर्भया पर सामाजिक न्याय की तूती बजने वाले नीरा राडिया के टेप में उजागर टीवी की महिला पत्रकार से लेकर कन्हैया की चरण-वंदना पर मुखर बोल लड़खड़ा जाते हैं।
लगता है कि रघुवीर सहाय ने आज के मगध की सड़क की सच को बहुत पहले जान लिया था। शायद इसीलिए उन्होने अपनी कविता "रामदास" में लिखा था,
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था, उसकी हत्या होगी
धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह, उस दिन उसकी हत्या होगी
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख कर के आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको, जिसकी तय था हत्या होगी
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?
आज के बिहार में "सड़क और एक निर्दोष नागरिक" की स्थिति पर इस से सटीक टिप्पणी नहीं हो सकती। (08052016)
प्रगतिशील बिहारी पहेली या प्रश्न!
बिहार का ब्राह्मण और दलित के घर विवाह?
सही में, ऐसा मनमोहक स्वर्ण-मृग सरीखा सवाल (या जाल) कोई कुलीन ही कर सकता है। (05052016)
एक तस्वीर कितना कुछ कह देती है, अबोल रहकर भी।
अब पैर पड़ने और पैरों गिरने का फर्क समझ आया!
अनायास ही हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि की कविता याद आ गयी,
"छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन।" लाल सलाम वालों की "लाल किताब" में पैर छूना कहाँ लिखा है, किसी पढ़ाकू को पता हो तो ज्ञानवर्धन करें! (01052016)
सायनोरा तो सुना था, यह सिगनोरा-सिगनोरा क्या है?
एक जापानी तो दूसरा इतालवी शब्द।
एक सिनेमाई विमर्श था और अब दूसरा नए भारतीय राजनीतिक विमर्श का केंद्र! (28042016)
घर पर अपना नाम-नंबर, शादी के निमंत्रण पत्र-लिफाफे से लेकर हस्ताक्षर तक अँग्रेजी में डूबे 'हिन्दी समाज' का हिस्सा ही है, ग़ालिब और उनकी हवेली! सो, अचरज कैसा? (24042016)
"पनवाड़ी हो न"!
पत्रकारिता में सुपारी लेकर दूसरे को मारने का ठेका लेने वालों की निष्ठा हमेशा से संदिग्ध रही है, इसलिए वे संपादक बनकर नाचें या बिना संपादकी के उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सानू की?
लेकिन बौद्धिकता का दावा करने वालों से इतनी उम्मीद तो बनती है कि लिखा हुआ तो ठीक से पढ़ें!
उनसे इतना भी नहीं हो पाता.
सही में सुपारी लेने से कोई पनवाड़ी नहीं जाता!
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ने ऐसे ही एक बड़का पत्रकार के निर्लज्ज सवाल पर कहा था, "पनवाड़ी हो न"! (24042016)
प्रभु तुम चन्दन हम पानी...
फ़ेसबुक पर कुछ बुद्धिजीवी अपने लिए नहीं आलोचकों के लिए लिखते हैं, जैसे देह से जीविका अर्जित करने वाली समाज के हित में अपना बलिदान करती है। कितने महान हैं ऐसे फ़ेस-बुखिया बुद्धिजीवी!
उनको कोटि- कोटि नमन। (24042016)
आज के समय में वैचारिक प्रतिबध्दता की वजह से किसी दूसरे के चयन पर सवाल खड़े करने वालों की अपनी ईमानदारी संदिग्ध है ! व्यक्ति से लेकर मीडिया तक इस हमाम में सब नंगे हैं। (15042016)
अपना देस छोड़कर परदेश में घरौंदा बनाने में 'बिहारी' सबसे आगे हैं! पंजाब से लेकर केरल इसके साक्षात उदाहरण है।
देस तो दर्द में ही छूटता है, खुशी से भला कौन अपना बसा-बसाया घर-द्वार छोड़ता है।
राजस्थान की भक्त कवि मीरा बाई का प्रसिद्ध भजन है, "मेरा दर्द न जाना कोय"। (13042016)
ऐसे दोहरी जिंदगी जीने वाले असली की पात्र मीडिया में भी कम नहीं।
छोटे पर्दे के काले सच की परछाई से एनडीटीवी भी अछूता नहीं।
बस जो उजागर हो जाए वही टीवी पर चर्चा का विषय बन जाता है, नहीं तो वेज बोर्ड की खबर तो "हम लोग" से लेकर "सुर्खियों में" कहीं भी जगह नहीं पाती है।
आज के मीडिया के महाभारत में एक नहीं, अनेक शिखंडी हैं। (01042016)
नाखुदा वालों को भी खुदा याद आया!
प्रगतिशील बुद्धिजीवी सत्ता तंत्र से खुद को जुदा बता रहा है।
उसी सत्ता तंत्र के सांसद के जिसके हाथों बुर्का पहने निर्लज्ज प्रगतिशील बुद्धिजीवी ने गोरखपुर में पुरस्कार लिया था।
अहंकारी सत्ता की अंकशायनी बना था साहित्य!
इतना कड़वा सच तो मूर्ति क्या, धरती के रसातल में भी समा जाएँ तो गनीमत। हर पाप का प्रायश्चित है, अगर वह सच्चे मन से हैं।
"छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन"। (01042016)
आधुनिक जीवन में परिवार और बच्चों के बीच की दूरी और उससे उपजा अकेलापन निराशा को जन्म देता है।
यह निराशा ही बच्चों को आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम की ओर धकेलती है।
आज के स्कूल प्रणाली में नंबरों की चूहा दौड़ में प्रत्यूषा हों या नौवीं में गणित के पर्चे में फ़ेल हुई बच्ची, दोनों की जिंदगी का त्रासद अंत का निचोड़ यही है।
मीडिया की नज़र नुक्ते से ही हटी है, सो दुर्घटना घटी है। (01042016)
पश्चिम बंगाल में लाल दौर में शुरू हुआ फ्लाईओवर बमुश्किल बना ही था कि तृणमूल के बोझ तले आज अधूरा ही गिर गया!
लाल क्रांति का उत्तर-काल सही में कलकत्ता पर भारी है।
असमय काल-कालवित सभी आत्माओं को श्र्द्धांजलि!
वैसे संस्कृत का एक पुराना श्लोक की स्मृति हो आई, "राजा कालस्य कारणम्"!
पूरा श्लोक है,
कालो वा कारणं राज्ञो, राजा वा काल कारणम् ।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम् ।
(काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का कारण है, इसमें संशय नहीं करना चाहिए, वस्तुतः राजा ही काल का कारण है, क्योंकि राजा की उत्तम प्रशासन से ही प्रजा और राज्य सुखी हो सकते हैं और राजा के कुशासन से सब ओर दुख ही दुख फैल जाता है।) (31032016)
शून्य में समाया विराट!
नो बोल का कमाल, वेस्ट इंडीज को कर दिया न्याल!
(राजस्थानी में न्याल शब्द का अर्थ भरा-पूरा होता है) (31032016)
क्रिकेट में भारत की हार की कामना रखने वाले को "आशीष नंदी" कहते हैं!
जीत की कामना रखने वाला आम भारतीय का पता करना हो तो अभी के सोशल मीडिया पर उनका स्टेटस देख ले।
फिर यह न कहना की यह भी राष्ट्रवादियों का प्रपंच है।
वैसे 'खेल भावना' का रुदाली गायन और वेस्ट इंडीज के इतिहास की महानता का बखान भी होगा सो निराश न हो।
वैसे ये वही हैं, जो छत्तीसगढ़ में माओवादी आतंक के शिकार सुरक्षाबलों के मातम में गूंगे हो जाते हैं। (31032016)
आनंदित करने वाली आस्था अंधविश्वास नहीं होती!
पर मीडिया अपनी टीआरपी की अंधता में आस्था को अंधविश्वास बनाकर बेचता है।
अंधा खुद राह दिखाने का दावा करता है।
हाथी और अंधों की कहानी याद है, न! (28032016)
ध्यान से देखें, पाकिस्तान के गम में 'रुदाली' गान में शामिल लोग और मीडिया, क्या मुंबई धमाकों से लेकर संसद और पठानकोट हमले में पाकिस्तान समर्थित आतंक के शिकार तक बेकसूर भारतीयों के लहू बहने पर इतना ही गमहीन और मुखर था!
आखिर समय रहते इस 'शल्य ग्रंथि' का ईलाज जरूरी है, नहीं तो महाभारत में स्वजन के विरुद्ध हथियार उठाने की हिन्दू परंपरा तो जग-जाहिर है।(28032016)
दबाब में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला खिलाड़ी ही महान होता है।
पूरा मैच ही खत्म करते हैं, कोहली।
आज एक रोल मॉडल है, विराट कोहली।
ताकत से ज्यादा टाइमिंग का खेल है, (विराट) कोहली का।
दस मैच में वन मैन आर्मी की तरह खेले हैं, कोहली।
-वीवीएस लक्ष्मण, ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ विराट कोहली की बेहतरीन बल्लेबाजी पर (28032016)
वाम के नाम पर अपनी वामांगी को सत्ता पुरुष की अंकशायनी बनाने वाला अब विचार (या अपने व्याभिचार) की दुहाई दे रहा है।
सच में वाम के डीएनए में ही दोगलापन है।
हिन्दी साहित्य से लेकर हिन्दी पत्रकारिता के झंडाबदारों के सार्वजनिक आचरण से तो यही पता चलता है।
इन कुल-कलंकों के नाम तो वामी ही बात देंगे! (28032016)
कब आओगे?
'जाति' पूछने वाले मेरे टीवी के क़द्रदान, 'महजब' कब पूछोगे?
'हम लोग' कुछ 'बड़ी बहस' भी करेंगे?
(दिल्ली की विकासपुरी डॉक्टर नारंग की निर्दोष हत्या के बाद मन में सहज सवाल कौंधा!) (27032016)
90 के दशक में मदर टेरेसा गोल मार्केट (नयी दिल्ली) में हिन्दू दलितों को ईसाइयत में धर्मांतरित होने पर 'आरक्षण' से वंचित रहने के विरोध में धरने पर बैठी थी। यहाँ तक की कैथॉलिक बिशप चर्च ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) ने टेरेसा के 'समर्थन' में अपने सभी संचालित स्कूलों को भी बंद कर दिया था।
संविधान में आरक्षण हिन्दू जाति व्यवस्था के कारण अस्पृश्यता के शिकार समाज के बंधुओं को दिया गया था न कि ईसाई धर्मांतरित व्यक्तियों के लिए।
वैसे भी वैश्विक चर्च "जाति" को स्वीकृति देता ही कहाँ है?
अगर हिन्दू से ईसाई बनने के बाद भी "जाति" ही कायम है तो फिर जिम्मेदार कौन?
अब इस सवाल का जवाब तो "चर्च" ही दे सकता है!
देश में ईसाई पंथ की फादर-बिशप वाली पंथिक व्यवस्था में "दलितों" के प्रतिनिधित्व का "आंकड़ा" क्या है, यह जानना मीडिया के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय-समरसता के लिए जरूरी भी है। (17032016)
1965 में 'वक्त' फिल्म में अभिनेता राजकुमार का मशहूर संवाद था, “चिनॉय सेठ, जिनके मकान शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते !"
इस संवाद की याद एक बड़का पत्रकार के ट्विट को देखकर आई.
दिल्ली की पॉश इलाके पंचशील में कोठी खरीद कर रहने वाले और डेसू के ज़माने में किराये के मकान में बिजली का बकाया किराया माफ़ करवाने वाले बड़का पत्रकार करोड़ों रुपए "कहाँ से आने की बात" का सवाल उठा रहे हैं!
सच में नंगा ही चंगा है.
अब आप मत पूछना कि दिल्ली के पंचशील में मकान कितने में आता है!
पर्दे के पीछे छिपकर नेताओं के फेसबुक-ट्विटर चलाने वाले पत्रकार भविष्य भी बांचने लगे हैं. अँधेरे में छिपकर रहने वाले आने वाले समय का भी अँधेरा ही बता रहे हैं. सही है, आखिर मन की भीरुता व्यवहार में तो झलकेगी ही. समय भी कितना प्रबल है सबके नकाब उघाड़ देता है चाहे पढ़ा लिखा हो या अनपढ़!
कितने डग!
चाय वाले प्रधानमंत्री से झुग्गी वाले राष्ट्रपति तक|
हिंदुस्तान टाइम्स के सामने हड़ताल पर बैठे हिंदी पत्रकारों की खबर टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस में कभी नहीं छपी तो नोएडा के टीवी चैनलों से पत्रकारों को बोरी भर कर निकालने की बात किसी अंग्रेजी चैनल ने नहीं दिखाई.
सबसे तेज़ चैनल से लेकर मशाल जलाने वाले अंग्रेजी अखबार, इस हम्माम में सब नंगे हैं.
अब सब सहूलियत पसंद साथ है, बस आपको यह तय करना है, किसको 'यूज़' करेंगे, किसके लिए 'यूज़' होंगे.
लाला-मालिक के आगे सारी कलम-माइक "मौनी" हैं. (17072017)
बॉलीवुड, बोल्ड, बिंदास!
क्या हम कभी बॉडी के मोह से निकलेंगे!
बॉडी की रक्षा-चिंता ही कहीं इस आरोपित भाषा-विमर्श की ही देन तो नहीं! (23032017)
साधू की जाति-धर्म खोज निकालने वाले भारत में वास्को-डी-गामा और कोलंबस के वंशज बस आंतकी का धर्म ही नहीं देख पाएं! (22032017)
जीवन में अपनी पत्नी को तलाक देकर मझधार में छोड़ने वाले को अचानक "स्त्री अस्मिता" और "गरिमा" की याद आने लगी है. (19032017)
उत्तरप्रदेश के राजतिलक के परिणामस्वरूप जातिवादी चाह रखने वाले, अब अचानक अनुपम खैर की खैरियत के लिए फिक्रमंद हो गए हैं!
अचानक साइकिल से लेकर हाथी सब अकेले !
हंसिया का तो हत्था ही उखड़ गया, कन्हैया की मुरली भी काम नहीं आई!
सही है, मुश्किल वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है. फिर यह तो पढ़े-लिखे कॉलेज के टीचरों का क्या कसूर! (19032017)
सांप्रदायिक-जातिवादी दलों को वोट देने वाले, इनसे इतर सरकार बनने से सदमे में हैं, मानो बीज तो बबूल का रोपा था और आम कहाँ से आ गया!
(18032017)
जो से-पत्रकार अपने संस्थान में संपादक बनने के नाम पर भी चुप रहते हैं, वे सरकार और मुख्यमंत्री के बनने पर कैकयी जैसे रूठकर कोप भवन में जाने और मुखर होने का का भ्रम फैलाने का प्रपंच कर रहे हैं....(18032017)
सुर की तरह शब्दों को भी साध कर लिखा जा सकता है...(18032017)
बड़का पत्रकार की अपने परिवार-मालिक की "कारगुजारी" पर चुप्पी उसके चाहने वालों को नागवार लगती है.
घर से लेकर नौकरी की "गुज़र" की चुप्पी हम सब पर भारी है.
बाकि सबकी मजबूरियां होती हैं, सो सहूलियत पसंद साथ की यारी है.
घर-नौकरी के बिना दर-दर का भिखारी बनने से अच्छा तो "चुप्पा" होना ही है.
आखिर बड़का पत्रकार भी तो हाड-मांस का पुतला है, कोई दूसरी दुनिया का प्राणी नहीं! (07032017)
एक गैर-रियासत (पाकिस्तान) और एक महजबी-सियासत (विभाजन) को जोड़ने वाली उर्दू की मंथरा भूमिका की स्मृति राष्ट्र के मानस पटल से मिटाए नहीं मिटती हैं! (26022017)
रतौंदी-स्मृति लोप-सहूलियत पसंद पत्रकारिता!
दिल्ली में सभ्यता से लेकर छात्र आन्दोलन की परिभाषा का विमर्श करने और वाले पत्रकार, जो बिहार से लेकर मध्य प्रदेश से अपनी रोजी-रोटी के लिए राजधानी आये हैं, अपने मूल प्रदेश को बिसराए हुए हैं.
यह रतौंदी है या स्मृति लोप अथवा सहूलियत पसंद पत्रकारिता जो अपने घर, राज्य, लोगों को छोड़कर सबके लिए प्रश्नाकुल हैं. (24022017)
संसद में भाषा की गरिमा के सवाल पर चिंतित प्रगतिशील पत्रकार-कॉलेज शिक्षक ही उनकी भाषा में अधिक वाचाल होते दिख रहे हैं. आखिर "पर-उपदेश कुशल बहुतरे" का सीधा उदाहरण तो यही दिखा रहा है. (15022017)
एकाकी होने का भाव कायरता को जन्म देता है जो
अकर्मण्य बनाता है. (09022017)
खोह में जाने से अच्छा है कि खोल से बाहर आकर मोर्चा बांधे... (09022017)
"द हिंदुस्तान टाइम्स" के बाद जौहर की ज्वाला में एबीपी समूह के "द टेलीग्राफ" "आनंद बाज़ार पत्रिका" की कलम भी सती!
शायद इसीलिए साथी-कामरेड अमीर खुसरो की तरह मौन है!
पत्रकारिता की आने वाली पीढ़ी तो यही पढ़ेगी कि किसी ने कुछ नहीं लिखा था.
सो "पद्मिनी" की तरह कलमकारों की रोजी-रोटी "हत्या" मनगढ़ंत-मिथ्या प्रचार ही माना जाएंगा, जायसी के "पदमावत" की तरह!
आखिर दूसरों के लिए मशाल जलाने वालों के खुद के घर के चूल्हे जलना बंद हो गए और सब ओर घनीभूत पीड़ा वाली ख़ामोशी. (05022017)
कलकत्ता के "द टेलीग्राफ" के थोक के भाव प्रगतिशील पत्रकारों को रोजी-रोटी से मरहूम करने और नौकरी से निकल बाहर करने के फैसले पर हर मुद्दे पर ट्विटर का इस्तेमाल करने वाले उसी संस्थान के एक बड़का पत्रकार अपने घर में लगी आग पर चुप्पी साधे हुए हैं.
यहाँ तक की चीन-पाक का नापाक सुर गाने वाले जेएनयू के कुछ "देश विरोधी" मास्टर भी मौन हैं, सही में बहुत असहिष्णुता हैं. (04022017)
अख़बार को नोट आना बंद हो गए सो उन्होंने पत्रकारों के लिए रास्ता बंद कर दिया. (03022017)
क्रिकेट का कमाल
गोलंदाज का "छक्का"! (02022017)
ढोल (ओपिनियन पोल) की ही पोल खुलती है.
(11012017)
ये कैसा विमर्श है?
आत्म-हत्या करने वाले शहीद,
हत्या करने वाले क्रांतिकारी! (18012017)
वोट वाली जनता याद नहीं रखती पर लोक-स्मृति कुछ विस्मृत नहीं करती. (27122016)
चुनाव के दिन सैर-सपाटे को निकल जाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग का ही रवैया लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी सरकार को लेकर सबसे अधिक अलोकतान्त्रिक दिखाई देता है।
कोई मर्सिया पढ़ रहा है, कोई चित्रगुप्त बनकर शेष दिन बता रहा है तो कोई उसके वजूद पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा है!
इससे तो लाल(जेएनयू )किले के क्षेत्र की नगर निगम की सीट तक लाल पार्टी को जिताने में असफल बुद्धिजीवी वर्ग की बेचारगी ही झलकती है।
लोकतन्त्र में जनता-जनार्दन के अभिमत का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना ही समय की मांग है नहीं तो कार्ड धारी बनकर पोलित ब्यूरो की पोलियो ग्रस्त चाल से पस्त ही होंगे। (11122016)
क्या विकासपरक सरकार के बिना विकासशील पत्रकारिता संभव है? (04122016)
पहले किराए की मकान में रहने वाले एक बड़का टीवी पत्रकार ने बिजली का अदा न किया बिल कम करवाए।
मकान मालिक भी सरकार के आर्थिक मामलों के सलाहकार का।
सो बिल का न देना तो बनता ही है न।
फिर दक्षिणी दिल्ली के पॉश इलाके में घर खरीदा।
कितने की पक्के में रजिस्ट्री हुई और कितने कच्चे?
अब यह सवाल कैसे?
आखिर वह पूछे तो "डाइरैक्ट दिल से" और दूसरा पूछे तो पूंछ हिलाएं।
दुनिया बहुत छोटी है बाबू फिर आमने सामने ला खड़ा कर देती है।
सो चुप रहना सुना है अँग्रेजी में "सोना" माना जाता है सो हम भी सोते हैं। (03122016)
आप जहाँ हैं, वही प्रामाणिकता से अपने को काम से सिद्ध करें ताकि वहां प्रामाणिकता की कसौटी आप और आपका काम हो। सो, ऐसे में पदवी और सम्मान दोनों आपके सहचर होंगे न कि आप उसके तलबगार। (03122016)
अगर हम एक वाक्य में ही शुद्ध भाषा /वर्तनी नहीं लिख सकते तो बेहतर है कि हम न लिखे।(03122016)
नए साल में जनवरी के बाद कितने अखबार-टीवी मालिकों के 'इतर' हवा-ला कारोबार पर बिजली गिरेगी और कितनी 'रिपोर्ट' होगी?
देश के सबसे बड़े अँग्रेजी अखबार के बड़े वाले तो ईडी के केस में ही निकल गए थे तो यूपी वाले गन्ना पिराई में पेरे गए थे!
मुझे आईआईएमसी से निकलने के बाद मिली मीडिया की पहली नौकरी में मजदूरी 'पिंक स्लिप' में मिली थी जिसमें 'चावल' कम दर पर खरीदने की सुविधा थी।
कहीं सच में ऐसा हुआ तो अभी दूसरों के लिए चौबीस घंटे मशाल जलाने वालों को अपनी दिया-बाती के लिए तेल खोजना पड़ सकता है। (13112016)
पाँच सौ के नोट के छुट्टे न होने की वजह से गरीब दिन भर भूखा रहा!
अब दिन में पाँच सौ कमाने वाला कौन गरीब भयो! (11112016)
बस लिखने के लिए लिखते हैं, यह भाषा-वर्तनी-अर्थ क्या निरर्थक रट है! सो, जब खुद शर्म न आएं या फिर कोई न शरमाएं तो फिर भला बच्चों को काहे भरमाए। (08112016)
(07112016)बागों में बहार "स्थगित" हो गयी है!
नीरा रादिया वर्ल्ड दिस वीक मामले में अथॉरिटी कौन?
सवाल पूछा नहीं या पूछा नहीं गया?
ताकत चुक गयी?
जुबान चुक गयी?
नज़र चूक गयी?
नीर है,
बरखा है,
रतौंदी है!
तो झाल बजाए! (05112016)
बिलकुल मार्के के बात।
यह कुछ ऐसे ही है जैसे कोई पूंजीवादी चैनल मालिक किसी प्रगतिशील वरिष्ठ पत्रकार को मोटा पैसे देकर रख लेते हैं और वह अपने नीचे बाकी पत्रकारों को न्यूनतम मजदूरी पर ठेलकर गुलामी करवाता है। यह सिलसिला चैनल दर चैनल चलता रहता है, वरिष्ठ पत्रकार गति से हर बदलते चैनल से प्रगति करता हुआ ऊपर चढ़ता जाता है और मजदूर पत्रकार दिन प्रतिदिन गरीबी रेखा के नीचे जाते हैं। दो बड़ों की समझदारी से खेले ताकत के खेल में असली पत्रकार गरीब-गुरबा महामूर्ख मोहरा बनकर अपनी जिंदगी गुज़र कर देता है। (16102016)
टीवी पत्रकारिता में अपने से नीचे काम करने वाले कनिष्ठ पत्रकारों का खून चूसकर उन्हें गुलामी का नश्तर एहसास चुभोने वाले करवाने वाले अब अचानक "मीडिया के झुकने और रेंगने की मुद्रा" की बात बता रहे हैं।
क्यों भाई, जब खुद नहुष बनकर सबको जोते हुए थे तब क्या जीवित स्वर्ग जाने की तैयारी थी?
अब जीवित ऊपर जाने का उपक्रम तो विफल होना ही था, सो अब तो सुधार कर लो।
कर्म-विचार और व्यवहार में। (10102016)
अल्लाह के बंदे!
अपनों पर करम औरों पर सितम।
कुछ कार्टूनिस्ट, अपने महजब को छोड़कर बाकी सभी पर "तिरछी नज़र" रखते हैं!
सो सारा वैज्ञानिक सोच और प्रगतिशीलता काले पर्दे में छिप जाती है!
अगर वैसी ही आलोचक नज़र अपने महजब पर डाले तो शायद "भस्म" हो जाएँ।
खैर, अपनी जान की सलामती कौन नहीं चाहता?
बिना मूठ की तलवार से भला कोई जंगबाज़ बना है! (10102016)
पी वी नरसिंह राव के बाद की काँग्रेस में ब्राह्मण नेताओं की अनदेखी और ईसाई नेताओं को तरजीह का नतीजा ऐसे प्रतीकों खासकर हिन्दू प्रतीकों के महत्व को समझने और जन संवाद के लिए उन्हें प्रयोग में न ला पाने की असमर्थता के रूप में देखने को मिला है। (09102016)
कुछ हिंदुस्तानियों को भारत में आकर आतंक फैलाने वाले आतंकियों और सीमा पार से उन्हें भेजने वाली पाकिस्तानी फौज में फर्क लगता है?
यानि एक मरा को कोई नहीं पर दूसरे का मरना ठीक नहीं।
वैसे मरना तो मारीच और रावण दोनों को पड़ा था!
अब ऐसा सोचने वाले मासूम या शातिर हैं यह तो उनका खुदा ही जाने! (09102016)
भांड पत्रकारिता या पत्रकारिता के भांड!
(रविश के ताजा लेख के शीर्षक को पढ़कर अनायास मन में कौंधा!) (07102016)
"जैसे तो तैसा". चीन के भारत का "पानी रोकने" का जवाब चीन में बना सामान न खरीदकर उसका "दानापानी" बंद करने के रूप में देना ही उपयुक्त है. (03102016)
पंत प्रधान की जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि!
कोझिकोड से कश्मीर तक (24092016)
गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता से पीड़ित पाकिस्तान की अवाम के बिरादर यहाँ भी हैं, सारे गए नहीं!
अब यहाँ वालों के लिए तो पंत प्रधान का भाषण था नहीं सो ऐसा होने में अचरज कैसा?
(महाराष्ट्र के थाणे में उत्तर प्रदेश के विजय यादव ने सुफिया मंसूरी से प्रेम विवाह किया था. विवाह के बाद सुफिया नेअपना नाम प्रिया रख लिया था. प्रिय गर्भवती थी. दोनों दंपत्ति की चाकू से गोद कर ह्त्या कर दी गए. उन्हें इतने निर्मम तरीके से गोदा गया कि प्रिया के पेट में पल रहे बच्चे के पांव बाहर निकल गए.) (24092016)
हिन्दी साहित्य की उम्र दराज रुदालियाँ जब रोती हैं तो मजेदार है कि आंसू एक नहीं गिरता है। (14092016)
हम हिन्दी से बने हैं सो अपनी भाषा के उपकार को स्वीकार करके कुछ करने के लिए आभार कैसा? (09092016)
आंबेडकर की संविधान की सर्वोच्चता के पैरोकार बुद्धिजीवी, मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के तीन तलाक वाले कुतर्क पर मुंह में दही क्यों जमाए बैठे हैं! आखिर दही-हांडी का त्यौहार तो बीत गया है। (04092016)
समाज-क्रांति वीर पत्रकार जब पत्रिका-चैनलों के लाला-मालिक का नाम जपते हुए अपने नौकरी में चाकरी करते हुए कलम और जुबान दोनों से बंजर होते हुए गूंगी गुडिया बन जाते हैं.
जब उन्हें मीडिया संस्थान से विदा कर दिया जाता है तो फिर उन्हें वही पत्रिका-चैनल, उसके लाला-मालिक सब दोगले-मतलबी लगने लग जाते हैं.
सो, हो भी क्यों न?
मतलब की दुनिया है तो फिर मीडिया और उसके लोग अछूते कैसे होंगे भला? (03082016)
गाय को पालने के दंभ से ही शायद उसका चारा भी चटकर जाने का दुस्साहस जागता है! शायद तभी बाड़ (पालक) ही खेत (चारा) खा जाती है।
आखिर दुनिया में मोल तो हर चीज का चुकाना पड़ता है। (29072016)
(दलित युवक के मुंह में पेशाब मामले में विपक्षी नेताओं का नीतीश पर हमला)
मगध में दलितों के साथ मत्स्य न्याय!
गुर्जर प्रदेश में शोर और मगध पर मौन, दलितों के द्रोणाचार्य को नमक जो चुकाना है! आखिर तब द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य का अंगूठा लिया था अब राज के लिए मौन धर लिया है। (23072016)
नौकरी के लिए लिखकर चाकरी करने वाला नामालूम चीजों पर ज्यादा जोर से लिखता-बोलता है। मीडिया के नाम पर अजेंडा लाला का और उसके लिए मुद्दे ला-ला कर देता हैं, लिखने वाला। लाला के विज्ञापन खतरे में पड़ने पर लेट भी जाता है। खैर पेट-लेट में ज्यादा अंतर नहीं है सो कैसा गम! (19072016)
कश्मीर में देश विरोधी मौतों पर दिल्ली की काले दिल वाली ''रूदालियां" बुक्का फाड़कर रोना शुरू कर देती है जबकि मजेदार है कि आँसू एक नहीं गिरता आँख से!
वह बात दीगर है कि मीडिया का एक तबका "गंगा-जमुना" बहने का दावा करने लगता है! (18072016)
जीवन के आगे टीवी की रंगीन स्क्रीन छोटी ही रहेगी, मीडिया की रतौंदी को मन का मैल नहीं बनने देना ही असली चुनौती है। (11072016)
कुछ काबिल लोग "एक्सक्लूसिव" के नाम पर "जगत मामा" बन जाते हैं!
जबकि सबको पता होता है कि "मामा" की बहन की शादी ही नहीं हुई! (06072016)
गैर महजबी (मुस्लिम) ही तो "काफिर" है। वह बात दीगर है, काफिर की सूची हिन्दू से शुरू होती है, खत्म मनमर्जी के अनुसार होती है। पाकिस्तान में अहमदिया जमात के लोग काफिर है, अगर ईरान की सीमा नहीं लगी होती तो सारे शिया भी पाकिस्तान में काफिर होते। जैसे जिन्ना के लिए गांधी हिन्दू नेता और हिन्दू काफिर थे।(04072016)
"हम तो सिर्फ हिन्दू उत्पीड़न की ख़बरों पर राष्ट्रवादी हो लेते हैं।"
एक टीवी संपादक संगी की वाल पर पढ़ा!
अचरज तो हुआ फिर लगा कि ढाका के धमाके और काफिरों के मरने का असर है।
सो अब इस्लामी देशों में हिन्दू होने के नाम होने वाला व्यवहार "उत्पीड़न" और "खबर" लगने लगा है।
और तो और "हम" भी "राष्ट्रवादी" होने लगे हैं।
कोई शक नहीं कि बौद्धिक टीवी के "संघ विचारकों" (अगर होते हैं तो) का सही में काफी असर है। (03072016)
धमाका ढाका में, असर हिंदुस्तान में!
हिन्दू आतंकवाद का परचम लहराने वाले अब कह रहे हैं, "धर्मान्धता चाहे किसी भी मजहब, पंथ, मान्यताओं के भीतर हो, वो हर हाल में मनुष्य के विरुद्ध है."
ठीक तो है, हिन्दू तो धर्म है, महजब तो एक किताब, एक पैगंबर, एक रास्ते को ही अंतिम मानने वाले सामी लोगों के लिए हैं। आखिर अपनी जमात या समूह से ही जुड़े रहने की बजाय सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् (सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।) का जीवन दर्शन निश्चित रूप से ही अनुकरणीय है।
शुक्र है पेशावर हत्याकांड के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने वाले पाकिस्तानी टीवी चैनलों का बांग्लादेश में असर नहीं है। (03072016)
आतंक का महजब या महजब का आतंक? (02072016)
हमें समाज और मीडिया के बिना भी अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ने का अभ्यास करना होगा।
यह अभ्यास ही लंबे समय में सहायक होगा क्योंकि अगर हम अपनी आवाज़ खुद नहीं बुलंद करेंगे तो फिर समाज और मीडिया से ऐसी उम्मीद बेमानी है। (30062016)
राबड़ी के होते हुए भी बिहार में रेप!
बिहार को कितनी उम्मीदें हैं, उसे तोड़े नहीं।
बहन-बेटी की आबरू तो जाति से परे हैं।
मुख्यमंत्री न सही एक पूर्व महिला मुख्यमंत्री से इतनी आशा तो निराशा में नहीं नहीं बदलेगी, ऐसा मन कहता है।
वैसे अब मन की होती कहाँ है? (25062016)
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति से भेदभाव की खबर!
हिन्दू समाज की पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति से मुसलमान बना व्यक्ति आज भी मुस्लिम व्यवस्था में तिरस्कृत ही है।
शेख, सैयद, मुग़ल और पठान में उपरोक्त किसी भी 'मुसलमान' का निकाह नहीं होता।
सो जब समाज ही दोगला है तो फिर वही दोगलापन चहुंओर दिखेगा। (24062016)
इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हम इतिहास से कुछ नहीं सीखते! (24062016)
आज मीडिया यह याद नहीं दिलाएगा या उसे खुद को ही याद नहीं है!
आखिर इसी दिन के लिए तो स्वप्नदर्शी नेहरू के 'इंडिया' ने 'कामरेड' चीन का सयुंक्त राष्ट्र की 'स्थायी सदस्यता' के लिए अंध-समर्थन किया था। (24062016)
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे...
जो 'पाती' किसी के पास नहीं होती वह कैसे किसी 'एक' के पास होती है!
अब ऐसे में भगवान या फिर आज के कलियुग में 'पीआर' के पास सब कुछ होता है।
अब मीडिया को गरियाने से भी बात बनेगी नहीं, ब्राह्मण के नीचे काम कर लिए पर ब्राह्मणवादी मीडिया को गरियाना नहीं छोड़े। हाथी के दाँत खाने के और और खिलाने के और।
एक टीवी के ब्राह्मण बाबाजी है पर गैर-ब्राह्मण है कि प्रगतिशीलता के नाम पर दलित-ओबीसी, मुसलमानों के पैरोकार और न जाने क्या-क्या बनाने में लगे हैं। एक बाबाजी है कि भाई को अदद 'माननीय विधायक' नहीं बनवा सकें।
अब प्रदेश अध्यक्ष बनवाने के फेर में है।
अब मीडिया ब्राह्मणवादी या मनुवादी यह तो मुखौटा पहनने वाले ही जाने! (24062016)
जब कलमकार ज्योतिषी होने लगते हैं तो तोता बाबू के कार्टून की याद आ जाती है। (23062016)
कराची में अमजद साबरी की दिनदहाड़े हुई हत्या पर क़व्वाल बदर निज़ामी का कहना था कि "क्या खुदा, उसके पैग़ंबर और पवित्र इस्लामी शख़्सियतों की बंदगी एक गुनाह है?" कश्मीर से लेकर कराची तक आज के समय का सच तो इसके विपरीत ही दिखता है, जहाँ "ईश्वर" की आराधना ही जान-जोखिम का काम साबित हो रही है। (23062016)
कुछ टीवी चैनल हिन्दी को बेच रहे हैं, कुछ उसके नाम पर गुजर कर रहे हैं! (19062016)
विशाल भारद्वाज-गुलजार ने मिलकर लिखी-बनाई थी, एक फिल्म ओमकारा ।
इस फिल्म का यह संवाद देखे, "बेवकूफ और चूतिये में धागे भर का फर्क होता है।"
अब गुलजार-विशाल भारद्वाज लिखे तो भाषा की जय हो नहीं तो भय हो। (19062016)
कुछ चैनल हिन्दी को बेच रहे हैं, कुछ उससे गुजर कर रहे हैं। (18062016)
विदेशी धन के बिना देश की सेवा?
बहुत नाइंसाफी है! फिर अपनी सेवा कैसी होगी?
नहीं तो मेरी बीवी और मेरा टीवी, कमरा बंद।(16062016)
मंत्र से तंत्र तक
पशुओं का चारा चरने का तंत्र देशव्यापी हो तो कहीं कोई अनाचार ही नहीं होगा! न ही किसी को चारा-कागज़ चोरी होने का रपट करना होगा। (12062016)
खुदा का शुक्र है, अयोध्या मामले के कागज़ चारे की तरह नहीं गायब हुए नहीं तो धर्मनिरपेक्षता विधवा हो जाती ।
और मीडिया की रूदालियाँ बिना मरने वाले का नाम जाने मातम मनाने लग जाती। (09062016)
आज के प्रगतिशील पत्रकार, खास कर टीवी की दुनिया के, चाहे स्त्री हो या पुरुष, अपनी पहली शादी/निकाह/मैरिज को छुपाता क्यों हैं, दुनिया भर पर चर्चा करने वाले अपनी बीती जिंदगी पर बात क्यों नहीं करना चाहते!
यह बात समझ कर भी नहीं समझ नहीं आई?
टीवी पर दूसरों के इतर संबंध पर सार्वजनिक चर्चा करने वाले अपने पहले संबंध पर भी मौन साध जाते हैं, है न हैरानी की बात! (06062016)
सोचने की बात यह है कि कठमुल्ला से लेकर फादर-मिशनरी का निशाना ब्राह्मण ही क्यों है?
यह अनायास है या सुनियोजित प्रयास!
जबकि स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी के सम्पूर्ण वांगमय में ऐसा कुछ नहीं मिलता। (05062016)
आँख वाले अंधों की गाथा!
लो अब कर लो बात, इंद्रप्रस्थ की पत्रकारिता के भीष्म-द्रोण कह रहे हैं कि परिवार की मिल्कियत में शहजादे की तख्तनशीनी जम्हूरियत की कद्रदानी होगी!
सही में अब समझ में आया कि जन्मांध धृतराष्ट्र की राजसभा में सभी राजसद दुर्योधन को सुयोधन क्यों कहते थे।
अंधा राजा नहीं, दरबारी थे।
इतिहास अपने को दोहराता है पढ़ा था, आज देख भी लिया। (02062016)
आईएएस के बराबर वेतनमान लेने और गैर-बराबर काम करने वाले विश्वविद्यालय के शिक्षक "मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग" से संबंध रखते हैं!
यह बात कुछ समझ नहीं आई!
वेतन-कार्य की अवधि (समय) का अनुपात शायद सब कुछ कह देता है।
मेरे ही दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में हमारे हिन्दी के ही प्रोफेसर जब दो महीने तक पढ़ाने नहीं आयें तो हम सब प्रिन्सिपल के पास समस्या को लेकर गए।
वहाँ तो कुछ मिला नहीं पर बाहर आने पर प्रिन्सिपल के चपरासी ने बताया की प्रोफेसर और कोई नहीं खुद प्रिन्सिपल ही है।
सो जब आज से 15 साल पहले भी कुएं में भांग पड़ी थी, तो आज क्या हालत होगी इसकी सहज कल्पना लगाई जा सकती है।
वह बात अलग है, कुछ पढ़ाने वाले भी थे, खैर हर नियम का अपवाद जो होता है।
अगर पढे-लिखे तबके में सही में कोई "मध्यवर्ग- निम्न मध्यवर्ग" है तो वह है पत्रकार और उसमें भी हिन्दी पत्रकार।
हिन्दी मीडिया संस्थानों में नए वेतनमान तो छोड़िए, पिछले तक नहीं मिले। इसमें एक का तो मैं खुद भुक्तभोगी हूँ।
भरोसा न हो तो बहादुर शाह मार्ग से लेकर नोएडा के मीडिया दफ्तरों तक एक चक्कर लगा ले, सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
फिर आज विश्वविद्यालय शिक्षक बुद्धिजीवी है, बौद्धिक नहीं।
सो ऐसे अनर्गल मत न प्रकट हो यही बेहतर होगा। (28052016)
बात निकलेगी तो दूर तलाक जाएंगी...
नसीरुद्दीन शाह की माने तो गुजरात और बिहार के बारे में 'दिल्ली' के निवासियों को सोचना-बोलना बंद कर देना चाहिए! और दिल्ली से बाहर वालों को यहाँ की चिंता में दुख दुबला नहीं होना चाहिए!
न जाने कितने लाल किले पर झण्डा फहराने की हसरत लिए ही अल्लाह-मियां को प्यारे हो जाएंगे?
मैंने सोच रहा हूँ कि दिल्ली में बैठकर हर-बात पर नुक्ता-चीनी करने वाले वाले टीवी के पत्रकार मित्रों का क्या होगा?
कौन से जमाने की दुश्मनी निकली है, नासिर साहब आपने टीवी पत्रकारों से! (28052016)
सरकारी पीआर विषय पर पुस्तकों का अकाल है, लिखने वाले या तो शिक्षक हैं अथवा पत्रकार। दोनों को ही सरकारी पीआर का क, ख, ग नहीं पता। बाकी गूगल बाबा के दौर में हर कोई स्वनाम धन्य लेखक है। (23052016)
कांग्रेस की वेबसाइट पर 2002 के गुजरात दंगों का ज़िक्र तो है पर 1984 के सिख विरोधी दंगों और आपातकाल की कोई स्लाइड नहीं है। मजेदार है कि गुजरात में भी वर्ष 2002 से पहले हुए सांप्रदायिक दंगों का कोई उल्लेख नहीं है।
मानो तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का आपातकाल और सिख विरोधी दंगों से कोई संबंध ही नहीं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इन्दिरा गांधी के विरुद्ध निर्णय देने और आपातकाल का कारण बनने वाले न्यायधीश, उच्चतम न्यायालय में न्यायधीश नहीं बन पाएँ तो पंजाब में अकालियों को मात देने के चक्कर में पैदा हुए भस्मासुर भिंडरवाले ने अपने दावानल में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री को भी लपेट दिया।
स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास का एकतरफा विमर्श ही सब समस्याओं की जड़ है। आखिर गलतियों का सामना और स्वीकार से से ही भविष्य की संभावना का रास्ता खुलता है पर इतनी से बात कोई समझे तो न! (23052016)
सही कहें, ये बुद्धि से जीविका कमाने वाले एक और वीर पुरुष आशीष नंदी भी गुजरात के बारे में लिखकर अब अदालत में माफीनामा लिए पहुँच गए हैं।
इनसे अच्छे तो देह बेचने वाली हैं, कम से कम ईमान तो नहीं बेचती। इन बुद्धि की बलिहारी पुरुषों का क्या है, जब कमान में होते हैं तो नीचे वालों को पेट भर खाना क्या कपड़े भी पहनने से मोहताज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
जब खुद बेताज हो जाते हैं और अपनी रोटी कमानी पड़ती है तब सर्वहारा की बात करने लग जाते हैं।
हिन्दी पत्रकारिता में तो ऐसे कई राम रत्न हैं जो कंठी-माला, लाला की जपते हैं पर नाम मार्क्स का लेते हैं। (22052016)
केरल में बुजुर्ग कामरेड वी एस अच्युतानंदन को "वृद्ध निकाला"।
मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा को "आयु" के लाल सत्ता के मापदंड की नाम पर अस्वीकृत कर दिया गया।
अभी तक तो यही पता था कि सर्प अपने बच्चे की अंडों को भी नहीं छोड़ता पर
लाल क्रांति भी जीत के बाद सबसे पहले अपने ही वरिष्ठतम अनुयायी को शिकार बनाती है, आज देख भी लिया।
केंद्र में भाजपा सरकार के गठन में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मुरली मनोहर जोशी को मंत्रिमंडल में न लिए जाने के मामले में गला फाड़-फाड़ कर "रुदाली" बने लाल कलम वाले क्रांतिवीर अब मौन जड़वत हो जाएंगे मानो अहिल्या हो।
केरल में बुजुर्ग कामरेड वी एस अच्युतानंदन को "वृद्ध निकाला"।
मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा को "आयु" के लाल सत्ता के मापदंड की नाम पर अस्वीकृत कर दिया गया।
अभी तक तो यही पता था कि सर्प अपने बच्चे की अंडों को भी नहीं छोड़ता पर
लाल क्रांति भी जीत के बाद सबसे पहले अपने ही वरिष्ठतम अनुयायी को शिकार बनाती है, आज देख भी लिया।
केंद्र में भाजपा सरकार के गठन में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मुरली मनोहर जोशी को मंत्रिमंडल में न लिए जाने के मामले में गला फाड़-फाड़ कर "रुदाली" बने लाल कलम वाले क्रांतिवीर अब मौन जड़वत हो जाएंगे मानो अहिल्या हो।
अचानक खुशवंत सिंह के उपन्यास "दिल्ली" का एक कथन याद हो आया कि दोगलों से तो हिजड़ा भला! गौरतलब है कि इस उपन्यास में सरदारजी ने एक हिजड़े के माध्यम से दिल्ली-दिल्लीवालों के दोहरे चरित्र को उजागर किया है। (22052016)
कैसा प्रगतिशील समाज?
इस मामले (केरल में राजनीतिक विरोधियों की हत्या) को लेकर बात-बात में खुला पत्र लिखने वाले हिंदी के वीर साहित्यिक चारणों की चुप्पी सही में हैरतअंगेज़ है इस पर न कोई बोला और न ही किसी को कोई खतरा लगा, क्यों न हो आखिर मौन भी तो एक तरह की स्वीकृति ही है ।
लाख टके का सवाल है कि आखिर हम विचारों की अभिव्यक्ति, कला-साहित्य के प्रति सम्मान, और स्वतंत्रता किसी भी तरह की सम्भावना से रहित कैसा प्रगतिशील समाज गढ़ रहे है ?(22052016)
वैसे अचरज कि बात यह है कि जो जितना बड़ा मार्क्सवादी बुद्धिजीवी होने का दावा करता है, वह उतने ही बड़े पूंजीवादी घराने का कलम का सिपाही है। आखिर देह से बुद्धि तक जीविका का उपार्जन हैं तो पराश्रित ही।(22052016)
सही है, केरल में "मार्क्स" के वाद को नहीं मानने वालों की हत्या हो रही है तो बोर्ड परीक्षा में "मार्क" नहीं लाने वाले वाले आत्महत्या कर रहे हैं। कुल जमा मतलब यही है कि विचार और परीक्षा के नाम पर नाहक ही बेगुनाह मनुष्य बलिवेदी पर चढ़ाएँ जा रहे हैं।
मजेदार यह है कि सनसनीखेज टीआरपी की अंधी दौड़ वाले टीवी चैनलों ये दोनों ही घटनाएँ नहीं दिखती। (22052016)
साजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है....
मजेदार है कि खुद सिफ़ारिश से गद्दी हथियाने वाले परिवार के नाम पर गद्दी पर काबिज होने की खिलाफत कर रहे हैं।
इसे कहते हैं खुद गुड़ खाएं और दूसरों को गुलगुलों से परहेज बताएं।
(21052016)
यह कहाँ आ गए हम?
पहले सड़क पर एक कार चालक फिर ऑफिस में पत्रकार और अब खुद पुलिस वाला!
मौत मानो छाँट-छाँटकर चुन रही हो।
अब कहने वाले कहेंगे कि बिहार में हो रहा है सो सब ज्ञान बाँट रहे हैं क्या दिल्ली-हरियाणा या राजस्थान कोई अछूते हैं।
सोलह आने सही बात।
पर दिल्ली के मीडिया में बिहार के दबदबे को देखकर ऐसा क्यों लगता है कि अपने प्रदेश को लेकर बौद्धिक टीवी बाबा तक दब जाते हैं!
अब यह दबाब भीतर का है या बाहर का यह तो वही जाने।
अपना कंट्री छोड़कर बिदेस में रोज टीवी पर खबर ऊँटाने वाले और खबर गिराने वाले अपने देस के धरातल से रसातल की ओर जाते देख बस भीष्म की मजबूरी से भला क्यों निहार रहे हैं?
इस पर न कोई बड़ी बहस है और न कोई प्राइम टाइम!
मानो मागधों ने मान लिया है
"कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?"
(रामदास-रघुवीर सहाय) (14052016)
अन्य किसी मतालम्बियों में भी ऐसा होता हो या होने की संभावना होती हो तो ज्ञानवर्धन करें।
मैं तो बड़े ही भ्रम में हूँ!
सही में, भावना में व्यक्ति क्या से क्या कह जाता है?
जैसे माना जाता है कि यीशु ने सलीब पर चढ़ाते समय कहा था, "ईश्वर इन्हें क्षमा करना, यह नहीं जानते कि क्या कर रहे है।" (09052016)
"बिना खड़ग-बिना ढाल" के "आज़ादी" के गीत में कितने "क्रांतिकारी" फांसी के फंदे को चूमकर "भारत माता" के जैकारे के साथ झूल गए, इसका पता ही नहीं चलता!
अब इतिहास में देशभक्तों इस धारा के साथ सरस्वती नदी सरीखा व्यवहार यह अनजाने हुआ या जानबूझकर पता नहीं?
वैसे रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता 'समर शेष है' में लिखा है,
समर शेष है,
नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं,
समय लिखेगा उनका भी अपराध। (09052016)
कविता कोई खबर नहीं है कि टीवी पर मुंह उठाकर पढ़ दिया।
कविता को बाँचने से अधिक सली खुशी तो उस भाषा को जानने की होती है। (08052016)
बौद्धिक टीवी के बाबा दिल्ली में तो साइड लेने पर "असहिष्णुता" का राग आलाप रहे थे अब बिहार की गर्मी में सड़क पर साइड न देने पर आदमी को आम की तरह "टपकाने" पर गम के मारे गला रुद्ध गया है।
सही में गर्मी भी कमाल है!
एक इंसान से शैतान बनकर दूसरे आदमी को मार देता है मानो सड़क पर कोई आखेट चल रहा हो।
वही दूसरा सब कुछ कहने के नाम पर कुछ भी कहने से बचता है मानो टीवी पर खबर नहीं खेला (नाटक) चल रहा हो।
बिहार से याद आया कि उसी प्रदेश के रहने वाले और हिन्दी के बड़े कवि नागार्जुन ने इंग्लैंड की रानी के भारत आगमन पर लिखी कविता 'आओ रानी हम ढोएंगे पालकी हो' नामक एक कविता लिखी थी, जिसकी पंक्तियाँ थी,
"आओ रानी हम ढोएँगे तुम्हारी पालकी,
यही राय बनी है वीर जवाहरलाल की।"
वे आजादी के बाद एक ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के ज़माने से अपने समय तक भी अँग्रेजी साम्राज्यवाद की खुली आलोचना की।
यही कारण है कि नागार्जुन को हिन्दी की बजाए मैथिली पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था। वह बात अलग है कि नेहरू की काँग्रेस के राज में तब "असहिष्णुता" के राग का सिक्का मीडिया के बाज़ार में चला नहीं था। (08052016)
सुशासन की सड़क पर बहा खून!
सही में गर्मी भी कमाल है!
एक इंसान से शैतान बनकर दूसरे आदमी को मार देता है मानो सड़क पर कोई आखेट चल रहा हो।
वही दूसरा सब कुछ कहने के नाम पर कुछ भी कहने से बचता है मानो टीवी पर खबर नहीं खेला (नाटक) चल रहा हो।
बिहार से याद आया कि उसी प्रदेश के रहने वाले और हिन्दी के बड़े कवि नागार्जुन ने इंग्लैंड की रानी के भारत आगमन पर लिखी कविता 'आओ रानी हम ढोएंगे पालकी हो' नामक एक कविता लिखी थी, जिसकी पंक्तियाँ थी,
"आओ रानी हम ढोएँगे तुम्हारी पालकी,
यही राय बनी है वीर जवाहरलाल की।"
वे आजादी के बाद एक ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के ज़माने से अपने समय तक भी अँग्रेजी साम्राज्यवाद की खुली आलोचना की।
यही कारण है कि नागार्जुन को हिन्दी की बजाए मैथिली पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था। वह बात अलग है कि नेहरू की काँग्रेस के राज में तब "असहिष्णुता" के राग का सिक्का मीडिया के बाज़ार में चला नहीं था। (08052016)
सुशासन की सड़क पर बहा खून!
मगध में "रोडरेज़" जातिवादी वर्चस्व का पैमाना है और उसमें होने वाली निर्दोष नागरिक की 'हत्या' सुशासन की प्रगति का बैरोमीटर!
विडम्बना है कि सड़क के विकास में आदमी अविकसित ही रह गया।
इस पर रायसीना का प्रगतिशील मीडिया क्लब और आभासी दुनिया में दलित-वंचित समाज का ठेकेदार गैंग बुर्का पहने रहेगा क्योंकि बोलने से 'तलाक' मिल जाएंगा।
केरल से लेकर बिहार तक यही अंधी चुप्पी पसरी हुई है।
न केरल की दलित लड़की की तार-तार हुई अस्मिता दिखेगी और न उसकी हत्या का लाल लहू!
रायसीना का प्रगतिशील मीडिया क्लब में शामिल बिहारी भी बिहार के बारे में बुद्ध का बीच का मार्ग ही अपनाए रहता है।
राजस्थान की भंवरी देवी से दिल्ली की निर्भया पर सामाजिक न्याय की तूती बजने वाले नीरा राडिया के टेप में उजागर टीवी की महिला पत्रकार से लेकर कन्हैया की चरण-वंदना पर मुखर बोल लड़खड़ा जाते हैं।
लगता है कि रघुवीर सहाय ने आज के मगध की सड़क की सच को बहुत पहले जान लिया था। शायद इसीलिए उन्होने अपनी कविता "रामदास" में लिखा था,
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अंत समय आ गया पास था
उसे बता, यह दिया गया था, उसकी हत्या होगी
धीरे धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह, उस दिन उसकी हत्या होगी
खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर
दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे कदम रख कर के आए
लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको, जिसकी तय था हत्या होगी
निकल गली से तब हत्यारा
आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा
छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?
आज के बिहार में "सड़क और एक निर्दोष नागरिक" की स्थिति पर इस से सटीक टिप्पणी नहीं हो सकती। (08052016)
प्रगतिशील बिहारी पहेली या प्रश्न!
बिहार का ब्राह्मण और दलित के घर विवाह?
सही में, ऐसा मनमोहक स्वर्ण-मृग सरीखा सवाल (या जाल) कोई कुलीन ही कर सकता है। (05052016)
एक तस्वीर कितना कुछ कह देती है, अबोल रहकर भी।
अब पैर पड़ने और पैरों गिरने का फर्क समझ आया!
अनायास ही हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि की कविता याद आ गयी,
"छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन।" लाल सलाम वालों की "लाल किताब" में पैर छूना कहाँ लिखा है, किसी पढ़ाकू को पता हो तो ज्ञानवर्धन करें! (01052016)
एक जापानी तो दूसरा इतालवी शब्द।
एक सिनेमाई विमर्श था और अब दूसरा नए भारतीय राजनीतिक विमर्श का केंद्र! (28042016)
घर पर अपना नाम-नंबर, शादी के निमंत्रण पत्र-लिफाफे से लेकर हस्ताक्षर तक अँग्रेजी में डूबे 'हिन्दी समाज' का हिस्सा ही है, ग़ालिब और उनकी हवेली! सो, अचरज कैसा? (24042016)
"पनवाड़ी हो न"!
पत्रकारिता में सुपारी लेकर दूसरे को मारने का ठेका लेने वालों की निष्ठा हमेशा से संदिग्ध रही है, इसलिए वे संपादक बनकर नाचें या बिना संपादकी के उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सानू की?
लेकिन बौद्धिकता का दावा करने वालों से इतनी उम्मीद तो बनती है कि लिखा हुआ तो ठीक से पढ़ें!
उनसे इतना भी नहीं हो पाता.
सही में सुपारी लेने से कोई पनवाड़ी नहीं जाता!
भारत के पूर्व राष्ट्रपति ने ऐसे ही एक बड़का पत्रकार के निर्लज्ज सवाल पर कहा था, "पनवाड़ी हो न"! (24042016)
प्रभु तुम चन्दन हम पानी...
फ़ेसबुक पर कुछ बुद्धिजीवी अपने लिए नहीं आलोचकों के लिए लिखते हैं, जैसे देह से जीविका अर्जित करने वाली समाज के हित में अपना बलिदान करती है। कितने महान हैं ऐसे फ़ेस-बुखिया बुद्धिजीवी!
उनको कोटि- कोटि नमन। (24042016)
आज के समय में वैचारिक प्रतिबध्दता की वजह से किसी दूसरे के चयन पर सवाल खड़े करने वालों की अपनी ईमानदारी संदिग्ध है ! व्यक्ति से लेकर मीडिया तक इस हमाम में सब नंगे हैं। (15042016)
अपना देस छोड़कर परदेश में घरौंदा बनाने में 'बिहारी' सबसे आगे हैं! पंजाब से लेकर केरल इसके साक्षात उदाहरण है।
देस तो दर्द में ही छूटता है, खुशी से भला कौन अपना बसा-बसाया घर-द्वार छोड़ता है।
राजस्थान की भक्त कवि मीरा बाई का प्रसिद्ध भजन है, "मेरा दर्द न जाना कोय"। (13042016)
ऐसे दोहरी जिंदगी जीने वाले असली की पात्र मीडिया में भी कम नहीं।
छोटे पर्दे के काले सच की परछाई से एनडीटीवी भी अछूता नहीं।
बस जो उजागर हो जाए वही टीवी पर चर्चा का विषय बन जाता है, नहीं तो वेज बोर्ड की खबर तो "हम लोग" से लेकर "सुर्खियों में" कहीं भी जगह नहीं पाती है।
आज के मीडिया के महाभारत में एक नहीं, अनेक शिखंडी हैं। (01042016)
नाखुदा वालों को भी खुदा याद आया!
"छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन"। (01042016)
आधुनिक जीवन में परिवार और बच्चों के बीच की दूरी और उससे उपजा अकेलापन निराशा को जन्म देता है।
यह निराशा ही बच्चों को आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम की ओर धकेलती है।
आज के स्कूल प्रणाली में नंबरों की चूहा दौड़ में प्रत्यूषा हों या नौवीं में गणित के पर्चे में फ़ेल हुई बच्ची, दोनों की जिंदगी का त्रासद अंत का निचोड़ यही है।
मीडिया की नज़र नुक्ते से ही हटी है, सो दुर्घटना घटी है। (01042016)
पश्चिम बंगाल में लाल दौर में शुरू हुआ फ्लाईओवर बमुश्किल बना ही था कि तृणमूल के बोझ तले आज अधूरा ही गिर गया!
लाल क्रांति का उत्तर-काल सही में कलकत्ता पर भारी है।
असमय काल-कालवित सभी आत्माओं को श्र्द्धांजलि!
वैसे संस्कृत का एक पुराना श्लोक की स्मृति हो आई, "राजा कालस्य कारणम्"!
पूरा श्लोक है,
कालो वा कारणं राज्ञो, राजा वा काल कारणम् ।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम् ।
(काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का कारण है, इसमें संशय नहीं करना चाहिए, वस्तुतः राजा ही काल का कारण है, क्योंकि राजा की उत्तम प्रशासन से ही प्रजा और राज्य सुखी हो सकते हैं और राजा के कुशासन से सब ओर दुख ही दुख फैल जाता है।) (31032016)
(राजस्थानी में न्याल शब्द का अर्थ भरा-पूरा होता है) (31032016)
क्रिकेट में भारत की हार की कामना रखने वाले को "आशीष नंदी" कहते हैं!
फिर यह न कहना की यह भी राष्ट्रवादियों का प्रपंच है।
वैसे 'खेल भावना' का रुदाली गायन और वेस्ट इंडीज के इतिहास की महानता का बखान भी होगा सो निराश न हो।
वैसे ये वही हैं, जो छत्तीसगढ़ में माओवादी आतंक के शिकार सुरक्षाबलों के मातम में गूंगे हो जाते हैं। (31032016)
आनंदित करने वाली आस्था अंधविश्वास नहीं होती!
ध्यान से देखें, पाकिस्तान के गम में 'रुदाली' गान में शामिल लोग और मीडिया, क्या मुंबई धमाकों से लेकर संसद और पठानकोट हमले में पाकिस्तान समर्थित आतंक के शिकार तक बेकसूर भारतीयों के लहू बहने पर इतना ही गमहीन और मुखर था!
आखिर समय रहते इस 'शल्य ग्रंथि' का ईलाज जरूरी है, नहीं तो महाभारत में स्वजन के विरुद्ध हथियार उठाने की हिन्दू परंपरा तो जग-जाहिर है।(28032016)
दबाब में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला खिलाड़ी ही महान होता है।
पूरा मैच ही खत्म करते हैं, कोहली।
आज एक रोल मॉडल है, विराट कोहली।
ताकत से ज्यादा टाइमिंग का खेल है, (विराट) कोहली का।
दस मैच में वन मैन आर्मी की तरह खेले हैं, कोहली।
-वीवीएस लक्ष्मण, ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ विराट कोहली की बेहतरीन बल्लेबाजी पर (28032016)
वाम के नाम पर अपनी वामांगी को सत्ता पुरुष की अंकशायनी बनाने वाला अब विचार (या अपने व्याभिचार) की दुहाई दे रहा है।
सच में वाम के डीएनए में ही दोगलापन है।
हिन्दी साहित्य से लेकर हिन्दी पत्रकारिता के झंडाबदारों के सार्वजनिक आचरण से तो यही पता चलता है।
इन कुल-कलंकों के नाम तो वामी ही बात देंगे! (28032016)
कब आओगे?
'जाति' पूछने वाले मेरे टीवी के क़द्रदान, 'महजब' कब पूछोगे?
'हम लोग' कुछ 'बड़ी बहस' भी करेंगे?
90 के दशक में मदर टेरेसा गोल मार्केट (नयी दिल्ली) में हिन्दू दलितों को ईसाइयत में धर्मांतरित होने पर 'आरक्षण' से वंचित रहने के विरोध में धरने पर बैठी थी। यहाँ तक की कैथॉलिक बिशप चर्च ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) ने टेरेसा के 'समर्थन' में अपने सभी संचालित स्कूलों को भी बंद कर दिया था।
एक भारत में 'ज़्यादा प्यार' तो दूसरे को भारत माता के जय से 'इंकार' पर तीखी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।
दोनों में मामलों में समानता यह है कि दोनों 'मुसलमान' है और उनकी 'देशभक्ति' पर सवालिया निशान है।
टीआरपी के लिए अनुकूल जानकार तीखा मिर्च-मसाला लगाकर मीडिया ने भी इनके मामलों को पूरा तूल दे दिया है। (15032016)
स्त्री को दूसरे की दासी मानने वाले!
इस्लामिक स्टेट की बलात बंदी और यौन अत्याचार की शिकार यज़ीदी महिलाओं को "यौन दासी" (सेक्स स्लेव) बताना एकेश्वरवादी महजबों की स्त्री स्वातंत्र विरोधी (महिला को संपत्ति मानने की अवधारणा) मानसिकता का पर्याय है।
'न्यूयॉर्क टाइम्स' और 'बीबीसी' जैसे 'आधुनिक' पश्चिमी संचार साधन भी स्त्री के प्रति सोच में आईएस के समान ही नज़र आते हैं।
'न्यूयॉर्क टाइम्स' और 'बीबीसी' की यज़ीदी महिलाओं से संबंधित समाचार तो इसी सोच को उजागर करते हैं।
अचरज नहीं कि बाइबिल में स्त्री के उत्पन होने की अवधारणा को पढ़ने पर इस दृष्टि का ऐतिहासिक-पंथिक पक्ष स्वयं ही प्रकट होता है।(14032016)
प्रसिद्ध हिन्दी लेखक अमृत लाल नागर ने जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक "भारत एक खोज" की समीक्षा में लिखा था, "यह भारत एक खोज नहीं बल्कि नेहरू की भारत की खोज है।"(14032016)
प्रसिद्ध हिन्दी लेखक अमृत लाल नागर ने जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक "भारत एक खोज" की समीक्षा में लिखा था, "यह भारत एक खोज नहीं बल्कि नेहरू की भारत की खोज है।"(14032016)
No comments:
Post a Comment